श्रीकांत उपन्यास भाग-18

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आज बे-वक्त कलकत्ते पहुँचने के लिए निकल पड़ा। उसके बाद इससे भी ज़्यादा दुखमय है बर्मा का निर्वासन। वहाँ से लौटकर आने का शायद समय भी न होगा और प्रयोजन भी न होगा। शायद यह जाना ही अन्तिम जाना हो। गिनकर देखा, दस दिन बाकी हैं। दस दिन जीवन के लिहाज़ कितने से हैं! तथापि, मन में संदेह नहीं रहा कि दस दिन पहले जो यहाँ आया था और आज जो बिदा लेकर जा रहा है, दोनों एक नहीं हैं।

बहुतों को खेद के साथ कहते हुए सुना है कि यह किसने सोचा था अमुक व्यक्ति ऐसा हो जायेगा- अर्थात्, अमुक का जीवन मानो सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण की तरह उसके अनुमान के पंचांग में ठीक-ठीक गिनकर लिखा हुआ है, उसका ठीक न मिलना सिर्फ अचिन्त्य ही नहीं, अयुक्त भी है- मानो उनकी बुद्धि के हिसाब-किताब के बाहर दुनिया में और कुछ है ही नहीं। वे नहीं जानते कि संसार में केवल विभिन्न मनुष्य ही नहीं हैं, बल्कि इसका पता लगाना भी कठिन है कि एक-एक मनुष्य भी कितने विभिन्न मनुष्यों के रूप में रूपान्तरित हो जाता है- यहाँ पर एक क्षण भी तीक्ष्णता और तीव्रता में समस्त जीवन को अतिक्रम कर सकता है।

× × × ×

सीधा रास्ता छोड़कर वन-जंगलों में से इस उस रास्ते चक्कर लगाता हुआ स्टेशन जा रहा था- बहुत कुछ उसी तरह जिस तरह बचपन में पाठशाला को जाया करता था। ट्रेन का वक्त नहीं जानता, उसकी जल्दी भी नहीं है,- सिर्फ यह जानता हूँ कि वहाँ पहुँचने पर कोई न कोई ट्रेन, जब भी मिले, मिल ही जायेगी। चलते-चलते एकाएक ऐसा लगा कि सब रास्ते जैसे पहचाने हुए हैं, मानो कितने दिनों तक कितनी बार इन रास्तों से आया गया हूँ! पहले वे बड़े थे, अब न जाने क्यों संकीर्ण और छोटे हो गये हैं। अरे यह क्या, यह तो खाँ- लोगों का हत्यारा बाग है! अरे, वही तो है! और यह तो मैं अपने ही गाँव के दक्षिण के मुहल्ले के किनारे से जा रहा हूँ। उसने न जाने कब शूल की व्यथा के मारे इस इमली के पेड़ की ऊपर की डाल में रस्सी बाँधकर आत्महत्या कर ली थी। की थी या नहीं, नहीं जानता, पर प्राय: और सब गाँवों की तरह यहाँ भी यह जनश्रुति है। पेड़ रास्ते के किनारे है, बचपन में इस पर नज़र पड़ते ही शरीर में काँटे उठ आते थे, ऑंखें बन्द करके एक ही दौड़ में इस स्थान को पास कर जाना पड़ता था।

पेड़ वैसा ही है। उस वक्त ऐसा लगता था कि इस हत्यारे पेड़ का धड़ मानो पहाड़ की तरह है और माथा आकाश से जाकर टकरा रहा है। परन्तु आज देखा कि उस बेचारे में गर्व करने लायक़ कुछ नहीं है, और जैसे अन्य इमली के पेड़ होते हैं वैसा ही है। जनहीन ग्राम के एक ओर एकाकी नि:शब्द खड़ा है। शैशव में जिसने काफ़ी डराया है, आज बहुत वर्षों बाद के प्रथम साक्षात् में उसी ने मानों बन्धु की तरह ऑंख मिचकाकर मजाक किया, कहो मेरे बन्धु, कैसे हो, डर तो नहीं लगता?

मैंने पास जाकर परम स्नेह के साथ उसके शरीर पर हाथ फेरा। मन ही मन कहा, अच्छा ही हूँ भाई। डर क्यों लगेगा, तुम तो मेरे बचपन के पड़ौसी हो- मेरे आत्मीय!

संध्‍या का प्रकाश बुझता जा रहा था। मैंने बिदा लेते हुए कहा, भाग्य अच्छा था जो अचानक मुलाकात हो गयी, अब जाता हूँ बन्धु!

श्रेणीबद्ध बहुत से बगीचों के बाद जरा खुली जगह है। अन्यमनस्क होता तो इसे भी पार कर जाता, किन्तु सहसा अनेक दिनों की भूली हुई-सी परन्तु परिचित एक बहुत ही सुन्दर मीठी गन्ध से चौंक पड़ा-इधर-उधर निहारते ही नजर पड़ गयी- वाह! यह तो हमारी उसी यशोदा वैष्णवी के आऊस फूलों की गन्ध है! बचपन में इनके लिए यशोदा की कितनी आरजू-मिन्नत नहीं की थी? इस जाति का पेड़ इधर नहीं होता, क्या मालूम कहाँ से लाकर उसने इसको अपने ऑंगन के एक कोने में लगाया था। टेढ़ी-मेढ़ी और गाँठोंवाली, बूढ़े आदमी जैसी उसकी शकल थी। उस दिन की तरह आज भी उसकी वही एकमात्र सजीव शाखा है और ऊपर के कुछ थोड़े से हरे पत्तों के बीच वैसे ही थोड़े से कुछ सफेद फूल हैं। इसके नीचे यशोदा के स्वामी की समाधि थी। वैष्णव ठाकुर को हमने नहीं देखा था, हमारे जन्म के पहले वे स्वर्गधाम सिधार चुके थे। उनकी छोटी-मनिहारी की दुकान तब उनकी विधवा ही चलाती थी। दुकान तो नहीं थी, पर एक डलिया में यशोदा छोटी-छोटी आरसियाँ, कंघियाँ, नारे, महावर, तेल के मसाले, काँच के खिलौने, टीन की वंशी इत्यादि भरकर घर-घर घूमकर बेचा करती थी। इसके सिवाय उसके पास मछली पकड़ने का सामान भी रहता था- अधिक नहीं, एक-एक दो-दो पैसे की डोरियाँ और काँटे। इन्हें ख़रीदने जब हम उसके घर जाते, तो बहुत धूम मचाते। इस आऊस के पेड़ की एक सूखी डाल पर बनाए हुए मिट्टी के आले पर यशोदा संध्याम के समय दीपक जलाती थी और फूलों के लिए उपद्रव करने पर वह हमें समाधि दिखाकर कहती, "नहीं बच्चों, ये मेरे देवता के फूल हैं, तोड़ने पर नाराज होंगे।"

वैष्णवी अब नहीं है, पता नहीं कि वह कब मर गयी, शायद बहुत दिन नहीं हुए। पेड़ के एक किनारे और एक छोटे चबूतरे पर नज़र पड़ी, शायद यह यशोदा की समाधि होगी। बहुत सम्भव है कि सुदीर्घ प्रतीक्षा के बाद उसने भी पति के पास ही अपने लिए थोड़ा-सा स्थान कर लिया हो। स्तूप की खुदी हुई मिट्टी ज़्यादा उर्ब्वर हो जाने के कारण बिच्छू खूब हो गये हैं और पेड़ को चमगीदड़ों ने छा दिया है- सँभालने वाला कोई नहीं है।

रास्ता छोड़कर शैशव के उस परिचित बूढ़े पेड़ के पास जाकर खड़ा हो गया। देखा कि शाम को जलने वाला वह दीपक नीचे पड़ा है और उसके ऊपर की वह सूखी डाल आज भी वैसी ही तेल से काली हो रही है।

यशोदा का छोटा-सा घर अभी तक पूरी तरह ढहा नहीं है- सहस्र-छिद्रमय और जीर्ण-शीर्ण फूस का छप्पर दरवाज़े को ढककर औंधा पड़ा हुआ आज भी प्राणपण से रक्षा कर रहा है।

बीस-पच्चीस वर्ष पहले की न जाने कितनी बातें याद आ गयीं- बाँसों के घेर से घिरा हुआ लिपा-पुता यशोदा का ऑंगन, और वही छोटा-सा कमरा। उसकी आज यह दशा है! पर इससे भी बहुत ज़्यादा एक करुण वस्तु अब भी देखने को बाकी थी। अकस्मात् देखा कि उसी घर के टूटे छप्पर के नीचे से एक कंकाल-शेष कुत्ता बाहर निकला। मेरे पैरों की आवाज़ से चकित होकर शायद उसने मेरे अनधिकार-प्रवेश का प्रतिवाद करना चाहा। पर उसकी आवाज़ इतनी क्षीण थी कि उसके मुँह में ही रह गयी।

कहा, "क्यों रे, मैंने अपराध तो नहीं किया?"

उसने मेरे मुँह की ओर देखकर न जाने क्या सोचा और फिर पूँछ हिलाना शुरू कर दिया। मैंने कहा, "अब भी तू यहीं है?"

उसने प्रत्युत्तर में सिर्फ दोनों मलिन ऑंखें खोलकर अत्यन्त निरुपाय की तरह मेरे मुँह की तरफ देखा।

इसमें शक नहीं कि यह यशोदा का कुत्ता है। फूलदार रंगीन किनारी का गल-पट्टा अब भी उसके गले में है। मैं समझ ही न सका कि उस नि:सन्तान रमणी के एकान्त स्नेह का धन यह कुत्ता आज भी इस परित्यक्त कुटी में क्या खाकर जीवित है। मुहल्लों में जाकर छीन झपट कर खाने का ज़ोर तो उसमें है नहीं, आदत भी नहीं है, और स्वजाति के साथ मेल रखने की शिक्षा भी उसे नहीं मिली। लिहाज़ा भूखा और अधभूखा रहकर यहीं पड़ा पड़ा बेचारा शायद उसी की राह देख रहा है, जो उसको एक दिन प्यार करती थी। सोचता होगा कि कहीं न कहीं गयी है, एक न एक दिन लौटकर आयेगी ही। मन ही मन कहा, यही क्या ऐसा है? इस प्रत्याशा को बिल्कुदल ही पोंछ डालना संसार में क्या इतना आसान है?

