बालमणि अम्मा
बालमणि अम्मा
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पूरा नाम | नालापत बालमणि अम्मा |
जन्म | 19 जुलाई, 1909 |
जन्म भूमि | ज़िला मालाबार, केरल |
मृत्यु | 29 सितम्बर, 2004 |
मृत्यु स्थान | कोच्चि, केरल |
अभिभावक | पिता- चित्तंजूर कुंज्जण्णि राजा, माता- नालापत कूचुकुट्टी अम्मा |
पति/पत्नी | वी. एम. नायर |
कर्म भूमि | भारत |
मुख्य रचनाएँ | 'गौरैया', 'कलकत्ते का काला कुटिया', 'अम्मा', 'मुथास्सी', 'मज़्हुवींट कथा' आदि। |
भाषा | संस्कृत, मलयालम |
पुरस्कार-उपाधि | 'पद्म भूषण' (1987) |
प्रसिद्धि | मलयालम साहित्यकार |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | केरल साहित्य अकादमी, अखितम अच्युतन नंबूथरी में एक यादगार वक्तव्य के दौरान नालापत बालमणि अम्मा को "मानव महिमा के नबी" के रूप में वर्णित किया गया था और कविताओं की प्रेरणास्त्रोत कहा गया था। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
नालापत बालमणि अम्मा (अंग्रेज़ी: Nalapat Balamani Amma, जन्म- 19 जुलाई, 1909, मालाबार, केरल; मृत्यु- 29 सितम्बर, 2004, कोच्चि) मलयालम भाषा की प्रसिद्ध कवियित्री थीं। वे महादेवी वर्मा की समकालीन थीं, जो हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक थीं। नालापत बालमणि अम्मा की गणना बीसवीं शताब्दी की चर्चित व प्रतिष्ठित मलयालम कवयित्रियों में की जाती है। उनकी रचनाएँ एक ऐसे अनुभूति मंडल का साक्षात्कार कराती हैं, जो मलयालम में अदृष्टपूर्व है। आधुनिक मलयालम की सबसे सशक्त कवयित्रियों में से एक होने के कारण नालापत बालमणि अम्मा को "मलयालम साहित्य की दादी" कहा जाता है। उन्होंने 500 से अधिक कविताएँ लिखीं।
जन्म तथा शिक्षा
नालापत बालमणि अम्मा का जन्म 19 जुलाई, 1909 को केरल के मालाबार ज़िले के पुन्नायुर्कुलम[1] में पिता चित्तंजूर कुंज्जण्णि राजा और माँ नालापत कूचुकुट्टी अम्मा के यहाँ नालापत में हुआ था। यद्यपि उनका जन्म नालापत के नाम से पहचाने-जाने वाले एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ, जहां लड़कियों को विद्यालय भेजना अनुचित माना जाता था। इसलिए उनके लिए घर में शिक्षक की व्यवस्था कर दी गयी थी, जिनसे उन्होंने संस्कृत और मलयालम भाषा सीखी। नालापत हाउस की अलमारियाँ पुस्तकों से भरी-पड़ी थीं। इन पुस्तकों में काग़ज़ पर छपी पुस्तकों के साथ ही ताड़पत्रों पर उकेरी गई हस्तलिपि वाली पुस्तकें भी थीं। इन पुस्तकों में 'बाराहसंहिता' से लेकर टैगोर तक का रचना संसार सम्मिलित था। नालापत बालमणि अम्मा के मामा एन. नारायण मेनन कवि और दार्शनिक थे, जिन्होंने उन्हें साहित्य सृजन के लिए प्रोत्साहित किया। कवि और विद्वान् घर पर अतिथि के रूप में आते और हफ्तों रहते थे। इस दौरान घर में साहित्यिक चर्चाओं का घटाटोप छाया रहता था। इस वातावरण ने नालापत बालमणि अम्मा के चिंतन को प्रभावित किया।
विवाह
नालापत बालमणि अम्मा का विवाह 19 वर्ष की आयु में वर्ष 1928 में वी. एम. नायर से हुआ, जो आगे चलकर मलयालम भाषा के दैनिक समाचार पत्र 'मातृभूमि' के प्रबंध संपादक और प्रबंध निदेशक बनें। विवाह के तुरंत बाद अम्मा अपने पति के साथ कोलकाता में रहने लगीं, जहां उनके पति 'वेलफोर्ट ट्रांसपोर्ट कम्पनी' में वरिष्ठ अधिकारी थे। यह कंपनी ऑटोमोबाइल कंपनी 'रोल्स रॉयस मोटर कार्स' और 'बेंटले' के उपकरणों को बेचती थी। इस कंपनी से त्यगपत्र देने के बाद उनके पति ने दैनिक समाचार पत्र 'मातृभूमि' में अपनी सेवाएँ देने हेतु परिवार सहित कोलकाता छोड़ने का निर्णय लिया। फलत: अल्प प्रवास के बाद अम्मा अपने पति के साथ कोलकाता छोड़कर केरल वापस आ गयीं। 1977 में उनके पति की मृत्यु हुई। लगभग पचास वर्ष तक उनका दांपत्य बना रहा। उनके दाम्पत्य की झलक उनकी कुछ कविताओं, यथा- 'अमृतं गमया', 'स्वप्न', 'पराजय' में मुखर हुई है।
साहित्यिक कार्य
