सूरदास और वल्लभाचार्य

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सूरदास, सूरकुटी, सूर सरोवर, आगरा

सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य थे। भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्ण भक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता वल्लभाचार्य माने जाते हैं। उनका प्रादुर्भाव ई. सन 1479, वैशाख कृष्ण पक्ष एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ था। उन्हें 'वैश्वानरावतार अग्नि का अवतार' कहा गया है। वे वेद शास्त्र में पारंगत थे। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें 'अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र' की दीक्षा दी गई थीं। त्रिदंड सन्न्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई थी।

वल्लभाचार्य के शिष्य

सूरदास वल्लभाचार्य के शिष्य थे। उनके काव्य में वल्लभाचार्य द्वारा प्रतिपादित कृष्ण स्वरूप की प्रतिष्ठा स्वाभाविक रूप से हुई है। सूरदास की भक्ति में अंतःकरण की प्रेरणा तथा अंतर की अनुभूति की प्रधानता है। उनके काव्य में अभिव्यक्त भक्ति-भावना के दो चरण देखे जा सकते हैं-

  1. पहला चरण वल्लभाचार्य से मिलने के पूर्व का है, जिसमें सूरदास 'वल्लभ संप्रदाय' में दीक्षित होने से पूर्व दैन्यभाव पर आधारित भक्ति के पदों की रचना कर रहे थे।
  2. दूसरा चरण वल्लभाचार्य से मिलने के बाद आरंभ होता है, जब सूरदास 'वल्लभ संप्रदाय' में दीक्षित होकर पुष्टिमार्गीय भक्ति पर आधारित भक्ति के पदों की रचना की ओर प्रवृत हुए। सूरदास की भक्ति भावना में इस प्रकार के पदों का बाहुल्य देखा जा सकता है।

सूरदास की वल्लभाचार्य से भेंट

'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में सूर का जीवनवृत्त गऊघाट पर हुई वल्लभाचार्य से उनकी भेंट के साथ प्रारम्भ होता है। गऊघाट पर भी उनके अनेक सेवक उनके साथ रहते थे तथा 'स्वामी' के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। कदाचित इसी कारण एक बार अरैल से जाते समय वल्लभाचार्य ने उनसे भेंट की और उन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। 'वार्ता' में वल्लभाचार्य और सूरदास के प्रथम भेंट का जो रोचक वर्णन दिया गया है, उससे व्यंजित होता है कि सूरदास उस समय तक कृष्ण की आनन्दमय ब्रजलीला से परिचित नहीं थे और वे वैराग्य भावना से प्रेरित होकर पतितपावन हरि की दैन्यपूर्ण दास्यभाव की भक्ति में अनुरक्त थे और इसी भाव के विनयपूर्ण पद रच कर गाते थे। वल्लभाचार्य ने उनका 'धिधियाना'[1] छुड़ाया और उन्हें भगवद्-लीला से परिचत कराया। इस विवरण के आधार पर कभी-कभी यह कहा जाता है कि सूरदास ने विनय के पदों की रचना वल्लभाचार्य से भेंट होने के पहले ही कर ली होगी, परन्तु यह विचार भ्रमपूर्ण है[2] वल्लभाचार्य द्वारा 'श्रीमद्भागवत' में वर्णित कृष्णलीला का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त सूरदास ने अपने पदों में उसका वर्णन करना प्रारम्भ कर दिया। 'वार्ता' में कहा गया है कि उन्होंने 'भागवत' के द्वादश स्कन्धों पर पद-रचना की। उन्होंने 'सहस्त्रावधि' पद रचे, जो 'सागर' कहलाये। वल्लभाचार्य के संसर्ग से सूरदास को "माहात्म्यज्ञान पूर्वक प्रेम भक्ति" पूर्णरूप में सिद्ध हो गयी। वल्लभाचार्य ने उन्हें गोकुल में श्रीनाथ जी के मन्दिर पर कीर्तनकार के रूप में नियुक्त किया और वे आजन्म वहीं रहे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दैन्य प्रकट करना
  2. 'सूरसागर'

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