अयस्क प्रसाधन
अयस्क प्रसाधन अधिकांश खनिज जिनसे धातु निस्सारित की जाती है, रासायनिक यौगिक, जैसे आक्साइड, सल्फाइड, कारबोनैट, सल्फेट और सिलिकेट के रूप में होते हैं। खनिज में मिश्रित अनुपयोगी पदार्थ को विधातु (गैग) कहते हैं। उस खनिज को जिसमें धातु की मात्रा लाभदायक होती है अयस्क (ओर) कहते हैं। खनिज से धातुनिस्तार के पूर्व
इससे हल्के और भारी पदार्थ अलग किए जाते हैं; क. जल की सतह; ख. हलका पदार्थ; ग. भारी पदार्थ; घ. चलनी। अनेक क्रियाएँ अनिवार्य होती है जिन्हें सामूहिक रूप से अयस्क प्रसाधन (ओर ड्रेसिंग) कहते हैं। इसके द्वारा अयस्क में धातु की मात्रा का समृद्धीकरण करते हैं। इसमें दलना, पीसना और सांद्रण की क्रियाएँ सम्मिलित हैं। अयस्क का समृद्धिकरण उसमें निहित धातुओं के भिन्न-भिन्न भौतिक गुणों, जैसे रंग और द्युति, आपेक्षित घनत्व, तलऊर्जा (सर्फ़ेस एनर्जी), अतिबेध्यता (पर्मिएबिलिटी) और विद्युच्चालकता, की सहायता से किया जाता है। हाथ से चुनना-अयस्क की भिन्न-भिन्न इकाइयों को उनके रंग या द्युति की सहायता से चुन लेते हैं। इस क्रिया द्वारा अयस्क के वे टुकड़े पृथक् हो जाते हैं जो तत्क्षण धातुकर्म के योग्य होते हैं, उदाहरणार्थ गेलीना और कैलको-पाइराइट में से भिन्न खनिज इसी रीति से अलग किए जाते हैं।
इस मशीन से हल्के और भारी पदार्थ अलग किए जाते हैं। क. जल अंदर जाने का स्थान; ख. हल्के द्रव्य; ग. भारी द्रव्य; घ. चलीन; च. विचालक (पानी को हिलाने वाला) गुरुत्व सांद्रण-यह क्रिया सल्फाइट रहित अयस्कों, जैसे केसिटेरइट, क्रोमाइट और वूलफ्रेमाइट के लिए व्यवहार में लाई जाती है। यह क्रिया खनिजों और विधातुओं के आपेक्षिक घनत्वों में अंतर होने के फलस्वरूप कार्यान्वित होती है। पात्रधावन (पैनिंग) गुरुत्वसांद्रण की सबसे सरल विधि है। इसमें चूर्ण को पानी में झकझोरकर निथरने दिया जाता है। इस प्रकार क. पदार्थ को डालने का स्थान; ख. धोने का पानी; ग. सिरे की गति; घ. पट्टियों से बनी नाली; च. हलका पदार्थ; छ. मध्यम पदार्थ; ज. भारी पदार्थ। स्थूल, हल्के कणों से बहुमूल्य धातु के भारी कण अलग हो जाते हैं। यह रीति अब भी जलोढ मिट्टी (अलूवियम) से सोने के कण निकालने के काम में लाई जाती है। जिगिंग वस्तुत: स्तरण (स्ट्रैटिफिकेशन) की एक विधि है जिससे क्रमानुसार ऊपर नीचे शीघ्र चलते पानी में कणों को उनके आपेक्षिक घनत्वानुसार विस्तृत किया जाता है। पुराने जिग 1. विद्युच्चुंबक; 2. गिरता हुआ अयस्क; 3. चुंबकीय अयस्क; 4. अचुंबकीय अयस्क।
पृथक्कारक हस्तचालित होते थे (चित्र 1)। इस साधारण जिगपृथक्कारक के विकास से दूसरे यांत्रिक पृथक्कारक बने हें जो या तो चलायमान चलनीयुक्त होते हैं जिसमें अयस्क पानी में डुबाया जाता है या स्थिर चलनीयुक्त (चित्र 2), जिसमें पानी डुलता है और अयस्क चलनी में रखा रहता है। टेब्लिंग पदार्थों को आपेक्षिक घनत्वानुसार पृथक करने की उत्तम विधि है। यह विधि सूक्ष्म पदार्थों के लिए उपयोगी है। इसमें पदार्थ के बहुत गाढ़े घोल का निरंतर मंथन होता रहता है और ऊपर से पानी बहता रहता है, जिससे हल्के कण पानी में मिलकर बह जाते हैं तथा भारी कण कुछ दूर पर एकत्र हो जाते हैं। विल्फले टेबुल (चित्र 3) में पदार्थ एक ऐसे टेबुल पर रखा जाता है जो एक ओर चौड़ा और दूसरी ओर सँकरा रहता है और एक