भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-30
जो एक पिता के रूप में है, जिसने उसे अस्तित्व प्रदान किया है। आत्मा का महत्वपूर्ण अस्तित्व दिव्य बुद्धि से उत्पन्न होता है और जीवन में उसकी अभिव्यक्ति उस भगवान् के दर्शन द्वारा होती है, जो भगवान् उसका पिता और उसका सदा विद्यमान साथी है। इसकी विशिष्टता उस दिव्य आदर्श और उन इन्द्रियों तथा मन के उस पूर्वापर-सम्बन्ध द्वारा निर्धारित होती है, जिन्हें यह अपने पास खींच लेती है। सार्वभौम एक सीमित मनोमय-प्राणमय-अन्नमय कोष में साकार हुआ है।[1] कोई भी व्यक्ति ठीक अपने साथी जैसा नहीं है। कोई भी जीवन किसी दूसरे जीवन की पुनरावृत्ति नहीं है, फिर भी सब व्यक्ति ठीक एक ही नमूने पर बने हैं। जीव का सार, मानव-व्यक्तित्व को अन्य सबसे पृथक् करने वाली विशेषता, एक ख़ास सृजनशील एकता है, एक आन्तरिक सोद्देश्यता, एक योजना, जिसने अपने-आप को क्रमशः एक सावयव एकता के रूप में साकार किया है। जैसा हमारा उद्देश्य होता है, वैसा हमारा जीवन होता है।
व्यक्ति जो भी रूप धारण करता है, वह अवश्य ही अधिलंघित हो जाता है, क्योंकि वह सदा अपने-आप से ऊपर उठने का यत्न करता है; और यह प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी, जब तक कि अस्तित्व मानता अपने उद्देश्य सत् तक न पहुँच जाए। जीव परमात्मा के अस्तित्व में होने वाली गतियां हैं, जो व्यक्ति-रूप धारण कर चुकी हैं। जब जीव अनात्म और उसके रूपों के साथ एक मिथ्या एकात्मकता में फंस जाता है, तब वह बन्धन में पड़ जाता है; पर जब उचित ज्ञान के विकास द्वारा वह आत्म और अनात्म की सच्ची प्रकृति को हृदयंगाम कर लेता है और अनात्म द्वारा उत्पन्न किए गये उपकरणों को आत्म द्वारा पूर्णतया प्रकाशित होने देता है, तब वह स्वतन्त्र हो जाता है। यह प्राप्ति बुद्धि या विज्ञान के यथोचित कार्य करते रहने द्वारा ही सम्भव है।
मनुष्य के सम्मुख जो समस्या है, वह है—उसके व्यक्तित्व के संघटन की, एक ऐसे दिव्य अस्तित्व के विकास की, जिसमें कि आत्मिक मूल तत्व आत्मा और शरीर की सब शक्तियों का स्वामी हो। यह संघटित जीवन आत्मा द्वारा रचा जाता है। शरीर और आत्मा के मध्य अन्तर, जो मनुष्य को प्रकृति के जीवन से जोड़े रखता है, अन्तिम नहीं है। वह अन्तर उस आमूलवादी अर्थ में विद्यमान नहीं है, जिसमें कि डैस्कार्टीज़ ने उसे बताया है। आत्मा का जीवन शरीर के जीवन मे ठीक उसी प्रकार रमा रहता है, जैसे शारीरिक जीवन का प्रभाव आत्मा पर रहता है। मनुष्य में आत्मा और शरीर की एक सप्राण एकता है। वास्तविक द्वैत आत्मा और प्रकृति के बीच है। स्वतन्त्रता और परवशता के बीच संघटित व्यक्तित्व, में हम देखते हैं कि प्रकृति पर आत्मा की, परवशता पर स्वतन्त्रता की विजय होती है। गीता, जो इन दोनों को भगवान् के दो पहलुओं के रूप में देखती है, कि हम प्रकृति को आत्मिक बना सकते हैं और उसमें एक अन्य गुण का आधान कर सकते हैं। हमें प्रकृति को कुचलने या उसका विनाश करने की आवश्यता नहीं है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 13, 21
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