आकाशगंगा

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आकाशगंगा (गैलेक्सी) असंख्य तारों का समूह है जो स्वच्छ और अँधेरी रात में, आकाश के बीच से जाते हुए अर्धचक्र के रूप में और झिलमिलाती सी मेखला के समान दिखाई पड़ती है। यह मेखला वस्तुत: एक पूर्ण चक्र का अंग हैं जिसका क्षितिज के नीचे का भाग नहीं दिखाई पड़ता। भारत में इसे 'मंदाकिनी', 'स्वर्णगंगा', 'स्वर्नदी', 'सुरनदी', 'आकाशनदी', 'देवनदी', 'नागवीथी', 'हरिताली' आदि भी कहते हैं।

स्थिति

हमारी पृथ्वी और सूर्य जिस 'आकाशगंगा' में अवस्थित हैं, रात्रि में हम नंगी आँख से उसी आकाशगंगा के ताराओं को देख पाते हैं। अब तक ब्रह्मांड के जितने भाग का पता चला है उसमें लगभग ऐसी ही 19 अरब आकाशगंगाएँ होने का अनुमान है। ब्रह्मांड के 'विस्फोट सिद्धांत' (बिग बंग थ्योरी आफ युनिवर्स) के अनुसार सभी आकाशगंगाएँ एक दूसरे से बड़ी तेजी से दूर हटती जा रही हैं।

हमारी आकाशगंगा

हमारी आकाशगंगा (जिसमें हमारी पृथ्वी है) की चौड़ाई और चमक सर्वत्रसमान नहीं है। धनु (सैजिटेरियस) तारामंडल में यह सबसे अधिक चौड़ी और चमकीली है। दूरदर्शी यंत्र से देखने पर आकाशगंगा में असंख्य तारे दिखाई पड़ते हैं। विभिन्न चमक के तारों की संख्या गिनकर, उनकी दूरी की गणना कर और उनकी गति नापकर ज्योतिषियों ने आकाशगंगा के वास्तविक रूप का बहुत अच्छा अनुमान लगा लिया है। यदि आकाश में दिखाई पड़ने वाले रूप के बदले 'त्रिविमतीय अवकाश' (स्पेस) में आकाशगंगा के रूप पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि आकाशगंगा लगभग समतल वृत्ताकार पहिए के समान है जिसकी धुरी के पास का भाग कुछ फूला हुआ है। ऊपर से देखने पर आकाशगंगा पूर्ण वृत्ताकार दिखाई पड़ेगी। इस पहिए का व्यास लगभग 'एक लाख प्रकाश वर्ष है' (1 प्रकाश वर्ष=5.9´1012) मील या पृथ्वी से सूर्य की दूरी का 63 हज़ार गुना) और मोटाई 3000 से 6000 प्रकाश वर्ष के बीच है। केंद्र के पास की मोटाई लगभग 15000 प्रकाश वर्ष है। हमारी आकाशगंगा में तारे समान रूप से वितरित नहीं हैं। बीच बीच में अनेक तारागुच्छ हैं और इसकी भी संभावना है कि 'देवयानी (ऐंड्रोमीडा) नीहारिका' के समान हमारी आकाशगंगा में भी 'सर्पिल कुंडलियाँ (स्पाइरल आर्म्स)' हों। तारों के बीच में सूक्ष्म धूल और गैस फैली हैं, जो दूर के तारों का प्रकाश क्षीण कर देती हैं। धूल और गैस का घनत्व संस्था के मध्यतल में अधिक है। कहीं कहीं धूल के घने बादल हो जाने से 'काली नीहारिकाएँ' बन गई हैं, कहीं गैस के बादल पास के तारों के प्रकाश से उद्दीप्त होकर चमकती नीहारिका के रूप में दिखाई पड़ते हैं। हमारी आकाशगंगा का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान का लगभग एक खरब (1011) गुना है। इसमें से प्राय: आधा तो तारों का द्रव्यमान है और आधा धूल और गैस का।

आकाशगंगा का स्वरूप

आकाशगंगा का वातावरण हमारी आकाशगंगा बीच में फूली हुई वृत्ताकार पूड़ी के समान है। सूसे सूचित वृत्त के भीतर ही वेसब तारे हैं जो हमें आकाश में पृथक्‌-पृथक्‌ दिखाई पड़ते हैं। हमारी आकाशगंगा हमारी आकाशगंगा के चारों ओर बहुत दूर तक तारे और तारगुच्छ विरलता से फैले हुए हैं।

सूर्य द्वारा परिक्रमा

हमारी आकाशगंगा के केंद्र के पास तारे संख्या में अधिक घने हैं और किनारे की ओर अपेक्षाकृत बिखरे हुए हैं। सभी तारे केंद्र की परिक्रमा कर रहे हैं, केंद्र के निकट वाले तारे अधिक गति से और दूर वाले कम गति से। हमारा सूर्य केंद्र से लगभग 30-35 हज़ार प्रकाश वर्ष दूर है और आकाशगंगा के मध्य तल में हैं। इसी कारण अपनी आकाशगंगा हमें वैसी मेखला की तरह दिखाई पडुती हैं। पृथ्वी से आकाशगंगा का केंद्र 'धनु तारामंडल' की ओर है। इसीलिए आकाशगंगा के केंद्र की परिक्रमा करता है। इस परिक्रमा में उसका वेग 150 मील प्रति सेंकड हैं। इस वेग से भी पूरी परिक्रमा में सूर्य को 20 करोड़ वर्ष लग जाते हैं।

अन्य आकाशगंगा

कुछ तीव्र गति वाले तारे और 'गोलीय तारगुच्छ' (ग्लोब्यूलर क्लस्टर) हमारी आकाशगंगा की सीमा के बाहर हैं, किंतु ये भी हमारी आकाशगंगा से संबद्ध हैं और उसी के अंग माने जाते हैं। लगभग 100 गोलीय तारागुच्छ ज्ञात हैं। इनका वितरण गोलाकार है। इन तारागुच्छों के वितरण से 'आकाशगंगा' का केंद्र ज्ञात किया जा सकता है। तारों की गति नापने से भी केंद्र की गणना में सहायता मिलती है। रूप और विस्तार में आकाशगंगा बहुत सी 'अगांग (एक्स्ट्रा गैलक्टिक) नीहारिकाओं' से (अर्थात उन आकाशगंगाओं से जो हमारी आकाशगंगा से पूर्णतया बाहर हैं) मिलती जुलती हैं।

खगोलशास्त्रियों का मत

प्रारंभ में खगोलशास्त्रियों की धारणा थी कि ब्रह्मांड में नई आकाशगंगाओं और क्वासरों का जन्म संभवत: पुरानी आकाशगंगाओं के विस्फोट के फलस्वरूप होता है। लेकिन 'यार्क विश्वविद्यालय' के खगोलशास्त्रियों-'डॉ.सी.आर. प्यूटर्न' और 'डॉ.ए.ई राइट' ने आकाशगंगाओं के चार समूहों की अंतरक्रियाओं का अध्ययन करके इस धारणा का खंडन किया है। उन्होंने यह बताया कि आकाशगंगाओं के बीच में ऐसी विस्फोटक अंतर क्रियाएँ नहीं होती हैं जो नई आकाशगंगाओं को जन्म दे सकें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्व कोश
  2. गोरख प्रसाद कृत 'नीहारिकाएँ' (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्),
  3. बोक एवं बोक कृत 'द मिल्की वे' (1954)।

बाहरी कड़ियाँ

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