कीर्तिस्तंभ

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कीर्तिस्तंभ कीर्ति शब्द का अर्थ प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य में यश के अतिरिक्त निर्माण कार्य के लिए भी हुआ है। अमरकोश के टीकाकार भानुजी दीक्षित ने कीर्ति शब्द की व्याख्या ‘कीर्ति: प्रसाद यशसेर्विस्तारे कर्दमेऽपि च’ किया है। हेमचंद्र के अनेकार्थसंग्रह में भी ‘कीर्ति: यशसि विस्तारे प्रासादे कर्दमेऽपि च’ दिया गया है। इस प्रकार कीर्ति शब्द का प्रयोग यश तथा यश को विस्तृत करनेवाले किसी भी निर्माण कार्य के लिए हुआ है। अभिलेखों में भी वापी, बौद्ध, अथवा हिंदू मंदिर, तड़ाग, चैत्य, और बौद्ध मट तथा मूर्तियों आदि के लिए कीर्ति शब्द का प्रयोग पाया जाता है। कीर्तिस्तंभ शब्द कीर्ति शब्द से जुड़ा हुआ है; इसका अर्थ विजयस्तंभ बनावाने की परिपाटी प्राचीन है। मिस्र, बाबुल, असूरिया तथा ईरान की प्राचीन सभ्यताओं के सम्राटों ने अपनी विजयों की प्रशस्तियाँ सदा स्तंभों पर उत्कीर्ण कराई थीं। भारत में यह प्रथा संभवत: गुप्त सम्राटों ने प्रचलित की। इनसे पूर्व के अशोक के जो स्तंभ है वे कीर्तिस्तंभ न होकर उसके धर्मदेशों के उद्घोष हैं।

भारत के कीर्तिस्तंभों में अब तक ज्ञात प्राचीनतम वह स्तंभ है जिस पर गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त की प्रशस्ति है। इस स्तंभ पर मूलत: अशोक का अभिलेख था। उसी स्तंभ का प्रयोग समुद्रगुप्त के कीर्तिवर्णन के लिए किया गया है। यह स्तंभ पहले प्रयाग से लगभग 30 मील दूर स्थित प्राचीन नगर कौशांबी में था। वहाँ से लाकर वह प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम वर स्थित किले में खड़ा किया गया है। इसपर कवि रचित चंपू काव्य के रूप में समुद्रगुप्त की प्रशस्ति है जिसमें उसके शौर्य और दिग्विजय का ओजपूर्ण वर्णन हैं। दिल्ली में मेहलौरी नामक स्थान पर एक लौह स्तंभ है जिसपर चंद्र नामक राजा के वंग से वाह्‌ लीक तक दिग्विजय करने का उल्लेख है। समझा जाता है कि यह गुप्तवंश के सुप्रसिद्ध चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का कीर्तिवर्णन है। इसी वंश के अन्य सम्राट् स्कंदगुप्त की कीर्तिगाथा कहाँव (जिला देवरिया) और भितरी (जिला गाजांपुर) में स्थित स्तंभों पर उत्कीर्ण है। ये दोनों ही स्तंभ तत्तद्स्थानीय मंदिरों से संबंध रखते हैं तथापि समझा जाता है कि भित्तरी स्तंभ स्वंय स्कंदगुप्त द्वारा स्थापित किया गया था जिनपर यशोधर्म नामक नरेश की कीर्ति का वर्णन है।

बंगाल के सेनवंशीय एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि उस वंश के लक्ष्मणसेन ने अपने विजयों की स्मृति में प्रयाग, काशी और जगन्नाथपुरी में कीर्तिस्तंभ स्थापित कराए थे। पर कीर्तिस्तंभों की प्रथा दक्षिण भारत के नरेशों में अधिक प्रचलित जान पड़ती है। उनके अभिलेखों में कीर्तिस्तंभों की प्राय: चर्चा हुई है।

