स्वस्तिक का अर्थ

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भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही स्वस्तिक को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। यूँ तो बहुत-से लोग इसे हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिह्न ही मानते हैं, किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है।

'स्वस्तिक' शब्द

सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है। यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। संस्कृत व्याकरण के अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ सत्ता 'या' अस्तित्व और 'क' का अर्थ है कर्ता या करने वाला। इस प्रकार स्वस्तिक शब्द का अर्थ हुआ अच्छा या मंगल करने वाला। इसलिए देवता का तेज़ शुभ करने वाला - स्वस्तिक करने वाला है और उसकी गति सिद्ध चिह्न 'स्वस्तिक' कहा गया है। स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण। कल्याण शब्द का उपयोग तमाम सवालों के एक जवाब के रूप में किया जाता है। शायद इसलिए भी यह निशान मानव जीवन में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृत में सु-अस धातु से स्वस्तिक शब्द बनता है। सु अर्थात् सुन्दर, श्रेयस्कर, अस् अर्थात् उपस्थिति, अस्तित्व। जिसमें सौन्दर्य एवं श्रेयस का समावेश हो, वह स्वस्तिक है।

सामान्य अर्थ

स्वस्तिक का सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वस्तिक शब्द मूलभूत सु+अस धातु से बना हुआ है। सु का अर्थ है अच्छा, कल्याणकारी, मंगलमय और अस का अर्थ है अस्तित्व, सत्ता अर्थात कल्याण की सत्ता और उसका प्रतीक है स्वस्तिक। यह पूर्णतः कल्याणकारी भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिह्न ही स्वस्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है। अमरकोश में स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है, अर्थात सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो। इस प्रकार स्वस्तिक में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना निहित है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परंपरा थी, लेकिन आम आदमी के लिए मंगलाचरण लिखना सम्भव नहीं था, इसलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिह्न की परिकल्पना की, ताकि सभी के कार्य सानन्द सम्पन्न हों।[1]

स्वस्तिक में अतिगूढ़ अर्थ एवं निगूढ़ रहस्य छिपा है। गणपति के गं बीजाक्षर का चिन्ह भी स्वस्ति जैसा प्रतीत होता है। इसके रूप एवं समूचे मंत्र का स्वरूप स्वस्तिक का आकार ग्रहण करता है। प्राचीन तथा अर्वाचीन मान्यता के अनुसार यह सूर्यमंडल के चारों ओर चार विद्युत केंद्र के समान लगता है। इसकी पूरब दिशा में वृद्धश्रवा इंद्र, दक्षिण में वृहस्पति इंद्र, पश्चिम में पूषा-विश्वदेव इंद्र तथा उत्तर दिशा में अरिष्टनेमि इंद्र अवस्थित हैं। 'वाल्मीकि रामायण' में भी स्वस्तिक का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार साँप के फन के ऊपर स्थित नीली रेखा भी स्वस्तिक का पर्याय है। नादब्रह्म से अक्षर तथा वर्णमाला बनी, मातृका की उत्पत्ति हुई, नाद से ही पश्यंती, मध्यमा तथा वैखरी वाणियाँ उत्पन्न हुईं। तदुपरांत उनके भी स्थूल तथा सूक्ष्म, दो भाग बने। इस प्रकार नाद सृष्टि के छः रूप हो गए। इन्हीं छः रूपों में पंक्तियों में स्वस्तिक का रहस्य छिपा है। अतः स्वस्तिक को समूचे नादब्रह्म तथा सृष्टि का प्रतीक एवं पर्याय माना जा सकता है।



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