जाने के पहले छप्पर की सैंध में से एक बार भीतर की ओर दृष्टि डाली। अन्धकार में और तो कुछ भी दिखाई न पड़ा, दीवार पर चिपकी हुई कुछ तसवीरें नजर आ गयी। राजा रानी से लेकर नाना जाति के देवी-देवताओं तक की तसवीरें हैं। कपड़े के नये थानों में से निहाल निकाल कर यशोदा इन्हें संग्रह करती थी और इस तरह वह अपना तस्वीरों का शौक़ मिटाती थी। याद आया कि बचपन में इनको अनेक बार मुग्ध दृष्टि से देखा है। बारिश से भीगकर, दीवार की मिट्टी से बिगड़ कर, ये आज भी किसी तरह टिकी हुई हैं।

और पड़ी हुई पास के ही छींके पर वैसी ही दुर्दशा में वह रंगीन हँड़िय जिसे देखते ही मुझे यह बात याद आ गयी कि इसमें उसके आलते के बंडल रहते थे। और भी इधर-उधर क्या-क्या पड़ा था, अन्धकार में पता नहीं पड़ा। वे सब चीज़ें मिलकर प्राणपण से मुझे न जाने किस बात का इंगित करने लगीं, पर उस भाषा से मैं अनजान था। कुछ ऐसा लगा कि मकान के एक कोने में मानो किसी मृत शिशु का खिलौना-घर है। घर-गृहस्थी की नाना टूटी-फूटी चीजों से यत्नपूर्वक सजाए हुए इस क्षुद्र संसार को वह छोड़ नया है। आज उन चीजों का आदर नहीं है, प्रयोजन भी नहीं, ऑंचल से बार-बार झाड़ने-पोंछने की ज़रूरत भी नहीं-पड़ा हुआ है सिर्फ जंजाल, इसलिए कि किसी ने उसे मुक्त नहीं किया है।

वह कुत्ता कुछ देर तक साथ-साथ आया और ठहर गया। जब तक दिखाई पड़ा तब तक बेचारा इस ओर टकटकी लगाये खड़ा देखता रहा है। उसके साथ का यह परिचय प्रथम भी है, और अन्तिम भी। फिर भी वह कुछ आगे बढ़कर बिदा देने आया है। मैं जा रहा हूँ किसी बन्धुहीन, लक्ष्यहीन प्रवास के लिए, और वह लौट जायेगा अपने अन्धकारपूर्ण निराले टूटे हुए मकान में! दोनों के ही संसार में ऐसा कोई नहीं है जो राह देखते हुए प्रतीक्षा कर रहा हो!

बगीचे के पार ही जाने पर वह ऑंखों से ओझल हो गया, परन्तु पाँच ही मिनट के इस अभागे साथी के लिए हृदय भीतर ही भीतर रो उठा, ऐसी दशा हो गयी कि ऑंखों के ऑंसू न रोक सका।

चलते-चलते सोच रहा था कि ऐसा क्यों होता है? और किसी दिन यह सब देखता तो शायद कुछ विशेष खयाल न आता, पर आज मेरा हृदयाकाश मेघों के भार से भारातुर हो रहा है- जो उन लोगों के दु:ख की हवा से सैकड़ों धाराओं में बरस पड़ना चाहते हैं।

स्टेशन पहुँच गया। भाग्य अच्छा था, उसी वक्त गाड़ी मिल गयी, कलकत्ते के निवास-स्थान पर पहुँचने तक ज़्यादा रात न होगी। टिकट ख़रीद कर बैठ गया और उसने सीटी देकर यात्रा शुरू कर दी। स्टेशन के प्रति उसे मोह नहीं, सजल ऑंखों से बार-बार घूमकर देखने की उसे ज़रूरत नहीं।

फिर वही याद आयी- मनुष्य के जीवन में दस दिन कितने-से हैं; फिर भी कितने बड़े हैं!

कल सुबह कमललता अकेली ही फूल तोड़ने जावेगी और उसके बाद उसकी सारे दिन चलने वाली देव-सेवा शुरू हो जायेगी! क्या मालूम, दस दिन के साथी नये गुसाईं को भूलने में उसे कितने दिन लगे।

उस दिन उसने कहा था, "सुख से ही तो हूँ गुसाईं। जिनके पाद-पद्मों पर अपने-आपको निवेदन कर दिया है वे दासी का कभी परित्याग नहीं करेंगे।" सो, यही हो। ऐसी ही हो।

बचपन से ही मेरे जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, बलपूर्वक किसी भी चीज़ की कामना करना मैं नहीं जानता- सुख-दु:ख सम्बन्धी मेरी धारणा भी अलग है। तथापि इतनी उम्र कट गयी सिर्फ दूसरों का अनुकरण करने में-दूसरों के विश्वास पर और दूसरों का हुक्म तामील करने में। इसलिए कोई भी काम मेरे द्वारा अच्छी तरह निर्वाहित नहीं होता। दुबिधा से दुर्बल मेरे सारे संकल्प और सारे उद्योग थोड़ी ही दूर चलते हैं और ठोकर खाकर रास्ते में ही चूर-चूर हो जाते हैं; तब सभी कहने लगते हैं, "आलसी है, किसी काम का नहीं।" शायद इसीलिए उन निकम्मे बैरागियों के अखाड़े में ही मेरा अन्तरवासी अपरिचित बन्धु अस्फुट छाया-रूप में मुझे दर्शन दे गया, मैंने बार-बार नाराज होकर मुँह फिरा लिया और उसने बार-बार स्मित हास्य से हाथ हिला-हिलाकर न जाने क्या इशारा किया।

और वह वैष्णवी कमललता! उसका जीवन मानों प्राचीन वैष्णव कवि चित्तों के ऑंसुओं का गीत है। छन्दों में मेल नहीं, व्याकरण में भूलें हैं, भाषा में भी अनेक त्रुटियाँ हैं, पर उसका विचार तो उस ओर से नहीं किया जा सकता। मानो उसी का दिया हुआ कीर्तन का सुर है- जिसके मर्म में पैठता है, उसे ही उसका पता चलता है। वह मानो गोधूलि के आकाश की रंगबिरंगी तसवीर है। उसका नाम नहीं, संज्ञा नहीं-कलाशास्त्र के सूत्रों के अनुसार उसका परिचय देना भी विडम्बना है।

मुझसे कहा था, "चलो न गुसाईं, यहाँ से चल दें, गीत गाते गाते पथ ही पथ पर दोनों के दिन कट जायेंगे।"

उसे कहने में तो कुछ नहीं लगा, पर वह मुझे खटका। मेरा नाम रक्खा है उसने 'नये गुसाईं।" कहा, "असल नाम तो मैं मुँह से निकाल नहीं सकती गुसाईं।" उसका विश्वास है कि मैं उसके विगत-जीवन का बन्धु हूँ। मुझसे उसे डर नहीं, मेरे पास रहते हुए उसकी साधना में विघ्न नहीं आ सकता। वैरागी द्वारिकादास की वह शिष्या है, मालूम नहीं उन्होंने उसे किस साधना से सिद्धि-लाभ करने का मन्त्र दिया है।

एकाएक राजलक्ष्मी की याद आ गयी और उसकी उस कठोर चिट्ठी का खयाल आ गया जो स्नेह और स्वार्थ के मिश्रण से भरी हुई थी। तो भी जानता हूँ कि इस जीवन के पूर्व विराम पर वह मेरे लिए शेष हो गयी है। शायद यह अच्छा ही हुआ है। किन्तु उस शून्यता को भरने के लिए क्या कहीं भी कोई है? खिड़की के बाहर अन्धकार को ताकता हुआ चुपचाप बैठा रहा। एक-एक करके न जाने कितनी बातें और कितनी घटनाएँ याद आ गयीं। शिकार के आयोजन के लिए खड़ा किया हुआ कुमार साहब का वह तम्बू, वह दल-बल और अनेक वर्षों के बाद प्रवास में उस प्रथम साक्षात् के दिन की दीप्त काली ऑंखों में उसकी वह विस्मय-विमुग्ध दृष्टि! जिसे जानता था कि मर गयी है, जिसे पहिचान नहीं सका- उस दिन श्मशान के पथ पर उसी ने कितनी व्यग्र-व्याकुल विनती की थी और अन्त में क्रुद्ध निराशा का वह कैसा तीव्र अभिमान था! रास्ता रोककर कहा था, "जाना चाहते हो इसीलिए क्या मैं तुम्हें जाने दूँगी? देखूँ, कैसे जाते हो! इस विदेश में यदि कोई विपत्ति आ पड़ी, तो कौन देख-भाल करेगा? वे या मैं?"

इस दफा उसे पहिचाना। यह ज़ोर ही उसका हमेशा का सच्चा परिचय है। जीवन में यह उससे फिर कभी न छूटा- इससे उसके निकट कभी किसी को अव्याहति नहीं मिली।

रास्ते के एक किनारे मरने को पड़ा था कि नींद टूटने पर ऑंखें खोलकर देखता हूँ कि वह सिरहाने बैठी है। तब सारी चिन्ताएँ उसे सौंपकर ऑंखें बन्द कर सो गया। यह भार उसका है, मेरा नहीं!

गाँव के मकान में आकर बीमार पड़ गया। यहाँ वह नहीं आ सकती थी-यहाँ वह मृत है-इससे बढ़कर और कोई लज्जा उसके लिए नहीं थी, फिर भी जिसे अपने निकट पाया वह वही राजलक्ष्मी थी।

चिट्ठी में लिखा है, "तुम्हारी देख-भाल कौन करेगा? पूँटू? और मैं सिर्फ नौकर की जुबानी खबर सुनकर लौट जाऊँगी? इसके बाद भी जीवित रहने के लिए कहते हो?"

