भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-50

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19. ज्ञान-वैराग्य-भक्ति

 
5. ऐतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्।
स्थित्युत्पत्तयप्ययान् पश्येद् भावनां त्रिगुणात्मनाम।।
अर्थः
जिस एक ज्ञान से ‘विश्व जैसा दीखता है, वैसा नहीं है’, यह समझ में आता है, वही सच्चा ‘विज्ञान’ है। उत्पत्ति, स्थिति और नाश- ये त्रिगुणात्मक पदार्थों को होते हैं, यह विज्ञान से समझ में आ जाता है।
6. आदौ अंते च मध्ये च सृज्यात् सृज्यं यदन्वियात्।
पुनस् तत्प्रतिसंक्रामे यत् शिष्येत तदेव सत्।।
अर्थः
जो तत्व पहले सृज्य ( निर्माण करने योग्य ) वस्तु को उत्पन्न करता है, बीच में इस सृज्य में बसता है और अंत में सृज्य का लय हो जाने पर जो शेष रहता है, वही सत्-ब्रह्म है, ( ‘सृज्यात्’ यह क्रिया- पद वेद में होता है, वैसा यहाँ भी है )।
 
7. श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यं अनुमानं चुतुष्टयम्।
प्रमाणेष्वनवस्थानाद् विकल्पात् स विरज्यते।।
अर्थः
श्रुति-वचन, प्रत्यक्ष, ऐतिहासिक और अनुमान- ये चार प्रमाण हैं। इन चारों प्रमाणों में विकल्प ( अनेकत्व यानी मिथ्याप्रपंच ) कहीं भी नहीं टिकता, इसलिए विवेकी पुरुष इस विकल्प से विरक्त होता है।
 
8. कर्मणां परिणामित्वात् आविरिंचादमंगलम्।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येत् अदृष्टमपि दृष्टवत्।।
अर्थः
ज्ञानी पुरुष यह जान लें कि ब्रह्मलोक तक की अदृष्ट सृष्टि भी दृष्ट यानी दिखाई देनेवाली सृष्टि की तरह ही नश्वर और दुःखदायी है। कारण, वे लोक बी कर्म के परिणाम स्वरूप मिलने वाले हैं- प्राप्त होते हैं।
9. भक्ति-योगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणस्य तेऽनघ।
पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परम्।।
अर्थः
हे निष्पाप उद्धव! तुम्हारे समाधान के लिए मैंने पहले ही भक्ति योग बता दिया है। फिर भी अपनी भक्ति का श्रेष्ठ साधन पुनः बताता हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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