श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 37-50
दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय (पूर्वार्ध)
'पुण्यमयी देवि! उस समय मैं तुम दोनों पर प्रसन्न हुआ। क्योंकि तुम दोनों ने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से अपने हृदय में नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी। उस समय तुम दोनों की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए वर देने वालों का राजा मैं इसी रूप से तुम्हारे सामने प्रकट हुआ। जब मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनों ने मेरे जैसा पुत्र माँगा। उस समय तक विषय-भोगों से तुम लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था। तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी। इसलिए मेरी माया से मोहित होकर तुम दोनों ने मुझ से मोक्ष नहीं माँगा। तुम्हें मेरे जैसा पुत्र होने का वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँ से चला गया। अब सफल मनोरथ होकर तुम लोग विषयों का भोग करने लगे। मैंने देखा कि संसार में शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणों में मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिए मैं ही तुम दोनों का पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्र्निगर्भ’ के नाम से विख्यात हुआ। फिर दूसरे जन्म में तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’। शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे। सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप से फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ[1]। मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है।
मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाय। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीर से मेरे अवतार की पहचान नहीं हो पाती। तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना। इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तन के द्वारा तुम्हें मेरे परम पद की प्राप्ति होगी।'
श्री शुकदेव जी कहते हैं- भगवान इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। तब वसुदेव जी ने भगवान की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिका गृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म-रहित है। उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वृत्तियों की चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गए। बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहे की जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेव जी भगवान श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गए[2]। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरज कर जल की फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिए शेषजी अपने फनों से जल को रोकते हुए भगवान के पीछे-पीछे चलने लगे[3]। उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इस से यमुना जी बहुत बढ़ गयी थीं[4]। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगों के कारण जल पर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान श्रीराम जी को समुद्र ने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुना जी ने भगवान को मार्ग दे दिया[5]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मैंने इनको वर तो यह दे दिया कि मेरे सदृश पुत्र होगा, परन्तु इसको मैं पूरा नहीं कर सकता। क्योंकि वैसा कोई है ही नहीं। किसी को कोई वस्तु देने की प्रतिज्ञा करके पूरी न कर सके तो उसके समान तिगुनी वस्तु देनी चाहिये। मेरे सदृश पदार्थ के समान मैं ही हूँ। अतएव मैं अपने को ही तीन बार इनका पुत्र बनाऊँगा।
- ↑ जिनके नाम-श्रवणमात्र से असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, वे ही प्रभु जिसकी गोद में आ गये, उसकी हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है ?
- ↑ बलराम जी ने विचार किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या, सेवा ही मेरा मुख्य धर्म है। इसलिये वे अपने शेष रूप से श्रीकृष्ण के छत्र बनकर जल का निवारण करते हुए चले। उन्होंने सोचा कि यदि मेरे रहते मेरे स्वामी को वर्षा से कष्ट पहुँचा तो मुझे धिक्कार है। इसलिये उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया। अथवा उन्होंने यह सोचा कि ये विष्णु पद (आकाश) वासी मेघ परोपकार के लिये अधःपतित होना स्वीकार कर लेते हैं, इसलिये बलि के समान सिर से वन्दनीय हैं।
- ↑ १. श्रीकृष्ण शिशु को अपनी ओर आते देखकर यमुना जी ने विचार किया—अहा! जिनके चरणों की धूलि सत्पुरुषों के मानस-ध्यान का विषय है, वे ही आज मेरे तट पर आ रहे हैं। वे आनन्द और प्रेम से भर गयीं, आँखों से इतने आँसू निकले कि बाढ़ आ गयी। २. मुझे यमराज की बहिन समझकर श्रीकृष्ण अपनी आँख न फेर लें, इसलिये वे अपने विशाल जीवन का प्रदर्शन करने लगी। ३. ये गो पालन के लिये गोकुल में जा रहे हैं, ये सहस्त्र-सहस्त्र लहरियाँ गौएँ ही तो हैं। ये उन्हीं के समान इनका भी पालन करें। ४. एक कालिय नाग तो मुझमें पहले से ही है, यह दूसरे शेषनाग आ रहे हैं। अब मेरी क्या गति होगी—यह सोचकर यमुना जी अपने थपेड़ों से उनका निवारण करने के लिये बढ़ गयीं।
- ↑ १. एकाएक यमुना जी के मन में विचार आया कि मेरे अगाध जल को देखकर कहीं श्रीकृष्ण यह न सोच लें कि मैं इसमें खेलूँगा कैसे, इसलिये वे तुरंत कहीं कण्ठ भर, कहीं नाभि भर और कहीं घुटनों तक जल वाली हो गयीं। २. जैसे दुःखी मनुष्य दयालु पुरुष के सामने अपना मन खोलकर रख देता है, वैसे ही कालिय नाग से त्रस्त अपने हृदय का दुःख निवेदन कर देने के लिये यमुना जी ने भी अपना दिल खोलकर श्रीकृष्ण के सामने रख दिया। ३. मेरी नीरसता देखकर श्रीकृष्ण कहीं जल क्रीड़ा करना और पटरानी बनाना अस्वीकार न कर दें, इसलिये वे उच्छृंखलता छोड़कर बड़ी विनय से अपने हृदय की संकोच पूर्ण रस रीति प्रकट करने लगीं। ४. जब इन्होंने सूर्यवंश में रामावतार ग्रहण किया, तब मार्ग न देने पर चन्द्रमा के पिता समुद्र को बाँध दिया था। अब ये चन्द्रवंश में प्रकट हुए हैं और मैं सूर्य की पुत्री हूँ। यदि मैं इन्हें मार्ग न दूँगी तो ये मुझे भी बाँध देंगे। इस डर से मानो यमुनाजी दो भागों में बँट गयीं। ५. सत्पुरुष कहते हैं कि हृदय में भगवान आ जाने पर अलौकिक सुख होता है। मानो उसी का उपभोग करने के लिये यमुनाजी ने भगवान को अपने भीतर ले लिया। ६. मेरा नाम कृष्णा, मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण हैं। फिर मेरे हृदय में ही उनकी स्फूर्ति क्यों न हों ? ऐसा सोचकर मार्ग देने के बहाने यमुनाजी ने श्रीकृष्ण को अपने हृदय में ले लिया।
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