भर्तृहरि (राजा)
भर्तृहरि | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- भर्तृहरि |
भर्तृहरि राजा विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बडे भाई थे तथा उज्जैन के शासक थे जिन्होंने माया मोह त्यागकर जंगल में तपस्या की। राजा भर्तृहरि अनुमानतः 550 ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आए थे। इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे।
जीवन चरित
जनश्रुति और परम्परा के अनुसार भर्तृहरि विक्रमसंवत् के प्रवर्तक सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के अग्रज माने जाते हैं। विक्रमसंवत् ईसवी सन् से 56 वर्ष पूर्व प्रारम्भ होता है, जो विक्रमादित्य के प्रौढ़ावस्था का समय रहा होगा। भर्तृहरि विक्रमादित्य के अग्रज थे, अतः इनका समय कुछ और पूर्व रहा होगा। विक्रमसंवत् के प्रारम्भ के विषय में भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ लोग ईसवी सन् 78 और कुछ लोग ईसवी सन् 544 में इसका प्रारम्भ मानते हैं। ये दोनों मत भी अग्राह्य प्रतीत होते हैं। फारसी ग्रंथ कलितौ दिमनः में पंचतंत्र का एक पद्य शशिदिवाकर योर्ग्रहपीडनम्श का भाव उद्धृत है। पंचतंत्र में अनेक ग्रंथों के पद्यों का संकलन है। संभवतः पंचतंत्र में इसे नीतिशतक से ग्रहण किया गया होगा। फारसी ग्रंथ 571 ईसवी से 581 ई० के एक फारसी शासक के निमित्त निर्मित हुआ था। इसलिए राजा भर्तृहरि अनुमानतः 550 ई० से पूर्व हम लोगों के बीच आए थे। भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा थे। ये विक्रमादित्य उपाधि धारण करने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। पत्नी का नाम पिंगला था जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे। इन्होंने सुन्दर और रसपूर्ण भाषा में नीति, वैराग्य तथा श्रृंगार जैसे गूढ़ विषयों पर शतक-काव्य लिखे हैं। इस शतकत्रय के अतिरिक्त, वाक्यपदीय नामक एक उच्च श्रेणी का व्याकरण ग्रन्थ भी इनके नाम पर प्रसिद्ध है। कुछ लोग भट्टिकाव्य के रचयिता भट्टि से भी उनका एक्य मानते हैं। ऐसा कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के यह ही प्रवर्तक थे। चीनी यात्री इत्सिंग और ह्वेनसांग के अनुसार इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये अद्वैत वेदान्ताचार्य थे। चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा विवरण से यह ज्ञात होता है कि 651 ईस्वी में भर्तृहरि नामक एक वैयाकरण की मृत्यु हुई थी। इस प्रकार इनका काल सातवीं शताब्दी का प्रतीत होता है, परन्तु भारतीय पुराणों में इनके सम्बन्ध में उल्लेख होने से संकेत मिलता है कि इत्सिंग द्वारा वर्णित भर्तृहरि कोई अन्य रहे होंगे। महाराज भर्तृहरि निःसन्देह विक्रमसंवत की पहली सदी से पूर्व में उपस्थित थे। वे उज्जैन के अधिपति थे। उनके पिता महाराज गन्धर्वसेन बहुत योग्य शासक थे। उनके दो विवाह हुए। पहले से विवाह से महाराज भर्तृहरि और दूसरे से महाराज विक्रमादित्य हुए थे। पिता की मृत्यु के बाद भर्तृहरि ने राजकार्य संभाला। विक्रम के सबल कन्धों पर शासनभार देकर वह निश्चिन्त हो गए। उनका जीवन कुछ विलासी हो गया था। वह असाधारण कवि और राजनीतिज्ञ थे। इसके साथ ही संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने अपने पाण्डित्य और नीतिज्ञता और काव्य ज्ञान का सदुपयोग श्रृंगार और नीतिपूर्ण रचना से साहित्य संवर्धन में किया। विक्रमादित्य ने उनकी विलासी मनोवृत्ति के प्रति विद्रोह किया। देश उस समय विदेशी आक्रमण से भयाक्रान्त था। पहले तो राजा भर्तृहरि ने अपने भाई विक्रमादित्य को राज्य से निर्वासित कर दिया, लेकिन समय सबसे ज्यादा शक्तिशाली होता है। विधाता ने भर्तृहरि के भाल में योग-लिपि लिखी थी। एक दिन जब उन्हें पूर्ण रूप से पता चला कि जिस रानी पिंगला को वह अपने प्राणों से भी प्रिय समझते थे, वह कोतवाल के प्रेम में डूबी है, उन्हें वैराग्य हो गया। वह अपार वैभव का त्याग करके उसी क्षण राजमहल से बाहर निकल पड़े।
वैराग्य दर्शन
इस संसार की मायामोह को त्याग कर भर्तृहरि वैरागी हो गए और राज-पाट छोड़ कर गुरु गोरखनाथ की शरण में चले गए। उसके बाद ही उन्होंने वहीं वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे, जो कि वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। उससे पहले अपने शासनकाल में वे श्रृंगार शतक और नीति शतक नामक दो संस्कृत काव्य लिख चुके थे। पाठक जान लें कि ये तीनों शतक आज भी उपलब्ध हैं और पठनीय हैं।
