महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 46 श्लोक 52-57
षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
गुह्य धर्म में स्थित विद्वान् पुरुष को उचित है कि वह विज्ञान के अनुरूप आचरण करे। मूढ़ न होकर भी मूढ् के समान बर्ताव करे, किंतु अपने किसी व्यवहार से धम्र को कलंकित न करे।
जिस काम के करने से समाज के दूसरे लोग अनादर करें, वैसा ही काम शान्त रहकर सदा करता रहे, किंतु सत्पुरुषों के धर्म की निन्दा न करे। जो इस प्रकार के बर्ताव से सम्पन्न है, वह श्रेष्ठ मुनि कहलाता है।
जो मनुष्य इन्द्रिय, उनके विषय, पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पुुरुष- सबका विचार करके इन के तत्त्व का यथावत निश्चय कर लेता है, वह सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त होकर स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है।
जो तत्त्ववेत्ता अन्त समय में इन तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करके एकान्त में बैठकर परमात्मा का ध्यान करता है, वह आकाश में विचरने वाले वायु की भाँति सब प्रकार की आसक्तियों से छूटकर पंचकोशों से रहित, निभ्रय तथा निराश्रय होकर मुक्त एवं परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्वमेधिकपर्व के अन्तर्गत अनुगीता पर्व में गुरु शिष्य संवादविषयक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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