श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 46-63
द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)
तदनन्तर, उन्हीं लोगों के नैष्ठिक ब्रम्हचारी शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा चारों युगों में सम्प्रदाय के रूप में वेदों की रक्षा होती रही। द्वापर के अन्त में महर्षियों ने उनका विभाजन भी किया । जब ब्रम्हवेत्ता ऋषियों ने देखा कि समय के फेर से लोगों की आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देश में विराजमान परमात्मा की प्रेरणा से वेदों के अनेकों विभाग कर दिये । शौनकजी! इस वैवस्वत मन्वन्तर में भी ब्रम्हा-शंकर आदि लोकपालों की प्रार्थना से अखिल विश्व के जीवन दाता भगवान ने धर्म की रक्षा के लिये महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से अपने अंशांश-कलास्वरुप व्यास के रूप में अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनकजी! उन्होंने ही वर्तमान युग में वेद के चार विभाग किये हैं । जैसे मणियों के समूह में से विभिन्न जाति की मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान व्यासदेव ने मन्त्र-समुदाय में से भिन्न-भिन्न प्रकरणों के अनुसार मन्त्रों का संग्रह करके उनसे ऋग्, ययुः, साम और अथर्व—ये चार सहिंताएँ बनायीं और अपने चार शिष्यों को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक संहिता की शिक्षा दी । उन्होंने ‘बृह्वृच’ नाम की पहली ऋक्संहिता पैल को, ‘निगद’ नाम की दूसरी यजुःसंहिता वैशम्पायन को, सामश्रुतियों की ‘छन्दोग-सहिंता’ जैमिनि को और अपने शिष्य सुमन्तु को ‘अथार्वांगिरससंहिता’ का अध्ययन कराया । शौनकजी! पैल मुनि ने अपनी संहिता के दो विभाग करके एक का अध्ययन इन्द्र प्रमिति को और दूसरे का बाष्कल को कराया। बाष्कल ने भी अपनी शाखा के चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्र को पढाया। परम संयमी इन्द्र-प्रमिति ने प्रतिभाशाली माण्डूकेय के शिष्य थे—देवमित्र। उन्होंने सौभरि आदि ऋषियों को वेदों का अध्ययन कराया । माण्डूकेय के पुत्र का नाम था शाकल्य। उन्होंने अपनी संहिता के पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्यों को पढ़ाया । शाकल्य के एक और शिष्य थे—जातूक कणर्य मुनि। उन्होंने अपनी संहिता के तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्त के साथ अपने शिष्य बलाक, पैज, बैताल और विरज को पढ़ाया । बाष्कल के पुत्र बाष्कलि ने सब शाखाओं से एक ‘वालखिल्य’ नाम की शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य एवं कासार ने ग्रहण किया । इन ब्रम्हार्षियो ने पूर्वोक्त सम्प्रदाय के अनुसार ऋग्वेद सम्बन्धी वह्वृच शाखाओं को धारण किया। जो मनुष्य यह वेदों के विभाजन का इतिहास श्रवण करता है, वह सब पापों से छूट जाता है । शौनकजी! वैशम्पायन के कुछ शिष्यों का नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगों ने अपने गुरुदेव के ब्रम्ह हत्या-जनित पाप का प्रायश्चित् करने के लिये एक व्रत का अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा । वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवल्क्य मुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेव से कहा—‘अहो भगवन्! ये चरकाध्वर्यु ब्राम्हण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रत पालन से लाभ ही कितना है ? मैं आपके प्रायश्चित के लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’ । याज्ञवल्क्य मुनि की यह बात सुनकर वैशम्पायन मुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा—‘बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे-जैसे ब्राम्हणों का अपमान करने वाले शिष्य की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अब तक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँ से चले जाओ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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