श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 1-11
एकादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)
माया, माया से पार होने के उपाय तथा ब्रम्ह और कर्मयोग का निरूपण
राजा निमि ने पूछा—भगवन् सर्वशक्तिमान् परम कारण विष्णु भगवान की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है।) अतः अब मैं उस माया का स्वरुप जानना चाहता हूँ, आप लोग कृपा करके बतलाइये ।
योगीश्वरों! मैं एक मृत्यु का शिकार मनुष्य हूँ। संसार के तरह-तरह के तापों ने मुझे बहुत दिनों से तपा रखा है। आप लोग जो भगवत्कथारूप अमृत का पान करा रहे हैं, वह उन तापों को मिटने की एकमात्र ओषधि है; इसलिए मैं आप लोगों की इस वाणी का सेवन करते-करते तृप्त नहीं होता। आप कृपया और कहिये ।
अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्षजी ने कहा—राजन्! (भगवान की माया स्वरुपतः अनिर्वचीय है, इसलिये उसके कार्यों के द्वारा ही उसका निरूपण होता है।) आदि-पुरुष परमात्मा जिस शक्ति से सम्पूर्ण भूतों के कारण बनते हैं और उनके विषय-भोग तथा मोक्ष की सिद्धि के लिये अथवा अपने उपासकों की उत्कृष्ट सिद्धि के लिये स्वनिर्मित पंचभूतों के द्वारा नाना प्रकार के देव, मनुष्य आदि शरीरों की सृष्टि करते हैं, उसी को माया कहते हैं ।
इस प्रकार पंचमहाभूतों के द्वारा बने हुए प्राणि-शरीरों में उन्होंने अन्तर्यामी रूप से प्रवेश किया और अपने को ही पहले मन के रूप में और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय—इन दस रूपों में विभक्त कर दिया तथा उन्हीं के द्वारा विषयों का भोग कराने लगे ।
वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और इस पंचभूतों के द्वारा निर्मित शरीर को आत्मा—अपना स्वरुप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है। (यह भगवान की माया है) ।
अब वह कर्मेन्द्रियों से सकाम कर्म करता है और उनके अनुसार शुभ कर्म का फल सुख और अशुभ कर्म का फल दुःख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसार में भटकने लगता है। यह भगवान की माया है ।
इस प्रकार यह जीव ऐसी अनेक अमंगलमय कर्मगतियों को, उसने फलों को प्राप्त होता है और महाभूतों के प्रलयपर्यन्त विवश होकर जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म को प्राप्त होता रहता है—यह भगवान की माया है ।
जब पंचभूतों के प्रलय का समय आता है, तब अनादि और अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुण रूप इस समस्त व्यक्त सृष्टि को अव्यक्त की ओर, उसके मूल कारण की ओर खींचता है—यह भगवान की माया है । उस समय पृथ्वी पर लगातार सौ वर्ष तक भयंकर सूखा पड़ता है, वर्षा बिलकुल नहीं होती; प्रलयकाल की शक्ति से सूर्य की उष्णता और भी बढ़ जाती है तथा वे तीनों लोकों को तपाने लगते हैं—यह भगवान की माया है । उस समय शेषनाग—सकर्षण के मुँह से आग की प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायु की प्रेरणा से वे लपटें पाताल लोक से जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं—यह भगवान की माया है । इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्तक मेघगण हाथी की सूंड के समान मोटी-मोटी धाराओं से सौ वर्ष तक बरसता रहता है। उससे यह विराट् ब्रम्हाण्ड जल में डूब जाता है—यह भगवान की माया है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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