इस प्रश्न का जवाब नहीं दिया। इसलिए नहीं कि जानता नहीं, बल्कि इसलिए कि साहस नहीं हुआ।

मन ही मन कहा, क्या केवल रूप में ही? संयम में, शासन में, सुकठोर आत्मनियन्त्रण में उस प्रखर बुद्धिमती के निकट यह स्निग्धा सुकोमल आश्रमवासिनी कमललता कितनी-सी है! पर उस इतनी-सी में ही इस बार मानो मैंने अपने स्वभाव की प्रतिच्छवि देखी। ऐसा लगा कि उसके निकट ही है मेरी मुक्ति, मर्यादा और नि:श्वास छोड़ने का अवकाश। वह कभी मेरी सारी चिन्ताएँ, सारी भलाई-बुराइयाँ अपने हाथों में लेकर राजलक्ष्मी की तरह मुझे आच्छन्न नहीं कर डालेगी।

सोच रहा था कि विदेश जाकर क्या करूँगा? क्या होगा इस नौकरी से? कोई नहीं बात तो है नहीं- उस दिन भी ऐसा क्या पाया था जिसको फिर से पाने के लिए आज लोभ करना होगा? सिर्फ कमललता ने ही तो नहीं कहा, द्वार का गुसाईं ने भी आश्रम में रहने के लिए एकान्त समादर से आह्वान किया है। यह क्या सब वंचना है, मनुष्य को धोखा देने के अलावा क्या इस आमन्त्रण में कुछ भी सत्य नहीं है? अब तक जीवन जिस तरह कटा है, क्या यही उसका शेष है? क्या अब कुछ भी जाने को बाकी नहीं रहा, क्या मेरे लिए सब जानना समाप्त हो गया? हमेशा इसकी अश्रद्धा और उपेक्षा ही की है, कहा है, सब असार है, सब भूल है, पर सिर्फ अविश्वास और उपहास को ही मूल-धन मान लेने से ही संसार में कभी कोई बड़ी वस्तु किसी को मिली है?

गाड़ी आकर हावड़ा स्टेशन पर रुक गयी। स्थिर किया कि रात को घर रहकर जो कुछ चीज़ें हैं, जो कुछ लेना-देना है, वह सब चुका पटा कर कल फिर आश्रम को लौट जाऊँगा। गयी मेरी नौकरी, और रह गया मेरा बर्मा जाना। जब घर पहुँचा तब रात के दस बजे थे। आहार का प्रयोजन तो था, पर उपाय न था। हाथ-मुँह धोकर और कपड़े बदलकर बिछौना झाड़ रहा था कि पीछे से एक सुपरिचित कण्ठ की आवाज़ आयी, "बाबूजी, आ गये?"

सविस्मय घूमकर देखा, रतन, "कब आया रे?"

"शाम को ही आया हूँ। बरामदे में बड़ी अच्छी हवा थी, आलस्य में जरा सो गया था।"

"बहुत अच्छा किया। खाया नहीं है न?"

"जी नहीं।"

"तब तो रतन, तूने बड़ी मुश्किल में डाल दिया।"

रतन ने पूछा, "और आपने?"

स्वीकार करना पड़ा, "मैंने भी नहीं खाया है।"

रतन ने खुश होकर कहा, "तब तो अच्छा ही हुआ। आपका प्रसाद पाकर रात काट दूँगा।"

मन ही मन कहा कि यह नाई-बेटा विनय का अवतार है, किसी भी तरह हतप्रभ नहीं होता। कहा, "तो किसी पास की दुकान में खोज यदि कुछ प्रसाद जुटा सके। पर शुभागमन किसलिए हुआ? फिर भी कोई चिट्ठी है?"

रतन ने कहा, "जी नहीं, चिट्ठी लिखने में बड़ी झंझट है। जो कुछ कहना होगा वे खुद मुँह से ही कहेंगी।"

"इसका मतलब? मुझे फिर जाना होगा क्या?"

"जी नहीं। माँ खुद आई हैं।"

सुनकर घबड़ा गया। उसे इस रात में कहाँ ठहराऊँ? क्या बन्दोबस्त करूँ? कुछ समझ में न आया। पर कुछ तो करना ही चाहिए, पूछा, "जब से आई हैं तब से क्या घोड़ागाड़ी में ही बैठी हैं?"

रतन ने हँसकर कहा, "नहीं बाबू, हमें आये चार दिन हो गये, इन चार दिनों से आपके लिए दिन-रात पहरा दे रहा हूँ। चलिए।"

"कहाँ? कितनी दूर?"

"कुछ दूर तो ज़रूर है, पर मैंने गाड़ी किराये कर रक्खी है, कष्ट नहीं होगा।"

अतएव, दुबारा कपड़े पहनकर दरवाज़े में ताला बन्द कर फिर यात्रा करनी पड़ी। श्यामबाज़ार की एक गली में एक दोमंजिला मकान है, सामने दीवार से घिरा हुआ एक फूलों का बगीचा है, राजलक्ष्मी के बूढ़े दरबान ने द्वार खोलते ही मुझे देखा, आनन्द की सीमा न रही, सिर हिलाकर लम्बा-चौड़ा नमस्कार कर पूछा, "अच्छे हैं बाबूजी?"

"हाँ तुलसीदास, अच्छा हूँ। तुम अच्छे हो?"

प्रत्युत्तर में फिर उसने वैसा ही नमस्कार किया। तुलसी मुंगेर ज़िले का है जात का कुर्मी, ब्राह्मण होने के नाते वह बराबर बंगाली रीति से मेरे पैर छूकर प्रणाम करता है।

हमारी बातचीत की वजह से शायद और भी एक हिन्दुस्तानी नौकर की नींद खुल गयी, रतन के ज़ोर से धमकाने के कारण वह बेचारा हक्का-बक्का हो गया। बिना कारण दूसरों को डरा-धमका कर ही रतन इस मकान में अपनी मर्यादा क़ायम रखता है। बोला, "जब से आये हो, ख़ाली सोते हो और रोटी खाते हो, तम्बाकू तक चिलम में सजाकर नहीं रख सकते? जाओ जल्दी..." यह आदमी नया है, डर से चिलम सजाने दौड़ गया। ऊपर सीढ़ी के सामने वाला बरामदा पार करने पर एक बहुत बड़ा कमरा मिला गैस के उज्ज्वल प्रकाश से आलोकित। चारों ओर कार्पेट बिछा हुआ है, उसके ऊपर फूलदार जाजम और दो-चार तकिये पड़े हैं। पास ही मेरा बहुव्यवहृत अत्यन्त प्रिय हुक़्क़ा और उससे थोड़ी ही दूर पर मेरे जरी के काम वाले मखमली स्लीपर सावधानी से रक्खे हुए हैं। ये राजलक्ष्मी ने अपने हाथ से बुने थे और परिहास में मेरे एक जन्मदिन के अवसर पर उपहार दिये थे। पास का कमरा भी खुला हुआ है, पर उसमें कोई नहीं है। खुले दरवाज़े से एक बार झाँककर देखा कि एक ओर नयी ख़रीदी हुई खाट पर बिछौना बिछा हुआ है और दूसरी ओर वैसी ही नयी खूँटी पर सिर्फ मेरे ही कपड़े टँगे हैं। गंगामाटी जाने से पहले ये सब तैयार हुए थे। याद भी न थे, और कभी काम में भी नहीं आये।

रतन ने पुकारा, "माँ?"

"आती हूँ," कहकर राजलक्ष्मी सामने आकर खड़ी हो गयी और पैरों की धूल लेकर प्रणाम करके बोली, "रतन, चिलम तो भर ला, तुझे भी इधर कई दिनों से बड़ी तकलीफ दी।"

"तकलीफ कुछ भी नहीं हुई माँ। राजी-खुशी इन्हें घर लौटा लाया, यही मेरे लिए बहुत है।" कहकर वह नीचे चला गया।

राजलक्ष्मी को नयी ऑंखों से देखा। शरीर में रूप नहीं समाता। उस दिन की पियारी याद आ गयी। इन कई वर्षों के दु:ख-शोक के ऑंधी-तूफ़ान में नहाकर मानो उसने नया रूप धारण कर लिया है। इन चार दिनों के इस नये मकान की व्यवस्था से चकित नहीं हुआ, क्योंकि उसकी सुव्यवस्था से पेड़-तले का वास-स्थान भी सुन्दर हो उठता है। किन्तु राजलक्ष्मी ने मानो अपने आपको भी इन कई दिनों में मिटाकर फिर से बनाया है। पहले वह बहुत गहने पहिनती थी, बीच में सब खोल दिये थे- मानो सन्न्यासिनी हो। लेकिन आज फिर पहने हैं- कुछ थोड़े से ही- पर देखने पर ऐसा लगा कि मानो वे अतिशय कीमती हैं। फिर भी धोती ज़्यादा कीमती नहीं है- मिल की साड़ी- आठों पहर घर में पहनने की। माथे के ऑंचल की किनारी के नीचे से निकलकर छोटे-छोटे बाल गालों के इर्द-गिर्द झूल रहे हैं। छोटे होने के कारण ही शायद वे उसकी आज्ञा नहीं मानते! देखकर अवाक्! हो रहा।

राजलक्ष्मी ने कहा, "इतना क्या देख रहे हो?"

"तुमको देख रहा हूँ।"

"नयी हूँ?"

"ऐसा ही तो लग रहा है।"

"और मुझे क्या लग रहा है, जानते हो?"

"नहीं।"

"इच्छा हो रही है कि रतन के चिलम तैयार कर लाने के पहले ही अपने दोनों हाथ तुम्हारे गले में डाल दूँ। डाल देने पर क्या करोगे बताओ?" कहकर हँस पड़ी। बोली, "उठाकर बाहर तो नहीं फेंक दोगे?"

मैं भी हँसी न रोक सका। कहा, "डालकर देख ही लो न! पर इतनी हँसी- कहीं भाँग तो नहीं खा ली है?"

