श्रीकांत उपन्यास भाग-10

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एक दिन जिस भ्रमण-कहानी के बीच ही में अकस्मात् यवनिका डालकर बिदा ले चुका था, उसको फिर किसी दिन अपने ही हाथ से उद्धाटित करने की प्रवृत्ति मुझमें नहीं थी। मेरे गाँव के जो बाबा थे वे जब मेरे उस नाटकीय कथन के उत्तर में सिर्फ जरा-सा मुसकराकर रह गये, और राजलक्ष्मी के ज़मीन से लगाकर प्रणाम करने पर, जिस ढंग से हड़बड़ाकर, दो क़दम पीछे हटकर बोले, "ऐसी बात है क्या? अहा, अच्छा हुआ, अच्छा हुआ,- जीते रहो, खुश रहो!" और फिर डॉक्टर को साथ लेकर बाहर चले गये, तब राजलक्ष्मी के चेहरे की जो तसवीर मैंने देखी वह भूलने की चीज़ नहीं, और न उसे कभी भूला ही। मैंने सोचा था कि वह मेरी है, बिल्कुसल मेरी अपनी- उसका प्रकाश बाहर की दुनिया में किसी दिन भी प्रकट न होगा; मगर, अब सोचता हूँ कि यह अच्छा ही हुआ जो बहुत दिनों से बन्द हुए उस दरवाज़े क़ो मुझे ही आकर खोलना पड़ा। यह अच्छा ही हुआ कि जिस अज्ञात रहस्य के प्रति बाहर का क्रुद्ध संशय, अन्याय-अविचार का रूप धारण करके उस पर निरन्तर धक्के लगा रहा था, मुझे उसके बन्द दरवाज़े को अपने ही हाथ से खोलने का मौक़ा मिला।

बाबा चले गये, राजलक्ष्मी क्षण-भर स्तब्ध भाव-से उनकी तरफ देखती रही, और उसके बाद मुँह उठाकर निष्फल हँसी हँसने की कोशिश करके बोली, "पैरों की धूल लेते समय मैं उन्हें छुए थोड़े ही लेती थी। मगर, तुम क्यों उस बात को कहने गये उनसे? उसकी तो कोई जरूरत न थी। यह तो सिर्फ-वास्तव में यह तो सिर्फ तुमने अपने आप ही अपनों का अपमान किया, जिसकी जरा भी जरूरत न थी। ये लोग विधवा-विवाह की पत्नी को बाज़ार की वेश्या की अपेक्षा ऊँचा आसन नहीं देते, लिहाज़ा इसमें मैं नीचे ही उतरी, किसी को जरा-सा भी ऊपर न उठा सकी..."

इस बात को राजलक्ष्मी फिर पूरा न कर सकी।

मैं सब कुछ समझ गया। इस अपमान के सामने बड़ी-बड़ी बातों की उछल-कूद मचाकर बात बढ़ाने की प्रवृत्ति न हुई। जिस तरह चुपचाप पड़ा था, उसी तरह मुँह बन्द किये पड़ा रहा।

राजलक्ष्मी भी बहुत देर तक और कुछ नहीं बोली, ठीक मानो अपनी चिन्ता में मग्न होकर बैठी रही; उसके बाद सहसा बिल्कुरल पास ही कहीं से किसी की बुलाहट सुनकर मानो चौंककर उठ खड़ी हुई। रतन को बुलाकर बोली, "गाड़ी जल्दी तैयार करने को कह दे, रतन, नहीं तो फिर रात के ग्यारह बजे की उसी गाड़ी से जाना होगा। यदि ऐसा हुआ तो मुश्किल होगा- रास्ते में ठण्ड लग जायेगी।"

दस ही मिनट के अन्दर रतन ने मेरा बैग ले जाकर गाड़ी पर रख दिया और मेरे बिस्तर बाँधने के लिए इशारा करता हुआ वह पास आ खड़ा हुआ। तबसे अब तक मैंने एक भी बात नहीं की थी और न अब भी कोई प्रश्न किया। कहाँ जाना होगा, क्या करना होगा, कुछ भी बिना पूछे मैं चुपचाप उठकर धीरे-से गाड़ी में जाकर बैठ गया।

कुछ दिन पहले ऐसी ही एक शाम को अपने घर में प्रवेश किया था और आज फिर वैसी ही एक शाम को चुपचाप घर से निकल पड़ा। उस दिन भी किसी ने आदर के साथ ग्रहण नहीं किया था और आज भी कोई स्नेह के साथ बिदाई देने को आगे न आया! उस दिन भी, इसी समय, ऐसे ही घर-घर में शंख बजना शुरू हुआ था और इसी तरह वसु-मल्लिकों के गोपाल-मन्दिर से आरती के घण्टे-घड़ियाल का शब्द अस्पष्ट होकर हवा में बहा आ रहा था। फिर भी, उस दिन से आज के दिन का प्रभेद कितना ज़बर्दस्त है, इस बात को सिर्फ आकाश के देवताओं ने ही देखा।

बंगाल के एक नगण्य गाँव के टूटे-फूटे जीर्ण घर के प्रति मेरी ममता कभी न थी- उससे वंचित होने को भी मैंने इससे पहले कभी हानिकर नहीं समझा, परन्तु आज अब अत्यन्त अनादर के साथ गाँव छोड़कर चल दिया, और किसी दिन किसी भी बहाने उसमें फिर कभी प्रवेश करने की कल्पना तक को जब मन में स्थान न दे सका, तब यह अस्वास्थ्यकर साधारण गाँव एक साथ सभी तरफ से मेरी ऑंखों के सामने असाधारण होकर दिखाई देने लगा और जिससे अभी तुरन्त ही निर्वासित होकर निकल पड़ा था, उसी अपने पुरखों के टूटे-फूटे मलिन घर के प्रति मेरे मोह की सीमा न रही।

राजलक्ष्मी चुपके से आकर मेरे सामने के आसन पर बैठ गयी, और, शायद गाँव के परिचित राहगीरों के कुतूहल से अपने को पूरी तरह छिपाए रखने के लिए ही उसने एक कोने में अपना सिर रखकर ऑंखें मींच लीं।

जब हम लोग रेलवे-स्टेशन के लिए रवाना हुए तब सूरज छिप चुका था। गाँव के टेढ़े-मेढ़े रास्ते के किनारे अपने आप बढ़े हुए करौंदे, झरबेरी और बेंत के जंगल ने संकीर्ण मार्ग को और भी संकीर्ण बना दिया था और दोनों तरफ पंक्तिवार खड़े हुए आम-कटहर के पेड़ों की शाखाएँ सिर से ऊपर कहीं-कहीं ऐसी सघन होकर मिल गयी थीं कि शाम का अंधेरा और भी दुर्भेद्य हो गया था। उसके भीतर से गाड़ी जब अत्यन्त सावधानी के साथ बहुत ही धीमी चाल से चलने लगी तब मैं ऑंखें मींचकर उस निविड़ अन्धकार के भीतर से न जाने क्या-क्या देखने लगा। मालूम हुआ, इसी रास्ते से किसी दिन बाबा मेरी दीदी को ब्याह कर लाए थे, तब यह रास्ता बारातियों के कोलाहल और पैरों की आहट से गूँज उठा होगा; और, फिर किसी दिन जब वे स्वर्ग सिधारे, तब इसी रास्ते से अड़ोसी-पड़ोसी उनकी अरथी नदी तक ले गये होंगे। इसी मार्ग से ही मेरी माँ ने किसी दिन वधू-वेश में गृह-प्रवेश किया था, और एक दिन जब उनके इस जीवन की समाप्ति हुई तब, धूल-मिट्टी से भरे इसी संकीर्ण मार्ग से अपनी माँ को गंगा में विसर्जित करके हम लोग वापस लौटे थे। उस समय यह मार्ग ऐसा निर्जन और दुर्गम नहीं हुआ था। तब तक शायद इसकी हवा में इतना मलेरिया और तालाबों में इतना कीचड़ और ज़हर इकट्ठा नहीं हुआ था। उस समय तक देश में अन्न था, वस्त्र थे, धर्म था, तब तक देश का निरानन्द शायद ऐसी भयंकर शून्यता से आकाशव्यापी होकर भगवान के द्वार तक नहीं पहुँचता था। दोनों ऑंखों में ऑंसू भर आए, गाड़ी के पहिए से थोड़ी-सी धूल लेकर जल्दी-से माथे और मुँह पर लगाकर मैंने मन-ही-मन कहा, 'हे मेरे पितृ-पितामह के सुख-दु:ख, विपद-सम्पद, और हँसने-रोने से भरे हुए धूल-मिट्टी के पथ, मैं तुम्हें बार-बार नमस्कार करता हूँ।' फिर अन्धकार में जंगल की ओर देखकर कहा, 'माता जन्मभूमि, तुम्हारी करोड़ों अकृती सन्तानों के समान मैंने भी तुम्हें हृदय से नहीं चाहा- और नहीं जानता किसी दिन तुम्हारी सेवा में, तुम्हारे काम में, तुम्हारी गोद में फिर वापस आऊँगा या नहीं। परन्तु आज इस निर्वासन के मार्ग में अंधेरे के भीतर तुम्हारी जो दु:ख की मूर्ति मेरे ऑंसुओं के भीतर से अस्पष्ट होकर प्रस्फुटित हो उठी है, उसे मैं इस जीवन में कभी नहीं भूल सकूँगा।'

ऑंख खोलकर देखा, राजलक्ष्मी उसी तरह स्थिर बैठी है। अंधेरे कोने में उसका चेहरा नहीं दिखाई दिया पर मैंने अनुभव किया कि ऑंखें मींचकर वह मानो चिन्ता में मग्न हो रही है और मन-ही-मन कहा, 'रहने दो ऐसे ही। आज से जब कि मैंने अपनी चिन्ता-तरणी की पतवार उसके हाथ सौंप दी है, तो इस अनजान नदी में कहाँ भँवरें हैं और कहाँ टापू, सो वही खोजती रहे।'

इस जीवन में अपने मन को मैंने अनेक दिशाओं में, अनेक अवस्थाओं में आजमाकर देखा है। उसके भीतर की प्रकृति मैं पहिचानता हूँ। किसी विषय में 'अत्यन्त' को वह नहीं सह सकता। अत्यन्त सुख, अत्यन्त स्वास्थ्य, अत्यन्त अच्छा रहना, उसे हमेशा पीड़ा देता है। कोई अत्यन्त प्रेम करता है; इस बात को जानते ही मन भागूँ-भागूँ करने लगता है, उसे मन ने आज कितने दु:ख से अपने हाथ से पतवार छोड़ दी है, इस बात को इस मन के सृष्टिकर्त्ता के सिवा और कौन जान सकता है?

बाहर के काले आकाश की ओर एक बार दृष्टि फैलाई- भीतर की अदृश्यप्राय निश्चल प्रतिमा की ओर भी एक बार दृष्टि डाली; उसके बाद हाथ जोड़कर फिर मैंने किसे नमस्कार किया, मैं खुद नहीं जानता। परन्तु, मन-ही-मन इतना ज़रूर कहा कि "इसके आकर्षण के दु:सह वेग से मेरा दम घुट रहा है, बहुत बार बहुत मार्गों से भागा हूँ, परन्तु फिर भी जब गोरखधन्धे की तरह सभी मार्गों ने मुझे बार-बार इसी के पास लौटा दिया है, तो अब मैं विद्रोह न करूँगा-अबकी बार मैंने अपने को सम्पूर्ण रूप से इसी के हाथ सौंप दिया। और अब तक अपने जीवन को अपनी पतवार से चलाकर ही क्या पाया? उसे कितना सार्थक बनाया? हाँ, आज अगर वह ऐसे ही हाथ जा पड़ा हो जो स्वयं अपने जीवन को आकण्ठ डूबे हुए दलदल में से खींचकर बाहर निकाल सका है, तो वह दूसरे के जीवन को हरगिज़ फिर उसी में नहीं डुबा सकता।"

खैर, यह सब तो हुआ अपनी तरफ से। परन्तु, दूसरे पक्ष का आचरण फिर ठीक पहले की भाँति शुरू हुआ। रास्ते-भर में एक भी बात नहीं हुई यहाँ तक कि स्टेशन पहुँचकर भी किसी ने मुझसे कोई प्रश्न करना आवश्यक नहीं समझा। थोड़ी देर बाद ही कलकत्ते जानेवाली गाड़ी की घण्टी बजी, लेकिन रतन टिकट ख़रीदने का काम छोड़कर मुसाफिरखाने के एक कोने में मेरे लिए बिस्तर बिछाने में लग गया। अतएव समझ लिया, कि नहीं, हमें सवेरे की गाड़ी से पश्चिम की ओर रवाना होना होगा। मगर, उधर पटना जाना होगा या काशी या और कहीं, यह मालूम न होने पर भी इतना साफ़ समझ में आ गया कि इस विषय में मेरा मतामत बिल्कुकल ही अनावश्यक है।

राजलक्ष्मी दूसरी ओर देखती हुई अन्यमनस्क की तरह खड़ी थी, रतन ने अपना काम पूरा करके उसके पास जाकर पूछा, "माँजी, पता लगा है कि जरा और आगे जाने से सभी तरह का अच्छा खाना मिल सकता है।"

राजलक्ष्मी ने ऑंचल की गाँठ खोलकर कई रुपये उसके हाथ में देते हुए कहा, "अच्छी बात है, ले आ वहीं जाकर। पर दूध जरा देख-भालकर लेना, बासी-वासी न ले आना कहीं।"

रतन ने कहा, "माँजी, तुम्हारे किये कुछ..."

"नहीं, मेरे लिए कुछ नहीं चाहिए।"

यह 'नहीं' कैसा है, इस बात को सभी जानते हैं। और शायद सबसे ज़्यादा जानता है रतन खुद। फिर भी उसने दो-चार बार पैर घिसकर धीरे से कहा, "कल ही से तो बिल्कुल..."

राजलक्ष्मी ने उत्तर दिया, "तुझे क्या सुनाई नहीं देता रतन? बहरा हो गया है क्या?"

