ग़ालिब की पेंशन
मिर्ज़ा तो बच गए पर इनके भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ इतने भाग्यशाली न थे। पहले ही ज़िक्र किया जा चुका है कि वह 30 साल की आयु में ही विक्षिप्त (पागल) हो गए थे और ग़ालिब के मकान से दूर, फर्राशख़ाने[1] के क़रीब, एक दूसरे मकान में अलग रहते थे। जितनी पेंशन ग़ालिब को सरकारी ख़ज़ाने से मिलती थी, उतनी ही मिर्ज़ा यूसुफ़ के लिए भी नियत थी। उनकी बीवी, बच्चे भी साथ-साथ रहते थे, पर दिल्ली पर अंग्रेज़ों का फिर से अधिकार हुआ तो गोरों ने चुन-चुनकर बदला लेना शुरू किया। इस बेइज़्ज़ती और अत्याचार से बचने के लिए यूसुफ़ की बीवी बच्चों सहित इन्हें अकेले छोड़कर जयपुर चली गई थीं। घर पर इनके पास एक बूढ़ी नौकरानी और एक बूढ़ा दरवान रह गए। मिर्ज़ा को भी सूचना मिली, किन्तु बेबसी के कारण वह कुछ न कर सके। 30 सितम्बर को जब ग़ालिब को अपना दरवाज़ा बन्द किए हुए पन्द्रह-सोलह दिन हो रहे थे, उन्हें सूचना मिली की सैनिक मिर्ज़ा यूसुफ़ के घर आये और सब कुछ ले गए, लेकिन उन्हें और बूढ़े नौकरों को ज़िन्दा छोड़ गए।[2] इस समय शहर की हालत भयानक थी। 2-4 आदमियों को मिलकर, किसी लाश को दफ़न करने के लिए क़ब्रिस्तान तक ले जाना सम्भव न था। कफ़न के लिए कपड़े भी न मिलते थे। ख़ैर साथियों ने मदद की। मिर्ज़ा का एक नौकर और पटियाला का एक सिपाही उनके साथ गए। कफ़न के लिए दो-तीन सफ़ेद चादरें मिर्ज़ा ने अपने पास से दीं। इन लोगों ने गली के सिरे पर तहव्वरख़ाँ की मस्जिद की[3] सेहन में गड्डा खोदा और शव को उसमें उतारकर मिट्टी डाल दी।
असीम कष्टों की घटाएँ
इस समय मिर्ज़ा ग़ालिब की हालत बहुत ही दयनीय थी। आमदनी के सब रास्ते बन्द थे, जान बचाने की फ़िक्र, भाई की मौत। एक आतंक सब पर छाया हुआ था। ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी। जो जीवित थे, मरे हुओं से बदतर थे। किसी की भी सुरक्षा नहीं थी। गोरे जिसकी इज़्ज़त-आबरू चाहते ले लेते थे, जिसे चाहते मार देते, उन पर प्रतिहिंसा का भूत सवार था। हकीम महमूद ख़ाँ पटियाला महाराज से सम्बन्ध होने के कारण ग़ालिब का मुहल्ला कुछ सुरक्षित था। बहुत-से लोगों ने भागकर हकीम साहब के यहाँ शरण ली थी। 2 फ़रवरी, 1858 को हाकिम शहर चंद सिपाहियों के साथ ग़ालिब के मुहल्ले में आया और हकीम महमूद ख़ाँ को साठ आदमियों सहित पकड़ ले गया। हकीम साहब एवं उनके कुछ साथी तीन दिन बाद कुछ लोग एक हफ़्ते के बाद रिहा कर दिए गए। हकीम साहब छूटकर घर में नहीं बैठे। हर एक के लिए दौड़े और बेगुनाही के सुबूत दिए। जिससे एप्रिल तक बाक़ी लोग भी रिहा कर दिए गए। मतलब यह कि ग़दर क्या आया, मिर्ज़ा का जीवनाकाश काली घटाओं से घिर गया। घर में जो कुछ भी था, वह ख़त्म हो गया। यार-दोस्त सब गिरफ़्तार और दूर हो गए। आमदनी के सब रास्ते बन्द थे। क़िले की तनख़्वाह भी पहले ही बन्द