सीढ़ियों पर पैरों की आवाज़ सुनाई दी। बुद्धिमान रतन जरा ज़ोर से पैर पटकता हुआ चढ़ रहा था। राजलक्ष्मी ने हँसी दबाकर धीरे से कहा, "पहले रतन को चले जाने दो, फिर तुम्हें बताऊँगी कि भाँग खाई है या और कुछ खाया है।" पर कहते-कहते अचानक उसका गला भारी हो गया। कहा, "इस अनजान जगह में चार-पाँच दिन को मुझे अकेला छोड़कर तुम पूँटू की शादी कराने गये थे? मालूम है, ये रात-दिन मेरे किस तरह कटे हैं?"

"मुझे क्या मालूम कि तुम अचानक आ जाओगी?"

"हाँ जी हाँ, अचानक तो कहोगे ही। तुम सब जानते थे। सिर्फ मुझे तंग करने के लिए ही चले गये थे।"

रतन ने आकर हुक़्क़ा दिया, बोला, "बात तय हुई है माँ, बाबू का प्रसाद पाऊँगा। रसोइए से खाना लाने के लिए कह दूँ? रात के बारह बज गये हैं।"

बारह सुनकर राजलक्ष्मी व्यस्त हो गयी, "रसोइए से नहीं होगा, मैं खुद जाती हूँ। तुम मेरे सोने के कमरे में थोड़ी-सी जगह कर दो।"

खाने के लिए बैठते वक्त मुझे गंगामाटी के अन्तिम दिनों की बात याद आ गयी। तब यही रसोइया और यही रतन मेरे खाने की देख-रेख करते थे। राजलक्ष्मी को मेरी खबर लेने को वक्त नहीं मिलता था। पर आज इन लोगों से नहीं होगा- रसोई घर में खुद जाना होगा! पर यह उसकी प्रकृति है, वह थी विकृति। समझ गया कि कारण कुछ भी हो, किन्तु उसने अपने को फिर पा लिया है।

खाना खत्म होने पर राजलक्ष्मी ने पूछा, "पूँटू की शादी कैसी हुई?"

"ऑंखों से नहीं देखी पर कानों से सुनी है, अच्छी तरह हुई।"

"ऑंखों से नहीं देखी? इतने दिनों फिर कहाँ थे?"

विवाह की सारी घटना खोलकर सुनायी। सुनकर क्षणभर के लिए गाल पर हाथ रक्खे हुए उसने कहा, "तुमने तो अवाक् कर दिया! आने के पहले पूँटू को कुछ उपहार देकर नहीं आये?"

"मेरी तरफ से वह तुम दे देना।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तुम्हारी तरफ से क्यों, अपनी तरफ से ही लड़की को कुछ भेज दूँगी। पर थे कहाँ, यह तो बताया ही नहीं?"

कहा, "मुरारीपुर के बाबाओं के आश्रम की याद है?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "है क्यों नहीं। वैष्णवियाँ वहीं से तो मुहल्ले-मुहल्ले में भीख माँगने आती थीं। बचपन की बातें मुझे खूब याद हैं।"

"वहीं था।"

सुनकर जैसे राजलक्ष्मी के शरीर में काँटे उठ आये, "उन्हीं वैष्णवियों के अखाड़े में? अरे मेरी माँ!- क्या कहते हो जी? उनके विषय में तो भयंकर गन्दी बातें सुनी हैं!" कहकर वह सहसा उच्च कण्ठ से हँस पड़ी। अन्त में मुँह में ऑंचल दबाकर बोली, "तो तुम्हारे लिए असाध्य' काम कोई नहीं है। आरा में जो तुम्हारी मूर्ति देखी है- माथे में जटा, सारे शरीर में रुद्राक्ष की माला, हाथों में पीतल के- वह अद्भुत..."

बात खत्म न कर सकी, हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयी। नाराज होकर उसे बैठा दिया। अन्त में हिचकी लेकर मुँह में कपड़ा ठूँसने पर जब बड़ी मुश्किल से हँसी रुकी तो बोली, 'वैष्णवियों ने तुमसे क्या कहा? चपटी नाकोंवाली और गोदनों वालीं वहाँ बहुत-सी रहती हैं न जी..."

फिर वैसा ही हँसी का फौवारा छूटने वाला था, पर सतर्क कर दिया, "इस बार हँसने पर ऐसा कड़ा दण्ड दूँगा कि कल नौकरों को मुँह न दिखा सकोगी।"

राजलक्ष्मी डर से दूर हट गयी, और मुँह से बोली, "यह तुम सरीखे वीर पुरुषों का काम नहीं है। खुद ही शर्म के मारे बाहर नहीं निकल सकोगे। संसार में तुमसे ज़्यादा भीरु पुरुष और कोई है?"

कहा, "तुम कुछ भी नहीं जानतीं लक्ष्मी। तुमने भीरु कहकर अवज्ञा की, पर वहाँ एक वैष्णवी मुझसे कहती थी अहंकारी- दम्भी!"

"क्यों, उसका क्या किया था?"

"कुछ भी नहीं। उसने मेरा नाम रक्खा था 'नये गुसाईं'। कहती थी, "गुसाईं तुम्हारे उदासीन वैरागी मन की अपेक्षा अधिक दम्भी मन पृथ्वी में और दूसरा नहीं है।"

राजलक्ष्मी की हँसी रुक गयी "क्या कहा उसने?"

"कहा कि इस तरह के उदासी, वैरागी-मन के मनुष्य की अपेक्षा अधिक दम्भी व्यक्ति दुनिया में खोजने पर भी नहीं मिलेगा। अर्थात् मैं दुर्धर्ष वीर हूँ, भीरु क़तई नहीं।"

राजलक्ष्मी का चेहरा गम्भीर हो गया। परिहास की ओर उसने ध्यावन ही न दिया। बोली, "तुम्हारे उदासीन मन की खबर उस हरामजादी ने कैसे पा ली?"

"वैष्णवियों के प्रति ऐसी अशिष्ट भाषा बहुत आपत्तिजनक है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "यह जानती हूँ। पर उसने तुम्हारा नाम तो रक्खा नये गुसाईं', और उसका अपना नाम क्या है?"

"कमललता। कोई-कोई प्रेम से कमलीलता भी कहता है। लोग कहते हैं कि वह जादू जानती है, उसका कीर्तन सुनकर मनुष्य पागल हो जाता है और वह जो चाहती है वही दे देता।"

"तुमने सुना है?"

"सुना है। चमत्कार!"

"उसकी उम्र क्या है?"

"जान पड़ता है तुम्हारे ही बराबर होगी। कुछ ज़्यादा भी हो सकती है।"

"देखने में कैसी है?"

"अच्छी। कम-से-कम ख़राब तो नहीं कही जा सकती। जिन चपटी नाकों और गोदनावालियों को तुमने देखा है, उनके दल की वह नहीं है। वह भले घर की लड़की है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "मैं उसकी बात सुनकर ही समझ गयी। जब तक तुम रहे, तब तक तुम्हारी सेवा करती थी न?"

"हाँ। मेरी कोई शिकायत नहीं है।"

राजलक्ष्मी ने एकाएक नि:श्वास छोड़कर कहा, "सो करने दो। जिस साधना से तुमको पाया जाता है उससे तो भगवान भी मिल सकते हैं। यह वैष्णव बैरागियों का काम नहीं है। मैं डरने जाऊँगी न जाने कहाँ की इस कमललता से? छी:!" कहकर वह उठी और बाहर चली गयी।

मेरे मुँह से भी एक दीर्घ नि:श्वास निकल गयी। शायद कुछ बेमन हो गया था, इस आवाज़ से होश में आया। मोटे तकिये को खींच चित लेटकर हुक़्क़ा पीने लगा।

ऊपर एक छोटा-सा मकड़ा घूम-घूम कर जाल बुन रहा था। गैस के उज्ज्वल प्रकाश में उसकी छाया बहुत बड़े बीभत्स जन्तु की तरह मकान की कड़ियों पर पड़ रही थी। आलोक के व्यवघान से छाया भी कई गुनी काया को अतिक्रम कर जाती है।

राजलक्ष्मी लौटकर मेरे ही तकिये के एक कोने में कोहनियों के बल झुककर बैठ गयी। हाथ लगाकर देखा कि उसके कपाल के बाल भीगे हुए हैं। शायद अभी-अभी ऑंख-मुँह धोकर आई है।

प्रश्न किया, "लक्ष्मी, एकाएक इस तरह कलकत्ते क्यों चली आयी?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "एकाएक क़तई नहीं। उस दिन के बाद रात-दिन चौबीस घण्टे मन न जाने कैसा होने लगा कि किसी भी तरह रहा न गया, डर लगा कि कहीं हार्ट-फेल न हो जाय- इस जन्म में फिर कभी ऑंखों से नहीं देख सकूँ" कहकर उसने हुक्के की नली मेरे मुँह से निकालकर दूर फेंक दी। कहा, "जरा ठहरो। धुएँ के मारे मुँह तक दिखाई नहीं देता, ऐसा अन्धकार कर रक्खा है।"

हुक्के की नली तो गयी पर बदले में मेरी मुट्ठी में उसका हाथ आ गया।

पूछा, "बंकू आजकल क्या कहता है?"

राजलक्ष्मी ने जरा म्लान हँसी हँसकर कहा, "बहुओं के आने पर सब लड़के जो कहते हैं, वही।"

"उससे ज़्यादा कुछ नहीं?"

"कुछ नहीं तो नहीं कहती, पर वह मुझे दु:ख क्या देगा? दु:ख तो सिर्फ तुम्हीं दे सकते हो। तुम लोगों के अलावा औरतों को सचमुच का दु:ख और कोई भी नहीं दे सकता।"

"पर मैंने क्या कभी कोई दु:ख दिया है लक्ष्मी?"

राजलक्ष्मी ने अनावश्यक ही मेरे कपाल में हाथ लगाया और उसे पोंछकर कहा, "कभी नहीं। बल्कि, मैंने ही आज तक तुमको न जाने कितने दु:ख दिए हैं। अपने सुख के लिए लोगों की नजरों में तुम्हें हेय बनाया, प्रवृत्तिवश तुम्हारा असम्मान होने दिया- उसका ही दण्ड है कि अब दोनों किनारे डूबे जा रहे हैं! देख तो रहे हो न?"