छोर से दूसरे छोर की ओर झुका रहता है। उँचे सिर की ओर अयस्क का गाढ़ा घोल झिरीदार बक्स में गिराया जाता है। मशीन से मेज का इधरवाला सिरा झटके से ऊपर नीचे चलता है। मेज पर पट्टियाँ जड़ी रहती हैं। झटका लगने पर और मेज के ढालू रहने के कारण भारी माल रुक-रुककर आगे बढ़ता है और अंत में एक बड़े बर्तन में एकत्रित हो जाता है। ऊपर से बहे पानी का एक बार फिर नए अयस्क पर छोड़ते हैं। इस प्रकार बचा खुचा माल भी निकल आता है। क. अयस्क से भरा बर्तन; ख. चुंबक; ग. लौह चुँबकीय अयस्क; घ. अयस्क का अचुँबकीय भाग। चुंबकीय पृथक्करण-जब खनिज का एक अंश लौहचुंबकीय होता है और प्राय: पूर्ण रूप से पृथक् किया जा सकता है, तो विद्युच्चुंबकीय पृथक्करण की रीति प्रयुक्त की जाती है। इस विधि की उपयोगिता मुख्यत: मैगनेटाइट समृद्धीकरण में और समुद्ररेणु के रुटाइल से इल्मेनाइट पृथक् करने में है। इन पृथक्कारकों का सरल सिद्धांत चित्र 4 और 5 में दिखाया गया है। चुंबकीय क्षेत्र को प्रबल या दुर्बल बनाकर चुंबकीय पदार्थ को अचुंबकीय से या मंद चुंबकीय को प्रबल चुंबकीय पदार्थ से पृथक् किया जा सकता है।
स्थैतिक विद्युत् (इलेक्ट्रोस्टैटिक) पृथक्करण-किसी खनिज का पारद्युतिक (डाइ-इलेक्ट्रिक) स्थिरांक उसकी किसी सतह के वैद्युत् आवेश के विसर्जन की दर को नियंत्रित करता है और यही स्थैतिक विद्युत् पृथक्करण का मूल सिद्धांत है। इस विधि में खनिज के कण उच्च विभव के समीप भेजे जाते हैं, जिससे खनिज के विभिन्न अवयव भिन्न्-भिन्न मात्रा में अपने मार्ग से विचलित होते हैं और इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानों पर गिरते हैं। आजकल समुद्ररेणु से उच्च कोटि का स्टाइल नामक खनिज प्राप्त करने में चुंबकीय और स्थैतिक विद्युत् दोनों विधियों के सहयोग से काम होता है।
प्लवन (फ्लोटेशन)-अयस्कप्रसाधन के इतिहास में प्लवनपद्धति का प्रारंभ एक स्वर्णिम अवसर था, क्योंकि इस पद्धति ने करोड़ो टन निम्न श्रेणी के और मिश्र अयस्कों को, जिनके प्रसाधन के लिए गुरुत्वाकर्षण रीतियाँ अनुपयुक्त थीं, प्रसाधन योग्य बना दिया है। अयस्क के उत्प्लवन (उतराने) का कारण यह है कि ऊपर उठा फेन विशेष खनिजों को लेकर ऊपर उठता है और शेष पदार्थ नीचे बैठे रह जाते हैं। इस रीति में खनिज की पृष्ठतलीय शक्तियों का उपयोग किया जाता है। साधारणत: धातु की तरह चमकनेवाले खनिज (विशेषत: सल्फाइड) भीगते नहीं, और इसलिए तैरते रहते हैं, जब कि अधातु द्युतिवाले खनिज फेन में नहीं फँसते और डूब जाते हैं। उपयुक्त रासायनिक पदार्थों के घोलों के प्रयोग से खनिजों के विभिन्न अवयवों की उत्पलविता में इस प्रकार अंतर डाला जा सकता है कि एक अवयव दूसरे की अपेक्षा शीघ्र प्लवित हो सके (तैरने लगे) या एक के प्लवित होने के बाद दूसरा प्लवित हो और तीसरा नीचे ही बैठा रह जाए। विविध प्रकार के रासायनिक पदार्थों को उनके कार्य के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है, जैसे फेनक (फ्ऱथर्स), एकत्रक (कलेक्टर्स), प्रावसादक (डिप्रेसैंट्स), कर्मण्यक (ऐक्टिवेटर्स) और नियामक (रेगुलेटर्स)।
