गोविंद शास्त्री दुगवेकर
गोविंद शास्त्री दुगवेकर
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पूरा नाम | गोविंद शास्त्री दुगवेकर |
जन्म | 1881 ई. |
जन्म भूमि | सागर, मध्य प्रदेश |
मृत्यु | 26 जून, 1961 ई. |
मृत्यु स्थान | जबलपुर, मध्य प्रदेश |
कर्म-क्षेत्र | नाटककार, लेखन, काव्य |
मुख्य रचनाएँ | 'सुभद्राहण','हर-हर महादेव' |
विषय | संस्कृत, हिन्दी और मराठी |
भाषा | ब्रजभाषा, खड़ीबोली |
विशेष योगदान | हिन्दी भाषा और साहित्य के अनन्य सेवक तथा बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न कृतिकार थे। |
नागरिकता | भारतीय |
संबंधित लेख | आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पण्डित माधव शुक्ल जी |
अन्य जानकारी | दुगवेकर जी ग्रंथकार के रूप में भारत धर्म महामण्डल द्वारा प्रस्तुत धर्म सम्बन्धी विभिन्न ग्रंथों के प्रणसन में शास्त्री जी का विशेष योग था। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
गोविंद शास्त्री दुगवेकर (जन्म-1881 ई. सागर, मध्य प्रदेश; मृत्यु- 26 जून, 1961 ई., जबलपुर, मध्य प्रदेश) हिन्दी भाषा और साहित्य के अनन्य सेवक तथा बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न कृतिकार थे। 'भारतेंदु नाटक मण्डली' के रूप में शास्त्र शुद्ध हिन्दी-रंगमंच की सर्वप्रथम स्थापना में गोविंद शास्त्री जी का प्रमुख हाथ था। गोविंद सन 1901 ई. के आस-पास काशी चले आये थे और जीवन के शेष 60 वर्षों में अधिकांशत: काशी में ही रहकर साहित्य साधना की। ये ब्रजभाषा तथा खड़ीबोली में बड़ी ही उत्कृष्ट कविता करते थे। बाल-साहित्य के अभाव की पूर्ति के लिए गोविंद शास्त्री ने चित्र-कथा के रूप में बहुत सी कहानियाँ भी लिखी हैं।
परिचय
गोविंद शास्त्री दुगवेकर का जन्म सन 1881 ई. को सागर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। शास्त्री जी संस्कृत, हिन्दी और मराठी के प्रकाण्ड विद्वान थे। गोविंद शास्त्री हिन्दी भाषा और साहित्य के अनन्य सेवक तथा बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न कृतिकार थे। शास्त्री जी कुशल लेखक, समर्थ अनुवादक, प्रवीण पत्रकार, रससिद्ध कवि, सिद्धहस्त नाटककार तथा सफल अभिनेता थे। इनके नाटकों और अभिनयों के महत्त्व की चर्चा करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में यह अभिमत प्रकट किया है- "गद्य साहित्य के प्रसार के द्वितीय उत्थान नाटक की गति बहुत मन्द रही। प्रयाग में पण्डित माधव शुक्ल जी और काशी में पण्डित दुगवेकर जी अपनी रचनाओं और अनूठे अभिनयों द्वारा बहुत दिनों तक दृश्य-काव्य की रूचि जगाये रहे।"
नाटकों की विशेषता
दुगवेकर जी ने पौर्वात्य और प्राश्चात्यं नाट्य-शास्त्र एवं नाट्य-साहित्य का गहन अध्ययन किया था। 'भारतेंदु नाटक मण्डली' के रूप में शास्त्र शुद्ध हिन्दी-रंगमंच की सर्वप्रथम स्थापना में गोविंद शास्त्री जी का प्रमुख हाथ था। उनके नाटकों में 'सुभद्राहण' और 'हर-हर महादेव' बहुत ही प्रसिद्ध हैं और अनेक बार विभिन्न नाट्य संस्थाओं द्वारा अभिनीत भी हो चुके हैं। 'कालधर्म' नामक अधूरा नाटक अप्रकाशित हैं। महाकवि कालिदास 'मालविकाग्नित्र' नाटक का गद्य-पद्यमय हिन्दी में अनुवाद बहुत ही उत्कृष्ट अनुवादों में गिना जाता है। इसके पद्य भाग का अनुवाद ब्रजभाषा मौलिक रूप से किया गया है। दुगवेकर जी के नाट्यगुरू कालीप्रसन्न चटर्जी, प्रोफेसर उनवाल और बंगीय नाट्य सम्राट गिरीशचन्द्र घोष थे।
साहित्य साधना
गोविंद शास्त्री सन 1901 ई. के आस-पास काशी चले आये थे और जीवन के शेष 60 वर्षों में अधिकांशत: काशी में ही रहकर साहित्य साधना की। पत्रकार के रूप में शास्त्री जी ने भारतधर्म महामण्डल से प्रकाशित मराठी पत्रिका का और हिन्दी 'आर्य महिला' का बहुत दिनों तक सम्पादन किया था। इसके अतिरिक्त 'हिन्दी पंच', 'अरूणोदय' तथा 'गृहस्थ मासिक' के भी सम्पादन रहे। आप बहुत उच्चकोटि का हास्य-व्यंग्य भी लिखते थे। 'गृहस्य मासिक' में प्रकाशित 'झब्बू शाही' लेखमाला के अंतर्गत अपने बड़े विनोदपूर्ण ढंग से महंतों और मठाधीशों के कार्यकलापों का उद्घाटन किया था।
कहानियाँ लेखन
ये ब्रजभाषा तथा खड़ीबोली में बड़ी ही उत्कृष्ट कविता करते थे। बाल-साहित्य के अभाव की पूर्ति के लिए गोविंद शास्त्री ने चित्र-कथा के रूप में बहुत सी कहानियाँ भी लिखी हैं।
राष्ट्रभाषा प्रेमी
दुगवेकर जी ग्रंथकार के रूप में भारत धर्म महामण्डल द्वारा प्रस्तुत धर्म सम्बन्धी विभिन्न ग्रंथों के प्रणसन में का विशेष योग था। आप हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में विविध विषयों पर सामयिक और सुरूचिपूर्ण अनूठे लेख बराबर लिखा करते थे। शास्त्री ने तंत्र शास्त्र, फलित ज्योतिष और संगीत शास्त्र का भी विशेष अध्ययन किया था। जीवन के 60 वर्षों तक इन्होंने हिन्दी की अनन्य भाव से सेवा की तथा उसे राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने के लिए भी प्रयत्नरणीय रहे।
निधन
गोविंद शास्त्री दुगवेकर का निधन 26 जून, 1961 ई. को जबलपुर, मध्य प्रदेश में हुआ था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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