नालापत बालमणि अम्मा केरल की राष्ट्रवादी साहित्यकार थीं। उन्होंने राष्ट्रीय उद्बोधन वाली कविताओं की रचना की। वे मुख्यतः वात्सल्य, ममता, मानवता के कोमल भाव की कवयित्री के रूप में विख्यात हैं। फिर भी स्वतंत्रतारूपी दीपक की उष्ण लौ से भी वे अछूती नहीं रहीं। सन 1929-1939 के बीच लिखी उनकी कविताओं में देशभक्ति, गाँधी का प्रभाव, स्वतंत्रता की चाह स्पष्ट परिलक्षित होती है। इसके बाद भी उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं। अपने सृजन से वे भारतीय आजादी में अनोखा कार्य किया। उन्होंने अपनी किशोरावस्था में ही अनेक कवितायें लिख ली थीं, जो पुस्तकाकार रूप में उनके विवाह के बाद प्रकाशित हुईं। उनके पति ने उन्हें साहित्य सृजन के लिए पर्याप्त अवसर दिया। उनकी सुविधा के लिए घर के काम-काज के साथ-साथ बच्चों को संभालने के लिए अलग से नौकर-चाकर लगा दिये थे, ताकि वे पूरा समय लेखन को समर्पित कर सकें।
नालापत बालमणि अम्मा विवाहोपरांत अपने पति के साथ कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में रहने लगीं थीं। कलकत्ता निवास के अनुभवों ने उनकी काव्य चेतना को अत्यंत प्रभावित किया। अपनी प्रथम प्रकाशित और चर्चित कविता 'कलकत्ते का काला कुटिया' उन्होंने अपने पतिदेव के अनुरोध पर लिखी थी, जबकि अंतरात्मा की प्रेरणा से लिखी गई उनकी पहली कविता 'मातृचुंबन' है। स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी का प्रभाव उनके लिए अपरिहार्य बन गया। उन्होंने खादी पहनी और चरखा काता। उनकी प्रारंभिक कविताओं में से एक 'गौरैया' शीर्षक कविता उस दौर में अत्यंत लोकप्रिय हुई। इसे केरल की पाठ्य-पुस्तकों में सम्मिलित किया गया। बाद में उन्होंने गर्भधारण, प्रसव और शिशु पोषण के स्त्रीजनित अनुभवों को अपनी कविताओं में पिरोया। इसके एक दशक बाद उन्होंने घर और परिवार की सीमाओं से निकलकर अध्यात्मिकता के क्षेत्र में दस्तक दी। तब तक यह क्षेत्र उनके लिए अपरिचित जैसा था।
पुरस्कार व सम्मान
थियोसाफ़ी का प्रारंभिक ज्ञान उनके मामा से उन्हें मिला। हिन्दू शास्त्रों का सहज ज्ञान उन्हें पहले से ही था। इसलिए थियोसाफ़ी और हिन्दू मनीषा का संयोजित स्वरूप ही उनके विचारों के रूप में लेखन में उतरा। नालापत बालमणि अम्मा के दो दर्जन से अधिक काव्य-संकलन, कई गद्य-संकलन और अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने छोटी अवस्था से ही कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था। उनकी पहली कविता "कूप्पुकई" 1930 में प्रकाशित हुई थी। उन्हें सर्वप्रथम कोचीन ब्रिटिश राज के पूर्व शासक राम वर्मा परीक्षित थंपूरन के द्वारा "साहित्य निपुण पुरस्कारम" प्रदान किया गया। 1987 में प्रकाशित "निवेद्यम" उनकी कविताओं का चर्चित संग्रह है। कवि एन. एन. मेनन की मौत पर शोकगीत के रूप में उनका एक संग्रह "लोकांठरांगलील" नाम से आया था। उनकी कविताएँ दार्शनिक विचारों एवं मानवता के प्रति अगाध प्रेम की अभिव्यक्ति होती हैं। बच्चों के प्रति प्रेम-पगी कविताओं के कारण मलयालम-कविता में वे "अम्मा" और "दादी" के नाम से समादृत हैं। केरल साहित्य अकादमी, अखितम अच्युतन नंबूथरी में एक यादगार वक्तव्य के दौरान उन्हें "मानव महिमा के नबी" के रूप में वर्णित किया गया था और कविताओं की प्रेरणास्त्रोत कहा गया था। उन्हें 1987 में भारत सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया था। वर्ष 2009, उनकी जन्म शताब्दी के रूप में मनाया गया।
मृत्यु
नालापत बालमणि अम्मा का निधन 29 सितम्बर, 2004 को कोच्चि, केरल में हुआ। अम्मा के साहित्य और जीवन पर महात्मा गाँधी के विचारों और आदर्शों का स्पष्ट प्रभाव रहा। उनकी प्रमुख कृतियों में 'अम्मा', 'मुथास्सी', 'मज़्हुवींट कथा' आदि हैं। उन्होंने मलयालम कविता में उस कोमल शब्दावली का विकास किया, जो अभी तक केवल संस्कृत में ही संभव मानी जाती थी। इसके लिए उन्होंने अपने समय के अनुकूल संस्कृत के कोमल शब्दों को चुनकर मलयालम का जामा पहनाया। उनकी कविताओं का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है। वे प्रतिभावान कवयित्री के साथ-साथ बाल कथा लेखिका और सृजनात्मक अनुवादक भी थीं। अपने पति वी. एम. नायर के साथ मिलकर उन्होंने अपनी कई कृतियों का अन्य भाषाओं में भी अनुवाद किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तत्कालीन मद्रास प्रैज़िडन्सी, ब्रिटिश राज
बाहरी कड़ियाँ
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