फेनक खनिज में मिश्रित जल का तल तनाव (सर्फ़ेस टेनशन) घटा देते हैं और खनिज के प्लवन के लिए फेन बनाने योग्य वायु के बुलबुलों का स्थायीकरण कर देते हैं। पाइन का तेल और क्रेसिलिक अम्ल साधारण फेनक हैं। एकत्रक खनिज को जलप्रत्यपसारी (रिपेलेंट) बनाकर उत्प्लवन बढ़ा देते हैं। सल्फाइड खनिजों के लिए डाइ-थापो-कार्बेनेट (ज़ैथेट्स) और डाइ-थायो-फास्फेट्स (एयरोफ्लोट्स) साधारण एकत्रक हैं। प्रावसादक एकत्रकों के प्रभाव को रोकने का कार्य करते हैं। ताम्रलोह-सल्फाइड अयस्कों में चूने के संयोजन से लौह अयस्क डूब जाता है और ताम्र अयस्क (कैल्कोपाइराइट) तैरता रहता है।
कर्मण्यक का कार्य प्रावसाद के विपरीत होता है। वे उन खनिजों को उत्प्लवित करते हैं जिनका उत्प्लवन या तो अस्थायी रूप से दबा दिया गया हो, या जो बिना कर्मण्यक की सहायता से उत्प्लवित न हों। उदाहरणार्थ, सायानाइड से यदि ज़िंक सल्फाइड का अवसाद कर दिया गया हो जिससे वह डूबने लगे, तो कापर सल्फेट के प्रयोग से उसे फिर तैरने योग्य बना सकते हैं। अयस्क को पानी में पीसकर और उचित रासायनिक पदार्थ मिलाकर इस मशीन की टंकी घ में डाल दिया जाता है। चर्खी च में नली ख से हवा आती रहती है। चरखी के नाचने के बहुत फेन (क) उठता है जिसे एक घूमती हुई पटरी काछकर मुँह ग से बाहर निकाल देती है।
नियामक क्षारीयता और अम्लीयता अर्थात् अयस्क के पी.एच. में परिवर्तन कर देते हैं जिससे उत्प्लवन के प्रतिकर्मकों के कार्य पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। व्यवहार में उत्प्लवन प्रतिकर्मक बहुत थोड़े परिमाण में उपयोग किए जाते हैं, जैसे प्रति टन अयस्क में फेनक तथा एकत्रक 0.03 से 0.2 पाउंड तक और प्रावसादक तथा कर्मण्यक 0.3 से 1 पाउंड तक प्रयुक्त किए जाते हैं । ये सब रासायनिक पदार्थ उत्प्लवनवाले बर्तनों में ही साधारणत: उत्प्लवन के समय या थोड़ा पहले डाले जाते हैं। कुछ पदार्थों को अपना काम करने में पर्याप्त समय लगता है। इसलिए ऐसे पदार्थों को अलग टैंक में खनिज और पानी के साथ मिलाकर नियत समय तक छोड़ देते हैं।
संक्षेप में, उत्प्लवन की क्रिया में पानी के साथ पिसे अयस्क को, विशेष रूप से इसी काम के लिए बनी मशीन में, वायु के साथ फेटते हैं (चित्र 6)। पिसे अयस्क के उचित रासायनिक पदार्थों के साथ मिलने के पश्चात् मिश्रण उत्प्लवनकोष्ठों में जाता है ओर वहाँ घूमती हुई चरखी पर गिरता है। चरखी की धुरी को चारों ओर से घिरे हुए एक नली रहती है जिसमें से हवा आती रहती है। इससे बहुत फेन बनता है ओर वांछित खनिज फेन में लिपटकर ऊपर उठ आता है (चित्र 6)। इस फेन को घूमती हुई पटरियाँ काछ लेती हैं। तब इस खनिजमय फेन को गाढ़ा किया जाता है और छानकर पानी से अलग कर लिया जाता है। खनिजरहित अवशेष उत्प्लवनकक्ष के नीचे बने एक छेद से बहा दिया जाता है।[1]
चाँदी और सोना के अतिरिक्त अन्य धातुओं के खनिजों को आजकल अधिकतर उत्प्लवन की रीति से ही अलग किय जाता है। चयनमय उत्प्लवन (सिलेक्टिव फ्लोटेशन) द्वारा, जिसमें उचित प्रावसादकों और कर्मण्यकों का प्रयोग किया जाता है, सीसा, जस्ता और ताँबा के मिश्रित खनिजों से इन तीनों को बड़ी सफलता से अलग अलग किया जाता है। सोडियम सल्फाइड को कर्मण्यक की तरह प्रयोग करके सीसे के आक्सिजनमय खनिजों को दिन पर दिन अधिक मात्रा में उत्प्लवन विधि से निकाला जाता है, क्योंकि इस प्रकार खनिज पर सल्फाइड की पतली परत जम जाती है और खनिज ऊपर उतराने लगता है। (यू.वा.भ.)
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 213-15 |