संत सिंगाजी
संत सिंगाजी
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पूरा नाम | संत सिंगा जी |
जन्म | 1519 |
जन्म भूमि | खजूरी गाँव |
मृत्यु | जीवित समाधि |
मृत्यु स्थान | नर्मदा नदी |
संतान | पुत्र- 4 |
कर्म-क्षेत्र | भारत |
विषय | भक्ति |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | संत सिंगा जी साक्षर नहीं थे। परंतु भक्ति के आवेश में जो पद बना कर गाते थे, उन्हें उनके अनुयायियों ने लिपिबद्ध कर लिया। ऐसे पदों की संख्या 800 बताई जाती है। |
अद्यतन | 03:21, 7 जनवरी-2017 (IST) |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
संत सिंगा जी (अंग्रेज़ी: Sant Singa, जन्म- 1519 , खजूरी गाँव) भारत में मध्य प्रदेश के नीमार के मशहूर संत थे। उन्हें पशु रक्षक देव के रूप में पूजा जाता है। इन्होंने कुछ वर्ष डाक-वाहक की नौकरी भी की थी। सिंगा जी ने जीवित समाधि लेकर अपने प्राण त्याग दिए थे।[1]
जन्म एवं परिचय
मालवा के प्रसिद्ध संत सिंगा जी का जन्म 1519 ई. में पिपलिया नामक कस्बे के निकट खजूरी गाँव में एक ग्वाला परिवार में हुआ था। इनके जन्मस्थान (खजूरी ग्राम) का नामकरण उन्हीं के नाम पर किया गया है। सिंगा जी मध्य प्रदेश में खांडवा से 28 मील उत्तर पूर्व मे हरसूद तहसील का एक छोटा गाँव है। हरसूद का निर्माण हर्षवर्धन द्वारा किया गया था। इसी गाँव में सिंगा जी एक सामान्य गोपाल या अहीर परिवार में जन्मे थे। वे बचपन से ही एकांत स्वभाव के थे। जब वन में जानवरों को चराने जाते तो वहाँ प्रकृति के बीच रमे रहते थे। सिंगा जी का विवाह हुआ, चार पुत्र भी पैदा हुए, परंतु उनका मन घर-गृहस्थी में नहीं लगता था।
नौकरी
16वीं शताब्दी में सिंगा जी की प्रतिभा से प्रेरित होकर गाँव के जमींदार ने उन्हें अपना सरदार नियुक्त कर दिया। सिंगा जी ने बारह वर्ष जमींदार की सेवा की तथा अपनी आध्यात्मिक करामाती शक्तियों से जमींदार के लिए कई लड़ाइयों में विजय भी प्राप्त की। सिंगा जी के पिता ने एक राजा के यहाँ उन्हें एक रुपया प्रतिमास वेतन पर डाक-वाहक की नौकरी दिला दी।
गृहस्थ जीवन का त्याग
इस बीच सिंगा जी के साथ एक घटना घटी। सिंगा जी घोड़े पर बैठकर डाक ले जा रहे थे। तभी उनके कानों में किसी महात्मा के द्वारा गाए जा रहे ये शब्द पड़े- "समुझि लेवो रे भाई, अंत न होय कोई आपणा।" सिंगा जी पर इसकी तत्काल प्रतिक्रिया हुई। वे भजन गा रहे महात्मा मन रंगगीर के पास गए और उनसे अपना शिष्य बना लेने का अनुरोध किया। महात्मा ने कहा- तुम गृहस्थ हो, अपने धर्म का पालन करो। साधना-मार्ग बहुत कठिन है। फिर भी तुम इसे अपनाना ही चाहते हो तो पहले माया-मोह का त्याग करो। सिंगा जी ने नौकरी छोड़ने का निश्चय किया, वेतन बढ़ाने का राजा का प्रलोभन भी उन्हें न रोक सका। अंत में सिंगा जी ने सन 1558 ई. में गुरु से दीक्षा ले ली।
संत जीवन
संत सिंगा जी को 16वीं या 17वीं शताब्दी के काल का माना जाता है। कहा जाता है की सिंगा जी एक कवि व करामाती संत थे। वे साक्षर नहीं थे। परंतु भक्ति के आवेश में जो पद बना कर गाते थे, उन्हें उनके अनुयायियों ने लिपिबद्ध कर लिया। ऐसे पदों की संख्या 800 बताई जाती है। संत सिंगा जी ने समाज के दलित और उपेक्षित वर्ग को ऊपर उठाने के लिए बहुत काम किया। माखनलाल चतुर्वेदी ने उन्हें नर्मदा की तरह अमर प्राणवर्धक और युग की सीमा-रेखा बनाने वाला संत कहा। उसे क्षेत्र की जन जातियाँ आज भी अपना आराध्य मानती हैं और उनके समाधि-स्थल पर प्रतिवर्ष बड़ा मेला लगता है।
निधन
मान्यता है कि गुरु मुख से क्रोध में निकली बात को मानकर सिंगा जी ने दीक्षा लेने के एक वर्ष के भीतर ही जीवित समाधि लेकर अपने प्राण दे दिए थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 918 |
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