गोकर्ण

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प्राचीन काल में तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित एक ग्राम में आत्मदेव नामक एक विद्वान् और धनवान् ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम धुन्धुली था। ब्राह्मण दम्पति संतानहीन थे। एक दिन वह ब्राह्मण संतानचिन्ता में निमग्न होकर घर से निकल पड़ा और वन में जाकर एक तालाब के किनारे बैठ गया। वहाँ उसे एक संन्यासी महात्मा के दर्शन हुए। ब्राह्मण ने उनसे अपनी संतानहीनता का दु:ख बताकर संतान प्राप्ति का उपाय पूछा। महात्मा ने कहा- 'ब्राह्मणदेव! संतान से कोई सुखी नहीं होता है। तुम्हारे प्रारब्ध में संततियोग नहीं है। तुम्हें भगवान के भजन में मन लगाना चाहिये।' ब्राह्मण बोला- 'महाराज! मुझे आपका ज्ञान नहीं चाहिये। मुझे संतान दीजिये, अन्यथा मैं अभी आपके सामने अपने प्राणों का त्याग कर दूँगा।' ब्राह्मण का हठ देखकर महात्माजी ने उसे एक फल दिया और कहा-'तुम इसे अपनी पत्नी को खिला दो। इसके प्रभाव से तुम्हें पुत्रप्राप्ति होगी।' आत्मदेव ने वह फल ले जाकर अपनी पत्नी को दे दिया, किंतु उसकी पत्नी दुष्टस्वभाव की कलहकारिणी स्त्री थी। उसने गर्भधारण एवं प्रसवकष्ट का स्मरण करके फल को अपनी गाय को खिला दिया और पहले से गर्भवती अपनी छोटी बहन से प्रसव के बाद संतान को अपने लिये देने का वचन ले लिया। समय आने पर धुन्धुली की बहन को एक पुत्र हुआ और उसने अपने पुत्र को धुन्धुली को दे दिया। उस पुत्र का नाम धुन्धुकारी रखा गया।

तीन मास के बाद गाय को भी एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके शरीर के सभी अंग मनुष्य के थे, केवल कान गाय के जैसा था। ब्राह्मण ने उस बालक का नाम गोकर्ण रखा। गोकर्ण थोड़े ही समय में परम विद्वान और ज्ञानी हो गये। धुन्धुकारी दुश्चरित्र, चोर और वेश्यागामी निकला। आत्मदेव उससे दु:खी होकर और गोकर्ण से उपदेश प्राप्त करके वन में चले गये और वहीं भगवान का भजन करते हुए परलोक सिधारे। गोकर्ण भी तीर्थ यात्रा के लिये चले गये। धुन्धुकारी ने अपने पिता की सम्पत्ति नष्ट कर दी। उसकी माता ने कुएँ में गिरकर अपना प्राण त्याग दिया। उसके बाद धुन्धुकारी ने निरंकुश होकर पाँच वेश्याओं को अपने घर में रख लिया। एक दिन वेश्याओं ने उसे भी मार डाला। धुन्धुकारी अपने दूषित आचरण के कारण प्रेतयोनि को प्राप्त हुआ।

धुन्धुकारी का उद्धार

गोकर्ण तीर्थ यात्रा करके लौट आये। वे जब रात में घर में सोने गये, तब प्रेत बना हुआ धुन्धुकारी उनके संनिकट आया। उसने बड़े ही दीन शब्दों में अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त गोकर्ण से कह सुनाया और प्रेतयोनि की भीषण यातना से छूटने का उपाय पूछा। भगवान सूर्य की सलाह पर गोकर्ण ने धुन्धुकारी को प्रेतयोनि से मुक्त करने के लिये श्रीमद्भागवत की सप्ताह-कथा प्रारम्भ की। श्रीमद्भागवतकथा का समाचार सुनकर आस-पास के गाँवों के लोग भी कथा सुनने के लिये एकत्र हो गये। जब व्यास के आसन पर बैठकर गोकर्ण ने कथा कहनी प्रारम्भ की, तब धुन्धुकारी भी प्रेतरूप में सात गाँठों के एक बाँस के छिद्र में बैठकर कथा सुनने लगा। सात दिनों की कथा में क्रमश: उस बाँस की सातों गाठें फट गयीं और धुन्धुकारी प्रेतयोनि से मुक्त होकर भगवान के धाम को चला गया। श्रावण के महीने में गोकर्ण ने एक बार फिर उसी प्रकार श्रीमद्भागवत की कथा कही और उसके प्रभाव से कथा-समाप्ति के दिन वे अपने श्रोताओं के सहित भगवान विष्णु के परमधाम को पधारे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