श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 46 श्लोक 13-23
दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंशोऽध्यायः (46) (पूर्वार्ध)
चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलों से लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही कमलों के वन से शोभायमान थे और हंस, बत्तख आदि पक्षी वन में विहार का रहे थे ।
जब भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे अनुचर उद्धवजी व्रज में आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धवजी को गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आ गये हों । समय पर उत्तम अन्न का भोजन कराया और जब वे आराम से पलँग पर बैठ गये, सेवकों ने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी । तब नन्दबाबा ने पूछा—‘परम भाग्यवान् उद्धवजी! अब हमारे सखा वसुदेवजी जेल से छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशल से तो हैं न ? यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अपने पापों के फलस्वरूप पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। क्योंकि स्वभाव से ही धार्मिक परम साधु यदुवंशियों से वह सदा द्वेष करता था । अच्छा उद्धवजी! श्रीकृष्ण कभी हम लोगों की भी याद करते हैं ? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हीं को अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाला यह व्रज है; उन्हीं की गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं ?
आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुह्रद्-बान्धवों को देखने के लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या ? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवन से युक्त मुखकमल देख तो लेते । उद्धवजी! श्रीकृष्ण का ह्रदय उदार है, उनकी शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानल से, आँधी-पानी से, वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मृत्यु के निमित्तों से—जिन्हें टालने का कोई उपाय न था—एक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है । उद्धवजी! हम श्रीकृष्ण के विचित्र चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मधुर भाषण आदि का स्मरण करते रहते हैं और उसमें इतने तन्मय रहते हैं कि अब हमसे कोई काम-काज नहीं हो पाता । जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीड़ा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने एक हाथ पर उठा लिया था; ये वे ही वन के प्रदेश हैं, जहाँ श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओं के साथ अनेकों प्रकार के खेल-खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिन्ह अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो जाता है । इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को देवशिरोमणि मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओं का कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करने के लिये यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान गर्गाचार्यजी ने मुझसे ऐसा ही कहा था ।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-