हो चुकी थी, क्योंकि वहाँ तो देशी फ़ौज का डेरा था। इतना ही बहुत था कि उन लोगों इनको सताया नहीं, अन्यथा अंग्रेज़ों का ‘वज़ीफ़ाख़ार’ कहकर मौत के घाट उतार देते तो उन्हें कौन रोकने वाला था? अंग्रेज़ों की तरफ़ से जो ख़ानदानी पेंशन मिलती थी, वह भी बन्द हो गई थी, क्योंकि दिल्ली पर देशी फ़ौज का क़ब्ज़ा था। अंग्रेज़ दफ़्तर ही कहाँ रह गया था। इस कष्ट के समय नवाब ज़ियाउद्दीन अहमद ने मिर्ज़ा की बीवी उमराव बेगम को पचास रुपये माहवार नियत कर दिया। यह प्रकारान्तर से मिर्ज़ा की ही मदद थी। बेगम को यह वज़ीफ़ा उनकी मृत्यु तक मिलता रहा।
रामपुर से सम्बन्ध
ग़दर से थोड़े ही अरसे पहले मिर्ज़ा का दरबार रामपुर से सम्बन्ध हो गया था। थोड़ा-बहुत सम्बन्ध तो पहले से ही था, क्योंकि जब बचपन में नवाब मुहम्मद यूसुफ़अली ख़ाँ शिक्षा के लिए दिल्ली आए तो उन्होंने ग़ालिब से फ़ारसी पढ़ी थी। पर बाद में यह सिलसिला टूट गया था। जब 1855 ई. में वह गद्दी पर बैठे तो मिर्ज़ा ने क़िता[4] लिखकर भेजा, लेकिन परिणाम कुछ न निकला।[5] नवाब ने ध्यान नहीं दिया। बाद में जब ग़ालिब के हितैषी और मित्र मोहम्मद फ़ज़लहक ख़ेराबादी रामपुर में थे, उन्होंने मिर्ज़ा को तैयार किया कि वह नवाब के पास क़सीदा[6] भेजें। मिर्ज़ा ने क़सीदा भेजा। मोहम्मद फ़ज़लहक ने भी सिफ़ारिश की। इसके उत्तर में नवाब ने 5 फ़रवरी, 1857 को एक ख़त में चंद शेर इस्लाह के लिए मिर्ज़ा के पास भेजे[7]। तब से मिर्ज़ा का दरबार रामपुर से नियमित सम्बन्ध हो गया। जान पड़ता है कि नवाब साहब ने इस प्रारम्भिक कलाम में युसूफ़ तख़ल्लुस किया था, पर मिर्ज़ा के सुझाव पर ‘नाज़िम’ पसन्द किया। पर इनकी कोई मासिक वृत्ति नहीं बँधी थी। वैसे नवाब बीच-बीच में रुपये भेजते रहते थे। पहिले ही पत्र के साथ ढाई सौ भेजे थे।
पेंशन की चिन्ता
यह सम्बन्ध हुए थोड़ ही दिन हुए थे कि ग़दर में सब व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। आँधी आई और चली गई तब इन्हें पेंशन की चिन्ता हुई। ग़ालिब का ख़्याल था कि शान्ति स्थापित होते ही मेरी पेंशन बहाल हो जायगी। जब न हुई तो वही चापलूसी वाला ढंग इख़्तियार किया। महारानी विक्टोरिया तथा उच्चाधिकारियों की प्रशंसा में क़सीदे लिखकर दिल्ली के अधिकारियों की मार्फ़त भेजे, किन्तु 17 मार्च, 1857 को कमिश्नर दिल्ली ने यह लिखकर उन्हें वापस भेज दिया कि इनमें कोरी प्रशंसा एवं स्तुति के सिवा कुछ नहीं है। जब इसके कुछ मास बाद अक्टूबर में दस्तंबू छपी तो मिर्ज़ा ने जिल्द लगवाकर 2 विलायत और 4 प्रतियाँ हिन्दुस्तान में उच्चाधिकारियों को भेंट कीं। संचालक शिक्षा विभाग पश्चिमोत्तर प्रदेश ने बड़ी प्रशंसा की और मिस्टर मैकलियाड फिनांशल कमिश्नर ने ख़ुद लिखकर कमिश्नर दिल्ली की मार्फ़त यह किताब मिर्ज़ा से मंगवाई। यह सब तो हुआ, पर अधिकारियों का दिल इनकी ओर से साफ़ न हुआ। जनवरी 1860 में मेरठ में बड़ा दरबार हुआ। अन्य दरबारी बुलाए गए पर मिर्ज़ा को नहीं बुलाया गया। फिर जब गवर्नर-जनरल का कैम्प मेरठ से दिल्ली आया और मिर्ज़ा ने चीफ़ सेक्रेटरी के ख़ीमे में मुलाक़ात के लिए अपना टिकट भिजवाया तो वहाँ से जवाब मिला कि ग़दर के दिनों में तुम बाग़ियों से रब्त-ज़ब्त रखते थे।