श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 26-29

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दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः(87) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 26-29 का हिन्दी अनुवाद

यह त्रिगुणात्मक जगत् मन की कल्पनामात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत से पृथक् प्रतीत होने वाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तव में असत् होने पर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ता के कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है। इसलिये भोक्ता, भोग्य और दोनों के सम्बन्ध को सिद्ध करने वाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत् है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य ही मानते हैं। सोने से बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिए उनको इस रूप में जानने वाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत् आत्मा में ही कल्पित, आत्मा से ही व्याप्त है; इसलिये आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं[1]। भगवन्! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात् उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान हों, उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से पशुओं के समान बाँध लेते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेम का सम्बन्ध जोड़ रखा है, वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते हैं—जगत के बन्धन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है[2]। प्रभो! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणों से—चिन्तन, कर्म आदि के साधनों से सर्वथा रहित हैं। फिर भी आप समस्त अन्तःकरण और बाह्य करणों की शक्तियों से सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं। आप स्वतः सिद्ध ज्ञानवान्, स्वयंप्रकाश हैं; अतः कोई काम करने के लिये आपको इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी प्रजा से कर लेकर स्वयं अपने सम्राट् को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्यों के पूज्य देवता और देवताओं के पूज्य ब्रम्हा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियों से पूजा स्वीकार करते हैं और माया के अधीन होकर आपकी पूजा करते हैं। वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करने के लिये उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आपसे भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं[3]। नित्यमुक्त! आप मायातीत हैं, फिर भी जब अपने ईक्षण मात्र से—संकल्प मात्र के साथ क्रीड़ा करते हैं, तब आपका संकेत पाते ही जीवों के सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म-संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। प्रभो! आप परम दलालु हैं। आकाश के समान सबसे सम होने के कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वास्तव में तो आपके स्वरूप में मन और वाणी की गति ही नहीं है। आपमें कार्य कारणरुप प्रपंच का अभाव होने से बाह्य-दृष्टि से आप शून्य के समान ही जान पड़ते हैं, परन्तु उस दृष्टि के भी अधिष्ठान होने के कारण आप परम सत्य हैं[4]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह जगत् अपने स्वरूप, नाम और आकृति के रूप में असत् है, फिर भी जिस अधिष्ठान-सत्ता की सत्यता से यह सत्य जान पड़ता है तथा जो इस असत्य प्रपंच में सत्य के रूप से सदा प्रकाशमान रहता है, उस भगवान् का हम भजन करते हैं।
  2. लोग पंचाग्नि आदि तापों से तप्त हों, पर्वत से गिरकर आत्मघात कर लें, तीर्थों का पर्यटन करें, वेदों का पाठ करें, यज्ञों के द्वारा यजन करें अथवा भिन्न-भिन्न मतवादों के द्वारा आपस में विवाद करें, परन्तु भगवान् के बिना इस मृत्युमय संसार-सागर से पार नहीं जाते।
  3. जो प्रभु इन्द्रिय रहित होने पर भी समस्त बाह्य और आन्तरिक इन्द्रिय की शक्ति को धारण करता है और सर्वज्ञ एवं सर्वकर्ता है, उस सब के सेवनीय प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।
  4. नृसिंह! आपके सृष्टि-संकल्प से क्षुब्ध होकर माया ने कर्मों को जाग्रत् कर दिया है। उन्हीं के कारण हम लोगों का जन्म हुआ और अब आवागमन के चक्कर में भटककर हम दुःखी हो रहे हैं। पिताजी! आप हमारी रक्षा कीजिये।

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