उन्हें विश्वास हो गया कि विषय-भोग में रोग का भय है, धन में राज्य का, शास्त्र में विवाद का, गुण में दुर्जन का, शरीर में मृत्यु का। यों संसार की सभी वस्तुएं भयावह हैं, केवल वैराग्य ही श्रेष्ठ और अमर अभय है। तब उनके श्रृगार और नीतिपरक जीवन में वैराग्य का समावेश हो गया। उनके अधरों पर शिव नाम का वास हो गया, तृष्णा और वासना ने त्याग और तपस्या की चरम विशेषता सिद्ध की। उन्होंने अपने आत्मा में परमात्मा की व्याप्ति पाई, ब्रह्मानुभूति की, वेदान्त के सत्य का वरण किया। उन्होंने अपने आपको धिक्कारा, कि आज तक प्रेम वासना और विषयों ने हमें ही भोग डाला है। हमने तप नहीं किया, तपों ने ही हमको तपा डाला है। काल का अन्त नहीं हुआ, उसी ने हमारा अन्त कर डाला है। हम जीर्ण हो चले, पर तृष्णा का अभाव नहीं हुआ। उनका जीवन साधनमय और ज्ञानपूर्ण हो उठा। उन्होंने शिवतत्त्व की प्राप्ति की। ज्ञानोदय ने शिव के रूप में उन्हे शान्ति का अधिकारी बनाया। संसार के आघात-प्रतिघात से दूर रहकर उन्होंने ब्रह्म के शिव रूप की साधना की। उन्होंने दसों दिशाओं और तीनों कालों में परिपूर्ण, अनन्त चैतन्य स्वरूप अनुभवगम्य, शान्त और तेजोमय ब्रह्म की उपासना की। विरक्ति ही उनकी एकमात्र संगिनी हो चली। महादेव ही उनके एकमात्र देव थे। वह भक्ति की भागीरथी में गोते लगाने लगे।
वास्तव में यही इस संसार की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह है कि वह दूसरा व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति से प्रेम करता है। इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण हैं, सबमें कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर ही पूर्ण है। एक वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है, जितना जीव उससे करता है। इसलिए हमें प्रेम ईश्वर से ही करनी चाहिए। सही वक्त पर यही सोच राजा भर्तृहरि को गुरु गोरखनाथ के आश्रय में ले गई।
योगिराज भर्तृहरि का पवित्र नाम अमरफल खाए बिना अमर हो गया। उनका हृदय परिवर्तन इस बात का ज्वलन्त प्रतीक है। वह त्याग, वैराग्य और तपके प्रतिनिधि थे। हिमालय से कन्याकुमारी तक उनकी रचनाएं, जीवनगाथा भिन्न-भिन्न भाषाओं मे योगियों और वैरागियों द्वारा अनिश्चित काल से गाई जा रही हैं और भविष्य में भी बहुत दिनों तक यही क्रम चलता रहेगा।
अन्तिम समय
राजा भर्तृहरि का अन्तिम समय राजस्थान में बीता। उनकी समाधि अलवर राज्य के एक सघन वन में आज भी विद्यमान है। उसके सातवें दरवाज़े पर एक अखण्ड दीपक जलता रहता है। उसे भर्तृहरि की ज्योति स्वीकार किया जाता है। भर्तृहरि महान् शिवभक्त और सिद्ध योगी थे और अपने भाई विक्रमादित्य को पुनः स्थापित कर अमर हो गए। विक्रमादित्य उनकी तरह ही चक्रवर्ती निकले और उनके सुशासनकाल में विक्रम संवत की स्थापना हुई, जिसका शुभारंभ आज भी चैत्रमास के नवरात्र से आरंभ होता है। राजा भर्तृहरि हमेशा के लिए अपने वैराग्यभाव से ब्रह्म स्वरूप दुनिया में अपनी काव्य कृतियों की रचनाओं से अमर हो गए। इस संदर्भ में कृष्ण भगवान ने अपने प्रिय पात्र की व्याख्या करते हुए गीता में कहा है- ‘जो पुरुष आकांक्षा से रहित, अंदर-बाहर से शुद्ध, दक्ष, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है, सबी आसक्तियों का त्यागी वही व्यक्ति मेरा भक्त है और मुझे प्रिय है।
काव्य रचना
- अपने जीवन काल में उन्होंने श्रृंगार, नीति शास्त्रों की तो रचना की ही थी, अब उन्होंने वैराग्य शतक की रचना भी कर डाली और विषय वासनाओं की कटु आलोचना की। इन तीन काव्य शतकों के अलावा व्याकरण शास्त्र का परम प्रसिद्ध ग्रन्थ वाक्यपदीय भी उनके महान् पाण्डित्य का परिचायक है। वह शब्द विद्या के मौलिक आचार्य थे। शब्द शास्त्र ब्रह्मा का साक्षात् रुप है। अतएव वे शिवभक्त होने के साथ-साथ ब्रह्म रूपी शब्दभक्त भी थे। शब्द ब्रह्म का ही अर्थ रुप नानात्मक जगत-विवर्त है। योगीजन शब्द ब्रह्म से तादात्म्य हो जाने को ही मोक्ष मानते हैं। भर्तृहरि शब्द ब्रह्म के योगी थे। उनका वैराग्य दर्शन परमात्मा के साक्षात्कार का पर्याय है। सह कारण है कि आज भी शब्दो की दुनिया के रचनाकार सदा के अमर हो जाते है।