आगे और कुछ न कहकर रतन चल दिया। कारण, इसके बाद भी बहस कर सकता हो, ऐसी ताब तो मैंने किसी की भी नहीं देखी। और जरूरत ही क्या थी? राजलक्ष्मी मुँह से स्वीकार न करे, फिर भी, मैं जानता हूँ कि रेलगाड़ी में रेल से सम्बन्धित किसी के भी हाथ की कोई चीज़ खाने की ओर उसकी प्रवृत्ति नहीं होती। अगर यह कहा जाय कि निरर्थक कठोर उपवास करने में इसकी जोड़ का दूसरा कोई नहीं देखा, तो शायद अत्युक्ति न होगी। मैंने अपनी ऑंखों से देखा है, कितनी बार कितनी चीज़ें इसके घर आते देखी हैं, पर उन्हें नौकर-नौकरानियों ने खाया है, गरीब पड़ोसियों को बाँट दिया है- सड़-गल जाने पर फेंक दिया गया है, परन्तु जिसके लिए वे सब चीज़ें आई हैं उसने मुँह से भी नहीं लगाया। पूछने पर, मजाक करने पर, हँसकर कह दिया है, "हाँ, मेरे तो बड़ा आचार है! मैं, और छुआ छूत का विचार! मैं तो सब कुछ खाती-पीती हूँ।"

"अच्छा, तो मेरी ऑंखों के सामने परीक्षा दो?"

"परीक्षा? अभी? अरे बाप रे! तब तो फिर जीने के लाले पड़ जाँयगे!"

यह कहकर वह जीने का कोई कारण न दिखाकर घर के किसी बहुत ही जरूरी काम का बहाना करके अदृश्य हो गयी है। मुझे क्रमश: मालूम हुआ कि वह मांस-मछली दूध-घी कुछ नहीं खाती, परन्तु यह न खाना ही उसके लिए इतना अशोभन और इतनी लज्जा की बात है कि इसका उल्लेख करते ही मारे शरम के उसे भागने को राह नहीं मिलती। इसी से साधारणत: खाने के बारे में उससे अनुरोध करने की मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। जब रतन अपना मुरझाया-सा मुँह लेकर चला गया, तब भी मैंने कुछ नहीं कहा। कुछ देर बाद वह लोटे में गरम दूध और दोने में मिठाई वगैरह लेकर लौट आया, तब राजलक्ष्मी ने मेरे लिए दूध और कुछ खाने को रखकर बाकी का सब रतन के हाथ में दे दिया। तब भी मैंने कुछ न कहा और रतन की ऑंखों की नीरव प्रार्थना को स्पष्ट समझ जाने पर भी मैं उसी तरह चुप बना रहा।

अब तो कारण-अकारण और बात-बात में उसका न खाना ही मेरे लिए अभ्यस्त हो गया है। परन्तु एक दिन ऐसा था जब यह बात न थी। तब हँसी-दिल्लगी से लेकर कठोर कटाक्ष तक भी मैंने कम नहीं किये हैं। परन्तु, जितने दिन बीतते गये हैं, मुझे इसके दूसरे पहलू पर भी सोचने-समझाने का काफ़ी अवसर मिला है। रतन के चले जाने पर मुझे वे ही सब बातें फिर याद आने लगीं।

कब और क्या सोचकर वह इस कृच्छ-साधना में प्रवृत्त हुई थी, मैं नहीं जानता। तब तक मैं इसके जीवन में नहीं आया था। परन्तु पहले-पहल जब वह जरूरत से ज़्यादा भोजन-सामग्री के बीच में रहकर भी अपनी इच्छा से दिन पर दिन गुप्त रूप से चुपचाप अपने को वंचित करती हुई जी रही थी, तब वह कितना कठिन और कैसा दु:साध्यय कार्य था! कलुष और सब तरह की मलिनता के केन्द्र से अपने को इस तपस्या के मार्ग पर अग्रसर करते हुए उसने कितना न चुपचाप सहा होगा! आज यह बात उसके लिए इतनी सहज और इतनी स्वाभाविक है कि मेरी दृष्टि में भी उसकी कोई गुरुता, कोई विशेषता नहीं रह गयी है; इसका मूल्य क्या है, सो भी ठीक तौर से नहीं जानता, मगर फिर भी कभी-कभी मन में प्रश्न उठा है कि उसकी यह कठोर साधना क्या सबकी सब विफल हुई है, बिल्कुील ही व्यर्थ गयी है? अपने को वंचित रखने की यह जो शिक्षा है, यह जो अभ्यास है, यह जो पाकर त्याग देने की शक्ति है, अगर इस जीवन में उसके अलक्ष्य में न संचित हो पाती हो क्या आज वह ऐसी स्वच्छन्दता से, ऐसी सरलता के साथ अपने को सब प्रकार के भोगों से छुड़ाकर अलग कर सकती? कहीं से भी क्या कोई बन्धन उसे खींचता नहीं? उसने प्रेम किया है, ऐसे कितने ही आदमी प्रेम किया करते हैं, परन्तु सर्व-त्याग के द्वारा उसे प्रेम को ऐसा निष्पाप, ऐसा एकान्त बना लेना क्या संसार में इतना सुलभ है?

मुसाफिरखाने में और आदमी न था, रतन भी शायद आड़ में कहीं जगह ढूँढ़कर लेट गया था। देखा, एक टिमटिमाती हुई बत्ती के नीचे राजलक्ष्मी चुपचाप बैठी है। पास जाकर उसके माथे पर हाथ रखते ही उसने चौंककर मुँह उठाया, और पूछा, "तुम सोये नहीं अभी?"

"नहीं, मगर तुम यहाँ धूल-मिट्टी में चुपचाप अकेली न बैठो, मेरे बिस्तर पर चलो।" यह कहकर, और विरोध करने का अवसर बिना दिये ही मैंने हाथ पकड़कर उसे उठा लिया परन्तु अपने पास बिठा लेने पर फिर कहने को कोई बात ही ढूँढे नहीं मिली, सिर्फ आहिस्ते-आहिस्ते उसके हाथ पर हाथ फेरने लगा। कुछ क्षण इसी तरह बीते। सहसा उसकी ऑंखों के कोनों पर हाथ पड़ते ही अनुभव किया कि मेरा सन्देह बेबुनियाद नहीं है। धीरे-धीरे ऑंसू पोंछकर मैंने ज्यों ही उसे अपने पास खींचने की कोशिश की त्यों ही वह मेरे फैले हुए पैरों पर औंधी पड़ गयी और ज़ोर से उन्हें दबाये रही। किसी भी तरह मैं उसे अपने बिल्कुरल पास न ला सका।

फिर उसी तरह सन्नाटे में समय बीतने लगा। सहसा मैं बोल उठा, "एक बात तुम्हें अब तक नहीं जताई लक्ष्मी।"

उसने चुपके से कहा, "कौन-सी बात?"

इतना ही कहने में संस्कारवश पहले तो जरा संकोच हुआ, मगर मैं रुका नहीं, बोला, "मैंने आज से अपने को बिल्कुरल तुम्हारे ही हाथ सौंप दिया है, अब भलाई-बुराई का सारा भार तुम्हीं पर है।"

यह कहकर मैंने उसके मुख की ओर देखा कि उस टिमटिमाते हुए उजाले में वह मेरे मुँह की ओर चुपचाप एकटक देख रही है। उसके बाद जरा हँसकर बोली, "तुम्हें लेकर मैं क्या करूँगी? तुम न तो तबला ही बजा सकते हो, न सारंगी ही बजा सकोगे और..."

मैंने कहा, " 'और' क्या? पान-तम्बाकू हाज़िर करना? नहीं, यह काम तो मुझसे हरगिज़ नहीं हो सकता।"

"लेकिन पहले के दो काम?"

मैंने कहा, "आशा दो तो शायद कर भी सकूँ।" कहकर मैंने भी जरा हँस दिया।

सहसा राजलक्ष्मी उत्साह से बैठी और बोली, "मज़ाक नहीं, सचमुच बजा सकते हो?"

मैंने कहा, "आशा करने में दोष क्या है?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं बजा सकते।" उसके बाद नीरव विस्मय से कुछ देर तक वह मेरी ओर एकटक देखती रही, फिर धीरे-धीरे कहने लगी, "देखो, बीच-बीच में मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है; परन्तु, फिर सोचती हूँ कि जो आदमी निष्ठुरों की तरह बन्दूक लेकर सिर्फ जानवारों को मारते फिरना ही पसन्द करता है, वह इसकी क्या परवाह करनेवाला है? इसके भीतर की इतनी बड़ी वेदना का अनुभव करना क्या उसके लिए साध्य् हो सकता है? बल्कि शिकार करने के समान चोट पहुँचा सकने में ही मानो उस आनन्द मिलता है? तुम्हारा दिया हुआ बहुत-सा दु:ख मैं यही सोचकर तो सह सकी हूँ।"

अब चुप रहने की मेरी पारी आई। उसके लगाये हुए अभियोग के मूल में युक्तियों द्वारा न्याय-विचार भी चल सकता था, सफाई देने के लिए नज़ीरों की भी शायद कमी नहीं पड़ती, परन्तु यह सब विडम्बना-सी मालूम हुई। उसकी सच्ची, अनुभूति के आगे मुझे मन-ही-मन हार माननी पड़ी। अपनी बात को वह ठीक तरह से कह भी नहीं सकी, परन्तु संगीत की जो अन्तरतम मूर्ति सिर्फ व्यथा के भीतर से ही कदाचित् आत्म-प्रकाश करती है, वह करुणा से अभिषिक्त सदा जाग्रत चेतना ही मानो राजलक्ष्मी के इन दो शब्दों के इंगित में रूप धारण करके सामने दिखाई दी। और उसके संयम ने, उसके त्याग ने, उसके हृदय की शुचिता ने फिर एक बार मानो मेरी ऑंखों में अंगुली देकर उसी का स्मरण करा दिया।

फिर भी, एक बात उससे कह सकता था। कह सकता था कि मनुष्य की परस्पर सर्वथा-विरुद्ध प्रवृत्तियाँ किस तरह एक साथ पास-ही-पास बैठी रहती हैं, यह एक अचिन्तनीय रहस्य है। नहीं तो मैं अपने हाथ से जीव-हत्या कर सकता हूँ, इतना बड़ा परमाश्चर्य मेरे ही लिए और क्या हो सकता है? जो एक चींटी तक की मृत्यु को नहीं सह सकता, ख़ून से लथ-पथ बलि के यूप-काष्ठ की सूरत ही कुछ दिनों के लिए जिसका खाना-पीना-सोना छुड़ा देती है, जिसने मुहल्ले के अनाथ आश्रयहीन कुत्ते-बिल्लियों के लिए भी बचपन में कितने ही दिन चुपचाप उपवास किये हैं उसका जंगल के पुश-पक्षियों पर कैसे निशाना ठीक बैठता है, यह तो खुद मेरी समझ में नहीं आता। और क्या ऐसा सिर्फ मैं ही अकेला हूँ? जिस राजलक्ष्मी का अन्तर-बाहर मेरे लिए आज प्रकाश की तरह स्वच्छ हो गया है वह भी इतने दिनों तक साल पर साल किस तरह 'प्यारी' का जीवन बिता सकी!

मन में आने पर भी मैं यह बात मुँह से न निकाल सका। सिर्फ उसे बाधा न देने की गरज़ ही नहीं, बल्कि सोचा, "क्या होगा कहने से? देव और दानव दोनों कन्धे मिलाकर मनुष्य को कहाँ और किस जगह लगातार ढोये लिये जा रहे हैं, इसे कौन जानता है? किस तरह भोगी एक ही दिन में त्यागी होकर निकल पड़ता है, निर्मम निष्ठुर एक क्षण में करुणा से विगलित होकर अपने को नि:शेष कर डालता है, इस रहस्य का हमने कितना-सा संधान पाया है? किस निभृत कन्दरा में मानवात्मा की गुप्त साधना अकस्मात् एक दिन सिद्धि के रूप में प्रस्फुटित हो उठती है, उसकी हम क्या खबर रखते हैं? क्षीण प्रकाश में राजलक्ष्मी के मुँह की ओर देखकर उसी को लक्ष्य करके मैंने मन-ही-मन कहा, "यह अगर मेरी सिर्फ व्यथा पहुँचाने की शक्ति को ही देख सकी हो, व्यथा ग्रहण करने की अक्षमता को स्नेह के कारण अब तक क्षमा करती चली आई हो, तो इसमें मेरे रूठने की ऐसी कौन-सी बात है?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "चुप क्यों रह गये?"

मैंने कहा, "फिर भी तो इस निष्ठुर के लिए ही तुमने सब कुछ त्याग दिया!"

राजलक्ष्मी ने कहा, "सब कुछ क्या त्यागा! अपने को तो तुमने नि:सत्व होकर ही आज मुझे दे दिया, उसे तो मैं 'नहीं चाहिए' कहकर त्याग न सकी!"

मैंने कहा, "हाँ, नि:सत्व होकर ही दिया है। मगर तुम तो अपने आपको देख नहीं सकोगी इसलिए, वह उल्लेख मैं न करूँगा!"

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पश्चिम के शहर में प्रवेश करने के पहले ही समझ में आ गया कि बंगाल के मलेरिया ने मुझे खूब ही मज़बूती के साथ पकड़ लिया है। पटना स्टेशन से राजलक्ष्मी के घर तक मैं लगभग बेहोशी की हालत में लाया गया। इसके बाद के महिने में भी मुझे ज्वर, डॉक्टर और राजलक्ष्मी लगभग हर वक्त ही घेरे रहे।

जब बुखार छूट गया तब डॉक्टर साहब ने घर-मालकिन को साफ़ तौर से समझा दिया कि यद्यपि यह शहर पश्चिम-प्रदेश में ही शामिल है और स्वास्थ्यप्रद स्थान के रूप में इसकी प्रसिद्धि है, फिर भी मेरी सलाह है कि रोगी को जल्दी ही स्थानान्तरित करना चाहिए।

फिर बाँध-बूँधी शुरू हो गयी, मगर अबकी बार जरा धूम-धाम के साथ। रतन को अकेला पाकर मैंने पूछा, "अबकी बार कहाँ जाना होगा, रतन?"

