भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-35

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12. वृक्षच्छेद

5. यस्मिन्निदं प्रोतमशेषमोतं
पटो यता तंतु-वितान-संस्थः।
य ऐष संसारतरुः पुराणः
कर्मात्मकः पुष्पफले प्रसूते।।
अर्थः
जिस तरह वस्त्र ताना-बाना रूप तंतुओं से ही बना रहता है, उसी तरह यह अखिल विश्व इसी जीवनरूप में- जीवन-तत्व में, परमात्मा में- ओत-प्रोत है। यह जो पुरातन संसार-तरू है, वह कर्ममय है और इसे ( इह-परलोकों के भोगरूप ) फूल और फल लगते हैं।
 
6. द्वे अस्य बीजे शत-मूलस् त्रि-नालः
पंच-स्कंधः पंच-रस-प्रसूतिः।
दशैक-शाखो द्वि-सुपर्ण-नीड्स
त्रि-वल्कलो द्वि-फलोऽर्कं प्रविष्टः।।
अर्थः
पाप और पुण्य इस वृक्ष के दो बीज हैं। उसे वासनारूप सैकड़ों जड़ें हैं। सत्व, रज, तम ये तीन पोर हैं। पंचमहाभूत प्रमुख पाँच स्कंध ( मोटी डालें ) हैं, जिनमें से शब्द, रस आदि पाँच विषय चूते हैं। दस इंद्रियाँ और मन- ये उसकी ग्यारह शाखाएं हैं। उस पर जीव और शिवरूप दो पक्षी घोंसले बनाकर रहते हैं। वात, पित्त और कफ ये इस वृक्ष की तीन छालें हैं और सुख एवं दुःख दो फल हैं। यह ( विशाल वृक्ष ) सूर्यमंडल तक फैला हुआ है।
 
7. अदन्ति चैकं फलमस्य गृध्रा
ग्रामेचरा, ऐकमरण्यवासाः।
हंसा, य ऐकं बहुरूपमिज्यैर्
माया-मयं वेद स वेद वेदम्।।
अर्थः
गाँवों में रहने वाले ( विषय-पाशों से बद्ध होकर कामना से पीड़ित ) ये गृहस्थ गीध जैसे हैं। वे इस वृक्ष का दुःखरूप एक फल भोगते हैं। किंतु जो अरण्यवासी ( परमहंस, विषयों से विरक्त ) इस वृक्ष पर स्थित राजहंस की तरह हैं, वे सुखरूप दूसरे फल का उपभोग करते हैं। ( वास्तव में देखा जाए तो ) यह संसार-वृक्ष नानारूप, केवल, अद्वितीय और मायामय है- इस तरह जो अपने पूज्य सद्गुरु से जान लेता है, वेद उसकी समझ में आ गया।
 
8. ऐवं गुरूपासनयैकभक्त्या
विद्या-कुठारेण शितेन धीरः।
विवृश्च्य जीवाशयमप्रमत्तः
संपद्य चात्मानमथ त्यजास्त्रम्।।
अर्थः

इस तरह गुरु की उपासना एकाग्र भक्ति और आत्मविद्यारूप तीक्ष्ण कुल्हाड़ी की मदद से जीव के सूक्ष्मशरीरूप वृक्ष का गर्भ काट दो और सावधानी के साथ- इंद्रिय-विजयपूर्वक-आत्मस्वरूप को प्राप्त करके उसे अस्त्र को भी त्याग दो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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