[8] अब गवर्नमेण्ट से क्यों मिलना चाहते हो। लॉर्ड कैनिंग की तारीफ़ में जो क़सीदा लिखा था वह भी वापिस कर दिया गया कि अब ये चीज़ें हमारे पास न भेजा करो।[9]
निराशाजनक स्थिति
इस समय इनकी हालत बहुत ख़राब थी। यहाँ तक की घर के कपड़े-लत्ते बेचकर दिन कट रहे थे। इन निराशाजनक स्थिति में लाचार होकर इन्होंने दिल्ली से बाहर चले जाने का निर्णय किया। नवाब अमीनुद्दीन अहमदख़ाँ तथा ज़ियाउद्दीन अहमदख़ाँ एवं उनकी माँ बेगम जान साहबा ने इस शर्त पर इनके प्रस्ताव को स्वीकार किया कि उमराव बेगम और बच्चे लोहारू चले जाएँ। इस निर्णय की सूचना नवाब अलाउद्दीन अहमदख़ाँ को, जो उस समय लोहारू में थे, देते हुए लिखते हैं-
"अपना मक़सूद[10] तुम्हारे वालिद[11] माजिद[12] से कह चुका हूँ। खुलासा यह है कि मेरी बीवी और बच्चों को, कि तुम्हारी क़ौम के हैं, मुझसे ले लो कि मैं इस बोझ का मोतहमिल हो नहीं सकता। मेरा क़स्द[13] सियाहत[14] का है। पेंशन अगर खुल जाएगा तो वह अपने सर्फ़ में लाया करूँगा। जहाँ जी लगा वहाँ रह गया। जहाँ से दिल उजड़ा चल दिया।"
निराशा में बीवी बच्चे बोझ मालूम होते थे और सब मुसीबतें उन्हीं की वजह से आती मालूम पड़ती थीं और इच्छा भी होती थी कि अकेले-
‘रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो’[15]
ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज़्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना और अन्त:पुर अलग-अलग हों और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें।
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खैर तय यह हुआ कि बीवी बच्चे लोहारू जाएँ और यह पटियाला जाकर रहें। इस बीच इन्होंने महाराज अलवर एवं पटियाला की तारीफ़ में क़सीदे लिखे और मदद चाही। पटियाला के प्रतिष्ठित नागरिक महमूदख़ाँ के यह पड़ोसी थे। दस वर्ष से एक जगह रह रहे थे। हकीम महमूदख़ाँ के दो भाई हकीम मुर्त्तज़ाख़ाँ और हकीम ग़ुलाम अल्लाख़ाँ पटियाला नरेश महाराज नरेन्द्रसिंह की सेवा में थे। उनकी इच्छा भी थी कि ग़ालिब कुछ दिन वहाँ जाकर रहें। पर जब क़सीदे के जवाब में कोई अनुकूल उत्तर न मिला तब इन्होंने वहाँ जाने का विचार त्याग दिया।
रामपुर से मासिक वृत्ति
