वंश
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किसी एक ही परिवार से एक के बाद एक शासन करने वाले व्यक्तियों को 'वंश' (Dynasty) कहते हैं।
- पाणिनिकालीन भारतवर्ष में वंश दो प्रकार का होता था- 'विद्या' और 'योनि संबंध से'।[1]
- विद्या वंश गुरु-शिष्य परंपरा के रूप में चलता था, जो योनि संबंध के समान ही वास्तविक माना जाता था।
- योनि संबंध मातृ वंश-पितृ वंश से दो प्रकार का होता था।[2]
- ऐसे लोग अपने-अपने चरण में गुरु-शिष्य परंपरा अथवा विद्या वंश का पारायण वेदाध्ययन की समाप्ति के समय किया करते थे। उपनिषद में इस प्रकार के कई विद्या वंश सुरक्षित हैं।
- योनि संबंध से प्रवृत्त होने वाले पितृ वंश की अतीत पीढ़ियों की संख्या यत्नपूर्वक रखी जाती थी, जैसा कि संख्या वंश्येन (दो/ एक/19) सूत्र से ज्ञात होता है। ऐसी प्रथा थी कि वंश के संस्थापक पुरुष के नाम के साथ पीढ़ियों की संख्या जोड़कर उस वंश के दीर्घकालीन अस्तित्व का संकेत दिया जाता था। उदाहरण के लिए 2/4/84 सूत्र पर पतंजलि ने एक विंशति भारद्वाजम् और त्रिपंचाशद् गौतमम् का उल्लेख किया है। पहले का संकेत भारद्वाज के कुल की 21 पीढ़ियों से है। दूसरे का संकेत है कि मूल पुरुष गौतम से उदाहरण की रचना के समय तक 53 पीढ़ियां बीत चुकी थीं। ब्राह्मण युग के अंत में इस प्रकार की सूचनाओं का संकलन किया गया। उस समय के लगभग ही ‘त्रिपंचाशद् गौतमम्’ जैसे शब्द का प्रयोग अस्तित्व में आया होगा।[3][4]
- गौतम वंश के संबंध में उल्लेखनीय है कि उपनिषद काल में अरुण, उसके पुत्र उद्दालक आरुणि और उसके पुत्र श्वेतकेतु आरुणेय जैसे प्रसिद्ध आचार्यों के रूप में इस वंश की पर्याप्त ख्याति थी।
इन्हें भी देखें: पाणिनि, अष्टाध्यायी एवं भारत का इतिहास
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