श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 1-12
एकादश स्कन्ध :अष्टदशोऽध्यायः (18)
वानप्रस्थ और संन्यासी के धर्म
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहे, तो अपनी पत्नी को पुत्रों के साथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे । उसे वन के पवित्र कन्द-मूल और फलों से ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये; वस्त्र की जगह वृक्षों की छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछाला से ही काम निकल ले । केश, रोएँ, नख और मूँछ-दाढ़ी रुप शरीर के मल को हटावे नहीं। दातुन न करे। जल में घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरती पर ही पड़ रहे । ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि तपे, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर वर्षा की बौछर सहे। जाड़े के दिनों में गले तक जल में डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे । कन्द-मूलों को केवल आग में भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदि के द्वारा ही काम चला ले। उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखली में या सिलपर कूट ले, अन्यथा दाँतों से ही चबा-चबाकर खा ले । वानप्रस्थाश्रमी को चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं—इन बातों को जानकर अपने जीवन-निर्वाह के लिये स्वयं ही सब प्रकार के कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाये हुए अथवा दूसरे समय के संचित पदार्थों को अपने काम में न लें[1]। नीवार आदि जंगली अन्न से ही चरु-पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हीं से समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जाने पर वेदविहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे । वेदवेत्ताओं ने वानप्रस्थी के लिये अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदि का वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थों के लिये है । इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते मांस सूख जाने के कारण वानप्रस्थी की एक-एक नस दीखने लगती है। वह इस तपस्या के द्वारा मेरी आरधना करके पहले तो ऋषियों के लोक में जाता है और वहाँ से फिर मेरे पास आ जाता है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरुप है । प्रिय उद्धव! जो पुरुष बड़े कष्ट से किये हुए और मोक्ष देने वाले इस महान् तपस्या को स्वर्ग, ब्रम्हलोक आदि छोटे-मोटे फलों की प्राप्ति के लिये करता है, उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा ? इसलिये तपस्या का अनुष्ठान निष्काम भाव से ही करना चाहिये । प्यारे उद्धव! वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोंचित नयमों का पालन करने में असमर्थ हो जाय, बुढ़ापे के कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब यज्ञाग्नियों को भावना के द्वारा अपने अन्तःकरण में आरोपित कर ले और अपना मन मुझमें लगाकर अग्नि में प्रवेश कर जाय। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं हैं) । यदि उसकी समझ में यह बात आ जाय कि काम्य कर्मों से उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरकों के समान ही दुःखपूर्ण हैं और मन में लोक-परलोक से पूरा वैराग्य हो जाय तो विधिपूर्वक यज्ञाग्नियों का परित्याग करके संन्यास ले ले ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अर्थात मुनि इस बात को जानकर कि अमुक पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये और कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं, स्वयं ही नवीन-नवीन कन्द-मूल-फल आदि का संचय करे। देश-कालादि से अनभिज्ञ अन्य जनों के लाये हुए अथवा कालान्तर में संचय किये हुए पदार्थों के सेवन से व्याधि आदि के कारण तपस्या में विघ्न होने की आशंका है।
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