श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 29-37

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:18, 29 अक्टूबर 2017 का अवतरण (Text replacement - "स्वरुप" to "स्वरूप")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः(16) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः श्लोक 29-37 का हिन्दी अनुवाद

तनिक भी चेत होता तो वह अपनी आँखों से विष उगलने लगता और क्रोध के मारे जोर-जोर से फुफकारें मारने लगता। इस प्रकार वह अपने सिरों में से जिस सिर का ऊपर उठाता, उसी को नाचते हुए भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणों की ठोक से झुकाकर रौंद डालते। उस समय पुराण-पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर जो खून की बूँदे पड़ती थीं, उनसे ऐसा मालूम होता, मानो रक्त-पुष्पों से उनकी पूजा की जा रही हो । परीक्षित्! भगवान के इस अद्भुत ताण्डव-नृत्य से कालिय के फणरूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गये। उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुँह से खून की उलटी होने लगी। अब उसे सारे जगत् के आदि शिक्षक पुराणपुरुष भगवान नारायण की रमृति हुई। वह मन-ही-मन भगवान की शरण में गया । भगवान श्रीकृष्ण के उदर में सम्पूर्ण विश्व है। इसलिये उनके भारी बोझ से कालिय नाग के शरीर की एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी। उनकी एडियों की चोट से उसके छत्र के समान फण छिन्न-भिन्न हो गये। अपने पति की यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान की शरण में आयीं। वे अत्यन्त आतुर हो रही थीं। भय के मारे उनके वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और केश की चोटियाँ भी बिखर रही थीं । उस समय उन साध्वी नागपत्नियों के चित्त में बड़ी घबराहट थी। अपने बालकों को आगे करके वे पृथ्वी पर लोट गयीं और हाथ जोड़कर उन्होंने समस्त प्राणियों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण को शरणागतवत्सल जानकर अपने अपराधी पति को छुड़ाने की इच्छा से उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की ।

नागपत्नियों ने कहा—प्रभो! आपका यह अवतार ही दुष्टों को दण्ड देने के लिये हुआ है। इसलिये इस अपराधी को दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टि में शत्रु और पुत्र का कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसी को दण्ड देते हैं, वह उसके पापों का प्रायश्चित कराने और उसका परम कल्याण करने के लिये ही । आपने हम लोगों पर यह बड़ा ही अनुग्रह किया। यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है। क्योंकि आप जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस सर्प के अपराधी होने में तो कोई संदेह ही नहीं है। यदि यह अपराधी न होता तो इसे सर्प की योनि ही क्यों मिलती ? इसलिये हम सच्चे हृदय से आपके इस क्रोध को भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं ।

अवश्य ही पूर्वजन्म में इसने स्वयं मान रहित होकर और दूसरों का सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब जीवों पर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है तभी तो आप इसके ऊपर संतुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवनस्वरूप आपकी प्रसन्नता का यही उपाय है ।

भगवन्! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधना का फल है, जो यह आपके चरणकमलों की धूल का स्पर्श पाने का अधिकारी हुआ है। आपके चरणों की रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अर्धांगिनी लक्ष्मीजी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का त्याग करके नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी ।

प्रभो! जो आपके चरणों की धूल की शरण ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्ग का राज्य या पृथ्वी की बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातल का ही राज्य चाहते और न तो ब्रम्हा का पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग-सिद्धियों की भी चाह नहीं होती। यहाँ तक कि वे जन्म-मृत्यु से छुडाने वाले कैवल्य-मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-