हँसकर कहा, "कहाँ, नहीं तो?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तो किसी ने मन्तर पढ़कर तुम्हारी दोनों ऑंखों पर पर्दा डाल दिया है।" फिर कुछ चुप रहकर कहा, "इतने पाप करके भी संसार में मेरे जैसा भाग्य किसी का कभी देखा है? पर मेरी आशा उससे भी नहीं मिटी। न जाने कहाँ से आ जुटा धर्म का पागलपन और हाथ आई लक्ष्मी अपने पैरों से ठुकरा दी। गंगामाटी से आकर भी चैतन्य नहीं हुआ, काशी से तुम्हें अनादर के साथ बिदा कर दिया।"

उसकी दोनों ऑंखों से टप-टप ऑंसू गिरने लगे, मेरे उन्हें हाथ से पोंछ देने पर बोली, "अपने ही हाथ से विष का पौधा लगाया था, अब उसमें फल लग गये हैं। खा नहीं सकती, सो नहीं सकती, ऑंखों की नींद हराम हो गयी, न जाने कैसे-कैसे असम्बद्ध डर होने लगे जिनका न सिर न पैर। गुरुदेव तब मकान में थे, उन्होंने कोई कवच जैसा हाथ में बाँध दिया, कहा, बेटी, सुबह एक ही आसन पर बैठकर तुमको दस हज़ार बार इष्ट नाम का जप करना होगा। पर कहाँ कर सकी? मन में तो आग जल रही थी, पूजा पर बैठते ही दोनों ऑंखों से ऑंसुओं की धार बह चलती- उसी समय आई तुम्हारी चिट्ठी और तब इतने दिनों बाद रोग पकड़ा गया।"

"किसी ने पकड़ा- गुरुदेव ने? इस बार शायद उन्होंने फिर एक कवच लिख दिया?"

"हाँजी, लिख दिया है और उसे तुम्हारे गले में बाँधने के लिए कहा है!"

ऐसा ही करना, बाँध देना, अगर तुम्हारा रोग अच्छा हो जाय।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "उस चिट्ठी को लेकर मेरे दो दिन कटे। कैसे कटे यह नहीं जानती। रतन को बुलाकर उसके हाथों चिट्ठी का जवाब भेज दिया। गंगास्नान कर अन्नपूर्णा के मन्दिर में खड़े होकर कहा, "माँ, ऐसा करो कि समय रहते उनके हाथों चिट्ठी पहुँच जाय, मुझे आत्महत्या न करनी पड़े'।" मेरे मुँह की ओर देखकर कहा, "मुझे इस तरह क्यों बाँधा था बोलो?"

सहसा इस जिज्ञासा का उत्तर न दे सका। इसके बाद कहा, "तुम औरतों के द्वारा ही यह सम्भव है। हम यह सोच भी नहीं सकते, समझ भी नहीं सकते।"

"स्वीकार करते हो?"

"हाँ।"

राजलक्ष्मी ने फिर एक बार क्षण-भर के लिए मेरी ओर देखकर कहा, "वाकई विश्वास करते हो कि यह हम लोगों के लिए ही सम्भव है, पुरुष यथार्थ में ऐसा नहीं कर सकते?"

कुछ देर तक दोनों स्तब्ध रहे। राजलक्ष्मी ने कहा, "मन्दिर से बाहर निकल कर देखा कि हमारा पटने का लछमन साहू खड़ा है। मेरे हाथ वह बनारसी कपड़े बेचा करता था। बूढ़ा मुझे बहुत चाहता था और मुझे बेटी कहकर पुकारता था। आश्चर्यान्वित हो बोला, "बेटी, आप यहाँ?" मुझे मालूम था कि कलकत्ते में उसकी दुकान है। कहा, "साहूजी, मैं कलकत्ते जाऊँगी, मेरे लिए एक मकान ठीक कर सकते हो?"

उसने कहा, " कर सकता हूँ। बंगाली मुहल्ले में मेरा अपना एक मकान है, सस्ते में ख़रीदा था। चाहो तो उतने ही रुपयों में वह मकान दे सकता हूँ।" साहू धर्म-भीरु व्यक्ति है, उस पर मेरा विश्वास था, राजी हो गयी। घर पर बुलाकर रुपये दे दिए और उसने रसीद लिखकर दे दी। उसी के आदमियों ने यह सब चीज़ें ख़रीद दी हैं। छह-सात दिन बाद ही रतन को साथ लेकर यहाँ चली आयी। मन ही मन कहा, "माँ अन्नपूर्णा, तुमने मुझ पर दया की है, नहीं तो यह सुयोग कभी न मिलता। मुझे उनके दर्शन होंगे ही' और आखिर दर्शन हो गये।"

कहा, "पर मुझे तो जल्दी ही बर्मा जाना होगा लक्ष्मी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "ठीक है, तो चलो न। वहाँ अभया है, सारे देश में बुद्ध देव के बड़े-बड़े मन्दिर हैं-उन सबको देख आऊँगी।"

कहा, "पर वह बड़ा गन्दा देश है लक्ष्मी, शुचि-वायुग्रस्त लोगों के आचार-विचार वहाँ नहीं चलते। उस देश में तुम कैसे जाओगी?"

राजलक्ष्मी ने मेरे कान पर मुँह रखकर धीरे-धीरे न जाने क्या कहा, अच्छी तरह से समझ में नहीं आया। कहा, "जरा ज़ोर से कहो तो सुनाई दे।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं।"

इसके बाद वह अवश भाव से उसी तरह पड़ी रही। सिर्फ उसके उष्ण धन नि:श्वास मेरे गले पर और मेरे गालों पर आकर पड़ने लगे।

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"अजी, उठो। कपड़े बदलकर हाथ-मुँह धो लो। रतन चाय लिये खड़ा है।"

मेरा उत्तर न पाने पर राजलक्ष्मी ने फिर पुकारा, "कितनी देर हो गयी है- अब कब तक सोओगे?"

करवट बदलकर मैंने अवश कण्ठ से कहा, "तुमने सोने ही कब दिया? अभी अभी तो सोया हूँ।"

इतने में कानों में चाय की कटोरी की आवाज़ पहुँची जिसे रतन मेज पर रखकर शायद लज्जा के मारे भाग गया था।

राजलक्ष्मी ने कहा, "छी छी, तुम कितने बेहया हो। आदमी को झूठमूठ ही अप्रतिभ कर सकते हो! खुद रातभर कुम्भकर्ण की तरह सोये, बल्कि मैं ही जागकर पंखा करती रही कि गर्मी से कहीं तुम्हारी नींद न खुल जाय और मुझसे ही अब ऐसा कहते हो! जल्दी उठो, नहीं तो ऊपर पानी डाल दूँगी।"

उठ बैठा। यद्यपि देर नहीं हुई थी तो भी सबेरा हो गया था, खिड़कियाँ खुली हुई थीं। प्रात:काल के उस स्निग्ध प्रकाश में राजलक्ष्मी की अद्भुत मूर्ति दिखाई दी। उसका स्नान और पूजा-पाठ समाप्त हो चुका है, गंगा-घाट के उड़िया पण्डे का लगाया हुआ सफेद और लाल चन्दन का टीका उसके मस्तक पर है, शरीर पर नयी लाल बनारसी साड़ी है, पूर्व की खिड़की से आई हुई थोड़ी-सी सुनहरी धूप तिरछी होकर उसके मुँह के एक तरफ पड़ रही है, उसके होठों के कोने में सलज्ज कौतुक की दबी हुई हँसी है, फिर भी कृत्रिम क्रोध से सिकुड़ी हुई भौंहों के नीचे चंचल ऑंखों की दृष्टि मानो उछलते हुए आवेग से जगमगा रही है- देखकर आज भी आश्चर्य की सीमा न रही। एकाएक उसने कुछ हँसकर कहा, "अच्छा बताओ तो कि कल से इतने गौर से क्या देख रहे हो?"

"तुम्हीं बताओ न कि क्या देख रहा हूँ?"

राजलक्ष्मी ने फिर कुछ हँसकर कहा, "शायद यह देख रहे हो कि पूँटू मुझसे अधिक सुन्दर है या नहीं, या कमललता देखने में ज़्यादा अच्छी लगती है कि नहीं- क्यों है न यही बात?"

"नहीं। यह बात आसानी से कही जा सकती है कि रूप के लिहाज़ से तो कोई तुम्हारे पास तक नहीं फटक सकता। इसके लिए इतने गौर से देखने की आवश्यकता नहीं।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "अच्छा, रूप की बात जाने दो। पर गुण में?"

"गुण में? हाँ, यह मानना ही होगा कि इस विषय में मतभेद की सम्भावना है।"

"गुणों के बारे में तो सुना है कि वह कीर्तन कर सकती है।"

"हाँ, बहुत बढ़िया।"

"यह तुमने कैसे समझा कि बढ़िया है।"

"वाह,- यह भी नहीं समझ सकता? विशुद्ध ताल, लय, सुर..."

राजलक्ष्मी ने बाधा देकर पूछा, "हाँ जी, ताल किसे कहते हैं?"

"ताल उसे कहते हैं जो बचपन में तुम्हारी पीठ पर पड़ती थी। याद नहीं है?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "क्या कहा-याद नहीं? खूब याद है। कल खामख्वाह भीरु कहकर तुम्हारी निंदा कर डाली। कमललता ने सिर्फ तुम्हारे उदासीन मन का ही पता पाया है, शायद तुम्हारी वीरता की कहानी नहीं सुनी?"

