भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-152

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भागवत धर्म मिमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

 
(28.10) पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्रं, अज्ञानमात्मन्यविविक्तमंग !
निवर्तते तत् पुनरीक्षयैव, न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा ।।[1]

ज्ञानी एकदम ज्ञानी नहीं हुआ, अज्ञानी ही ज्ञानी बना। अज्ञानावस्था में उसके गुण-कर्म-चित्र पकड़ा था – गुणकर्मचित्रं गृहीतं (ज्ञानात्) पूर्वम। ज्ञान से पहले उसने वह चित्र सत्य मानकर पकड़ा था। लेकिन उस समय वह अज्ञानी था अविविक्त था। अविवेक के कारण आत्मा से अज्ञान चिपका हुआ था – अज्ञानम् आत्मनि अविविक्तम् अंग! अंग सम्बोधन है। उसका अर्थ है ‘अरे-अरे’। तो प्रथम ज्ञानी की आत्मा में अज्ञान चिपका हुआ था, अब वह निवृत्त हो गया। उसने फिर से चिन्तन किया, निरीक्षण किया – पुनरीक्षया, तो वह चित्र चला गया। वह पकड़ा गया, तब तो चित्र था। अब पुनः ईक्षा की – पुनः चिन्तन किया, तो वह चित्र चला गया! आत्मा की स्थिति क्या है? न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा – आत्मा न पकड़ा, न छोड़ा जाता है। जिसे पकड़ या छोड़ सकेंगे, वह ‘नाना’ होगा। आत्मत्व को हम पकड़ नहीं सकते और न फेंक ही सकते हैं। वह तो स्वयं आप ही हैं। क्या आप अपने ही कंधे पर बैठ सकते हैं? पकड़ना या छोड़ना खुद नहीं, अपने से अलग को ही लागू होता है और जिसे लागू होता है, वह ‘नाना’ है। कहते हैं ‘आत्मज्ञान प्राप्त करना है।’ पर क्या ‘आत्मज्ञान’ भी कोई चीज है? आत्मज्ञान यानी आत्मा को पकड़ना। आत्मा तो अपने स्थान पर ही है, उसे क्या पकडेंगे और क्या छोड़ेंगे? असल में जो छोड़ना था, उसी को पकड़ रखा है। उसे छोड़ दें, तो आत्मज्ञान है ही। आत्मज्ञान ‘पॉजिटिव’ (विधायक) नहीं, ‘निगेटिव’ (निषेधक) चीज है। ‘अनात्म’ को जो पकड़ रखा है, उसी को छोड़ना है। आत्मा को पकड़ना है और न छोड़ना।

 (28.11) यथा हि भानोरुदयो नृ-चक्षुषां, तमो निहन्यान्न तु सद् विधते ।
एवं समीक्षा निपुणा सती मे, हन्यात् तमिस्रं पुरुषस्य बुद्धेः ।।[2]

हमने देखा कि ज्ञानी केवल इच्छा से निवृत्त होता है। उसे कुछ भी करना नहीं पड़ता। निवृत्त होने के लिए कुछ कार्यक्रम भी नहीं करना पड़ता। अँधेरा फैला हुआ है, उसे दूर करना हो तो क्या करना पड़ेगा? केवल इच्छा यानी निरीक्षण से वह दूर होता है। हमने यह भी देखा कि आत्मा न पकड़ा जाता है, न उसका विसर्जन हो सकता है। यही बात इसमें उदाहरण से स्पष्ट की गयी है। भानोः उदयः – सूर्योदय हुआ। सूर्य क्या करता है? मनुष्य की आँखों के सामने जो अँधेरा है, उसे दूर करता है – नृ-चक्षुषां तमो निहन्यात्। लेकिन न तु सद् विधत्ते – वह सत् यानी विश्व को नहीं बनाता। विश्व तो पहले से है ही। वह विश्व-रचना नहीं करता। इतना ही काम करता है कि आपकी आँखें और विश्व के बीच जो अँधेरा था, उसे हटा देता है। विश्व तो पहले से ही था, उसे सूर्यनारायण ने प्रकट मात्र किया। हम ग्राम-निर्माण की बातें करते हैं। लेकिन बाबा कहता है : ‘सूर्य क्या करता है? अँधेरा ही हटाता है। वह कोई निर्माण-कार्य नहीं करता। बाबा भी लोगों के दिलों का अँधेरा हटाने का काम करता है और उसी में उसका काम खतम हो जाता है। विश्व बनाने का काम सूर्यनारायण का नहीं।’ भगवान् कह रहे हैं : एवं समीक्षा निपुणा सती मे – इस तरह जब मेरी समीक्षा निपुणा बनेगी, यानी मेरे बारे में ठीक से समीक्षा होगी, तब मनुष्य की बुद्धि का अँधेरा दूर होगा। यहाँ ‘मेरी समीक्षा’ का अर्थ है, ब्रह्मविद्या। ब्रह्मविद्या जब निपुणा होगी, तब सामने का अँधेरा दूर होकर आत्मतत्व प्रकट हो जायेगा। कारण, आत्मा तो है ही। उसे कुछ नया बनाना नहीं है। तमिस्रं यानी अज्ञान दूर हो जाने पर तो ज्ञान है ही। अज्ञान के कारण ही आत्म-तत्व प्रकट नहीं होता, इतनी ही बात है। इसीलिए कहा कि मेरी समीक्षा निपुणा बनेगी, तब आत्मा का दर्शन होगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.28.33
  2. 10.28.34

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