श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 21-31
एकादश स्कन्ध: एकादशोमोऽध्यायः (11)
प्रिय उद्धव! जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, आत्मजिज्ञासा और विचार के द्वारा आत्मा के जो अनेकता का भ्रम है उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मा में अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसार के व्यवहारों से उपराम हो जाय । यदि तुम अपना मन परब्रम्ह में स्थिर न कर सको तो सारे कर्म निरपेक्ष होकर मेरे लिये ही करो । मेरी कथाएँ समस्त लोकों को पवित्र करने वाली एवं कल्याणस्वरूपिणी हैं। श्रद्धा के साथ उन्हने सुनना चाहिये। बार-बार मेरे अवतार और लीलाओं का गान, स्मरण और अभिनय करना चाहिये । मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थ का सेवन करना चाहिये। प्रिय उद्धव! जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुष के प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है ।
भक्ति की प्राप्ति सत्संग से होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपद को—वास्तविक स्वरूप को सहज ही में प्राप्त हो जाता है ।
उद्धवजी ने पूछा—भगवन्! बड़े-बड़े संत आपकी कीर्ति का गान करते हैं। आप कृपया बतलाइये कि आपके विचार से संत पुरुष का क्या लक्षण है ? आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिये, जिसका संत लोग आदर करते हैं ? भगवन्! आप ही ब्रम्हा आदि श्रेष्ठ देवता, सत्याकि लोक और चराचर जगत् के स्वामी हैं। मैं आपका विनीत, प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ। आप मुझे भक्ति और भक्त का रहस्य बतलाइये । भगवन्! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृति से परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाशस्वरूप ब्रम्ह हैं। आपसे भिन्न कुछ भी नहीं है; फिर भी आपने लीला के लिये स्वेच्छा से ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है। इसलिये वास्तव में आप ही भक्ति और भक्त का रहस्य बतला सकते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—प्यारे उद्धव! मेरा भक्त कृपा की मूर्ति होता है। वह किसी भी प्राणी से वैरभाव नहीं रखता और घोर-से-घोर दुःख भी प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके जीवन का सार है सत्य, और उसके मन में किसी प्रकार की पापवासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और सबका भला करने वाला होता है । उसकी बुद्धि कामनाओं से कलुषित नहीं होती। यह संयमी, मधुरस्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह-परिग्रह से सर्वथा दूर रहता है। किसी भी वस्तु के लिये वह कोई चेष्टा नहीं करता। परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आत्मतत्व के चिन्तन में सदा संलग्न रहता है । वह प्रमादरहित, गम्भीर स्वभाव और धैर्यवान् होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु—ये छहों उसके वश में रहते हैं। वह स्वयं तो कभी किसी से किसी प्रकार का सम्मान नहीं चाहता, परन्तु दूसरों का सम्मान करता रहता है। मेरे सम्बन्ध की बातें दूसरों को समझाने में बड़ा निपुण होता है और सभी के साथ मित्रता का व्यवहार करता है। उसके हृदय में करुणा भरी होती है। मेरे तत्व का उसे याथार्थ ज्ञान होता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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