इधर से निराश होकर ग़ालिब ने नवाब रामपुर से दर्ख़ास्त की कि मेरा कोई नियमित वज़ीफ़ा तय कर दिया जाए। नवाब ने 16 जुलाई, 1859 को उत्तर दिया कि आपको 100 रुपया मासिक वेतन पहुँचता रहेगा।[16] नवाब रामपुर (यूसुफ़ अलीख़ाँ) ने मिर्ज़ा को कई बार रामपुर निमंत्रित किया। दिल्ली पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा होते ही इन्होंने रामपुर आने का आश्वासन दिया था, पर इन्हें सरकारी पेंशन की उम्मीद अब भी लगी थी। इसीलिए दिल्ली छोड़ते न बनते थी। नवाब रामपुर ने दूसरी बार 25 नवम्बर, 1858 को बुलवाया, तो इन्होंने जवाब दिया, ‘मेरे हाज़िर होने को जी इरशाद होता है, मैं वहाँ न आऊँगा तो कहाँ जाऊँगा। पेंशन के वसूल का ज़माना क़रीब आया है। उसे मुल्तवी छोड़कर क्यों चला आऊँ? सुना जाता है और यक़ीन भी आता है कि आग़ाज साल 59 ईस्वी यह क़िस्सा अंज़ाम पाये। जिसको रुपया मिलना है उसको रुपया, जिसको जवाब मिलना है, उसको जवाब मिल जाये।’[17]
कैसी दृढ़ आशा एवं निष्ठा थी, इस आदमी को अंग्रेज़ों की न्यायप्रियता में। पर निराश तो होना ही था। 1860 के शुरू में जब गवर्नर-जनरल ने इनसे मुलाक़ात करने से इन्कार कर दिया, तब इनकी नींद टूटी और जब अन्तिम उत्तर मिल गया, तब इनकी आँखें खुलीं। इस बीच दिसम्बर 1859 में पुन: नवाब रामपुर इन्हें निमंत्रित कर चुके थे। इसीलिए अंग्रेज़ों से निराश होकर 19 जनवरी, 1860 को यह रामपुर के लिए रवाना हुए और 27 जनवरी को वहाँ पहुँच गए।[18]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वह मकान जिसमें फ़र्श वग़ैरह रखे जाते हैं
- ↑ ग़ालिब के एक निकट सम्बन्धी मिर्ज़ा मुईनउद्दीन ने लिखा है कि यूसुफ़ गोली की आवाज़ सुनकर, यह देखने के लिए कि क्या हो रहा है, घर से बाहर आये और मारे गए।–ग़दर की सुबह-शाम, पृष्ठ 88
- ↑ मालिक राम साहब लिखते हैं-फर्राशख़ाने से बावली की तरफ़ जायें तो यह मस्जिद ‘नया बाँस’ के पास उल्टे हाथ को पड़ती है। इसके निर्माणकर्ता तहव्वरख़ाँ ताश्कन्दी मुहम्मदशाह के राज्य काल में शाहजहाँपुर के ज़मींदार थे। वर्तमान मस्जिद नई बनी है। अब इसकी कुर्सी ऊँची है और सेहन के नीचे बाज़ार में दुकानें हैं।
- ↑ फ़ारसी और उर्दू पद्य का एक प्रकार जिसमें ग़ज़ल के समान काफ़िया अनिवार्य होता है और जिसमें कोई एक ही बात कही जाती है।
- ↑ मकातीबे ग़ालिब पृष्ठ 3
- ↑ फ़ारसी आदि में कविता का एक प्रकार जिसमें किसी बड़े व्यक्ति की प्रशंसा की जाती है।
- ↑ मकातीबे ग़ालिब पृष्ठ 120
- ↑ ग़दर में इनका सम्बन्ध बहादुरशाह से छूटा न था। आगरा के अख़बार आफ़ताब आलिमताब में छपा था कि 12 जुलाई, 1857 को मिर्ज़ा नौशा (ग़ालिब) ने बहादुरशाह की तारीफ़ में क़सीदा पढ़ा था। श्रीमालिकराम ने इसे 18 जुलाई लिखा है।
- ↑ ग़ालिबनामा 145-46
- ↑ आशा, मंशा, इच्छा
- ↑ पिता, पितृ, जनक
- ↑ बुर्ज़ुग
- ↑ संकल्प, इरादा
- ↑ पर्यटन, यात्रा
- ↑ ज़िक्रे ग़ालिब, पृष्ठ 101
- ↑ मकातीबे ग़ालिब, 82, उर्दू-ए-मोअल्ला 120
- ↑ मकातीबे ग़ालिब, पृष्ठ 12
- ↑ उर्दूए-मोअल्ला, पृष्ठ 170
बाहरी कड़ियाँ
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