देखा कि वह इस नवीन यात्रा के बिल्कुलल ही ख़िलाफ़ है। उसने खुले दरवाज़े की तरफ निगाह रखते हुए आभास और इशारे से फुस-फुस करके जो कुछ कहा, उससे मेरा भी जैसे कलेजा-सा बैठ गया। रतन ने कहा, "वीरभूम ज़िले में एक छोटा-सा गाँव है गंगामाटी। जब इस गाँव का पट्टा लिया था तब मैं सिर्फ एक मुख्तार साहब किसनलाल के साथ वहाँ गया था। माँ जी खुद वहाँ कभी नहीं गयीं। यदि कभी जाँयगी तो उन्हें भाग आने की राह भी ढूँढे न मिलेगी। समझ लीजिए कि गाँव में भले घर हैं ही नहीं-सिर्फ छोटी जातिवालों के ही घर हैं। उन्हें न तो छुआ ही जा सकता है और न वे किसी काम आ सकते हैं।"

राजलक्ष्मी क्यों इन सब छोटी जातों में जाकर रहना चाहती है, इसका कारण मानो मेरी समझ में कुछ आ गया। मैंने पूछा, "गंगामाटी है कहाँ?"

रतन ने जताया, "साँइथिया या ऐसी ही किसी स्टेशन से क़रीब दस-बारह कोस बैलगाड़ी में जाना पड़ता है। रास्ता जितना कठिन है उतना ही भयंकर। चारों तरफ मैदान ही मैदान है। उसमें न तो कहीं फसल ही होती है और न कहीं एक बूँद पानी है। कँकरीली मिट्टी है, कहीं गेरुआ और कहीं जली-हुई-सी स्याह काली।" यह कहकर वह जरा रुका, और ख़ास तौर से मुझे ही लक्ष्य करके फिर कहने लगा, "बाबूजी, मेरी तो कुछ समझ ही में नहीं आता कि आदमी वहाँ किस सुख के लिए रहते हैं। और जो ऐसी सोने की सी जगह छोड़कर वहाँ जाते हैं, उनसे मैं और क्या कहूँ।"

भीतर-ही-भीतर एक लम्बी साँस लेकर मैं मौन हो रहा। ऐसी सोने की-सी जगह छोड़कर क्यों उस मरु-भूमि के बीच निर्बान्धव नीच आदमियों के देश में राजलक्ष्मी मुझे लिये जा रही है, सो न तो उससे कहा जा सकता है और न समझाया ही जा सकता है।

आखिर मैंने कहा, "शायद मेरी बीमारी की वजह से ही जाना पड़ रहा है, रतन। यहाँ रहने से आराम होने की कम आशा है, सभी डॉक्टर यही डर दिखा रहे हैं।"

रतन ने कहा, "लेकिन बीमारी क्या यहाँ और किसी को होती ही नहीं बाबूजी? आराम होने के लिए क्या उन सबको उस गंगामाटी में ही जाना पड़ता है?"

मन-ही-मन कहा, "मालूम नहीं, उन सबको किस माटी में जाना पड़ता है। हो सकता है कि उनकी बीमारी सीधी हो, हो सकता है कि उन्हें साधारण मिट्टी में ही आराम पड़ जाता हो। मगर हम लोगों की व्याधि सीधी भी नहीं है और साधारण भी नहीं; इसके लिए शायद उसी गंगामाटी की ही सख्त जरूरत है।"

रतन कहने लगा, "माँजी के खर्च का हिसाब-किताब भी तो हमारी किसी की समझ में नहीं आता। वहाँ न तो घर-द्वार ही है, न और कुछ। एक गुमाश्ता है, उसके पास दो हज़ार रुपये भेजे गये हैं एक मिट्टी का मकान बनाने के लिए! देखिए तो सही बाबूजी, ये सब कैसे ऊँटपटाँग काम हैं! नौकर हैं, सो हम लोग जैसे कोई आदमी ही नहीं हैं!"

उसके क्षोभ और नाराजगी को देखते हुए मैंने कहा, "तुम वहाँ न जाओ तो क्या है रतन? जबरदस्ती तो तुम्हें कोई कहीं ले नहीं जा सकता?"

मेरी बात से रतन को कोई सान्त्वना नहीं मिली। बोला, "माँजी ले जा सकती हैं। क्या जाने क्या जादू-मन्त्र जानती हैं वे! अगर कहें कि तुम लोगों को यमराज के घर जाना होगा, तो इतने आदमियों में किसी की हिम्मत नहीं कि कह दे, 'ना!" यह कहकर वह मुँह भारी करके चला गया।

बात तो रतन गुस्से से ही कह गया था, पर वह मुझे मानो अकस्मात् एक नये तथ्य का संवाद दे गया। सिर्फ मेरी ही नहीं सभी की यह एक ही दशा है। उस जादू-मंत्र की बात ही सोचने लगा। मन्त्र-तन्त्र पर सचमुच ही मेरा विश्वास है सो बात नहीं, परन्तु घर-भर के लोगों में किसी में भी जो इतनी-सी शक्ति नहीं कि यमराज के घर जाने की आज्ञा तक की उपेक्षा कर सके, सो वह आखिर है कौन चीज़!

इसके समस्त सम्बन्धों से अपने को विच्छिन्न करने के लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया! लड़-झगड़कर चल दिया हूँ, सन्न्यासी होकर भी देख लिया, यहाँ तक कि देश छोड़कर बहुत दूर चला गया हूँ जिससे फिर कभी मुलाकात ही न हो, परन्तु मेरी समस्त चेष्टाएँ किसी गोल चीज़ पर सीधी लकीर खींचने के समान बारम्बार केवल व्यर्थ ही हुई हैं। अपने को हज़ार बार धिक्कारने पर भी अपनी कमज़ोरी के आगे आखिर मैं पराजित ही हुआ हूँ, और इसी बात का खयाल करके अन्त में जब मैंने आत्म-समर्पण कर दिया तब रतन ने आकर आज मुझे इस बात की खबर दी, "राजलक्ष्मी जादू-मन्त्र जानती है!"

बात ठीक है। लेकिन इसी रतन से अगर जिरह करके पूछा जाय तो मालूम होगा कि वह खुद भी इस बात पर विश्वास नहीं करता।

सहसा देखा कि राजलक्ष्मी एक पत्थर की प्याली में कुछ लिये हुए व्यस्त भाव से इधर ही से नीचे जा रही है। मैंने बुलाकर कहा, "सुनो तो, सभी कहते हैं कि तुम जादू-मन्त्र जानती हो!"

वह चौंककर खड़ी हो गयी और बोली, "क्या जानती हूँ?"

मैंने कहा, "जादू-मन्त्र!"

राजलक्ष्मी ने मुँह बिचकाकर जरा मुस्कराते हुए कहा, "हाँ, जानती हूँ।"

यह कहकर वह चली जा रही थी, सहसा मेरे कुरते को गौर से देखकर उद्विग्न कण्ठ से पूछ उठी, "यह क्या? कल का वही बासी कुरता पहने हुए हो क्या?"

अपनी तरफ देखकर मैंने कहा, "हाँ, वही है। मगर रहने दो, खूब उजला है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "उजले की बात नहीं, मैं सफाई की बात कह रही हूँ।" इसके बाद फिर जरा मुस्कराकर कहा, "तुम बाहर के इस दिखावटी उजलेपन में ही हमेशा गर्क रहे! इसकी उपेक्षा करने को मैं नहीं कहती, मगर भीतर पसीने से गन्दगी बढ़ जाती है, इस बात पर गौर करना कब सीखोगे?" इतना कहकर उसने रतन को आवाज़ दी। किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। कारण, मालकिन की इस तरह की ऊँची-मीठी आवाज़ का जवाब देना इस घर का नियम नहीं, बल्कि चार-छह मिनट के लिए मुँह छिपा जाना ही नियम है।

आखिर राजलक्ष्मी ने हाथ की चीज़ नीचे रखकर बगल के कमरे में से एक धुला हुआ कुरता लाकर मेरे हाथ में दिया और कहा, "अपने मन्त्री रतन से कहना, जब तक उसने जादू-मन्त्र नहीं सीख लिया है, तब तक इन सब जरूरी कामों को वह अपने हाथों से ही किया करे।" यह कहकर वह प्याली उठाकर नीचे चली गयी।

कुरता बदलते वक्त देखा कि उसका भीतरी हिस्सा सचमुच ही गन्दा हो गया है। होना ही चाहिए था, और मैंने भी इसके सिवा और कुछ उम्मीद की हो, सो भी नहीं। मगर मेरा मन तो था सोचने की तरफ, इसी से इस अतितुच्छ चोले के भीतर-बाहर के वैसे दृश्य ने ही फिर मुझे नयी चोट पहुँचाई।

राजलक्ष्मी की यह शुचिता की सनक बहुधा हम लोगों को निरर्थक, दु:खदायक और यहाँ तक कि 'अत्याचार' भी मालूम हुई है; और अभी एक ही क्षण में उसका सब कुछ मन से धुल-पुछ गया हो, सो भी सत्य नहीं; परन्तु, इस अन्तिम श्लेष में जिस वस्तु को मैंने आज तक मन लगाकर नहीं देखा था, उसी को देखा। जहाँ से इस अद्भुत मानवीकी व्यक्त और व्यक्त जीवन की धाराएँ दो बिल्कुचल प्रतिकूल गतियों में बहती चली आ रही हैं, आज मेरी निगाह ठीक उसी स्थान पर जाकर पड़ी। एक दिन अत्यन्त आश्चर्य में डूबकर सोचा था कि बचपन में राजलक्ष्मी ने जिसे प्यार किया था उसी को प्यारी ने अपने उन्माद-यौवन की किसी अतृप्त लालसा के कीचड़ से इस तरह बहुत ही आसानी से सहस्र दल-विकसित कमल की भाँति पलक मारते ही बाहर निकाल दिया! आज मालूम हुआ कि वह प्यारी नहीं है, वह राजलक्ष्मी ही है। 'राजलक्ष्मी' और 'प्यारी' इन दो नामों के भीतर उसके नारी-जीवन का कितना बड़ा इंगित छिपा था, मैंने उसे देखकर भी नहीं देखा; इसी से कभी-कभी संशय में पड़कर सोचा है कि एक के अन्दर दूसरा आदमी अब तक कैसे ज़िन्दा था! परन्तु, मनुष्य तो ऐसा ही है! इसी से तो वह मनुष्य है!

प्यारी का सारा इतिहास मुझे मालूम नहीं, मालूम करने की इच्छा भी नहीं। और राजलक्ष्मी का ही सारा इतिहास जानता होऊँ, सो भी नहीं; सिर्फ इतना ही जानता हूँ कि इन दोनों के मर्म और कर्म में न कभी किसी दिन कोई मेल था और न सामंजस्य ही। हमेशा ही दोनों परस्पर उलटे स्रोत में बहती गयी हैं। इसी से एक की निभृत सरसी में जब शुद्ध सुन्दर प्रेम का कमल धीरे-धीरे लगातार दल पर दल फैलाता गया है तब दूसरी के दुर्दान्त जीवन का तूफ़ान वहाँ व्याघात तो क्या करेगा, उसे प्रवेश का मार्ग तक नहीं मिला! इसी से तो उसकी एक पंखुड़ी तक नहीं झड़ी है, जरा-सी धूल तक उड़कर आज तक उसे स्पर्श नहीं कर सकी है।

शीत-ऋतु की संध्यार जल्दी ही घनी हो आई, मगर मैं वहीं बैठा सोचता रहा। मन-ही-मन बोला, "मनुष्य सिर्फ उसकी देह ही तो नहीं है! प्यारी नहीं रही, वह मर गयी। परन्तु, किसी दिन अगर उसने अपनी उस देह पर कुछ स्याही लगा भी ली हो तो क्या सिर्फ उसी को बड़ा करके देखता रहूँ, और राजलक्ष्मी जो अपने सहस्र-कोटि दु:खों की अग्नि-परीक्षा पार करके आज अपनी अकलंक शुभ्रता में सामने आकर खड़ी हुई है उसे मुँह फेरकर बिदा कर दूँ? मनुष्य में जो पशु है, सिर्फ उसी के अन्याय से और उसी की भूल-भ्रान्ति से-मनुष्य का विचार करूँ? और जिस देवता ने समस्त दु:ख, सम्पूर्ण व्यथा और समस्त अपमानों को चुपचाप सहन और वहन करके भी आज सस्मित मुख से आत्म-प्रकाश किया है, उसे बिठाने के लिए कहीं आसन भी न बिछाऊँ? यह क्या मनुष्य के प्रति सच्चा न्याय होगा?' मेरा मन मानो आज अपनी सम्पूर्ण शक्ति से कहने लगा, "नहीं-नहीं, हरगिज नहीं, यह कदापि नहीं होगा, ऐसा तो हो ही नहीं सकता।" वह कोई ज़्यादा दिन की बात नहीं जब अपने को दुर्बल, श्रान्त और पराजित सोचकर राजलक्ष्मी के हाथ अपने को सौंप दिया था, किन्तु, उस दिन उस पराभूत के आत्म-त्याग में एक बड़ी जबरदस्त दीनता थी। तब मेरा वही मन मानो किसी भी तरह अनुमोदन नहीं कर रहा था; परन्तु आज मेरा मन मानो सहसा ज़ोर के साथ इसी बात को बार-बार कहने लगा, "वह दान दान ही नहीं, वह धोखा है। जिस प्यारी को तुम जानते न थे उसे जानने के बाहर ही पड़ी रहने दो; परन्तु, जो राजलक्ष्मी एक दिन तुम्हारी ही थी, आज उसी को तुम सम्पूर्ण चित्त से ग्रहण करो। और जिनके हाथ से संसार की सम्पूर्ण सार्थकता निरन्तर झड़ रही है, इसकी भी अन्तिम सार्थकता उन्हीं के हाथ सौंपकर निश्चिन्त हो जाओ।"

नया नौकर बत्ती ला रहा था, उसे बिदा करके मैं अंधेरे में ही बैठा रहा और मन-ही-मन बोला, "आज राजलक्ष्मी को सारी भलाइयों और सारी बुराइयों के साथ स्वीकार करता हूँ। इतना ही मैं कर सकता हूँ, सिर्फ इतना ही मेरे हाथ में है। मगर, इसके अतिरिक्त और भी जिनके हाथ में है, उन्हीं को उस अतिरिक्त के बोझे को सौंपता हूँ।" इतना कहकर मैं उसी अन्धकार में खाट के सिरहाने चुपचाप अपना सिर रखकर पड़ रहा।

पहले दिन की तरह दूसरे दिन भी यथा-रीति तैयारियाँ होने लगीं, और उसके बाद तीसरे दिन भी दिन-भर उद्यम की सीमा न रही। उस दिन दोपहर को एक बड़े भारी सन्दूक में थाली, लोटे-गिलास, कटोरे-कटोरियाँ और दीवट आदि भरे जा रहे थे। मैं अपने कमरे में से ही सब देख रहा था। मौक़ा पाकर मैंने राजलक्ष्मी को इशारे से अपने पास बुलाकर पूछा, "यह सब हो क्या रहा है? तुम क्या अब वहाँ से वापस नहीं आना चाहतीं, या क्या?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "वापस कहाँ आऊँगी?"

