श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 54-55

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:17, 6 अगस्त 2015 का अवतरण (1 अवतरण)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

एकादश स्कन्ध : सप्तदशोऽध्यायः (17)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तदशोऽध्यायः श्लोक 54-55 का हिन्दी अनुवाद


॥ गृहस्थ को चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घर-गृहस्थी में फँसे नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्त भाव से रहे मनो कोई अतिथि निवास कर रहे। जो शरीर आदि में अहंकार और घर आदि में ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थी के फंदे बाँध नहीं सकते । भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मों के द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घर में ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रम में चला जाय या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-