चाणक्य नीति- अध्याय 2
अध्याय 2
- दोहा --
अनृत साहस मूढता, कपटरु कृतघन आइ ।
निरदयतारु मलीनता, तियमें सहज रजाइ ॥1॥
अर्थ -- झूठ बोलना, एकाएक कोई काम कर बैठना, नखरे करना, मूर्खता करना, ज़्यादा लालच रखना, अपवित्र रहना और निर्दयता का बर्ताव करना ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं।
- दोहा --
सुन्दर भोजन शक्ति रति, शक्ति सदा वर नारि ।
विभव दान की शक्ति यह, बड तपफल सुखकारि ॥2॥
अर्थ -- भोजन योग्य पदार्थों का उपलब्ध होते रहना, भोजन की शक्ति विद्यमान रहना (यानी स्वास्थ्य में किसी तरह की ख़राबी न रहना) रतिशक्ति बनी रहना, सुन्दरी स्त्री का मिलना, इच्छानुकूल धन रहना और साथ ही दानशक्ति का भी रहना, ये बातें होना साधारण तपस्या का फल नहीं है (जो अखण्ड तपस्या किये रहता है, उसको ये चीज़ें उपलब्ध होती हैं)।
- दोहा --
सुत आज्ञाकारी जिनाहिं, अनुगामिनि तिय जान ।
विभव अलप सन्तोष तेंहि, सुर पुर इहाँ पिछान ॥3॥
अर्थ -- जिसका पुत्र अपने वश में, स्त्री आज्ञाकारिणी हो और जो प्राप्त धन से सन्तुष्ट है, उसके लिये यहाँ स्वर्ग है।
- दोहा --
ते सुत जे पितु भक्तिरत, हितकारक पितु होय ।
जेहि विश्वास सो मित्रवर, सुखकारक तिय होय ॥4॥
अर्थ -- वे ही पुत्र, पुत्र हैं जो पिता के भक्त हैं। वही पिता, पिता है, हो अपनी सन्तान का उचित रीति से पालन पोषण करता है। वही मित्र, मित्र है कि जिस पर अपना विश्वास है और वही स्त्री स्त्री है कि जहाँ हृदय आनन्दित होता है।
- दोहा --
ओट कार्य की हानि करि, सम्मुख करैं बखान ।
अस मित्रन कहँ दूर तज, विष घट पयमुख जान ॥5॥
अर्थ -- जो पीठ पीछे अपना काम बिगाशता हो और मुँह पर मीठी-मीठी बातें करता हो, ऎसे मित्र को त्याग देना चाहिए। वह वैसे ही है जैसे किसी घडे में गले तक विष भरा हो, किन्तु मुँह पर थोडा सा दूध डाल दिया गया हो।
- दोहा --
नहिं विश्वास कुमित्र कर, किजीय मित्तहु कौन ।
कहहि मित्त कहुँ कोपकरि, गोपहु सब दु:ख मौन ॥6॥
अर्थ -- (अपनी किसी गुप्त बात के विषय में) कुमित्र पर तो किसी तरह विश्वास न करे और मित्र पर भी न करे। क्योंकि हो सकता है कि वह मित्र कभी बिगड जाय और सारे गुप्त भेद खोल दे।
- दोहा --
मनतै चिंतित काज जो, बैनन ते कहियेन ।
मन्त्र गूढ राखिय कहिय, दोष काज सुखदैन ॥7॥
अर्थ -- जो बात मन में सोचे, वह वचन से प्रकाशित न करे। उस गुप्त बात की मन्त्रणा द्वारा रक्षा करे और गुप्त ढंग से ही उसे काम में भी लावे।
- दोहा --
मूरखता अरु तरुणता, हैं दोऊ दुखदाय ।
पर घर बसितो कष्ट अति, नीति कहत अस गाय ॥8॥
अर्थ -- पहला कष्ट तो मूर्ख होना है, दूसरा कष्ट है जवानी और सब कष्टों से बढकर कष्ट है, पराये घर में रहना।
- दोहा --
प्रतिगिरि नहिं मानिक गनिय, मौक्ति न प्रतिगज माहिं ।
सब ठौर नहिं साधु जन, बन बन चन्दन नाहिं ॥9॥
अर्थ -- हर एक पहाड पर माणिक नहीं होता, सब हाथियों के मस्तक में सुक्ता नहीं होता, सज्जन सर्वत्र नहीं होता, सज्जन सर्वत्र नहीं होते और चन्दन सब जंगलो में नहीं होता।
- दोहा --
चातुरता सुतकू सुपितु, सिखवत बारहिं बार ।
नीतिवन्त बुधवन्त को, पूजत सब संसार ॥10॥
अर्थ -- समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपने पुत्रों को विविध प्रकार के शील की शिक्षा दे। क्योंकि नीति को जानने वाले और शीलवान् पुत्र अपने कुल में पूजित होते हैं।