मुझे याद आया, यह मकान उसने बंकू को दान कर दिया है। मैंने कहा, "मगर, मान लो कि वह जगह तुम्हें ज़्यादा दिन अच्छी न लगे तो?"

राजलक्ष्मी ने जरा मुस्कराते हुए कहा, "मेरे लिए मन ख़राब करने की जरूरत नहीं। तुम्हें अच्छा न लगे, तो तुम चले आना, मैं बाधा न डालूँगी।"

उसके कहने के ढंग से मुझे चोट पहुँची, मैं चुप हो रहा। यह मैंने बहुत बार देखा है कि वह मेरे इस ढंग के किसी भी प्रश्न को मानो सरल चित्त से ग्रहण नहीं कर सकती। मैं किसी को निष्कपट होकर प्यार कर सकता हूँ, या उसके साथ स्थिर होकर रह सकता हूँ, यह बात किसी भी तरह मानो उसके मन में समाकर एक होना नहीं चाहती। सन्देह के आलोड़न में अविश्वास एक क्षण में ही ऐसा उग्र होकर निकल पड़ता है कि उसकी ज्वाला दोनों ही के मन में बहुत देर तक लप-लप लपटें लिया करती है। अविश्वास की यह आग कब बुझेगी। सोचते-सोचते मुझे इसका कहीं ओर-छोर ही नहीं मिलता। वह भी इसी की खोज में निरन्तर घूम रही है। और, गंगामाटी भी इस बात का अन्तिम फैसला कर देगी या नहीं, यह तथ्य जिनके हाथ में है वे ऑंखों के ओझल चुप्पी साधे बैठे हैं।

सब तरह की तैयारियाँ होते-होते और भी तीन-चार दिन बीत गये; उसके बाद और भी दो एक दिन गये शुभ साइत की प्रतीक्षा में। अन्त में, एक दिन सबेरे हम लोग अपरिचित गंगामाटी के लिए सचमुच ही घर से बाहर निकल पड़े। यात्रा में कुछ अच्छा नहीं लगा, मन में जरा भी खुशी नहीं थी। और, सबसे बुरी बीती शायद रतन पर। वह मुँह को अत्यन्त भारी बनाकर गाड़ी के एक कोने में चुपचाप बैठा ही रहा, स्टेशन पर स्टेशन गुजरते गये, पर उसने किसी भी काम में ज़रा भी सहायता नहीं की। मगर, मैं सोच रहा था, बिल्कु्ल ही दूसरी बात। जगह जानी हुई है या अनजानी, अच्छी है या बुरी, स्वास्थ्यकर है या मलेरिया से भरी, इन बातों की तरफ मेरा ध्याहन ही न था। मैं सोच रहा था; यद्यपि अब तक मेरा जीवन निरुपद्रव नहीं बीता; उसमें बहुत-सी ग़लतियाँ बहुत-सी भूलें-चूकें, बहुत-सा दु:ख-दैन्य रहा है, फिर भी, वे सब मेरे लिए अत्यन्त परिचित हैं। इस लम्बे अरसे में उनसे मेरा मुकाबिला तो हुआ ही है, साथ ही एक तरह का स्नेहा सा पैदा हो गया है। उनके लिए मैं किसी को भी दोष नहीं देता, और अब मुझे भी और कोई दोष देकर अपना समय नष्ट नहीं करता। परन्तु, यह जीवन क्या जाने कहाँ को किस नवीनता की ओर निश्चित रूप से चला जा रहा है और इस निश्चितता ने ही मुझे विकल कर दिया है। 'आज नहीं कल' कहकर और देर करने का भी रास्ता नहीं। और मज़ा यह कि न तो मैं इसकी भलाई को जानता हूँ और न बुराई को। इसी से इसकी भलाई-बुराई कुछ भी, किसी हालत में, अब मुझे अच्छी नहीं लगती। गाड़ी ज्यों-ज्यों तेजी के साथ गन्तव्य स्थान के निकट पहुँचती जाती है, त्यों-त्यों इस अज्ञात रहस्य का बोझ मेरी छाती पर पत्थर-सा भारी होकर मज़बूती से बैठता जाता है। कितनी-कितनी बातें मन में आने लगीं, उनकी कोई हद नहीं। मालूम हुआ, निकट भविष्य में ही शायद मुझको ही केन्द्र बनाकर एक भद्दा दल संगठित हो उठेगा। उसे न तो ग्रहण कर सकूँगा और न अलग फेंक सकूँगा। तब क्या होगा और क्या न होगा, इस बात को सोचने में भी मेरा मन मानो जमकर बरफ हो गया।

मुँह उठाकर देखा, तो राजलक्ष्मी चुपचाप बैठी खिड़की के बाहर देख रही है। सहसा मालूम हुआ कि मैंने कभी किसी दिन इससे प्रेम नहीं किया। फिर भी इसे ही मुझे प्रेम करना पडेग़ा। कहीं किसी तरफ से भी निकल भागने का रास्ता नहीं है। संसार में इतनी बड़ी विडम्बना क्या कभी किसी के भाग्य में घटित हुई है? और मज़ा यह कि एक ही दिन पहले इस दुविधा की चक्की से अपनी रक्षा करने के लिए अपने को सम्पूर्ण रूप से उसी के हाथ सौंप दिया था। तब मन-ही-मन ज़ोर के साथ कहा था कि तुम्हारी सभी भलाई-बुराइयों के साथ ही तुम्हें अंगीकार करता हूँ लक्ष्मी! और आज, मेरा मन ऐसा विक्षिप्त और ऐसा विद्रोही हो उठा। उसी से सोचता हूँ, संसार में 'करूँगा' कहने में और सचमुच के करने में कितना बड़ा अन्तर है!

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साँइथिया स्टेशन पर जब गाड़ी पहुँची तब दिन ढल रहा था। राजलक्ष्मी के गुमाश्ता काशीराम स्वयं स्टेशन पर नहीं आ सके, वे उधर के इन्तज़ाम में लगे हुए हैं। मगर दो आदमियों को उन्होंने चिट्ठी लिखकर भेज दिया है। उनके रुक्के से मालूम हुआ कि ईश्वर की इच्छा से 'अब', अर्थात् उनके घर में और उनकी गंगामाटी में सब तरह से कुशल है। आज्ञानुसार स्टेशन के बाहर चार बैलगाड़ियाँ तैयार खड़ी मिलेंगी जिनमें से दो तो खुली हुई हैं और दो छाई हुई। एक पर बहुत-सा सूखा घास और खजूर की पत्तियों की चटाई बिछा दी गयी है और वह स्वयं मालकिन साहबा के लिए है। दूसरी में मामूली थोड़ा-सा घास डाल दिया गया है, पर चटाई नहीं है वह नौकर-चाकर आदि अनुचरों के लिए है। खुली हुई दो गाड़ियों पर असबाब लादा जायेगा। और 'यद्यपि स्यात्' स्थानाभाव हो, तो पियादों को हुक्म देते ही वे बाज़ार से और भी एक गाड़ी लाकर हाज़िर कर देंगे। उन्होंने और भी लिखा है कि भोजनादि सम्पन्न करके संध्याब से पूर्व ही रवाना हो जाना वांछनीय है। अन्यथा मालकिन साहबा की सुनिद्रा में व्याघात हो सकता है। और इस विषय में विशेष लिखा है कि मार्ग में भयादि कुछ नहीं है, आनन्द से सोती हुई आ सकती हैं।

मालकिन साहबा रुक्का पढ़कर कुछ मुसकराईं। जिसने उसे दिया उससे भयादि के विषय में कोई प्रश्न न करके उन्होंने पूछा, "क्यों भाई, आसपास में कोई तलाव-अलाव बता सकते हो? एक डुबकी लगा आती।"

"है क्यों नहीं, माँ जी। वह रहा वहाँ..."

"तो चलो भइया, दिखा दो" कहती हुई वह उस आदमी को और रतन को साथ लेकर न जाने कहाँ की एक अनजान तलैया में स्नानादि करने चली गयी। बीमारी आदि का भय दिखाना निरर्थक समझकर मैंने प्रतिवाद भी नहीं किया। ख़ासकर इसलिए कि अगर वह कुछ खा-पी लेना चाहती हो, तो इससे वह भी आज के लिए बन्द हो जायेगा।

लेकिन, आज वह दसेक मिनट में ही लौट आई। बैलगाड़ी पर असबाब लद रहा है और मामूली-सा एक बिस्तर खोलकर सवारी वाली गाड़ी में बिछा दिया गया है। मुझसे उसने कहा, "तुम क्यों नहीं इसी वक्त कुछ खा-पी लेते? सभी कुछ तो आ गया है।"

मैंने कहा, "दो!"

पेड़ के नीचे आसन बिछाकर एक केले के पत्ते पर मेरे लिए वह खाना परोस रही थी और मैं निस्पृह दृष्टि से सिर्फ उसकी ओर देख रहा था। इतने में एक मूर्ति ने आकर और सामने खड़े होकर कहा, "नारायण!"

राजलक्ष्मी ने अपने भीगे बालों पर बायें हाथ से धोती का पल्ला खींचते हुए मुँह उठाकर ऊपर देखा और कहा, "आइए।"

अकस्मात् यह नि:संकोच निमन्त्रण का शब्द सुनकर मुँह उठाकर देखा, तो, एक साधु खड़ा है। बहुत ही आश्चर्य हुआ। उसकी उमर ज़्यादा नहीं थी, वह शायद बीस-बाईस के भीतर ही होगा, मगर देखने में जैसा सुकुमार वैसा ही सुन्दर! चेहरा कृशता की ओर ही जा रहा है, शायद कुछ लम्बा होने के कारण ही ऐसा मालूम हुआ, मगर रंग तपे-सोने जैसा। ऑंखें, भौहें, चेहरा और ललाट की बनावट निर्दोष। वास्तव में, पुरुष का इतना रूप मैंने कभी देखा हो, ऐसा नहीं मालूम हुआ। उसका गेरुआ परिधान-वस्त्र जगह-जगह फटा हुआ है, गाँठें बँधी हुई हैं। बदन पर गेरुआ ढीला कुरता है, उसकी भी यही दशा है; पैरों में पंजाबी जूता है, उसकी हालत भी वैसी ही है। खो जाने पर उसके लिए अफ़सोस करने की जरूरत नहीं। राजलक्ष्मी ने ज़मीन से सिर टेककर प्रणाम करके आसन बिछा दिया। फिर मुँह उठाकर कहा, "मैं जब तक भोजन परोसने की तैयारी करूँ, तब तक आपको मुँह-हाथ धोने के लिए जल दिया जाय।"

साधु ने कहा, "हाँ हाँ, लेकिन आपके पास मैं दूसरे ही काम के लिए आया था।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "अच्छी बात है, आप भोजन करने बैठिए, और बातें पीछे होंगी। पर लौटने के लिए टिकट ही चाहिए न? सो मैं ख़रीद दूँगी।" इतना कहकर उसने मुँह फेरकर अपनी हँसी छिपा ली।

साधुजी ने गम्भीरता के साथ जवाब दिया, "नहीं, उसकी जरूरत नहीं। मुझे खबर मिली है कि आप लोग गंगामाटी जा रहे हैं। मेरे साथ एक भारी बॉक्स है, उसे अगर आप अपनी गाड़ी में ले चलें तो अच्छा हो। मैं भी उसी तरफ जा रहा हूँ।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "इसमें कौन-सी बड़ी बात है; मगर आप खुद?"

"मैं पैदल ही जा सकता हूँ। ज़्यादा दूर नहीं, छै-सात कोस ही तो होगा।"

राजलक्ष्मी ने और कुछ न कहकर रतन को बुला के जल देने के लिए कहा और खुद ढंग के साथ अच्छी तरह साधुजी के लिए भोजन परोसने में लग गयी। यह राजलक्ष्मी की ख़ास अपनी चीज़ है, इस काम में उसका सानी मिलना मुश्किल है।

साधु महाराज खाने बैठे, मैं भी बैठ गया। राजलक्ष्मी मिठाई के बर्तन लिये पास ही बैठी रही। दो ही मिनट बाद राजलक्ष्मी ने धीरे-से पूछा, "साधुजी, आपका नाम?"

साधु ने खाते खाते कहा, "वज्रानन्द।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "बाप रे बाप! और पुकारने का नाम?"

उसके कहने के ढंग से मैंने उसकी तरफ देखा तो उसका सारा चेहरा दबी हुई मुस्कराहट से चमक उठा था, मगर वह हँसी नहीं। मैंने भोजन करने में मन लगाया। साधुजी ने कहा, "उस नाम के साथ तो अब कोई सम्बन्ध नहीं रहा। न अपना रहा और न दूसरों का।"

राजलक्ष्मी ने सहज ही हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा, "हाँ, सो तो ठीक है।" परन्तु क्षण-भर बाद वह फिर पूछ बैठी, "अच्छा साधुजी, आपको घर से भागे कितने दिन हुए?"

प्रश्न बहुत ही अभद्र था। मैंने निगाह उठाकर देखा, राजलक्ष्मी के चेहरे पर हँसी तो नहीं है, पर जिस प्यारी के चेहरे को मैं भूल गया था, इस समय राजलक्ष्मी की तरफ देखकर निमेष-मात्र में वही चेहरा मुझे याद आ गया। उन पुराने दिनों की सारी सरसता उसकी ऑंखों, मुँह और कण्ठ-स्वर में मानो सजीव होकर लौट आई है।

साधु ने एक कौर नीचे उतारकर कहा, "आपका यह कुतूहल ही अनावश्यक है।"

राजलक्ष्मी जरा भी क्षुण्ण नहीं हुई, भले मानसों की तरह सिर हिलाकर बोली, "सो तो सच है। लेकिन, एक बार मुझे बहुत भुगतना पड़ा था, इसी से..." कहते हुए उसने मेरी ओर लक्ष्य करके कहा, "हाँ जी, तुम अपना वह ऊँट और टट्टू का किस्सा तो सुनाना! साधुजी को जरा सुना तो दो, अरे रे, भगवान भरोसा! घर में शायद कोई याद कर रहा है।"

साधुजी के गले में, शायद हँसी रोकने में ही, फन्दा लग गया। अब तक मेरे साथ उनकी एक भी बात नहीं हुई थी, मालकिन महोदय की ओट में मैं कुछ-कुछ अनुचर-सा ही बना बैठा था। अब साधुजी ने फन्दे को सँभालते हुए यथासाध्या गम्भीरता के साथ मुझसे पूछा, "तो आप भी शायद एक बार सन्न्यासी..."