- भर्तृहरि एक महान् संस्कृत कवि थे। संस्कृत साहित्य के इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके शतकत्रय (नीतिशतक, श्रृंगारशतक, वैराग्यशतक ) की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय जनमानस को विशेष रूप से प्रभावित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ का शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था, इसलिए इनका एक लोक प्रचलित नाम बाबा गोपीचन्द भरथरी भी है।
- भर्तृहरि संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें एक सफल और उत्तम कवि माना जाता है। इनकी भाषा सरल, मनोरम, मधुर और प्रवाहमयी है। भावाभिव्यक्ति इतनी सशक्त है कि वह पाठक के हृदय और मन दोनों को प्रभावित करती है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्द का प्रयोग, विषय के अनुरुप उदाहरण आदि से उनकी सूक्तियां जन-जन में प्रचलित रही हैं और समय-समय पर जीवन में मार्गदर्शन और प्रेरणा देती रही हैं।
भर्तृहरि का मन्दिर/स्मारक
राजस्थान के अलवर मे भर्तृहरि का मन्दिर है जिसे भारतीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित स्मारक घोषित किया है यह अलवर शहर से 32 किमी दूर जयपुर अलवर मार्ग पर स्थित है यहाँ भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की सप्तमी और अष्टमी को मेला लगता है । नाथपंथ की अलख जगाने वाले कनफडे नाथ साधुओं के लिए इस तीर्थ की विशेष मान्यता है। आज अभी भी अलवर राजस्थान में भर्तृहरि की गुफा और गोपीचंद भरथरी की गुफा प्रसिद्ध है।
किंवदन्तियां
- इनके जीवन से सम्बन्धित कुछ किंवदन्तियां इस प्रकार है-
- कथा-1
एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए थे। वहां काफ़ी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। जिसके आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज 700 हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिए आप उसका शिकार न करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया। इससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरन ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगी बाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे देना। मरणासन्न हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का कलेवर घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरन को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूं कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली।
- कथा-2
भारतीय वांगमय के अनुपम ग्रन्थ भविष्य पुराण से ज्ञात होता है कि राजा विक्रमादित्य का समय अत्यन्त सुख और समृद्धि का था। उस समय उनके राज्य में जयंत नाम का एक ब्राह्मण रहता था। घोर तपस्या के परिणाम स्वरूप उसे इन्द्र के यहां से एक फल की प्राप्ति हुई थी, जिसकी विशेषता यह थी कि कोई भी व्यक्ति उसे खा लेने के उपरान्त अमर हो सकता था। फल को पाकर ब्राह्मण अपने घर चला आया तथा उसे राजा भर्तृहरि को देने का निश्चय किया और उन्हें दे दिया।
- कथा-3
एक अन्य अनुश्रुति के अनुसार भर्तृहरि विक्रमादित्य के बड़े भाई तथा भारत के प्रसिद्ध सम्राट थे। वे मालवा की राजधानी उज्जयिनी में न्याय पूर्वक शासन करते थे। उनकी एक रानी थी जिसका नाम पिंगला बताया जाता है। राजा उससे अत्यन्त प्रेम करते थे, जबकि वह महाराजा से अत्यन्त कपटपूर्ण व्यवहार करती थी। यद्यपि इनके छोटे भाई विक्रमादित्य ने राजा भर्तृहरि को अनेक बार सचेष्ट किया था तथापि राजा ने उसके प्रेम जाल में फंसे होने के कारण उसके क्रिया-कलापों पर ध्यान नहीं दिया था। उस अनुश्रुति के आधार पर यह संकेत मिलता है कि भर्तृहरि मालवा के निवासी तथा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे।
भर्तृहरि की परीक्षा
उज्जयिनी (उज्जैन) के राजा भर्तृहरि से पास 365 पाकशास्त्री यानि रसोइए थे, जो राजा और उसके परिवार और अतिथियों के लिए भोजन बनाने के लिए। वर्ष में केवल एक-एक की बारी आती थी। 364 दिन वे ताकते रहते थे कि कब हमारी बारे आए और हम राजासाहब के लिए भोजन बनाएं, इनाम पाएं। लेकिन इस दौरान भर्तृहरि जब गुरु गोरखनाथ जी के चरणों में चले गये तो भिक्षा मांगकर खाने लगे थे।
एक बार गुरु गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहा,
‘देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।‘
शिष्यों ने कहा,
‘गुरुजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहां 365 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आए हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभ रहित हो गए?’
