श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 26-36
द्वादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)
सभी प्राणियों में तीन गुण होते हैं—सत्व, रज और तम। काल की प्रेरणा से समय-समय पर शरीर, प्राण और मन में उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है । जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्वगुण में स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्वगुण की प्रधानता के समय मनुष्य ज्ञान और तपस्या से अधिक प्रेम करने लगता है । जिस समय मनुष्यों की प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-परलौकिक सुख-भोगों की ओर होती हैं तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुण में स्थित होकर काम करने लगती हैं—बुद्धिमान परीक्षित्! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है । जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषों का बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचि के साथ सकाम कर्मों में लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुण की मिश्रित प्रधानता का नाम ही द्वापरयुग है । जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनता की प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये । जब कलियुग का राज्य होता है, तब लोगों की दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्त में कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियों में दुष्टता और कुलटापन की वृद्धि हो जाती है । सारे देश में, गाँव-गाँव में लुटेरों की प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंग से वेदों का तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलाने वाले लोग प्रजा की सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राम्हण नामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रिय को तृप्त करने में ही लग जाते हैं । ब्रम्हचारी लोग ब्रम्हचर्य व्रत से रहित और अपवित्र रहते लगते हैं। गृहस्थ दूसरों को भिक्षा देने के बदले स्वयं भीख माँगने हैं, वानप्रस्थी गाँवों में बसने लगते अं और संन्यासी धन के अत्यन्त लोभी—अर्थपिशाच हो जाते हैं । स्त्रियों का आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपने कुल-मर्यादा का उल्लंघन करके लाज-हया—जो उनका भूषण है—छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपट में बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है । व्यापारियों के हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी-कौड़ी से लिपटे रहते और छदाम-छदाम के लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या—आपत्तिकाल न होने पर धनी होने पर भी वे निम्नश्रेणी के व्यापारों को, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं । स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों—जब सेवक लोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो—परन्तु जब वह किसी विपत्ति में पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं। और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं—दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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