मेरे मुँह में पूड़ी थी, ज़्यादा बात करने की गुंजाइश न थी, इसलिए दाहिने हाथ की चार उँगलियाँ उठाकर गरदन हिलाते हुए मैंने कहा, "उँहूँ...एक बार नहीं, एक बार नहीं..."

अब तो साधुजी की गम्भीरता न टिक सकी, वे और राजलक्ष्मी दोनों खिल-खिलाकर हँस पड़े। हँसी थमने पर साधुजी ने कहा, "लौट क्यों आये?"

मैं अब तक पूड़ी का कौर लील न सका था, सिर्फ इशारे से राजलक्ष्मी को दिखा दिया।

राजलक्ष्मी ने मुझे डाँट-सा दिया, कहा, "हाँ, सो तो ठीक है! अच्छा, एक बार मान लिया मेरे लिए ही, सो भी ठीक सच नहीं है, असल में जबरदस्त बीमारी की वजह से ही।- मगर और तीन बार?"

मैंने कहा, "वह भी लगभग ऐसे ही कारण से, मच्छड़ों के मारे। मच्छड़ों का काटना चमड़े से बरदाश्त नहीं हुआ। अच्छा..."

साधु ने हँसकर कहा, "मुझे आप वज्रानन्द ही कहा कीजिएगा। आपका नाम..."

मुझसे पहले राजलक्ष्मी ने ही जवाब दिया। बोली, "इनके नाम से क्या होगा। उमर में ये बहुत बड़े हैं, इन्हें आप भइया कहा कीजिएगा। और मुझे भी भाभी कहें तो मैं नाराज न हूँगी। मैं भी तो उमर में तुमसे चार-छै साल बड़ी ही हूँगी।"

साधुजी का चेहरा सुर्ख हो उठा। मैंने भी इतनी आशा नहीं की थी। आश्चर्य के साथ मैंने देखा कि वही है। वही स्वच्छ, सरल, स्नेहातुर, आनन्दमयी। वही जिसने मुझे किसी भी तरह श्मशान में नहीं जाने दिया और किसी भी हालत में राजा के संसर्ग में नहीं टिकने दिया,- यह वही है। जो लड़का अपने कहीं के स्नेह-बन्धन को तोड़कर चला आया है, उसकी सम्पूर्ण अज्ञात वेदना ने राजलक्ष्मी के समस्त हृदय को मथ डाला है। किसी भी तरह इसे वह फिर से घर लौटा देना चाहती है।

साधु बेचारे ने लज्जा के धक्के को सँम्हाजलते हुए कहा, "देखिए, भइया कहने में मुझे ऐसी कोई आपत्ति नहीं, मगर हम सन्न्यासी लोगों को किसी को इस तरह नहीं पुकारना चाहिए।"

राजलक्ष्मी लेशमात्र भी अप्रतिभ ने हुई। बोली, "क्यों नहीं! भइया की बहू को सन्न्यासी लोग कोई मौसी कहकर तो पुकारते नहीं, और बुआ कहते हों सो भी नहीं, इसके सिवा मुझे तुम और क्या कहकर पुकार सकते हो?"

लड़का निरुपाय होकर अन्त में सलज्ज हँसते हुए चेहरे से बोला, "अच्छी बात है। छै-सात घण्टे और भी हूँ आपके साथ, इस बीच में अगर जरूरत पड़ी तो वही कहूँगा।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तो कहो न एक बार!"

साधु हँस पड़े, बोले, "जरूरत पड़ेगी तो कहूँगा, झूठमूठ पुकारना ठीक नहीं।"

राजलक्ष्मी ने उसकी पत्तल में और भी चार-पाँच 'सन्देश' और बरफी परोसकर कहा, "अच्छा, उसी से मेरा काम चल जायेगा। मगर जरूरत पड़ने पर मैं क्या कहकर तुम्हें बुलाऊँ, सो कुछ समझ में नहीं आता।" फिर मेरी तरफ इशारा करके कहा, "इन्हें तो बुलाया करती थी। 'सन्न्यासी महाराज' कह के। सो अब हो नहीं सकता, घुटाला हो जायेगा। अच्छा, तो मैं तुम्हें 'साधु देवर' कहा करूँ, क्या कहते हो?"

साधुजी ने आगे तर्क नहीं किया, अत्यन्त गम्भीरता के साथ कहा, "अच्छा, सो ही सही।"

वे और बातों में चाहे जैसे हों, पर देखा कि खाने-पीने के मामले में उन्हें काफ़ी रसज्ञता है। पछाँह की उमदा मिठाइयों की वे क़दर करते हैं, और यही वजह है कि किसी वस्तु का उन्होंने असम्मान नहीं किया। एक तो बड़े जतन और परम स्नेह के साथ एक के बाद एक चीज़ परोसती जाती थी, और दूसरे सज्जन चुपचाप बिना किसी संकोच के गले के नीचे उतारते जाते थे। मगर मैं उद्विग्न हो उठा। मन-ही-मन समझ गया कि साधुजी पहले चाहे कुछ भी करते रहे हों, परन्तु, फिलहाल इन्हें ऐसी उपादेय भोज्य सामग्री इतनी ज़्यादा तादाद में सेवन करने का मौक़ा नहीं मिला है। परन्तु, कोई अगर अपनी दीर्घकाल व्यापी त्रृटि को एक ही बार में एक साथ दूर करने का प्रयत्न करे, तो उसे देखकर दर्शकों के लिए धैर्य की रक्षा करना मुश्किल ही नहीं असम्भव हो जाता है। लिहाज़ा राजलक्ष्मी के और भी कई पेड़े और बरफी साधुजी की पत्तल में रखते ही अनजान में मेरी नाक और मुँह से एक साथ इतना बड़ा दीर्घ नि:श्वास निकल पड़ा कि राजलक्ष्मी और उसके नये कुटुम्बी दोनों ही चौंक पड़े। राजलक्ष्मी मेरे मुँह की ओर देखकर झटपट कह उठी, "तुम कमज़ोर आदमी हो, चलो उठकर मुँह-हाथ धो लो। हम लोगों के साथ बैठे रहने की क्या जरूरत है?"

साधुजी ने एक बार मेरी तरफ, और फिर राजलक्ष्मी की तरफ और उसके बाद मिठाई वाले बरतन की तरफ देखकर हँसते हुए कहा, "गहरी साँस लेने की तो बात ही है भाई, कुछ भी तो नहीं बचा!"

"अभी बहुत है" कहकर राजलक्ष्मी मेरी ओर क्रुद्ध दृष्टि देखकर रह गयी।

ठीक इसी समय रतन पीछे आकर खड़ा हो गया और बोला, "चिउड़ा तो बहुत मिलता है, पर दूध या दही कुछ भी तुम्हारे लिए नहीं मिला।"

साधु बेचारे अत्यन्त लज्जित होकर बोले, "आप लोगों के आतिथ्य पर मैंने बड़ा अत्याचार किया है," यह कहकर वे सहसा उठना ही चाहते थे कि राजलक्ष्मी व्याकुल होकर कहने लगी, "मेरे सर की कसम है लालाजी, अगर उठे। कसम खाती हूँ, मैं सब उठा के फेंक दूँगी।"

साधु क्षण-भर तो विस्मय से शायद यही सोचते रहे कि यह कैसी स्त्री है जो दो घड़ी की जान-पहिचान में ही इतनी गहरी घनिष्ठ हो उठी। राजलक्ष्मी की प्यारी का इतिहास जो नहीं जानता उसके लिए तो यह आश्चर्य की बात है ही।

इसके बाद वह जरा हँसकर बोले, "मैं सन्न्यासी आदमी ठहरा, खाने-पीने में मुझे कोई हिचक नहीं है; मगर आपको भी कुछ खाना चाहिए। मेरी कसम खाने से तो पेट भर नहीं जायेगा?"

राजलक्ष्मी ने दाँतों-तले जीभ दबाकर गम्भीरता के साथ कहा, "छि छि, ऐसी बात औरतों से नहीं कहना चाहिए, लालाजी। मैं यह सब कुछ नहीं खाती, मुझसे बरदाश्त नहीं होता। नौकर, तो उनके लिए काफ़ी है। आज रात-भर की ही बात है, जो कुछ मिल जाय, मुट्ठी-भर चिउड़ा-इउड़ा खाकर जरा पानी पी लेने से ही मेरा काम चल जायेगा। लेकिन, तुम अगर भूखे उठ गये, तो थोड़ा-बहुत जो कुछ मैं खाती हूँ सो भी न खाऊँगी। विश्वास न हो तो इनसे पूछ लो।" इतना कहकर उसने मुझसे अपील की। मैंने कहा, "यह बात सच है, इसे मैं हलफ उठाकर कहने को तैयार हूँ। साधुजी, झूठमूठ बहस करने से कोई लाभ नहीं। भाई साहब, बन सके तो बर्तन को औंधा करके उड़ेलवाने तक सेवन करते चले जाओ; नहीं तो, फिर यह किसी काम में ही नहीं आयेगा। यह सब सामान रेलगाड़ी में आया है। लिहाज़ा भूखों मर जाने पर भी कोई इन्हें तिल-भर भी नहीं खिला सकता। यह ठीक बात है।"

साधु ने कहा, "मगर यह मिठाई तो गाड़ी की छुई हुई नहीं मानी जाती!"

मैंने कहा, "इसकी मीमाँसा तो मैं इतने दिनों में भी खतम न कर सका भाई साहब, तब तुम क्या एक ही बैठक में फैसला कर डालोगे? इससे तो बल्कि हाथ का काम खतम करके उठ बैठना अच्छा, नहीं तो सूरज डूब जाने पर शायद चिउड़ा पानी भी गले से नीचे उतारने की नौबत न आयेगी। मेरा कहना है कि दो-चार घण्टे तो तुम साथ में हो ही, शास्त्र का विचार समझा सको तो रास्ते में समझा देना, उससे काज न होगा ता कम-से-कम अकाज न बढ़ेगा। इस वक्त जो हो रहा है, वही होने दो।"

साधु ने पूछा, "तो क्या दिन-भर से इन्होंने कुछ खाया ही नहीं?"

मैंने कहा, "नहीं। इसके सिवा कल भी क्या जाने क्या था, सुन रहा हूँ कि दो-चार फल-फूल के सिवा कल भी और कुछ मुँह में नहीं दिया है।"

रतन पीछे ही खड़ा था, गरदन हिलाकर क्या जाने क्या कहते-कहते, शायद मालकिन की ऑंख के गुप्त इशारे से सहसा रुक गया।

साधु ने राजलक्ष्मी की ओर देखकर कहा, "इससे आपको कष्ट नहीं होता?"

उत्तर में राजलक्ष्मी सिर्फ जरा हँस दी, परन्तु मैंने कहा, "इस बात को आप प्रत्यक्ष और अनुमान किसी तरह भी नहीं जान सकते। हाँ, ऑंखों से जो कुछ देखा है उसमें, शायद, दो-एक दिन और भी जोड़े जा सकते हैं।"

राजलक्ष्मी ने प्रतिवाद करते हुए कहा, "तुमने देखा है ऑंखों से?- कभी नहीं।"

मैंने इसका जवाब नहीं दिया, और साधुजी ने भी फिर कोई प्रश्न नहीं किया। समय की तरफ खयाल करके वे चुपचाप भोजन समाप्त करके उठ बैठे।

रतन और उसके साथी दो जनों को खाते-पीते बहुत देर हो गयी। राजलक्ष्मी ने अपने लिए क्या व्यवस्था की, सो वही जाने। हम लोग गंगामाटी के लिए जब रवाना हुए तब शाम हो चुकी थी। एकादशी का चाँद अब तक उज्ज्वल न हुआ था, और अन्धकार भी कहीं कुछ न था। असबाब की दोनों गाड़ियाँ सबसे पीछे, राजलक्ष्मी की गाड़ी बीच में और हम लोगों की गाड़ी अच्छी होने के कारण सबसे आगे थी। साधुजी को पुकारकर मैंने कहा, "भाई साहब, पैदल तो चलते ही रहते हो, इसकी तुम्हें कोई कमी नहीं, आज-भर के लिए, न हो तो, मेरी ही गाड़ी पर आ जाओ।"

साधु ने कहा, "साथ ही तो चल रहे हैं, न चल सकूँगा तो बैठ लूँगा, मगर अभी जरा पैदल ही चलूँ।"

राजलक्ष्मी ने मुँह निकालकर कहा, "तो तुम मेरे बॉडी-गार्ड होकर चलो लालाजी, तुम्हारे साथ बातचीत करती हुई चलूँगी।" यह कहकर उसने साधुजी को अपनी गाड़ी के पास बुला लिया। सामने ही मैं था। बीच-बीच में गाड़ी, बैल और गाड़ीवानों के सम्मिलित उपद्रव से उनकी बातचीत के किसी-किसी अंश से वंचित होने पर भी अधिकांश सुनता हुआ चला।

राजलक्ष्मी ने कहा, "घर तुम्हारा इधर नहीं है, हमारे ही देश की तरफ है, सो तो मैं तुम्हारी बात सुनकर ही समझ गयी थी, मगर आज कहाँ चले हो, सच्ची-सच्ची बताना भाई।"

साधु ने कहा, "गोपालपुर।"

राजलक्ष्मी ने पूछा, "हमारी गंगामाटी से वह कितनी दूर है?"

साधु ने जवाब दिया, "आपकी गंगामाटी भी मुझे नहीं मालूम, और अपने गोपालपुर से भी वाकिफ नहीं; लेकिन हाँ, होंगे दोनों पास ही पास। कम-से-कम सुना तो ऐसा ही है।"

"तो फिर इतनी रात में कैसे तो गाँव पहिचानोगे, और कैसे उनका घर ढूँढ़ निकालोगे जिनके यहाँ जा रहे हो?"