"नहीं, क्योंकि आत्मप्रशंसा खुद नहीं करनी चाहिए। वह तुम सुना देना। पर उसका गला मीठा है, इसमें सन्देह नहीं।"

"मुझे भी सन्देह नहीं है।" कहने के साथ ही एकाएक प्रच्छन्न कौतुक से उसके ऑंखें चमक उठीं। बोली, "हाँ जी, तुम्हें वह गाना याद है? वही जिसे पाठशाला की छुट्टी होने पर तुम गाते थे और हम सब मुग्ध होकर सुनते थे- वही, "कहाँ गये प्राणों के प्राण हे दुर्योधन रे-ए-ए-ए-ए-"

हँसी दबाने के लिए उसने ऑंचल से मुँह को छिपा लिया, मैं भी हँस पड़ा। राजलक्ष्मी ने कहा, "पर गाना बहुत भावमय है। तुम्हारे मुँह से सुनकर मनुष्यों की तो कौन कहे, गाय-बछड़ों तक की ऑंखों में पानी आ जाता था।"

रतन के पैरों की आहट सुनाई दी। अविलम्ब ही दरवाज़े के पास खड़े होकर उसने कहा-"चाय का पानी फिर चढ़ा दिया है माँ, तैयार होने में देर नहीं लगेगी।" यह कह कमरे के अन्दर दाखिल हो उसने चाय की कटोरी उठा ली।

राजलक्ष्मी ने मुझसे कहा, "अब देरी मत करो, उठो। इस बार फिर चाय फेंके जाने पर रतन चिढ़ जायेगा। वह अपव्यय सहन नहीं कर सकता, क्यों ठीक है न रतन?"

रतन भी जवाब देना जानता है। बोला, "माँ, आपका बर्दाश्त नहीं कर सकता। पर बाबू के लिए मैं सब कुछ सहन कर सकता हूँ।" कहकर वह चाय की कटोरी लेकर चला गया। क्रोध में वह राजलक्ष्मी को 'आप' कहता था, अन्यथा 'तुम' कहकर ही पुकारता था।

राजलक्ष्मी ने कहा- "रतन सचमुच तुमको बहुत प्यार करता है।"

"मेरा भी यही खयाल है।"

"हाँ। जब तुम काशी से चले आये तो उसने झगड़ा करके मेरा काम छोड़ दिया। मैंने नाराज होकर कहा, "रतन मैंने तेरे साथ जो सलूक किया, उसका क्या यही प्रतिफल है?" उसने कहा, "माँ, रतन नमकहराम नहीं है। मैं भी बर्मा जा रहा हूँ, बाबू की सेवा करके तुम्हारा ऋण चुका दूँगा।" तब उसका हाथ पकड़ लिया और अपना अपराध स्वीकार कर उसे शान्त किया।"

कुछ ठहरकर कहा, "इसके बाद तुम्हायरे विवाह का निमन्त्रण-पत्र आया।"

बाधा देकर कहा, "झूठ न बोलो। तुम्हारी राय जानने के लिए..."

इस बार उसने भी बाधा देकर कहा, "हाँ जी हाँ, मालूम है। नाराज होकर यदि विवाह करने को लिख देती तो कर लेते न?"

"नहीं।"

"नहीं क्या। तुम लोग सब कुछ कर सकते हो।"

राजलक्ष्मी कहने लगी- "रतन न जाने क्या समझा, केवल यह देखा कि मेरे मुँह की ओर देखकर उसकी ऑंखें छलछला आई हैं। उसके बाद जब उसके चिट्ठी का जवाब डाक में डालने के लिए दिया, तो बोला, "माँ, इस चिट्ठी को डाक में न डाल सकूँगा, इसे मैं खुद ले जाकर उनके हाथ में दूँगा।" मैंने कहा, "व्यर्थ में रुपये खर्च करने से क्या फ़ायदा होगा भइया?" रतन ने हठात् ऑंखें पोंछकर कहा, "माँ, मैं नहीं जानता कि क्या हुआ है, पर तुम्हें देखकर ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो पद्मा का किनारा कमज़ोर हो गया है- इसका कोई ठीक नहीं कि पेड़-पत्तों और मकानों को लेकर वह कब पानी में ढह जाय। तुम्हारी दया से मेरे अब कोई कमी नहीं है- यह रुपया तुम दोगी तो भी मैं न ले सकूँगा। अगर विश्वनाथ बाबा ने सिर उठाकर देख लिया, तो मेरे गाँव की झोंपड़ी में अपनी दासी को थोड़ा-सा प्रसाद भेज देना, वह कृतार्थ हो जायेगी।"

"नाई-बेटा कितना सयाना है!"

सुनकर राजलक्ष्मी ने होठ दबाकर सिर्फ हँस दिया और कहा- "अच्छा, अब देरी मत करो, जाओ।"

दोपहर को जब वह भोजन कराने बैठी तो मैंने कहा, "कल तो मामूली साड़ी पहने हुई थीं, पर आज सबेरे से ही यह बनारसी साड़ी का ठाठ क्यों है, बताओ भला?"

"तुम्हीं बताओ न?"

"मैं नहीं जानता।"

"ज़रूर जानते हो। इस साड़ी को पहिचान सकते हो?"

"हाँ, पहचान सकता हूँ। मैंने बर्मा से ख़रीदकर भेजी थी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "उसी दिन मैंने विचार कर लिया था कि अपने जीवन के सबसे महान् दिन पर इसे पहनूँगी- और कभी नहीं।"

"इसलिए आज पहनी है?"

"हाँ, इसीलिए आज पहनी है।"

हँसकर कहा, "किन्तु वह तो हो गया। अब उतार दो।" वह चुप हो रही। कहा, "सुना है कि तुम अभी-अभी कालीघाट जाओगी?"

"राजलक्ष्मी ने आश्चर्य के साथ कहा, "अभी? यह कैसे हो सकता है? तुम्हें खिला-पिलाकर सुलाने के बाद ही तो छुट्टी मिलेगी।"

"नहीं, तब भी नहीं मिलेगी। रतन कह रहा था कि तुम्हारा खाना-पीना प्राय: बन्द-सा हो गया है। सिर्फ कल जरा-सा खाया था और आज से फिर उपवास शुरू हो गया है। मालूम है, मैंने क्या स्थिर किया है? अब से तुम्हें कड़े शासन में रखूँगा। अब तुम्हारी जो खुशी होगी, न कर सकोगी।"

राजलक्ष्मी ने प्रसन्न मुख से कहा- "ऐसा हो तो जी जाऊँ महाशयजी, तब खूब खाऊँगी-पीऊँगी, किसी झंझट में न पड़ना होगा।"

"इसीलिए आज तुम कालीघाट भी न जा सकोगी।"

राजलक्ष्मी ने हाथ जोड़कर कहा, "तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, सिर्फ आज-भर के लिए माफ कर दो, आयन्दा पुराने जमाने के नवाब-बादशाहों की ख़रीदी हुई लौंडी की तरह रहूँगी- इससे अधिक तुमसे और कुछ भी न चाहूँगी।"

"अच्छा, यह तो बताओ कि इतना विनय क्यों?"

"विनय नहीं, यह सत्य है। अपनी औकात समझकर नहीं चली, और न तुम्हें मानकर ही चली, इसलिए अपराध के बाद अपराध करते-करते साहस बढ़ गया है। तुम्हारे ऊपर अब उस पहले वाली लक्ष्मी का अधिकार नहीं है- अपने ही दोष से उसे खो बैठी हूँ।"

देखा कि उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गये हैं। कहा, "केवल आज-भर के लिए जाने की आज्ञा दे दो मेरे राजा, मैं माँ की आरती देख आऊँ।"

कहा, "ऐसा ही है तो कल चली जाना। तुम्हीं ने तो कहा, कि कल सारी रात जागकर मेरी सेवा करती रहीं। आज तुम बहुत थकी हुई हो।"

"नहीं, मुझे क़तई थकावट नहीं है। केवल आज ही नहीं, कितनी ही बार बीमारी के मौकों पर देखा है कि लगातार रातों के बाद रात जागने पर भी तुम्हारी सेवा में मुझे कोई कष्ट प्रतीत नहीं हुआ। न मालूम मेरी समस्त थकावट को कौन मिटा देता है। कितने दिन से देवी-देवताओं को भूल गयी थी, किसी में भी मन न लगा सकी। मेरे राजा, आज मुझे न रोको, जाने की आज्ञा दे दो।"

"तो चलो, दोनों एक साथ चलें।"

राजलक्ष्मी की दोनों ऑंखें आनन्द से चमक उठीं। बोली, "तो चलो, पर मन ही मन देवता की अवज्ञा तो नहीं करोगे?"

जवाब दिया, "शपथ तो नहीं ले सकता, परन्तु तुम्हारा रास्ता देखते हुए मैं मन्दिर के द्वार पर ही खड़ा रहूँगा। मेरी तरफ से तुम देवता से वर माँग लेना।"

"बताओ, क्या वर माँगूँ?"

अन्न का ग्रास मुँह में डालकर सोचने लगा, पर कोई भी कामना न सूझी।

"तुम्हीं बताओ न लक्ष्मी, मेरे लिए तुम क्या माँगोगी?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "आयु माँगूँगी, स्वास्थ्य माँगूँगी, और यह माँगूँगी कि तुम मेरे प्रति कठिन हो सको जिससे मुझे अधिक प्रश्रय देकर अब फिर मेरा सर्वनाश न करो। करने को ही तो बैठे थे!"

"लक्ष्मी, देखो यह तुम्हारे रूठने की बात है।"

"रूठना तो है ही। तुम्हारी वह चिट्ठी क्या कभी भूल सकूँगी?"

मुँह लटकाकर मैं चुप हो रहा।

उसने अपने हाथ से मेरा मुँह ऊपर उठाकर कहा, "पर इसलिए यह भी मै। नहीं सह सकती। किन्तु तुम कठोर तो हो नहीं सकोगे, तुम्हारा ऐसा स्वभाव ही नहीं है। लेकिन यह काम अब से मुझे ही करना पड़ेगा, अवहेला करने से काम नहीं चलेगा।"

पूछा, "कौन सा काम? और भी निर्जल उपवास?"

राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, "उपवास से राजा नहीं मिलती वरन् अहंकार बढ़ जाता है। अब मेरा पथ वह नहीं है।"

"तब तुमने कौन सा पथ ठहराया है?"

"ठीक नहीं कर सकी हूँ, खोज में घूम रही हूँ।"

"अच्छा, सचमुच तुम्हें यह विश्वास होता है कि मैं कभी कठोर हो सकता हूँ?"

