एलाम
एलाम ई.पू. तृतीय सहस्राब्दी में जब भारत में सिंधु सभ्यता, मिस्र में नील नदी की सभ्यता और इराक में सुमेर तथा बाबुल की सभ्यता अपना विकास कर रही थी तभी एलाम की सभ्यता भी ईरान के पश्चिमी दक्षिणी भाग में अपने सांस्कृतिक ऐश्वर्य के डग भर रही थी। उस प्राचीन समृद्ध राज्य का विनाश दजला नदी की उपरली घाटी में बसनेवाले असुरों के सम्राट् असुरबनिपाल ने सातर्वी सदी ई.पू. में किया। एलाम फारस की खाड़ी के किनारे बाबुल के पूर्व में अवस्थित था, ईरान के प्राय: उस भाग में जिसे आज खुर्दिस्तान कहते हैं। प्राचीन ग्रीक भूगोलवेत्ता उसे सूसिआना कहते हैं जो नाम उसकी राजधानी सूसा अथवा शूषा पर आधृत था। बाइबिल की पुरानी पोथी में राजधानी और राज्य दोनों का उल्लेख हुआ है।
एलाम में प्राचीन काल में विभिन्न जातियाँ बसी थीं जो मिश्रित बोलियाँ बोलती थीं। उसके पश्चिमी भाग में निश्चय शेमी जातियों का निवास था, जैसे पूर्व में अमारदिआई जातियों का था जो ईरानियों के बाजू पर बसी थीं। कीलाक्षरोंवाली सुमेरी लिपि के अभिलेखों में जिन कस्सियों का वृत्तांत मिलता है, वे भी कभी वहाँ बस थे और तब वह प्रदेश उनके संपर्क में इतना प्रभावित था कि ई. र्पू. पाँचवीं सदी के ग्रीक इतिहासकार हेरोदोतस ने उस प्रदेश का किस्सिया नाम से ही उल्लेख किया। सुमेरी पाठों में उस स्थान का नाम 'नुम्मा' मिलता है जिसका शेमी रूपांतर 'एलाम्तू' अथवा 'एलामू' है। एलाम का अर्थ है ऊँची भूमि। राजधानी शूषा कुरान और केरखा नदियों के संगम के निकट बसी थी जहाँ आज भी उसके खँडहर हैं और जहाँ पुराविदों ने उसके प्राचीन टीलों को खोदकर इतिहास की प्रभूत सामग्री प्राप्त की है। मोरगाँ की खुदाइयों से पता चलता है कि एलाम में एलाम की सभ्यता की नीवं नव-प्रस्तर-युग में ही पड़ गई थी और 3800 ई.पू.के लगभग जब अक्काद के राजा सारगोन ने एलाम को जीता तब से पहले ही शूषा नगर अपनी प्राचीरों के पीछे खड़ा हो चुका था। उसके बाद उस नगर पर बाबुल का आधिपत्य हुआ और वहाँ बाबुली शासक रहने लगा। ई.पू. 23वीं सदी आरंभ में एलाम फिर स्वतंत्र हो गया और 2288ई.पू. के लगभग एलामी राजा कुतुर-नखुंते ने बाबुल पर चढ़ाई कर उसके नगर एरेख से उसकी देवी 'नाना' की मूर्ति छीन ली। 1330 ई.पू. में बाबुल के कस्सी राजा ने एलाम पर फिर अधिकार कर लिया पर प्राय: सौ साल बाद ही सुत्रुक-नखुंते ने समूचे बाबुली जनपद को रौंद डाला और नराम-सिन का स्तंभ तथा हम्मुराबी के प्रसिद्ध विधान की शिला सिस्पर से उठा लाया। 8वीं सदी ई. पू. में असूरिया के असुर सम्राटों और एलाम के राजाओं के बीच भयानक संघर्ष छिड़ गया जिसमें असुर विजयी हुए। 704 ई.पू. में एलाम और बाबुल के राजाओं ने मिलकर असुरों का सामना किया तरंतु उन्हें मुँह की खानी पड़ी और एलाम के राजा को अपनी गद्दी छोड़ देनी पड़ी; किंतु 10 ही वर्ष बाद एलाम के राजा खालुसू ने बाबुल का पराभव कर उसके सिंहासन पर अपने प्रियपात्र को बिठाया। उसके उत्तराधिकारी को परास्त कर बाबुल के सेनाख़ेरिब ने एलाम के 34 नगर नष्ट कर दिए और उसके राजा को नगर छोड़ भागना पड़ा।
7वीं सदी ई.पू. में सम्राट् असुरबनिपाल ने एलामी सेना को परास्त कर उसके राजा को मार डाला और अपने प्रियपात्र को वहाँ की गद्दी दे दी। बाद की लड़ाइयों में एलाम की शक्ति सर्वथा नष्ट हो गई और उसपर असुरों का जुआ जम गया। असुरों की शक्ति नष्ट हो जाने पर एलाम का राज्य ईरानी आर्यो के अधिकार में आया। जिन मीदियों ने अपनी सेनाओं द्वारा असुर और बाबुल की विजय की उन्होंने ही एलाम को भी अपने साम्राज्य की बढ़ती हुई सीमाओं में घेर लिया। सम्राट् कुरूष का आधिपत्य उसपर हुआ और शूषा उसकी दक्षिणी राजधानी बनी जो किसी न किसी रूप में चौथी सदी ई.पू. में सिकंदर के हमले तक बनी रही।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 250 |