श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 17-20
दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः(87) (उत्तरार्ध)
भगवन्! प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञा का पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार की धौंकनी में हवा का आना-जाना। महतत्व, अहंकार आदि ने आपके अनुग्रह से—आपके उनमें प्रवेश करने पर ही इस ब्रम्हाण्ड की सृष्टि की है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—इन पाँचों केशों में पुरुष रूप से रहने वाले, उनमें ‘मैं-मैं’ की स्फूर्ति करने वाले भी आप ही हैं! आपके ही अस्तित्व से उन कोशों के अस्तित्व का अनुभव होता है और उनके न रहने पर भी अन्तिम अवधिरूप से आप विराजमान रहते हैं। इन प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होने पर भी आप असंग ही हैं। क्योंकि वास्तव में जो कुछ वृत्तियों के द्वारा अस्ति अथवा नास्ति के रूप में अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणों से आप परे हैं। ‘नेति-नेति’ के द्वारा इन सबका निषेध हो जाने पर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेध के भी साक्षी हैं और वास्तव में आप ही एकमात्र सत्य हैं (इसलिये आपके भजन के बिना जीव का जीवन व्यर्थ ही है, क्योंकि वह इस महान् सत्य से वंचित है)[1]। ऋषियों ने आपको प्राप्ति के लिये अनेकों मार्ग माने हैं। उनमें जो स्थल दृष्टिवाले हैं, वे मणिपूरक चक्र में अग्निरूप से आपकी उपासना करते हैं। अरुणवंश के ऋषि समस्त नाड़ियों के निकलने के स्थान ह्रदय में आपके परम सूक्ष्मस्वरुप दहर ब्रम्ह की उपासना करते हैं। प्रभो! ह्रदय से ही आपको प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्ना नाड़ी ब्रम्हरन्ध्र तक गयी हुई है। जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपर की ओर बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता[2] ।भगवन्! आपने ही देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि योनियाँ बनायी हैं। सदा-सर्वत्र सब रूपों में आप हैं ही, इसलिए करणरूप से प्रवेश न करने पर बी आप ऐसी जान पड़ते हैं, मानो उसमें प्रविष्ट हुए हों। साथ ही विभिन्न आकृतियों का अनुकरण करके कहीं उत्तम, तो कहीं अधमरूप से प्रतीत होते हैं, जैसे आग छोटी-बड़ी लकड़ियों और कर्मों के अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिमाण में या उत्तम-अधमरूप में प्रतीत होती है। इसलिए संत पुरुष लौकिक-पारलौकिक कर्मों की दूकानदारी से, उनके फलों से विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल बुद्धि से सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्मा को पहचानकर जगत् के झूठे रूपों में नहीं फँसते; आपके सर्वत्र एकरस, समभाव से स्थित सत्यस्वरुप का साक्षात्कार करते हैं[3]। प्रभो! जीव जिन शरीरों में रहता है, वे उसके कर्म के द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तव में उन शरीरों के कार्य-कारणरूप आवरणों से वह रहित है, क्योंकि वस्तुतः उन आवरणों की सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियों को धारण करने वाले आपका ही वह स्वरुप है। स्वरुप होने के कारण अंश न होने पर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होने पर भी निर्मित कहते हैं। इसी से बुद्धिमान पुरुष जीव के वास्तविक स्वरुप पर विचार करके परम विश्वास के साथ आपके चरणकमलों की उपासना करते हैं। क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मों के समर्पण स्थान और मोक्षस्वरुप है[4]।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नरहरे! मनुष्य-शरीर प्राप्त करके यदि जीव आपके श्रवण, वर्णन और संस्मरण आदि के द्वारा आपका भजन नहीं करते तो जीवों का श्वास लेना धौंकनी के समान ही सर्वथा व्यर्थ है ।। ४ ।।
- ↑ मनुष्य ऋषि-मुनियों के द्वारा बतलायी हुई पद्धतियों से उदर आदि स्थानों में जिनका चिन्तन करते हैं और जो प्रभु उनके चिन्तन करने पर मृत्यु-भय का नाश कर देते हैं, उन ह्रदयदेश में विराजमान प्रभु की हम उपासना करते हैं ।। ५ ।।
- ↑ अपने द्वारा निर्मित सम्पूर्ण कार्यों में जो न्यूनाधिक श्रेष्ठ-कनिष्ठ के भाव रहित एवं सब में भरपूर हैं, इस रूप में अनुभव में आने वाली निर्विशेष सत्ता के रूप में स्थित हैं, उन भगवान् का हम भजन करते हैं ।। ६ ।।
- ↑ मेरे परमानन्दस्वरुप स्वामी! मैं आपका अंश हूँ। अपने चरणों की सेवा का आदेश देकर अपनी माया के द्वारा निर्मित मेरे बन्धन को निवृत्त कर दो ।। ७ ।।
संबंधित लेख
-