"होता है जी, और खूब होता है।"

"नहीं, कभी नहीं होता, तुम झूठ कहती हो।"

राजलक्ष्मी सिर हिलाकर हँसते हुए बोली, "अच्छा, झूठ ही सही। किन्तु गुसाईंजी, यही तो मेरे लिए विपद की बात हैं तुम्हारी कमललता ने भी क्या खूब नाम रक्खा है! दिनभर "हाँ जी," "ओ जी," "सुनो जी," करते-करते जान जाती थी, अब से मैं पुकारूँगी "नये गुसाईं" कहकर।"

"मजे से।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तब तो शायद कभी ग़लती से मुझे कमललता ही समझ लोगे- पर इससे भी शान्ति ही मिलेगी। कहो, ठीक है न?"

हँसकर कहा, "लक्ष्मी, मरने पर भी स्वभाव नहीं बदलता। ये ही बादशाही जमाने की लौंडी की-सी बातें हैं, अब तक तो वे तुम्हें जल्लाद के हाथ सौंप देते!"

सुनकर राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी। कहा, "जल्लाद के हाथों में खुद ही अपने आप को सौंप दिया है।"

"पर तुम सदा से इतनी दुष्ट रही हो कि तुम पर शासन करने की शक्ति किसी भी जल्लाद में नहीं है।"

राजलक्ष्मी प्रत्युत्तर में कुछ कहने जा ही रही थी कि एकाएक विद्युत वेग से उठ बैठी, "अरे, यह क्या! दूध कहाँ है? मेरे सिर की कसम, देखो, उठ न जाना।" और यह कहती हुई वह द्रुत गति से बाहर चली गयी।

नि:श्वास छोड़कर कहा, "कहाँ यह, और कहाँ कमललता!"

दो मिनट बाद ही हाथ में दूध की कटोरी लिये आ गयी और पत्तल के पास रखकर पंखे से हवा करने बैठ गयी। कहने लगी, "अब तक मालूम होता था, मेरे मन में कहीं पाप है। इसी कारण गंगामाटी में मन नहीं लगा, और काशी धाम लौट आयी। गुरुदेव को बुलाकर अपने बाल कटवा दिये, गहने उतार डाले और तपस्या में पूर्णत: तल्लीन हो गयी। सोचा, अब कोई चिन्ता नहीं, स्वर्ग की सोने की सीढ़ी तैयार होती ही है!- एक आफत तुम थे, सो भी बिदा हो गये। किन्तु उस दिन से नेत्रों के पानी ने किसी तरह रुकना ही न चाहा। इष्ट मन्त्र सब भूल गयी, देवता अर्न्तध्यारन हो गये, हृदय बिल्कु्ल शुष्क हो गया। भय हुआ कि यदि यही धर्म की साधना है, तो फिर यह सब क्या हो रहा है! अन्त में कहीं पागल तो न हो जाऊँगी!"

मैंने सिर उठाकर उसके मुँह की ओर देखा और कहा, "तपस्या के आरम्भ में देवता भय दिखाया करते हैं। उनके सामने टिके रहने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "सिद्धि की मुझे आवश्यकता नहीं, वह मुझे मिल गयी है।"

"कहाँ मिली?"

"यहीं। इसी मकान में।"

"विश्वास नहीं होता, प्रमाण दो।"

"प्रमाण दूँगी तुम्हें? मुझे क्या गरज पड़ी है?"

"किन्तु क्रीत दासियाँ ऐसी बातें नहीं किया करतीं।"

"देखो, क्रोध न दिलाओ। इस तरह बार-बार 'क्रीत दासी' कहकर पुकारोगे, तो अच्छा न होगा।"

"अच्छा जाओ, तुम्हें मुक्त कर दिया, अब से तुम स्वाधीन हुईं।"

राजलक्ष्मी फिर हँसी। बोली, "मैं कितनी स्वाधीन हूँ, सो इस दफा नस-नस में अनुभव कर रही हूँ। कल बातें करते-करते जब तुम सो गये, तब अपने गले पर से तुम्हारा हाथ हटाकर मैं उठ बैठी। हाथ लगाकर देखा, तुम्हारा माथा पसीने से तर हो रहा है, ऑंचल से पसीना पोंछकर मैं पंखा लेकर बैठ गयी। मन्द प्रकाश को तीव्र कर दिया; उस समय तुम्हारे निद्राभिभूत चेहरे की ओर देखकर ऑंखें हटा ही न सकी। इसके पहले क्यों नजर नहीं आया कि यह इतना सुन्दर है! अब तक क्या अन्धी थी? फिर सोचा, यदि यह पाप है तो फिर पुण्य की मुझे आवश्यकता नहीं; और यदि यह अधर्म है तो चूल्हे में जाय मेरी धर्म्मचर्चा; जीवन में यदि यह मिथ्या है तो ज्ञान होने के पूर्व ही किसके कहने से मैंने इन्हें वरण किया था?- अरे यह क्या, पीते क्यों नहीं? सारा दूध वैसा ही पड़ा है!"

"अब नहीं पिया जाता।"

"तो कुछ फल ले आऊँ?"

"नहीं, वह भी नहीं।"

"किन्तु कितने दुबले हो गये हो!"

"यदि दुबला हो भी गया हूँ, तो बहुत दिनों की अवहेलना से। एक दिन में ही सुधारना चाहोगी, तो व्यर्थ मारा जाऊँगा।"

वेदना से उसका चेहरा पीला पड़ गया, कहा, "अब ग़लती न होगी जो दण्ड मिला है उसे अब नहीं भूलूँगी। यही मेरा सबसे बड़ा लाभ है।" फिर कुछ देर मौन रहकर धीरे-धीरे कहने लगी, "प्रात:काल होने पर उठ आयी। भाग्य से कुम्भकर्ण की निद्रा जल्दी नहीं टूटती वरना लोभवश जगा ही तो डाला था! तब दरबान को भी साथ लेकर गंगा नहाने गयी, मालूम पड़ा, मानो माता ने समस्त ताप धो डाला है। घर आकर जब पूजा करने बैठी तब जाना कि केवल तुम अकेले ही नहीं लौट आये हो, साथ ही आ गया है मेरी पूजा का मन्त्र, आ गये हैं मेरे इष्ट देवता और गुरुदेव, और आ गये हैं मेरे श्रावण के मेघ। आज भी मेरी ऑंखों से जल बहने लगा, किन्तु वे अश्रु हृदय को मसोसकर निचोड़े हुए नहीं थे, बल्कि वह तो आनन्द से उमड़े हुए झरने की धारा थी जिसने मुझे सब ओर से विभोर कर दिया। जाऊँ, कुछ फल ले आऊँ? पास बैठकर अपने हाथ से तराशकर तुम्हें फल खिलाये हुए बहुत दिन हो गये। जाऊँ, क्यों?"

"अच्छा जाओ।"

राजलक्ष्मी वैसी ही द्रुत गति से चली गयी। मैंने एक बार फिर साँस छोड़कर कहा, "कहाँ यह और कहाँ कमललता!"

न जाने किसने जन्म के समय हजारों नामों में से चुनकर इसका राजलक्ष्मी नाम रक्खा था!

दोनों जिस समय कालीघाट से लौटे उस समय रात के नौ बज गये थे। राजलक्ष्मी स्नान कर और कपड़े बदलकर सहज भाव से पास आ बैठी। मैंने कहा, "राजसी पोशाक उतर गयी। चलो, जान बची।"

राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा, "हाँ, वह मेरे लिए राजसी पोशाक ही है, क्योंकि मेरे राजा ने जो दी है। जब मरूँ तब वही मुझे पहना देने के लिए कहना।"

"ऐसा ही होगा। पर तुम क्या आज सारा दिन स्वप्न देखने में ही बिता दोगी? अब कुछ खा लो।"

"खाती हूँ।"

"मैं रतन से कह देता हूँ कि तुम्हारा खाना रसोइए के हाथ यहीं भिजवा दे।"

"यहीं? जैसी तुम्हारी इच्छा। लेकिन मैं तुम्हारे सामने बैठकर कैसे खाऊँगी? कभी खाते देखा है?"

"देखा तो नहीं है, पर देखने में बुराई क्या है?"

"भला ऐसा भी कहीं होता है! स्त्रियों का राक्षसी खाना तुम लोगों को हम देखने ही क्यों देंगी?"

"देखो लक्ष्मी, तुम्हारी यह चाल आज नहीं चलेगी। तुम्हें अकारण ही उपवास नहीं करने दूँगा। खाओगी नहीं तो मैं तुमसे नहीं बोलूँगा।"

"न बोलना।"

"मैं भी नहीं खाऊँगा।"

राजलक्ष्मी हँस पड़ी, बोली, "इस बार जीत गये, क्योंकि यह मैं न सह सकूँगी।"

रसोइया भोजन दे गया। फल, फूल, मिष्टान्न। नाम-मात्र भोजन कर वह बोली, "रतन ने शिकायत की है कि मैं खाती नहीं हूँ, परन्तु तुम ही बताओ, मैं खाती क्योंकर? हारे हुए मुकद्दमे की अपील करने कलकत्ते आई थी। रतन नित्य तुम्हारे यहाँ से वापिस आता था पर भय के मारे कुछ पूछने का साहस ही मेरा न होता था, क्योंकि, वह कहीं यह न कह दे कि मुलाकात हुई थी पर बाबू आये नहीं। जो दुर्व्यवहार किया है, उसके कारण मेरे पास तो कहने के लिए कुछ है नहीं।"

"कहने की आवश्यकता भी नहीं है। उस समय स्वयं घर आकर, जिस प्रकार काँचपोका* तिलचट्टे को पकड़ ले जाता है, तुम भी ले जातीं।"

"तिलचट्टा कौन-तुम?"

"यही तो समझता हूँ, ऐसा निरीह जीव संसार में और कौन है?"

एक क्षण चुप रहकर राजलक्ष्मी बोली, "किन्तु तो भी, मन ही मन मैं जितना तुमसे डरती हूँ उतना और किसी से नहीं।"

"यह परिहास है। पर इसका कारण पूछ सकता हूँ?"