मोतुपाल्लि के एक अभिलेख में सभी देशों के व्यवसायियों तथा व्यापारियों के लिए सुरक्षा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि गणपति ने अपने यश के विस्तार के लिए उस कीर्तिस्तंभ को स्थापित कराया था जिसपर लेख अंकित है। कृष्णदेव के कांजीवरम्‌ ताम्रपत्र में (शक संवत्‌ 1444) उसके द्वारा एक कीर्तिस्तंभ स्थापित करने का उल्लेख हुआ है। चोल राजवंश के कुछ नरेशों ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में कीर्तिस्तंभ (विजयस्तंभ) स्थापित किए थे। राजराज प्रथम ने सह्यगिरि पर त्रिभुवन-विजय-स्तंभ स्थापित कराया था। राजराज के उत्तराधिकारी राजेद्रदेव चोल ने कोलापुर में एक कीर्तिस्तंभ स्थापित कराया था। इस अभिलेख के शब्द इस प्रकार हैं : साढ़े सात लाखवाली इरापाडि को विजित करके कोलापुरम्‌ (कोलार ताल्लुका) में विजयस्तंभ स्थापित किया। [1] चोल नरेश कुलोत्तुंग के अभिलेख से भी पता चलता है कि उसने भी सह्याद्रिश्रृंग पर अपना विजयस्तंभ निर्माण कराया था। एक अन्य अभिलेख में गरुडशीर्ष से युक्त स्तंभ की रचना कराने का उल्लेख है। [2] इसी काल के बल्लाल नामक नरेश के किसी लक्ष्य नामक दंडीश ने अपनी पत्नी के साथ अपने स्वामी बल्लाल के यश तथा महत्ता की अभिवृद्धि के लिए भव्य कीर्तिस्तंभ खड़ाकर उसपर अपने स्वामी के प्रति भक्ति से पूर्ण वीर शासन उत्कीर्ण करवाया था। [3] महामंडलेश्वर चामुंडराय ने जगदेकमल्लेश्वर नामक देवता के मंदिर के सम्मुख गंडभेरूंड स्तंभ की स्थापना की थी। बर्गेस महोदय ने अहमदाबाद में एक सुंदर और अलंकृत कीर्तिस्तंभ का वर्णन किया है। उस स्थान का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि पूरब में सीढ़ियों से जाने पर एक चत्वर मिलता है जिसपर एक सुंदर और अलंकृत कीर्तिस्तंभ बना हुआ है। देवराज द्वितीय के विजयनगर अभिलेख में उसके द्वारा एक जयस्तंभ के विन्यास की बात लिखी मिलती है। विक्रमादित्य पंचम की कौथेम प्रशस्ति में विजयों के उपलक्ष्य में विजयस्तंभ बनवाने की चर्चा की गई है। इस विजयस्तंभ को राष्ट्रकूट नरेश कर्क तृतीय ने स्थापित किया था, जिसे पश्चिमी चालुक्य नरेश तैल द्वितीय ने युद्ध में भग्न कर दिया था।

चित्तौड़ के महाराणा कुंभा ने गुजरात नरेश महमूद को पराजित करने के बाद चित्तौड़ के किले में एक विशाल कीर्तिस्तंभ का निर्माण करवाया था। यह कीर्तिस्तंभ अपने वास्तुशिल्प के साथ साथ देवप्रतिमाओं के अलंकरण के कारण विशेष महत्व रखता है। कुतुबमीनार के संबंध में भी समझा जाता है कि वह कीर्तिस्तंभ है।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एपिग्राफिया कर्नाटिका, भाग 10, कोलार ताल्लुका, न. 107, प. 35
  2. तीरूवलबाडु अभिलेख, श्लोक 12, एपि. इंडिका, भाग 7, पृ. 123-125
  3. एपि. कर्ना., भाग 5, बेलूर तालूका, नं. 112, पृ. 74
  4. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 3 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 44 |

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