- दोहा --
तात मात अरि तुल्यते, सुत न पढावत नीच ।
सभा मध्य शोभत न सो, जिमि बक हंसन बीच ॥11॥
अर्थ -- जो माता अपने बेटे को पढाती नहीं, वह शत्रु है। उसी तरह पुत्र को न पढाने वाला पिता पुत्र का बैरी है। क्योंकि (इस तरह माता-पिता की ना समझी से वह पुत्र) सभा में उसी तरह शोभित नहीं होता, जैसे हंसो के बीच में बगुला।
- दोहा --
सुत लालन में दोष बहु, गुण ताडन ही माहिं ।
तेहि ते सुतअरु शिष्यकूँ, ताडिय लालिय नाहिं ॥12॥
अर्थ -- बच्चों का दुलार करने में दोष है और ताडन करने में भुत से गुण हैं। इसलिए पुत्र और शिष्य को ताडना अधिक दे, दुलार न करे।
- दोहा --
सीखत श्लोखहु अरध कै, पावहु अक्षर कोय ।
वृथा गमावत दिवस ना, शुभ चाहत निज सोय ॥13॥
अर्थ -- किसी एक श्लोक या उसके आधे आधे भाग या आधे के भी आधे भाग का मनन करे। क्योंकि भारतीय महर्षियों का कहना यही है कि जैसे भी हो दान, अध्ययन (स्वाध्याय) आदि सब कर्म करके बीतते हुए दिनों को सार्थक करो, इन्हें यों ही न गुजर न जाने दो।
- दोहा --
युद्ध शैष प्यारी विरह, दरिद बन्धु अपमान ।
दुष्टराज खलकी सभा, दाहत बिनहिं कृशान ॥14॥
अर्थ -- स्त्री का वियोग, अपने जनों द्वारा अपमान, युद्ध में बचा हुआ शत्रु, दुष्ट राजा की सेवा, दरिद्रता और स्वार्थियों की सभा, ये बातें अग्नि के बिना ही शरीर को जला डालती हैं।
- दोहा --
तरुवर सरिता तीरपर, निपट निरंकुश नारि ।
नरपति हीन सलाह नित, बिनसत लगे न बारि ॥15॥
अर्थ -- नदी के तट पर लगे वृक्ष, पराये घर रहने वाली स्त्री, बिना मंत्री का राजा, ये शीघ्र ही नष्ट हो जातें हैं।
- दोहा --
विद्या बल है विप्रको, राजा को बल सैन ।
धन वैश्यन बल शुद्रको, सेवाही बलदैन ॥16॥
अर्थ -- ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल धन है और शूद्रों का बलद्विजाति की सेवा है।
- दोहा --
वेश्या निर्धन पुरुष को, प्रजा पराजित राय ।
तजहिं पखेरूनिफल तरु, खाय अतिथि चल जाय ॥17॥
अर्थ -- धनविहीन पुरुष को वेश्या, शक्तिहीन राजा को प्रजा, जिसका फल झड गया है, ऎसे वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं और भोजन कर लेने के बाद अतिथि उस घर को छोड देता है।
- दोहा --
लेइ दक्षिणां यजमान सो, तजि दे ब्राह्मण वर्ग ।
पढि शिष्यन गुरु को तजहिं, हरिन दग्ध बन पर्व ॥18॥
अर्थ -- ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान को छोड देते हैं। विद्या प्राप्त कर लेने के बाद विद्यार्थी गुरु को छोड देता है और जले हुए जंगल को बनैले जीव त्याग देते हैं।
- दोहा --
पाप दृष्टि दुर्जन दुराचारी दुर्बस जोय ।
जेहि नर सों मैत्री करत, अवशि नष्ट सो होय ॥19॥
अर्थ -- दुराचारी, व्यभिचारी, दूषित स्थान के निवासी, इन तीन प्रकार के मनुष्य़ों से जो मनुष्य मित्रता करता है, उसका बहुत जल्दी विनाश हो जाता है।
- दोहा --
सम सों सोहत मित्रता, नृप सेवा सुसोहात ।
बनियाई व्यवहार में, सुन्दरि भवन सुहात ॥20॥
अर्थ -- बराबर वाले के साथ मित्रता भली मालूम होती है। राजा की सेवा अच्छी लगती है। व्यवहार में बनियापन भला लगता है और घर में अन्दर स्त्री भली मालूम होती है।
- इति चाणक्य नीति-दर्पण द्वितीयोऽध्यायः ॥2॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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