राजलक्ष्मी फिर कुछ क्षण तक मेरी ओर देखती रही। बोली, "कारण यह है कि मैं तुम्हें भलीभाँति पहचानती हूँ। मैं जानती हूँ कि स्त्रियों के प्रति तुम्हारी सचमुच की आसक्ति जरा भी नहीं है, जो कुछ है वह केवल दिखाने का शिष्टाचार है। संसार में किसी के प्रति भी तुम्हें मोह नहीं है। यथार्थ प्रयोजन भी तुम्हें उसका नहीं है। तुम्हारे 'ना' कह देने पर किस प्रकार तुम्हें लौटाऊँगी?"

"लक्ष्मी, इसमें थोड़ी-सी भूल हो गयी है। पृथ्वी की एक वस्तु में आज भी मेरा मोह है, और वह हो तुम। केवल यहीं पर 'ना' नहीं कहा जाता। तुमने अब तक श्रीकान्त की यही बात न जानी कि केवल इसके लिए वह दुनिया की सब वस्तुओं को त्याग सकता है।"

"हाथ धो आऊँ," कहकर राजलक्ष्मी जल्दी से उठकर चली गयी।

दूसरे दिन, और दिनान्त के सब काम निबटाकर, राजलक्ष्मी मेरे पास आ बैठी। कहने लगी, "कमललता की कहानी सुनूँगी, सुनाओ।" जो कुछ जानता था, सब सुना दिया, केवल अपने सम्बन्ध में कुछ कुछ छोड़ दिया, क्यों कि उससे ग़लतफहमी होने की सम्भावना थी।

मन लगाकर आद्योपान्त सारी बातें सुनकर उसने धीरे से कहा, "यतीन की मृत्यु ही उसे सबसे अधिक चुभी है, उसी के दोष से वह मारा गया।"

"उसका क्या दोष?"

"दोष कैसे नहीं है? अपना कलंक छुपाने के लिए उसी से आत्महत्या करने में सहायता माँगी थी। उस दिन तो यतीन स्वीकार नहीं कर सका, किन्तु एक दिन अपना कलंक छिपाने के लिए उसे भी वही मार्ग सबसे पहले नजर आया। ऐसा ही होता है, इसीलिए पाप में सहायता के लिए किसी मित्र को नहीं बुलाना चाहिए। इससे एक का प्रायश्चित दूसरे के गले पड़ जाता है। वह स्वयं तो बच गयी, किन्तु उसके स्नेह का धन मर गया।"

"युक्ति कुछ समय में नहीं आई, लक्ष्मी।"

"तुम कैसे समझोगे? समझा है कमललता ने और तुम्हारी राजलक्ष्मी ने।"

"ओ:-ऐसा है!"

"नहीं तो क्या। भला कहो तो हमारा जीवन कितना-सा है, उसका क्या मूल्य है, जब हम देखती हैं तुम्हारी तरफ...।"

"किन्तु कल तुमने ही तो कहा था कि मेरे मन की सब कालिख साफ़ हो गयी और अब कोई ग्लानि नहीं है, तो वह क्या झूठ था?"

"झूठ ही तो था। कालिख तो मरने पर ही पुछेगी, उससे पहले नहीं। मरना भी चाहा था, केवल तुम्हारे ही कारण न मर सकी।"

× हरे रंग का एक पतिंगा

"सब मालूम है, पर तुम यदि इसे लेकर बारम्बार दु:ख दोगी तो मैं इस तरह भाग जाऊँगा कि फिर ढूँढ़ने पर भी न पाओगी।"

राजलक्ष्मी ने भयभीत होकर मेरा हाथ पकड़ लिया और बिल्कुरल छाती के पास खिसक आयी। बोली, "अब ऐसी बात कभी मुँह पर भी नहीं लाना। तुम सब कुछ कर सकते हो, तुम्हारी निष्ठुरता कहीं भी बाधा नहीं मानती।"

"तब कहो कि अब ऐसी बात न कहोगी?"

"नहीं कहूँगी।"

"बोलो, सोचूँगी भी नहीं।"

"तुम भी कहो कि अब मुझे छोड़कर कभी नहीं जाओगे।"

"मैं तो कभी गया नहीं लक्ष्मी, और जब कभी गया हूँ तब केवल इसीलिए कि तुमने मुझे नहीं चाहा।"

"वह तुम्हारी लक्ष्मी नहीं, कोई और होगी।"

"उस किसी और से ही तो आज भय लगता है।"

"नहीं, अब उससे मत डरो, वह राक्षसी मर चुकी है।"

यह कहकर उसने मेरे उसी हाथ को ज़ोर से पकड़ लिया और चुपचाप बैठी रही।

पाँच-छह मिनट तक इसी प्रकार बैठे रहने के पश्चात् उसने दूसरी चर्चा छेड़ दी, कहा, "तुम क्या सचमुच बर्मा जाओगे?"

"हाँ, सचमुच ही जाऊँगा।"

"जाकर क्या करोगे- नौकरी? पर हम लोग तो सिर्फ दो ही प्राणी हैं- हम लोगों की आवश्यकताएँ ही कितनी हैं?"

"किन्तु उन कितनी का भी तो प्रबन्ध करना होगा?"

"वह भगवान दे देंगे। पर तुम नौकरी नहीं करने पाओगे, यह तुम्हारे स्वभाव के अनुकूल नहीं है।"

"नहीं कर सकूँगा तो वापिस चला आऊँगा।"

"जानती हूँ, वापिस तो आना ही पड़ेगा, केवल मुझको कष्ट देने के लिए हठपूर्वक इतनी दूर ले जाना चाहते हो।"

"चाहो तो कष्ट नहीं भी करो।"

राजलक्ष्मी ने एक क्रुद्ध कटाक्ष फेंककर कहा, "देखो, चालाकी मत करो!"

मैंने कहा, "चालाकी नहीं करता, चलने से तुम्हें वास्तव में कष्ट होगा। भोजन पकाना, बर्तन माँजना, घर-बार साफ़ करना, बिछौने बिछाना...।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तब दाई-नौकर क्या करेंगे?"

"दाई-नौकर कहाँ? उनके लिए रुपये कहाँ हैं?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "अच्छा न सही। तुम चाहे कितना ही भय दिखाओ, लेकिन मैं तो चलूँगी ही।"

"तो चलो। केवल मैं और तुम, काम के मारे न मिलेगा झगड़ा करने का अवसर और न मिलेगी पूजा तथा उपवास करने की फुर्सत।"

"न मिलने दो। मैं क्या काम से डरती हूँ?"

"सच है; डरती नहीं हो, पर तुम कर न सकोगी। दो दिन बाद ही वापिस आने के लिए आफत मचाना शुरू कर दोगी।"

"इसमें भी क्या कोई डर है? साथ लेकर जाऊँगी तथा साथ ही वापिस ले आऊँगी। कम से कम तुम्हें छोड़कर तो न आना होगा।" कहकर वह एक क्षण के लिए कुछ सोचने लगी, फिर बोली, "हाँ, यह ठीक रहेगा। एक छोटे से घर में केवल हम और तुम रहेंगे, न कोई दास होगा न दासी। जो खाने को दूँगी वही खाओगे, जो पहनने को दूँगी वही पहनोगे। नहीं? तुम देखना, मेरी आने की शायद इच्छा ही न होगी।"

सहसा वह मेरी गोदी में अपना सिर रखकर लेट गयी और बहुत देर तक ऑंखें बन्द कर निस्तब्ध पड़ी रही।

"क्या सोच रही हो?"

राजलक्ष्मी नेत्र खोलकर किंचित् मुस्कराई और बोली, "हम लोग कब चलेंगे?"

"इस मकान की कुछ व्यवस्था कर दो, फिर जिस दिन चाहो प्रस्थान कर दो।"

उसने सिर हिलाकर स्वीकृति जताई और फिर नेत्र मूँद लिये।

"फिर क्या सोच रही हो?"

राजलक्ष्मी ने ताकते हुए कहा, "सोच रही हूँ कि एक बार मुरारीपुर नहीं जाओगे?"

"हाँ, विदेश जाने से पूर्व एक बार उन्हें मिल आने का वचन तो दिया था।"

"तो चलो, कल ही दोनों चलें।"

"तुम भी चलोगी?"

"क्यों, इसमें डर क्या है? तुम्हें चाहती है कमललता और उसे चाहते हैं हमारे गौहर दादा। यह हुआ खूब है!"

"यह सब तुमसे किसने कहा?"

"तुम्हीं ने।"

"न, मैंने नहीं कहा।"

"हाँ, तुम्हीं ने कहा है, केवल तुम्हें यह खयाल नहीं है कि कब कहा है।" सुनकर संकोच से व्याकुल हो उठा। कहा, "खैर, जो कुछ भी हो, तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं है।"

"क्यों नहीं है?"

"उस बेचारी का मजाक करके तुम उसे तंग कर डालोगी।"

राजलक्ष्मी की भृकुटी तन गयी, उसने क्रोधित स्वर में कहा, "अब तक तुम्हें यही परिचय मिला है? मैं क्या उसे इसीलिए लज्जित करूँगी कि वह तुमसे प्रेम करती है? तुमसे प्रेम करना क्या अपराध है? मैं भी तो स्त्री हूँ। यह भी तो हो सकता है कि जाने पर मैं भी उसे चाहने लग जाऊँ!"

"तुम्हारे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है लक्ष्मी। चलो, तुम भी चलो।"

"हाँ, चलो, कल सवेरे की गाड़ी से ही हम दोनों चल दें। तुम कोई चिन्ता न करो, इस जीवन में मैं तुम्हें कभी दु:खी न करूँगी।"

इतना कहकर वह एक तरह विमना-सी हो गयी। ऑंखें बन्द हो गयीं, साँस रुकने लगा, सहसा न जाने वह कितनी दूर चली गयी।

भयभीत होकर उसे हिलाकर पूछा, "यह क्या?"

राजलक्ष्मी ऑंखें खोलकर किंचित् मुस्कराई और बोली, "कहाँ, कुछ भी तो नहीं!"

आज उसकी यह हँसी भी न जाने मुझे कैसी लगी!

श्रीकांत उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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