श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 13-24
एकादश स्कन्ध :अष्टदशोऽध्यायः (18)
जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे, वह पहले वेदविधि के अनुसार आठों प्रकार के श्राद्ध और प्राजापत्य यज्ञ से मेरा यजन करे। इसके बाद अपना सर्वस्व ऋत्विज को दे दे। यज्ञाग्नियों को अपने प्राणों में लीन कर ले और फिर किसी भी स्थान, वस्तु और व्यक्तियों की अपेक्षा न रखकर स्वच्छन्द विचरण करे । उद्धव जी! जब ब्राम्हण संन्यास लेने लगता है, तब देवता लोग स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धियों का रूप धारण करके उसके संन्यास-ग्रहण में विघ्न डालते हैं। वे सोचते हैं कि ‘अरे! यह तो हम लोगों की अवहेलना कर, हम लोगों को लाँघकर परमात्मा को प्राप्त होने जा रहा है’। यदि सन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लँगोटी लगा ले और अधिक-से-अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लँगोटी ढक जाय। तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलु के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे। यह नियम आपत्ति काल को छोड़कर सदा के लिये है । नेत्रों से धरती देखकर पैर रखे, कपड़े से छानकर जल पिये, मुँह से प्रत्येक बात सत्यपूत—सत्य से पवित्र हुई ही निकाले और शरीर से जितने भी काम करे, बुद्धिपूर्वक—सोच-विचार कर ही करे । वाणी के लिये मौन, शरीर के लिये निश्चेष्ट स्थिति और मन के लिये प्राणायाम दण्ड हैं। जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीर पर बाँस के दण्ड धारण करने से दण्डी स्वामी नहीं हो जाता । सन्यासी को चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितों को छोड़कर चारों वर्णों की भिक्षा ले। केवल अनिश्चित सात घरों से जितना मिल जाय, उतने से ही सन्तोष कर ले । इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्ती के बाहर जलाशय पर जाय, वहाँ हाथ-पैर धोकर जल के द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले; फिर शास्त्रोक्त पद्धति से जिन्हें भिक्षा का भाग देना चाहिये, उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले। दूसरे समय के लिये बचाकर न रखे और न अधिक माँगकर ही लाये । व् संन्यासी को पृथ्वी पर अकेले ही विचरना चाहिये। उसकी कहीं भी आसक्ति न हो, सब इन्द्रियाँ अपने वश में हों। वह अपने-आप में ही मस्त रहे, आत्म-प्रेम में ही तन्मय रहे, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थियों में भी धैर्य रखे और सर्वत्र समान रूप से स्थित परमात्मा का अनुभव करता रहे । संन्यासी को निर्जन और निर्भय एकान्त-स्थान में रहना चाहिये। उसका हृदय निरन्तर मेरी भावना से विशुद्ध बना रहे। वह अपने-आपको मुझसे अभिन्न और अद्वितीय, अखण्ड के रूप में चिन्तन करे । वह अपनी ज्ञाननिष्ठा से चित्त के बन्धन और मोक्ष पर विचार करे तथा निश्चय करे कि इन्द्रियों का विषयों के लिये विक्षिप्त होना—चंचल होना बन्धन है और उनको संयम में रखना ही मोक्ष है । इसलिए संन्यासी को चाहिये कि मन एवं पाँचों ज्ञानेद्रियों को जीत ले, भोगों की क्षुद्रता समझकर उनकी ओर से सर्वथा मुँह मोड़ ले और अपने-आपमें ही परम आनन्द का अनुभव करे। इस प्रकार वह मेरी भावना से भरकर पृथ्वी में विचरता रहे । केवल भिक्षा के लिये ही नगर, गाँव, अहीरों की बस्ती या यात्रियों की टोली में जाय। पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन और आश्रमों से पूर्ण पृथ्वी में बिना कहीं ममता जोड़े घूमता-फिरता रहे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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