साधुजी ने जरा हँसकर कहा, "गाँव पहिचानने में दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि रास्ते पर ही शायद एक सूखा तालाब है, उसके दक्खिन कोस-भर चलने से ही वह मिल जायेगा। और घर ढूँढ़ने की तो तकलीफ उठानी ही नहीं पड़ेगी, क्योंकि सभी अनजान हैं। मगर हाँ, पेड़ के नीचे तो जगह मिल ही जायेगी, इसकी पूरी उम्मीद है।"

राजलक्ष्मी ने व्याकुल होकर कहा, "ऐसे जाड़े की रात में पेड़ तले? इस जरा-से कम्बल पर भरोसा रखके? इसे मैं हरगिज बरदाश्त नहीं कर सकती, समझे लालाजी!"

उसके उद्वेग ने मानो मुझ तक को चोट पहुँचाई। साधु कुछ देर चुप रहकर धीरे-से बोले, "मगर हम लोगों के तो घर-द्वार नहीं है, हम लोग तो पेड़ तले ही रहा करते हैं, जीजी।"

अबकी बार राजलक्ष्मी भी क्षण-भर मौन रहकर बोली, "सो जीजी की ऑंखों के सामने नहीं। रात के वक्त भाई को मैं निराश्रय नहीं छोड़ सकती। आज मेरे साथ चलो, कल मैं खुद ही तैयारी करके भेज दूँगी।"

साधु चुप रहे। राजलक्ष्मी ने रतन को बुलाकर कह दिया कि बिना उनसे पूछे गाड़ी की कोई चीज़ स्थानान्तरित न की जाय। अर्थात् सन्न्यासी महाराज का बॉक्स आज रात-भर के लिए रोक रक्खा गया।

मैंने कहा, "तो फिर क्यों झूठमूठ को ठण्ड में तकलीफ उठा रहे हो भाई साहब, आ जाओ न मेरी गाड़ी में।"

साधु ने जरा कुछ सोचकर कहा, "अभी रहने दो। जीजी के साथ ज़रा बातचीत करता हुआ चल रहा हूँ।"

मैंने भी सोचा कि ठीक है और ताड़ गया कि अभी साधु बाबा के मन में नये सम्बन्ध को अस्वीकार करने का द्वन्द्व चल रहा है। मगर फिर भी, अन्त तक बचाव न हो सका। सहसा, जबकि उन्होंने अंगीकार कर ही लिया, तब बार-बार मेरे मन में आने लगा कि जरा सावधान करके उनसे कह दूँ, 'महाराज, भाग जाते तो अच्छा होता। अन्त में कहीं मेरी-सी दशा न हो!'

लेकिन, मैं चुप ही रहा।

दोनों की बातचीत धड़ल्ले से होने लगी। बैलगाड़ी के झकझोरों और ऊँघाई के झोंकों में, बीच-बीच में उनकी बातचीत का सूत्र खोते रहने पर भी, कल्पना की सहायता से उसे पूरा करते हुए रास्ता तय करने में मेरा समय भी बुरा नहीं बीता।

शायद मैं जरा तन्द्रा-मग्न हो गया, सहसा सुना, पूछा जा रहा है, "क्यों आनन्द, तुम्हारे उस बॉक्स में क्या-क्या है, भाई?"

उत्तर मिला, "कुछ किताबें और दवा-दारू है जीजी।"

"दवा-दारू क्यों? तुम क्या डॉक्टर हो?"

"मैं तो सन्न्यासी हूँ। अच्छा, आपने क्या सुना नहीं जीजी, आपके उस तरफ हैजा फैल रहा है?"

"नहीं तो। यह बात तो हमारे गुमाश्ते ने नहीं जताई। अच्छा, लालाजी, तुम हैजे को आराम कर सकते हो?"

साधुजी ने जरा मौन रहकर कहा, "आराम करने के मालिक तो हम लोग नहीं दीदी, हम लोग तो सिर्फ दवा देकर कोशिश कर सकते हैं। मगर इसकी भी जरूरत है, यह भी उन्हीं का आदेश है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "सन्न्यासी भी दवा दिया करते हैं, ठीक है, मगर सिर्फ दवा देने ही के लिए सन्न्यासी नहीं बना जाता। अच्छा आनन्द, तुम क्या सिर्फ इसीलिए सन्न्यासी हुए हो भइया?"

साधु ने कहा, "सो मैं ठीक नहीं जानता जीजी, मगर हाँ, देश की सेवा करना भी हम लोगों का एक व्रत है।"

"हम लोगों का? तो शायद तुम लोगों का एक दल होगा न, लालाजी?"

साधु कुछ जवाब न देकर चुप बने रहे। राजलक्ष्मी ने फिर पूछा, "लेकिन सेवा करने के लिए सो सन्न्यासी होने की जरूरत नहीं होती, भाई। तुम्हें यह मति बुद्धि दी किसने, बताओ तो?"

साधुजी ने इस प्रश्न का शायद उत्तर नहीं दिया, क्योंकि, कुछ देर तक किसी की कोई बात सुनने में नहीं आई। दसेक मिनट बाद कान में भनक पड़ी, साधुजी कह रहे हैं, 'जीजी, मैं बहुत ही क्षुद्र सन्न्यासी हूँ। मुझे यह नाम न भी दिया जाय तो ठीक है। मैंने तो सिर्फ अपना थोड़ा-सा भार फेंककर उसकी जगह दूसरों का बोझ लाद लिया है।"

राजलक्ष्मी कुछ बोली नहीं, साधुजी कहने लगे, "मैं शुरू से ही देख रहा हूँ कि आप मुझे बराबर घर लौटाने की कोशिश कर रही हैं। मालूम नहीं क्यों, शायद जीजी होने की वजह से ही। परन्तु जिनका भार लेने के लिए हम घर छोड़कर निकल आये हैं वे कितने दुर्बल, कितने रुग्ण, कैसे निरुपाय और कितनी संख्या में हैं, यह अगर किसी तरह एक बार जान जातीं, तो उस बात को फिर मन में भी ला नहीं सकतीं।"

इसका भी राजलक्ष्मी ने कुछ उत्तर नहीं दिया; परन्तु मैं समझ गया कि जो प्रसंग छिड़ा है, उसमें अब दोनों के मन और मत के भेद होने में देर नहीं होगी। साधुजी ने भी ठीक जगह पर ही चोट की है। देश की आभ्यन्तरिक अवस्था और उसके सुख, दु:ख, अभाव को मैं खुद भी कुछ कम नहीं जानता; मगर ये सन्न्यासी कोई भी क्यों न हों, इन्होंने अपनी इस थोड़ी-सी उमर में मुझसे बहुत ज़्यादा और घनिष्ठ भाव से सब देखा-भाला है और बहुत विशाल हृदय से उसे अपनाया है। सुनते-सुनते ऑंखों की नींद ऑंसुओं में परिवर्तित हो गयी और सारा हृदय क्रोध, क्षोभ, दु:ख और व्यथा से मानो मथा जाने लगा। पीछे की गाड़ी के अंधेरे कोने में अकेली बैठी हुई राजलक्ष्मी ने एक प्रश्न तक नहीं किया, इतनी बात में से एक भी बात में उसने साथ नहीं दिया। उसकी नीरवता से साधु महाराज ने क्या सोचा होगा सो वे ही जानें; परन्तु, इस एकान्त स्तब्धता का सम्पूर्ण अर्थ मुझसे छिपा न रहा।

'देश' के मानी हैं वे गाँव जहाँ देश के चौदह आने नर-नारी वास करते हैं। उन्हीं गाँवों की कहानी साधु कहने लगे। देश में पानी नहीं है, प्राण नहीं हैं, स्वास्थ्य नहीं है, जंगल की गन्दगी से जहाँ मुक्त प्रकाश और साफ़ हवा का मार्ग रुका हुआ है- जहाँ ज्ञान नहीं, जहाँ विद्या नहीं, धर्म भी विकृत और पथभ्रष्ट है : मृतकल्प जन्म-भूमि के इस दु:ख का विवरण छापे के अक्षरों में भी पढ़ा है और अपनी ऑंखों से भी देखा है, परन्तु यह न होना, कितना बड़ा 'न होना' है, इस बात को, मालूम हुआ कि, आज से पहले जानता ही न था। देश की यह दीनता कितनी भयंकर दीनता है, आज से पहले मानो उसकी धारणा भी मुझे न थी। सूखे सूने विस्तृत मैदान में से हम लोग गुजर रहे हैं। सड़क की धूल ओस से भीगकर भारी हो गयी है। उस पर गाड़ी के पहियों और बैलों के खुरों का शब्द कदाचित् ही सुनाई दे रहा है। आकाश की चाँदनी पाण्डुर होकर जहाँ तक दृष्टि जाती है वहाँ तक फैल रही है। इसी के भीतर के शीतऋतु के इस निस्तब्ध निशीथ में हम लोग अज्ञात की ओर धीर मन्थर गति से लगातार चल रहे हैं; अनुचरों में से कौन जाग रहा है और कौन नहीं, सो भी नहीं मालूम होता, सभी कोई शीत-वस्त्रों से अपना सर्वाक्ष् ढके हुए चुपचाप पड़े हैं। सिर्फ अकेले सन्न्यासीजी ही हमारे साथ सजग चल रहे हैं और इस परिपूर्ण स्तब्धता में सिर्फ उन्हीं के मुँह से देश के अज्ञात भाई-बहनों की असह्य वेदना का इतिहास मानो लपटें ले-लेकर जल-जलकर निकल रहा है। यह सोने की भूमि किस तरह धीरे-धीरे ऐसी शुष्क, ऐसी रिक्त हो गयी, कैसे देश की समस्त सम्पदा विदेशियों के हाथ में पड़कर धीरे-धीरे विदेश में चली गयी, किस तरह मातृ-भूमि के समस्त मेद-मज्जा और रक्त को विदेशियों ने शोषण कर लिया, इसके ज्वलन्त इतिहास को मानो वह युवक ऑंखों के सामने एक-एक करके उद्धाटित करके दिखलाने लगा।

सहसा साधु ने राजलक्ष्मी को सम्बोधन करके कहा, "मालूम होता है, तुम्हें मैं पहिचान सका हूँ जीजी। मन में आता है, तुम जैसी बहिनों को ले जाकर तुम्हारी अपनी ऑंखों के सामने तुम्हारे उन सब भाई-बहनों को दिखलाऊँ।"

राजलक्ष्मी से पहले तो कुछ बोला न गया, बाद में रुँधे हुए गले से वह बोली, "मुझे क्या ऐसा मौक़ा मिल सकता है, आनन्द? मैं जो औरत हूँ, इस बात को मैं कैसे भूलूँ, भइया?"

साधु ने कहा, "क्यों नहीं मिल सकता बहन? और, तुम औरत हो, इस बात को ही यदि भूल जाओगी तो कष्ट उठाकर तुम्हें वह सब दिखाने से मुझे लाभ ही क्या होगा?"

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साधु ने पूछा, "गंगामाटी क्या तुम्हीं लोगों की जमींदारी है, जीजी?" राजलक्ष्मी ने जरा मुसकराकर कहा, "देखते क्या हो भाई, हम एक बड़े भारी ज़मींदार हैं।"

अबकी बार जवाब देने में साधु भी जरा हँस पड़ा। बोला, "बड़ी भारी जमींदारी, लेकिन, बड़ा भारी सौभाग्य नहीं है, जीजी।" उसकी बात से उसकी पार्थिव अवस्था के सम्बन्ध में मुझे एक तरह का सन्देह उत्पन्न हुआ, परन्तु राजलक्ष्मी उस दिशा की ओर नहीं गयी। उसने सरल भाव से तत्क्षण स्वीकार करते हुए कहा, "बात तो सच है आनन्द। यह सब जितनी ही दूर हो जाय, उतना अच्छा।"

"अच्छा जीजी, वे अच्छे हो जाँयगे तो फिर तुम अपने शहर को लौट आओगी?"

"लौट जाऊँगी? मगर वह तो बहुत दूर की बात है भाई!"

साधु ने कहा, "बन सके तो अब मत लौटना, जीजी। इन सब गरीब अभागों को तुम लोग छोड़कर चली गयी हो, इसी से तो इनका दु:ख कष्ट चौगुना बढ़ गया है। जब पास थीं तब भी तुमने इन्हें कष्ट न दिया हो सो बात नहीं, मगर दूर रहकर इतना निर्मम दु:ख उन्हें न दे सकी होगी। तब जैसे दु:ख दिया है; वैसे दु:ख बँटाया भी है। जीजी, देश का राजा अगर देश ही में रहे तो देश का दु:ख-दैन्य शायद इस तरह गले तक न भर उठा करे। और, इस 'गले तक भरने' का मतलब क्या है और तुम लोगों को शहर-वास के लिए सर्व प्रकार आहार-विहार का सामान जुटाने का अभाव और अपव्यय क्या है, इस चीज़ को अगर एक बार ऑंखें पसारकर देख सकतीं जीजी..."

"क्यों आनन्द, घर के लिए तुम्हारा मन चंचल नहीं होता?..."

साधु ने संक्षेप में कहा, "नहीं।"

वह बेचारा समझा नहीं, परन्तु मैं समझ गया कि राजलक्ष्मी ने उस प्रसंग को दबा दिया, महज इसलिए कि उससे सहा नहीं जाता था।

कुछ देर मौन रहकर राजलक्ष्मी ने व्यथित कण्ठ से पूछा, "घर पर तुम्हारे कौन-कौन हैं?"

साधु ने कहा, "मगर घर तो मेरा अब रहा नहीं।"

राजलक्ष्मी फिर बहुत देर तक नीरव रहकर बोली, "अच्छा आनन्द, इस उमर में सन्न्यासी होकर क्या तुमने शान्ति पाई है?"

साधु ने हँसकर कहा, "अरे बाप रे! सन्न्यासी को इतना लोभ! नहीं जीजी, मैंने तो दूसरों के दु:ख का थोड़ा-सा भार लेना चाहा है, और सिर्फ वही पाया है।"

राजलक्ष्मी फिर चुप रही। साधु ने कहा, "वे शायद सो गये होंगे, लेकिन अब जरा उनकी गाड़ी में जाकर बैठूँ। अच्छा जीजी, कभी दो-चार दिन के लिए अगर तुम लोगों का अतिथि बनकर रहूँ तो क्या वे नाराज होंगे?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "वे कौन? तुम्हारे भाईसाहब?"