गुरु गोरखनाथ जी ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘भर्तृहरि! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियां ले आओ।'
राजा भर्तृहरि नंगे पैर गए, जंगल से लकड़ियां एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे। गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहा,
‘जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझ गिर जाए।‘
चेले गए और ऐसा धक्का मारा कि बोझ गिर गया और भर्तृहरि भी गिर गए। भर्तृहरि ने बोझ उठाया, लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आंखों में आग के गोले, न होंठ फड़के। गुरु जी ने चेलों से कहा,
‘देखा! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।'
शिष्य बोले, ‘गुरुजी! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।'
थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। युवतियां नाना प्रकार के व्यंजन आदि से सेवक उनका आदर सत्कार करने लगे। भर्तृहरि युवतियों को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गए।
गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहा,
‘अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।'
शिष्यों ने कहा,
‘गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिए।'
गोरखनाथजी ने कहा, ‘अच्छा भर्तृहरि! हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरुभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।'
भर्तृहरि अपने निर्दिष्ट मार्ग पर चल पड़े। पहाड़ी इलाका लांघते-लांघते राजस्थान की मरुभूमि में पहुंचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप मरुभूमि में पैर रखो तो बस जल जाए। एक दिन, दो दिन यात्रा करते-करते छह दिन बीत गए। सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से अपने प्रिय चेलों को भी साथ लेकर वहां पहुंचे। गोरखनाथ जी बोले,
‘देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूं। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।' अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े, मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो।
‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।’ कूदकर दूर हट गए। गुरु जी प्रसन्न हो गए कि देखो! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’ गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए, लेकिन और शिष्यों के मन में ईर्ष्या थी।
शिष्य बोले, ‘गुरुजी! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।'
गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) भर्तृहरि से मिले और बोले, ‘जरा छाया का उपयोग कर लो।' भर्तृहरि बोले,
‘नहीं, मेरे गुरुजी की आज्ञा है कि नंगे पैर मरुभूमि में चलूं।'
गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा! कितना चलते हो देखते हैं।’
थोड़ा आगे गए तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कांटे पैदा कर दिए। ऐसी कंटीली झाड़ी कि कंथा (फटे-पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने ‘आह’ तक नहीं की। भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गए,
’यह सब सपना है, गुरु जी ने जो आदेश दिया है, वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।
अंतिम परीक्षा के लिए गुरु गोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरु आज्ञा भंग तो नहीं हो रही है। उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिए। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया।
गुरुजी बोले, ”शाबाश भर्तृहरि! वर मांग लो। अष्टसिद्धि दे दूं, नवनिधि दे दूं। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिए, युवतियां तुम्हारे चरण पखारने के लिए तैयार थीं, लेकिन तुम उनके चक्कर में नहीं आए। तुम्हें जो मांगना है, वो मांग लो।
भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है। आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गए।'
गोरखनाथ बोले, ‘नहीं भर्तृहरि! अनादर मत करो। तुम्हें कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ मांगना ही पड़ेगा।' इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सूई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोले, ‘गुरुजी! कंठा फट गया है, सूई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंठा सी लूं।'
गोरखनाथ जी और खुश हुए कि ’हद हो गई! कितना निरपेक्ष है, अष्टसिद्धि-नवनिधियां कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ मांगो, तो बोलता है कि सूई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया। कोई अपेक्षा नहीं? भर्तृहरि तुम धन्य हो गए! कहां उज्जयिनी का सम्राट नंगे पैर मरुभूमि में। एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गए।'
इन्हें भी देखें: वेताल पच्चीसी
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