श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-9

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:20, 29 अक्टूबर 2017 का अवतरण (Text replacement - "स्वरुप" to "स्वरूप")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

एकादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


देवताओं की भगवान से स्वधाम सिधारने के लिये प्रार्थना तथा यादवों को प्रभास क्षेत्र जाने की तैयारी करते देखकर उद्धव का भगवान के पास आना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! जब देवर्षि नारद वसुदेवजी को उपदेश करके चले गये, तब अपने पुत्र सनकादिकों, देवताओं और प्रजापतियों के साथ ब्रम्हाजी, भूतगणों के साथ सर्वेश्वर महादेवजी और मरुद्गणों के साथ देवराज इन्द्र द्वारकानगरी में आये। साथ ही सभी आदित्यगण, आठों वसु, अश्विनीकुमार, ऋभु, अंगिरा के वंशज ऋषि, ग्यारहों रूद्र, विश्वेदेव, साध्यगण, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर और किन्नर भी वहीं पहुँचे। इन लोगों के आगमन का उद्देश्य यह था कि मनुष्य का-सा मनोहर वेष धारण करने वाले और अपने श्यामसुन्दर विग्रह से सभी लोगों का मन अपनी ओर खींचकर रमा लेने वाले भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करें; क्योंकि इस समय उन्होंने अपना श्रीविग्रह प्रकट करके उसके द्वारा तीनों लोकों में ऐसी पवित्र कीर्ति का विस्तार किया है, जो समस्त लोकों के पाप-ताप को सदा के लिये मिटा देती है । द्वारकापुरी सब प्रकार की सम्पत्ति और ऐश्वर्यों से समृद्ध तथा अलौकिक दीप्ति से देदीप्यमान हो रही थी। वहाँ आकर उन लोगों ने अनूठी छवि से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किये। भगवान की रूप-माधुरी का निर्निमेष नयनों से पान करने पर भी उनके नेत्र तृप्त न होते थे। वे एकटक बहुत देर तक उन्हें देखते ही रहे । उन लोगों ने स्वर्ग के उद्दान नन्दन-वन, चैत्ररथ आदि के दिव्य पुष्पों से जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण को ढक दिया और चित्र-विचित्र पदों तथा अर्थों से युक्त वाणी के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे ।

देवताओं ने प्रार्थना की—स्वामी! कर्मों के विकट फंदों से छूटने की इच्छा वाले मुमुक्षुजन भक्ति-भाव से अपने हृदय से जिसका चिन्तन करते रहते हैं, आपके उसी चरणकमल को हम लोगों ने अपनी बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण, मन और वाणी से साक्षात् नमस्कार किया है। अहो! आश्चर्य है![1]अजित! आप मायिक रज आदि गुणों में स्थित होकर इस अचिन्त्य नाम-रूपात्मक प्रपंच की त्रिगुणमयी माया के द्वारा अपने-आप में ही रचना करते हैं, पालन करते और संहार करते हैं। यह सब करते हुए भी इन कर्मों से आप लिप्त नहीं होते हैं; क्योंकि आप राग-द्वेषादि दोषों से सर्वथा मुक्त हैं और अपने निरावरण अखण्ड स्वरूप भूत परमानन्द में मग्न रहते हैं । स्तुति करने योग्य परमात्मन्! जिन मनुष्यों की चित्तवृत्ति राग-द्वेषादि से कलुषित हैं, वे उपासना, वेदाध्ययन, दान, तपस्या और यज्ञ आदि कर्म भले ही करें; परन्तु उनकी वैसी शुद्धि नहीं हो सकती, जैसी श्रवण के द्वारा सम्पुष्ट शुद्धान्तःकरण सज्जन पुरुषों की आपकी लीला कथा, कीर्ति के विषय में दिनोंदिन बढ़कर परिपूर्ण होने वाली श्रद्धा से होती है ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यहाँ साष्टांग प्रणाम से तात्पर्य है—हाथों से, चरणों से, घुटनों से, वक्षःस्थल से, सिर से, नेत्रों से, मन से और वाणी से—इन आठ अंगों से किया गया प्रणाम साष्टांग प्रणाम कहलाता है।

संबंधित लेख

-