श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 28 श्लोक 1-12
दशम स्कन्ध: अष्टाविंशोऽध्यायः (28) (पूर्वार्ध)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! नन्दबाबा ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया और भगवान की पूजा कि तथा उसी दिन रात में द्वादशी लगने पर स्नान करने के लिये यमुना-जल में प्रवेश किया । नन्दबाबा को यह मालूम नहीं था कि यह असुरों की वेला है, इसलिये वे रात के समय ही यमुनाजल में घुस गये। उस समय वरुण के सेवक एक असुर ने उन्हें पकड़ लिया और वह अपने स्वामी के पास ले गया । नन्दबाबा के खो जाने से व्रज के सारे गोप ‘श्रीकृष्ण! अब तुम्हीं अपने पिता को ला सकते हो; बलराम! अब तुम्हारा ही भरोसा है’—इस प्रकार कहते हुए रोने-पीटने लगे। भगवान श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् हैं एवं सदा से ही अपने भक्तों का भय भगाते आये हैं। जब उन्होंने व्रजवासियों का रोना-पीटना सुना और यह जाना कि पिताजी को वरुण का कोई सेवक ले गया है, तब वे वरुणजी के पास गये । जब लोकपाल वरुण ने देखा कि समस्त जगत् के अंतरिन्द्रिय और बहिरिन्द्रियों के प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही उनके यहाँ पधारे हैं, तब उन्होंने उनकी बहुत बड़ी पूजा की। भगवान के दर्शन से उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठा। इसके बाद उन्होंने भगवान से निवेदन किया ।
वरुणजी ने कहा—प्रभो! आज मेरा शरीर धारण करना सफल हुआ। आज मुझे सम्पूर्ण पुरुषार्थ प्राप्त हो गया; क्योंकि आज मुझे आपके चरणों की सेवा का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। भगवान्! जिन्हें भी आपके चरणकमलों की सेवा का सुअवसर मिला, वे भवसागर से पार हो गये । आप भक्तों के भगवान्, वेदान्तियों के ब्रम्ह और योगियों के परमात्मा हैं। आपके स्वरूप में विभिन्न लोकसृष्टियों की कल्पना करने वाली माया नहीं है—ऐसा श्रुति कहती है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ । प्रभो! मेरा यह सेवक बड़ा मूढ़ और अनजान है। वह अपने कर्तव्य को भी नहीं जानता। वही आपके पिताजी को ले आया है, आप कृपा करके उसका अपराध क्षमा कीजिये । गोविन्द! मैं जानता हूँ कि आप अपने पिता के प्रति बड़ा प्रेमभाव रखते हैं। ये आपके पिता हैं। इन्हें आप ले जाइये। परन्तु भगवन्! आप सबके अन्तर्यामी, सबके साक्षी हैं। इसलिये विश्वविमोहन श्रीकृष्ण! आप मुझ दास पर भी कृपा कीजिये ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ब्रम्हा आदि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। लोकपाल वरुण ने इस प्रकार उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान अपने पिता नन्दजी को लेकर व्रज में चले आये और व्रजवासी भाई-बन्धुओं को आनन्दित किया । नन्दबाबा ने वरुणलोक में लोकपाल के इन्द्रियातीत ऐश्वर्य और सुख-सम्पत्ति को देखा तथा यह भी देखा कि वहाँ के निवासी उनके पुत्र श्रीकृष्ण के चरणों में झुक-झुककर प्रणाम कर रहे हैं। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने व्रज में आकर अपने जाति-भाइयों को सब बातें कह सुनायीं ।
परीक्षित्! भगवान के प्रेमी गोप यह सुनकर ऐसा समझने लगे कि अरे, ये तो स्वयं भगवान हैं। तब उन्होंने मन-ही-मन बड़ी उत्सुकता से विचार किया कि क्या कभी जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण हमलोगों को भी अपना वह मायातीत स्वधाम, जहाँ केवल इनके प्रेमी-भक्त ही जा सकते हैं, दिखलायेंगे ।
परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सर्वदर्शी हैं। भला, उनसे यह बात कैसे छिपी रहती ? वे अपने आत्मीय गोपों की यह अभिलाषा जान गये और उनका संकल्प सिद्ध करने के लिये कृपा से भरकर इस प्रकार सोचने लगे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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