साधुजी ने जरा हँसकर कहा, "अच्छा, यही सही।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "और मैं नाराज हूँगी या नहीं, सो तो पूछा ही नहीं। अच्छा, पहले चलो तो एक बार गंगामाटी, उसके बाद इस बात का विचार किया जायेगा।"

साधुजी ने क्या कहा, सुन न सका, शायद कुछ कहा ही नहीं। थोड़ी देर बाद मेरी गाड़ी में आकर पुकारा, "भाई साहब, आप जाग रहे हैं?"

मैं जाग ही रहा था, पर कुछ बोला नहीं! फिर वे मेरे पास ही थोड़ी-सी जगह निकालकर अपना फटा कम्बल ओढ़कर पड़ रहे। एक बार तबियत तो हुई कि जरा खिसककर बेचारे के लिए थोड़ी-सी जगह और छोड़ दूँ, परन्तु हिलने-डुलने से कहीं उन्हें शक न हो जाय कि मैं जाग रहा हूँ या मेरी नींद उचट गयी है और इस गम्भीर निशीथ में फिर एक बार देश की सुगम्भीर समस्या की आलोचना होने लगे, इस डर से मैंने करुणा प्रकट करने की चेष्टा तक न की।

गाड़ी ने गंगामाटी में कब प्रवेश किया मुझे नहीं मालूम; मुझे तो तब मालूम हुआ जब गाड़ी नये मकान के दरवाज़े पर जा खड़ी हुई। तब सबेरा हो चुका था। एक साथ चार बैलगाड़ियों के विविध और विचित्र कोलाहल से चारों तरफ भीड़ तो कम नहीं मालूम हुई। रतन की कृपा से पहले ही सुन चुका था कि गाँव में मुख्यत: छोटी जात ही बसती है। देखा कि नाराजगी में भी उसने बिल्कुचल झूठ नहीं कहा था। ऐसे जाड़े-पाले में तड़के ही पचास-साठ नाना उमर के लड़के-लड़कियाँ, नंग-धड़ंग और उघड़े बदन, शायद हाल ही सोते से उठकर तमाशा देखने के लिए जमा हो गये हैं। पीछे से बाप-महतारियों का झुण्ड भी यथा-योग्य स्थान से ताक-झाँक रहा है। उन सबकी आकृति और पहनावा देखकर उनकी कुलीनता के बारे में और किसी के मन में चाहे हुछ भी हो, मगर, रतन के मन में शायद संशय की भाप भी बाकी न रही। उसका सोते से उठा हुआ चेहरा निमेष-मात्र में विरक्ति और क्रोध से बर्रों के छत्ते के समान भीषण हो उठा। मालकिन के दर्शन करने की अतिव्यग्रता से कुछ लड़के-बाले कुछ आत्म-विस्तृत होकर सटते आ रहे थे। देखते ही रतन ने ऐसे बिकट-रूप से उन्हें धर-खदेड़ा कि सामने अगर दो गाड़ीवान न होते तो वहीं एक खून-ख़राबी हुई धरी थी। रतन को जरा भी लज्जा का अनुभव न हुआ। मेरी तरफ देखकर बोली, "दुनिया की छोटी जात सब यहीं आकर मरी है! देखी बाबूजी, छोटी जात की हिमाकत? जैसे रथ-यात्रा देखने आए हों! हमारे यहाँ के भले आदमी क्या यहाँ आकर रह सकते हैं बाबूजी? अभी सब छू-छा करके एकाकार कर देंगे।"

'छू-छा' शब्द सबसे पहले पहुँचा राजलक्ष्मी के कानों में। उसका चेहरा अप्रसन्न-सा हो गया।

साधुजी अपना बॉक्स उतारने में व्यस्त थे। अपना काम खतम करके वे एक लोटा निकालकर आगे बढ़ आये और पास ही जिस लड़के को पाया उसका हाथ पकड़कर बोले, "अरे लड़के, जा तो भइया, यहाँ कहीं अच्छा-सा तालाब-आलाब हो हो तो एक लोटा पानी तो ले आ, चाय बनानी है।" यह कहकर उन्होंने लोटा उसके हाथ में थमा दिया, फिर सामने खड़े हुए एक अधेड़ उमर के आदमी से कहा, "चौधरी, आसपास किसी के यहाँ गाय हो तो बता देना भइया, छटाक-भर दूध माँग लाऊँ। गाँव की ताजी खालिस चीज़ ठहरी, चाय का रंग ऐसा बढ़िया आयेगा जीजी..." फिर उन्होंने एक बार अपनी जीजी के चेहरे की तरफ देखा। मगर 'जीजी' ने इस उत्साह में जरा भी साथ नहीं दिया। अप्रसन्न मुख से जरा मुसकराकर कहा, "रतन, जा तो भइया, लोटा माँजकर जरा पानी तो ले आ।"

रतन के मिज़ाज का संवाद पहले ही दे चुका हँ। उसके बाद जब उस पर ऐसे जाड़े-पाले में न जाने कौन एक अनजान साधु के लिए, मालूम नहीं कहाँ के तालाब से, पानी लाने का भार पड़ा, तब वह अपने को न रोक सका। एक ही क्षण में उसका सारा गुस्सा जाकर पड़ा, उससे भी जो छोटा था, उस अभागे लड़के पर। वह उसे एक ज़ोर की धमकी देकर बोला, "पाजी बदमाश कहीं का, लोटा क्यों छुआ तूने? चल हरामजादे, लोटा माँजकर पानी में डुबो देना।" इतना कहकर मानो वह सिर्फ अपनी ऑंख-मुख की चेष्टा से ही लड़के को गरदनियाँ देता हुआ ले गया।

उसकी करतूत देखकर साधु हँस पड़े, मैं भी हँस दिया। राजलक्ष्मी ने खुद भी जरा सलज्ज हँसी हँसकर कहा, "गाँव में तुमने तो उथल-पुथल मचा दी आनन्द, साधुओं को शायद रात बीतने के पहले ही चाय चाहिए?"

साधु ने कहा, "गृहस्थों के लिए रात नहीं बीती तो क्या हम लोगों के लिए भी नहीं बीतेगी? खूब। लेकिन दूध की तजवीज तो होनी चाहिए। अच्छा, घर में घुसकर देखा तो जाय, लकड़ी-बकड़ी, चूल्हा-ऊल्हा कुछ है या नहीं। ओ चौधरी, चलो न भइया, किसके यहाँ गाय है, चलके जरा दिखा दो। जीजी, कल के उस बर्तन में बरफी-अरफी कुछ बची थी न? या गाड़ी ही में अंधेरे में उसे खतम कर दिया!

राजलक्ष्मी को हँसी आ गयी। मुहल्ले की जो दो-चार औरतें दूर खड़ी देख रही थीं, उन्होंने मुँह फेर लिया।

इतने में गुमाश्ता काशीराम कुशारी महाशय घबराये हुए आ पहुँचे। साथ में उनके तीन-चार आदमी थे; किसी के सिर पर भर-टोकनी शाक-सब्जी और तरकारी थी, किसी के हाथ में भर-लोटा दूध, किसी के हाथ में दही का बर्तन और किसी के हाथ में बड़ी-सी रोहू मछली। राजलक्ष्मी ने उन्हें नमस्कार किया। वे आशीर्वाद के साथ, अपने आने में जरा देर हो जाने के लिए, तरह-तरह की कैफियत देने लगे। आदमी तो मुझे अच्छा ही मालूम हुआ। उमर पचास से ज़्यादा होगी। शरीर कुछ कृश, दाढ़ी-मूछें मुड़ी हुईं और रंग साफ। मैंने उन्हें नमस्कार किया, उन्होंने भी प्रति-नमस्कार किया। परन्तु, साधुजी इस सब प्रचलित शिष्टाचारों के पास से भी न फटके। उन्होंने तरकारी की टोकनी अपने हाथ से उतरवाकर उसमें से एक-एक का विश्लेषण करके विशेष प्रशंसा की। दूध खालिस है, इस विषय में अपना नि:संशय मत ज़ाहिर किया और मछली के वजन का अनुमान करके उसके आस्वाद के विषय में उपस्थित सभी को आशान्वित कर दिया।

साधु महाराज के शुभागमन के विषय में गुमाश्ता साहब को पहले के कुछ खबर नहीं मिली थी; इसलिए, उन्हें कुछ कुतूहल-सा हुआ। राजलक्ष्मी ने कहा, "सन्न्यासी को देखकर आप डरें नहीं कुशारी महाशय, ये मेरे भाई हैं।" फिर जरा हँसकर मृदु कण्ठ से कहा, "और बार-बार गेरुआ वसन छुड़वाना मानो मेरा काम ही हो गया है!"

बात साधुजी के कानो में भी पड़ी। बोले, "पर यह काम उतना आसान न होगा, जीजी।" यों कहकर मेरी ओर कनखियों से देख के जरा हँसे। इसके मानी मैं भी समझ गया और राजलक्ष्मी भी। मगर प्रत्युत्तर में उसने सिर्फ जरा मुसकराकर कहा, "सो देखा जायेगा।"

मकान के भीतर प्रवेश करके देखा गया कि कुशारी महाशय ने इन्तज़ाम कुछ बुरा नहीं किया है। बहुत ही जल्दी की वजह से उन्होंने खुद अन्यत्र जाकर पुराने कचहरी वाले मकान को थोड़ा-बहुत जीर्णोद्वार कराके ख़ासा रहने- लायक़ बना दिया है। भीतर रसोई और भण्डार-घर के सिवा सोने के लिए दो कमरे भी हैं। कमरे हैं तो मिट्टी के ही और ऊपर है, मगर खूब ऊँचे और बड़े हैं। बाहर की बैठक भी बहुत अच्छी है। ऑंगन लम्बा-चौड़ा, साफ-सुथरा और मिट्टी की चहारदीवारी से घिरा हुआ है। एक तरफ छोटा-सा एक कुऑं है, और उसके पास ही दो-तीन तगर और शेफाली के पेड़ हैं। दूसरी तरफ बहुत-से छोटे-बड़े तुलसी के पौधों की पंक्ति है, और चार-पाँच जुही और मल्लिका के झाड़ हैं। कुल मिलाकर जगह बहुत अच्छी है, देखकर मन को तृप्ति हुई।

सबसे बढ़कर उत्साह देखा गया सन्न्यासी महाशय में। जो कुछ उनकी निगाह में पड़ा उसी पर वह उच्च कण्ठ से आनन्द प्रकट करने लगे, जैसे ऐसा और कभी उन्होंने देखा ही न हो। मैं, शोरगुल न मचाने पर भी, मन-ही-मन खुश ही हुआ। राजलक्ष्मी अपने भइया के लिए रसोई में चाय बना रही थी, इसलिए उसके चेहरे का भाव ऑंखों से तो नहीं दिखाई दिया, परन्तु मन का भाव किसी से छिपा भी न रहा। सिर्फ साथ नहीं दिया तो एक रतन ने। वह मुँह को उसी तरह फुलाए हुए एक खम्भे के सहारे चुपचाप बैठा रहा।

चाय बनी। साधुजी कल की बची हुई मिठाई के साथ चुपचाप दो प्याला चाय चढ़ाकर उठ बैठे और मुझसे बोले, "चलिए न, जरा घूम-फिर कर गाँव देख आवें। बाँध भी तो ज़्यादा दूर नहीं, उधर के उधर ही नहा भी आयेंगे। जीजी, आइए न, जमींदारी देखभाल आवें। शायद शरीफ़ लोग तो कोई होंगे नहीं, शरम करने की भी विशेष कोई जरूरत नहीं। जायदाद है अच्छी, देख के लोभ होता है।"

राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, "सो तो मैं जानती हूँ। सन्न्यासियों का स्वभाव ही ऐसा होता है।"

हमारे साथ रसोइया ब्राह्मण तथा और भी एक नौकर आया था। वे दोनों रसोई की तैयारी कर रहे थे। राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं महाराज, तुम्हारे हाथ ऐसी ताजी मछली सौंपने का हियाव नहीं पड़ता, नहा के लौटने पर रसोई मैं ही चढ़ाऊँगी।" यह कहकर वह हमारे साथ चलने की तैयारी करने लगी।

अब तक रतन ने किसी बातचीत या काम में साथ नहीं दिया था। हम लोग जाने लगे तो वह अत्यन्त धीर-गम्भीर स्वर में बोला, "माँ जी, उस बाँध या ताल, न जाने इस मुए देश के लोग क्या कहते हैं, उसमें आप मत नहाइएगा। बड़ी जबरदस्त जोंकें हैं उसमें, एक-एक, सुनते हैं, हाथ-हाथ भर की।"

दूसरे ही क्षण राजलक्ष्मी का चेहरा मारे डर के फक पड़ गया, "कहता क्या है रतन, उसमें क्या बहुत जोंकें हैं?"

रतन ने गरदन हिलाकर कहा, "जी हाँ, सुना तो ऐसा ही है।"

साधु ने डपटकर कहा, "जी हाँ, सुन तो आया ही होगा! इस नाई ने सोच-सोचकर अच्छी तरकीब निकाली है!" रतन के मन का भाव और जाति का परिचय साधु ने पहले ही से प्राप्त कर लिया था; हँस के कहा, "जीजी, इसकी बात मत सुनो, चलो चलें। जोंकें हैं या नहीं, इस बात की परीक्षा न हो तो हम ही लोगों से करा लेना।"

मगर उनकी जीजी एक क़दम भी आगे न बढ़ीं। जोंक के नाम से एकदम अचल होकर बोलीं, "मैं कहती हूँ, आज न हो तो रहने दो, आनन्द, नयी जगह ठहरी, अच्छी तरह बिना जाने-समझे ऐसा दु:साहस करना, ठीक नहीं होगा। रतन, तू जा भइया, यहीं पर दो कलसे पानी कुऑं से ले आ।" मुझे आदेश मिला, "तुम कमज़ोर आदमी हो, सो कहीं किसी अनजान बाँध-ऑंध में नहा-नुहू मत आना। घर पर ही दो लोटा पानी डालकर आज का काम निकाल लेना।"

साधुजी ने हँसकर कहा, "और मैं ही क्या इतना उपेक्षणीय हूँ जीजी, जो मुझे ही सिर्फ उस जोंकोंवाले तालाब में पठाए देती हो?"

बात कोई बड़ी नहीं थी, मगर इतने ही से राजलक्ष्मी की ऑंखें मानो सहसा डबडबा आईं। उसने क्षण-भर नीरव रहकर, अपनी स्निग्ध दृष्टि से मानो उन्हें अभिषिक्त करते हुए कहा, "तुम तो भइया, आदमी के हाथ से बाहर हो। जिसने माँ-बाप का कहना नहीं माना, वह क्या कहीं की एक अनजान अपरिचित बहिन की बात रखेगा?"

