सगोत्र

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सगोत्र पाणिनि द्वारा रचित 'अष्टाध्यायी' का महत्वपूर्ण शब्द है। पाणिनि के अनुसार 'अपत्यं पौत्र प्रभृति गोत्रम'[1], यह गोत्र की परिभाषा थी। इसका अर्थ था- पौत्र प्रभृति यद् पत्यं तद गोत्रसंज्ञं भवति, अर्थात एक पुरखा के पोते, पड़पोते आदि जितनी संतान होंगी, वह गोत्र कही जाएंगी।[2]

  • गोत्र प्रवर्तक मूल पुरुष को वृद्ध, स्थविर या वंश्य भी कहते थे, उदाहरण के लिए यदि मूल पुरुष का नाम गर्ग होता तो उसका पुत्र गार्गि, पौत्र गार्ग्य और प्रपौत्र गार्ग्यायण कहलाता था।
  1. मूल पुरुष या गोत्र कृत - गर्ग
  2. पुत्र या अनंतरापत्य - गार्गि (गर्ग+ इ)
  3. गोत्रापत्य या पौत्र - गार्ग्य (गर्ग+य)
  4. युवा या प्रपौत्र - गार्ग्यायण (गर्ग+आयन)


  • किसी परिवार में कौन गार्ग्य है और कौन गार्ग्यायण है, इसका समाज में वास्तविक महत्व था।
  • गोत्र नाम के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत नाम भी होता था। इसीलिए महाभारत, जातक आदि प्राचीन ग्रंथों में व्यक्ति का परिचय पूछते समय नाम और गोत्र दोनों के विषय में प्रश्न किया जाता था।
  • वास्तविक बात यह थी कि गोत्रों की परंपरा प्राचीन ऋषियों से चली आती थी। मान्यता है कि मूल पुरुष ब्रह्मा के 4 पुत्र हुए- भृगु, अंगिरा, मरीचि और अत्रि। यह चारों गोत्रकर्ता थे। फिर भृगु के कुल में जमदग्नि, अंगिरा के गौतम और भरद्वाज, मरीचि के कश्यप, वशिष्ठ और अगस्त्य, एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए। इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वशिष्ठ, अगस्त्य और विश्वामित्र -यह सात ऋषि आगे चलकर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए। अत्रि का विश्वामित्र के अलावा भी वंश चला। इन्हीं मूल 8 ऋषियों को गोत्रकर्ता माना गया।


इन्हें भी देखें: पाणिनि, अष्टाध्यायी एवं भारत का इतिहास


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 4/1 /162
  2. पाणिनीकालीन भारत |लेखक: वासुदेवशरण अग्रवाल |प्रकाशक: चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 105-106 |

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