चंद्रगुप्त विद्यालंकार

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चंद्रगुप्त विद्यालंकार
पूरा नाम चंद्रगुप्त विद्यालंकार
जन्म 1906 ई.
जन्म भूमि मुजफ्फरगढ़ (अब पाकिस्तान)
मृत्यु 1982 ई.
मुख्य रचनाएँ 'न्याय की रात', 'देव और मानव'
भाषा हिन्दी
प्रसिद्धि लेखक, साहित्यकार
विशेष योगदान चंद्रगुप्त जी ने सामाजिक तथा राजनैतिक समस्याओं को अपने साहित्य में उतारा था।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी चन्द्रगुप्त की कहानी और नाटकों दोनों में ही वातावरण के अनुकूल भाषा का अपने प्रयोग किया है। कहीं-कहीं नाटकों में गुप्तजी की निरी साहित्यिक भाषा खटकती है, लेकिन ऐसे स्थान बहुत कम हैं।

चंद्रगुप्त विद्यालंकार (जन्म- 1906 ई. मुजफ्फरगढ़ (अब पाकिस्तान); मृत्यु- 1982 ई.) हिन्दी के प्रसिद्ध यथार्थवादी रचनाकार थे। चंद्रगुप्त जी ने सामाजिक तथा राजनैतिक समस्याओं को अपने साहित्य में उतारा था। चन्द्रगुप्त की कहानी और नाटकों दोनों में ही वातावरण के अनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं नाटकों में गुप्तजी की निरी साहित्यिक भाषा खटकती है, लेकिन ऐसे स्थान बहुत कम हैं। गुप्त जी के इन नाटकों में कोमलता और पूर्वनिश्चित उद्देश्यों की पुष्ठि की बात अधिक सिद्ध होती है।

परिचय

चंद्रगुप्त विद्यालंकार का जन्म 1906 ई. मुजफ्फरगढ़ जिले (अब पाकिस्तान) में हुआ। पिछले तीस वर्षों से आप हिन्दी में पत्रकारिता से लेकर कहानी, नाटक और निबन्ध आदि लिखते रहे हैं। विशेष रूप से गुप्तजी की कहानियाँ और उसके बाद एकांकी नाटकों का हिन्दी साहित्य में विशेष स्थान है।

लेखन शैली

चंद्रगुप्त जी की कहानियों में हमें शिल्प की प्रौढ़ता अधिक मिलती है। शिल्प के प्रति अधिक जागरूक रहने के कारण कभी-कभी कहानियों का मानवीय पक्ष छूट जाता है। पाश्चात्य शिल्प की सम्पूर्ण मार्मिकता को चन्द्रगुप्त जी बड़ी सफलता से अपनी कहानियों में प्रस्तुत करते हैं। ऐसा लगता है जैसे सौमरसेट मॉम की कहानियों का शिल्प और चन्द्रगुप्त विद्यालंकार की कहानियों का शिल्प समान स्तर पर व्यवहृत होता है। मॉम की कहानियों की तरह इनकी कहानियों में भी हमें उनकी शिल्पगत विशेषता अधिक प्रभावित करती है, कहानी कम। शिल्प की प्रौढ़ता के अतिरिक्त जिस रोमानी वातावरण का चित्रण चन्द्रगुप्त जी करते हैं, उसमें पूर्व निश्चित योजना की झलक मिल जाती है। मानव नियति के मुक्त और स्वच्छन्द अस्तित्व की अपेक्षा उनकी यह शैलीगत मान्यता उनके पात्रों को पालतू सा बना देती है। चन्द्रगुप्त के एकांकी नाटक भी एकांकी शिल्प का सफल परिचय देते हैं। इनके नाटकों में मानवीय संवेदनाओं की अतिनाटकीयता होती है और यथार्थ का खिंचा हुआ रूप देखने को मिलता है, लेकिन एकांकी के शिल्प का निर्वाह कुछ अंशों में बड़ा ही सफल होता है।

सम्पूर्ण नाटकों में 'न्याय की रात' और 'देव और मानव' महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसा लगता है कि चन्द्रगुप्त जी का कहानी और एकांकी कलाकार सम्पूर्ण नाटक की मर्मपूर्ण, विस्तृत योजना को दायित्वपूर्ण ढंग से निभा नहीं पाया है क्योंकि जैसा कि नाटकों के नामों से ही स्पष्ट है, चन्द्रगुप्त जी के इन नाटकों में कोमलता और पूर्वनिश्चित उद्देश्यों की पुष्ठि की बात अधिक सिद्ध होती है। दोनों नाटकों में पात्रों के चरित्र का निर्माण या उनके व्यक्तित्व का विकास, नाटक में प्रस्तुत घटनाएँ कम करती हैं, लेखक की पूर्वनिश्चित दृष्टि और उसकी काव्यात्मक भावुकता अधिक उभर कर आती है। यही कारण है कि जहाँ एकांकी नाटकों और कहानियों में चन्द्रगुप्त जी अधिक अफल होते हैं, वहाँ सम्पूर्ण नाटकों में नाटक का मर्म जैसे इनसे छूट जाता है। चन्द्रगुप्त की कहानी और नाटकों दोनों में ही वातावरण के अनुकूल भाषा का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं नाटकों में गुप्तजी की निरी साहित्यिक भाषा खटकती है, लेकिन ऐसे स्थान बहुत कम हैं।[1]

रचनाएँ

गुप्तजी मासिक 'आजकल' हिन्दी का सम्पादक हैं तथा इनकी प्रकाशित रचनाएँ निम्न है-

कहानी-संग्रह
  • वापसी (1954)
  • चन्द्रकला (1929)
एकांकी नाटक
  • कासमोपोलिटन क्लब (1945)
  • अशोक (1934)
  • देव और मानव (1956)
  • न्याय की रात (1958)

निधन

चंद्रगुप्त विद्यालंकार की मृत्यु सन 1982 ई. हुई थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक: डॉ. धीरेन्द्र वर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 176 |

बाहरी कड़ियाँ

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