साधुजी जाने के लिए उद्यत होकर सहसा जरा ठहरकर बोले, "यह अनजान अपरिचित होने की बात मत कहो, बहिन। आप सब लोगों को पहिचानने के लिए ही तो घर छोड़कर निकला हूँ, नहीं तो मुझे इसकी क्या जरूरत थी, बताइए?" इतना कहकर वे जरा तेजी से बाहर चले गये, और मैं भी धीरे से उनके साथ हो लिया।

हम दोनों ने मिलकर खूब घूम-फिर के गाँव देख-भाल लिया। गाँव छोटा है, और जिन्हें हम छोटी जात कहते हैं, उन्हीं का है। वास्तव में, दो घर तम्बोली और एक घर लुहार के सिवा गंगामाटी में ऐसा कोई घर नहीं जिसका पानी लिया जो सके। सभी घर डोम और बाउरियां के हैं। बाउरी लोग बेंत का काम और मजूरी करते हैं और डोम लोग टोकनी, सूप, डलिया वगैरह और पोड़ामाटी गाँव में बेचकर जीविका चलाते हैं। गाँव के उत्तर की तरफ पानी के निकास का जो बड़ा नाला है, उसी के उस पार पोड़ामाटी है। सुनने में आया कि वह गाँव बड़ा है, और उसमें ब्राह्मण, कायस्थ और अन्यान्य जातियों के भी बहुत-से घर हैं। अपने कुशारी महाशय का घर भी उसी पोड़ामाटी में है। मगर दूसरों की बात पीछे कहूँगा, फिलहाल अपने गाँव की जो हालत ऑंखों से देखी, उससे मेरी दृष्टि ऑंसुओं से धुँधली हो आई। बेचारों ने अपने-अपने घरों की जी-जान से छोटा बनाने की कोशिश करने में कुछ उठा नहीं रखा है, फिर भी इतने छोटे-छोटे घरों के छाने लायक़ सूखा घास भी इस सोने के देश में, उनके भाग्य से नहीं जुटता। बीता-भर ज़मीन तक किसी के पास नहीं, सिर्फ डलिया-टोकनी-सूप बनाकर और दूसरे गाँव में सद्गृहस्थों को पानी के मोल बेचकर किस तरह इन लोगों की गुजर होती है, मैं तो सोच ही न सका। फिर भी, इसी तरह इन अशुचि अस्पृश्यों के दिन कट रहे हैं और शायद इसी तरह हमेशा से कटे हैं, परन्तु किसी ने भी किसी दिन इसका जरा खयाल तक नहीं किया। सड़क के कुत्ते जैसे पैदा होकर कुछ वर्ष तक जैसे-तैसे ज़िन्दा रहकर न जाने कहाँ, कब कैसे मर जाते हैं-उनका जैसे कहीं कोई हिसाब नहीं रखता, इन अभागों का भी वही हाल है, मानो, देशवासियों से वे इससे ज़्यादा और कुछ दावा ही नहीं कर सकते। इनका दु:ख इनकी दीनता, इनकी सब तरह की हीनता अपनी और पराई दृष्टि में इतनी सहज और स्वाभाविक हो गयी है कि मनुष्य के पास ही मनुष्य के इतने बड़े जबरदस्त अपमान से कहीं किसी के भी मन में लज्जा का रंच-मात्र भी संचार नहीं होता। मगर, साधुजी इधर जो मेरे चेहरे की तरफ देख रहे थे, सो मुझे मालूम ही नहीं हुआ। वे सहसा बोल उठे, "भाई साहब, यही है देश की सच्ची तसवीर। लेकिन, मन में मलाल लाने की जरूरत नहीं। आप सोच रहे होंगे कि ये बातें इन्हें दिन-रात सताया करती हैं, मगर यह बात क़तई नहीं।"

मैंने क्षुब्ध और अत्यन्त विस्मित होकर कहा, "यह बात क्या कही साधुजी?"

साधुजी ने कहा, "मेरी तरह आप भी अगर सब जगह घूमा-फिरा करते भाई साहब, तो समझ जाते कि मैंने लगभग सच बात ही कही है। असल में दु:ख भोगता कौन है भइया? मन ही तो? मगर वह बला क्या हम लोगों ने बाकी छोड़ी है इनमें?- बहुत दिनों से लगातार सिकंजे में दबा-दबाकर बिल्कु'ल निचोड़ लिया है बेचारों का मन। इससे ज़्यादा चाहने का अब ये खुद ही अनुचित स्पर्धा समझते हैं। वाह रे वाह! हमारे बाप-दादों ने भी सोच-विचार कर कैसी उमदा मशीन ईजाद की है, क्या कहने!" यह कहकर साधु अत्यन्त निष्ठुर की भाँति 'हा: हा:' करके हँसने लगे। मगर मैं न तो उनकी हँसी में ही शरीक हो सका, और न उनकी बात का ठीक-ठीक अर्थ ही ग्रहण कर सका, और इसलिए मन-ही-मन लज्जित हो उठा।

इस साल फसल अच्छी नहीं हुई, और पानी की कमी से हेमन्त ऋतु के धान लगभग आधे सूख जाने से अभी से अभाव की हवा चलने लगी। साधुजी ने कहा, "भाई साहब, चाहे किसी बहाने ही सही, भगवान ने जब आपको अपनी प्रजा के बीच ढकेल-ढुकूलकर भेज ही दिया है, तब अचानक भाग न जाइएगा। कम-से-कम यह साल तो यहीं बिताकर जाइए। यह तो मैं नहीं सोचता कि आप विशेष कुछ कर सकेंगे, पर ऑंखों से देखकर प्रजा के दु:ख को बँटाना अच्छा है, इससे जमींदारी करने के पाप का बोझ कुछ हलका होता है।"

मैंने मन-ही-मन गहरी साँस लेकर सोचा-जमींदारी और प्रजा जैसे मेरी ही हो, परन्तु जैसे पहले जवाब नहीं दिया, अबकी बार भी मैं उसी तरह चुप रह गया।

छोटे से गाँव की प्रदक्षिणा करता हुआ नहा-धोकर जब वापस आया, तब बारह बज चुके थे। शाम की तरह आज भी हम दोनों को भोजन परोसकर राजलक्ष्मी एक तरफ बैठ गयी। सारी रसोई उसने खुद अपने हाथ से बनाई थी, लिहाज़ा मछली का मुँहड़ा और दही की मलाई साधु की पत्तल में ही पड़ी। साधुजी बैरागी आदमी ठहरे, किन्तु, सात्वि‍क, और असात्वि‍क, निरामिष और आमिष, किसी भी चीज़ में उनका रंचमात्र भी विराग देखने में नहीं आया, बल्कि इस विषय में उन्होंने ऐसे प्रबल अनुराग का परिचय दिया जो घोर सांसारिक में भी दुर्लभ है। चूँकि रसोई के भले-बुरे मर्म को समझने में मेरी ख्याति नहीं थी, इसलिए मुझे समझाने की तरह रसोईदारिन ने कोई आग्रह भी प्रकट नहीं किया।

साधुजी को कोई जल्दी नहीं; वे बहुत ही धीरे-सुस्ते भोजन करने लगे। कौर चाबते हुए बोले, "जीजी, जगह सचमुच ही अच्छी है, छोड़कर जाने में ममता होती है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "छोड़ जाने के लिए तो हम लोग तुमसे आरजू-बिनती नहीं कर रहे हैं, भइया!"

साधुजी ने हँसकर कहा, "साधु-सन्न्यासी को कभी इतना प्रश्रय न देना चाहिए जीजी- ठगाई जाओगी। खैर, कुछ भी हो, गाँव अच्छा है, कहीं भी कोई ऐसा नहीं दिखाई दिया जिसके हाथ का पानी पिया जा सके। और ऐसा भी एक घर नहीं देखा जिसके छप्पर पर एक पूला सूखा घास भी दिखाई दिया हो- जैसे मुनियों के आश्रम हों।"

आश्रम के साथ अस्पृश्य घरों का एक दृष्टि से जो उत्कृष्ट सादृश्य था, उसका खयाल करके राजलक्ष्मी ने जरा क्षीण हँसी हँसकर मुझसे कहा, "सुनते हैं कि सचमुच ही इस गाँव में सिर्फ छोटी जात ही बसती है-किसी के एक लोटे पानी का भी आसरा नहीं। देखती हूँ, यहाँ ज़्यादा दिन रहना नहीं हो सकेगा।"

साधु जरा हँसे, परन्तु मैं नीरव ही रहा। कारण राजलक्ष्मी जैसी करुणामयी भी किस संस्कार के वश इतनी बड़ी लज्जा की बात उच्चारण कर सकी, सो मैं जानता था। साधु की हँसी ने मुझे स्पर्श तो किया, किन्तु वह विद्ध न कर सकी। इसी से, मैं मुँह से तो कुछ नहीं बोला, मगर फिर भी मेरा मन राजलक्ष्मी को ही लक्ष्य करके भीतर कहने लगा, "राजलक्ष्मी, मनुष्य का कर्म ही केवल अस्पृश्य और अशुचि होता है, मनुष्य नहीं होता। नहीं तो 'प्यारी' किसी भी तरह आज फिर 'लक्ष्मी' के आसन पर वापस न आ सकती। और वह भी सिर्फ इसीलिए सम्भव हुआ है कि मनुष्य की देह को ही मनुष्य समझने की ग़लती मैंने कभी नहीं की। इस बात में बचपन से ही बहुत बार मेरी परीक्षा हो चुकी है। लेकिन, ये बस बातें मुँह खोलकर किसी से कही भी नहीं जा सकतीं और कहने की प्रवृत्ति नहीं होती।"

दोनों भोजन समाप्त करके उठे। राजलक्ष्मी हम लोगों को पान देकर, शायद, खुद भी कुछ खाने चली गयी। परन्तु क़रीब घण्टे-भर बाद लौटकर जैसे वह खुद साधुजी को देखकर आसमान से गिरी-सी मालूम हुई, वैसे ही मैं भी विस्मित हो गया। देखा कि इसी बीच में न जाने कब वे बाहर से एक आदमी ले लाए हैं और दवाओं का भारी बॉक्स उसके सिर पर लादकर प्रस्थान के लिए तैयार खड़े हैं।

कल यही बात तो हुई थी, मगर आज हम उस हम बात को बिल्कुदल ही भूल गये थे। इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि इस प्रवास में राजलक्ष्मी के इतने आदर-जतन की उपेक्षा करके साधुजी अनिश्चित अन्यत्र के लिए इतनी जल्दी तैयार हो जाँयगे। स्नेह की जंजीर इतनी जल्दी नहीं टूटने की-राजलक्ष्मी के निभृत मन में शायद यही आशा थी। वह मारे डर के व्याकुल होकर कह उठी, "तुम क्या जा रहे हो आनन्द?"

साधु ने कहा, "हाँ जीजी, जाता हूँ। अभी से रवाना न होने से पहुँचने में बहुत रात हो जायेगी।"

"वहाँ कहाँ ठहरोगे, कहाँ सोओगे? अपना आदमी तो वहाँ कोई होगा नहीं।"

"पहले पहुँचूँ तो सही।"

"लौटोगे कब?"

"सो तो अभी नहीं कहा जा सकता। काम की भीड़ में अगर आगे न बढ़कर गया, तो किसी दिन लौट भी सकता हूँ।"

राजलक्ष्मी का मुँह पहले तो फक पड़ गया, फिर उसने ज़ोर से अपना सिर झटककर रुँधे हुए कण्ठ से कहा, "किसी दिन लौट भी सकते हो? नहीं, यह हरगिज नहीं हो सकता।"

क्या नहीं होगा सो समझ में आ गया, इसी से साधु ने प्रत्युत्तर में सिर्फ जरा म्लान हँसी हँसकर कहा, "जाने का कारण तो आपको बता ही चुका हूँ।"

"बता चुके हो? अच्छा, तो जाओ" इतना कहते-कहते राजलक्ष्मी प्राय: रो दी, और जल्दी से कमरे के भीतर चली गयी। क्षण-भर के लिए साधुजी स्तब्ध हो गये। उसके बाद मेरी तरफ देखकर लज्जित मुख से बोले, "मेरा जाना बहुत जरूरी है।"

मैंने गर्दन हिलाकर सिर्फ इतना ही कहा, "मालूम है।" इससे ज़्यादा और कुछ कहने को था भी नहीं। कारण, मैंने बहुत कुछ देखकर जान लिया है कि स्नेह की गहराई समय की स्वल्पता से हरगिज नहीं नापी जा सकती। और इस चीज़ की कवियों ने सिर्फ काव्यों के लिए ही शून्य कल्पना नहीं की- संसार में वास्तव में ऐसा हुआ करता है। इसीलिए, एक के जाने की आवश्यकता जितनी सत्य है, दूसरे का व्याकुल कण्ठ से मना करना भी ठीक उतना ही सत्य है या नहीं, इस विषय में मेरे मन में रंचमात्र भी संशय का उदय नहीं हुआ। मैं अत्यन्त सरलता से समझ गया कि इस बात को लेकर राजलक्ष्मी को शायद बहुत वेदना सहनी पड़ेगी।

साधुजी ने कहा, "मैं चल दिया। उधर का काम अगर निबट गया, तो शायद, फिर आऊँगा; मगर अभी यह बात जताने की जरूरत नहीं।"

मैंने स्वीकार करते हुए कहा, "सो सही है।"

साधुजी कुछ कहना ही चाहते थे कि घर की ओर देखकर सहसा एक गहरी उसाँस भरकर जरा मुसकराए; उसके बाद धीरे-से बोले, "अजीब देश है यह बंगाल! इसमें राह चलते माँ-बहिनें मिल जाती हैं, किसमें सामर्थ्य है कि इनसे बचकर निकल जाय?"

इतना कहकर साधुजी धीरे-धीरे बाहर चले गये।

उनकी बात सुनकर मैंने भी एक गहरी साँस ली। मालूम हुआ, बात असल में ठीक है। जिसे देश की समस्त माँ-बहिनों को वेदना ने खींचकर घर से बाहर निकाला है, उसे सिर्फ एक ही बहिन स्नेह, दही की मलाई और मछली का मूँड़ देकर कैसे पकड़े रख सकती है?

श्रीकांत उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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