श्रीकांत उपन्यास भाग-2

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पैर उठते ही न थे, फिर भी किसी तरह गंगा के किनारे-किनारे चलकर सवेरे लाल ऑंखें और अत्यन्त सूखा म्लान मुँह लेकर घर पहुँचा। मानो एक समारोह-सा हो उठा। "यह आया! यह आया!" कहकर सबके सब एक साथ एक स्वर में इस तरह अभ्यर्थना कर उठे कि मेरा हृत्पिण्ड थम जाने की तैयारी करने लगा।

जतीन क़रीब-क़रीब मेरी ही उम्र का था। इसलिए आनन्द भी उसका सबसे प्रचण्ड था। वह कहीं से दौड़ता हुआ आया और "आ गया श्रीकान्त- यह आ गया, मँझले भइया!" इस प्रकार के उन्मत्त चीत्कार से घर को फाड़ता हुआ मेरे आने की बात घोषित करने लगा और मुहूर्त भर का भी विलम्ब किये बगैर, उसने परम आदर से मेरा हाथ पकड़कर खींचते हुए मुझे बैठकखाने के पायंदाज पर ला खड़ा किया।

वहाँ पर मँझले भइया गहरा मन लगाए परीक्षा पास करने का पाठ पढ़ रहे थे। मुँह उठाकर थोड़ी-सी देर मेरे मुँह की ओर देखकर उन्होंने फिर पढ़ने में अपना मन लगा दिया अर्थात् बाघ, शिकार को अपने अधिकार में कर लेने के उपरान्त, निरापद स्थान में बैठकर, जिस तरह दूसरी तरफ अवहेलना भरी दृष्टि से देखता है, ठीक उसी तरह उनका भाव था। दण्ड देने का इतना बड़ा महेन्द्र योग उनके भाग्य में पहले और कभी जुटा था या नहीं, इसमें सन्देह है।

मिनट-भर वे चुप रहे। सारी रात बाहर बिताने के कारण दोनों कानों और गालों पर जो कुछ बीतेगी सो मैं जानता था। किन्तु, अब और अधिक देर खड़ा भी न रह सकता था और उधर 'कर्म-कर्ता' को भी तो फुरसत नहीं थी। वे भी तो परीक्षा पास करने की तैयारी में लगे थे!

हमारे इन मँझले भइया को आप शायद इतने जल्दी भूले न होंगे। ये वही हैं जिनकी कठोर देख-रेख में कल शाम को हम सब पाठाभ्यास कर रहे थे और क्षण-भर बाद ही, जिनके सुगम्भीर 'ओं-ओं' शब्द और चिरागदान उलटा देने की चोट से गत रात्रि उस 'दि रॉयल बेंगाल' को भी दिग्भ्रमित होकर एक दफा अनार के वृक्ष पर आश्रय लेना पड़ा था।

'पंचाँग तो देख रे सतीश, आज इस बेला बैंगन खाना अच्छा है या नहीं।" कहती हुई पास के द्वार को खोलकर बुआजी ने जैसे ही घर में पैर रक्खा वैसे ही मुझे देखकर वे अवाक् हो गयी। "कब आया रे? कहाँ चला गया था? धन्य है लड़के तुझे- सारी रात नींद नहीं आई- सोच सोचकर मर गयी- उस इन्द्र के साथ चुपके-से जो बाहर गया, सो फिर दिखाई ही नहीं दिया। न खाना, न पीना; कहाँ था बोल तो रे अभागे। मुख स्याह हो गया है, ऑंखें लाल छलछला रही हैं-कहती हूँ, ज्वर तो नहीं चढ़ आया है? जरा पास में तो आ, देखूँ तो ऑंग।" एक साथ इतने बहुत से प्रश्न करने के उपरान्त बुआ स्वयं ही आगे बढ़कर, मेरे कपाल पर हाथ देकर ही बोल उठीं, "जो सोचा था आखिर वही हुआ न! ऑंग खूब गरम है। ऐसे लड़कों के तो हाथ-पैर बाँधकर जल-बिछुआ लगा दिया जाय, तभी जी शान्त हो! तुझे घर से बिल्कुील बिदा करके ही अब और कुछ करूँगी। चल, भीतर चलकर सो जा, पाजी!" वे बैंगन-खाने के प्रश्न को बिल्कुथल ही भूल गयीं। उन्होंने हाथ पकड़कर मुझे अपनी गोद में खींच लिया।

मँझले भइया ने बादलों के समान गम्भीर कण्ठो से संक्षेप में कहा, "अभी वह न जा सकेगा।"

"क्यों, यहाँ क्या करेगा? नहीं, नहीं, इस समय, अब इसका पढ़ना-लिखना न होगा। पहले दो कौर खाकर थोड़ा सो ले। आ मेरे साथ।" कहकर बुआजी मुझको लेकर चलने लगीं।

किन्तु शिकार जो हाथ से निकला जाता था! मँझले भइया स्थान-काल भूल गये, ज़ोर से चिल्ला उठे और धमकाकर बोले, "खबरदार कहता हूँ, यहाँ से मत जा, श्रीकान्त! बुआ तब कुछ चौंक उठीं। इसके बाद मुँह फेर मँझले भइया की ओर देखकर केवल इतना ही बोलीं, "सतीऽऽ!"

बुआजी गम्भीर प्रकृति की औरत थीं। सारा घर उनसे डरता था। मँझले भइया तो बस उस एक तीखी नजर से ही भय के मारे सिटपिटा गये। और फिर, पास ही के कमरे में बड़े भाई भी बैठे थे। बात कहीं उनके कान तक गयी तो फिर खैर नहीं थी।

बुआजी का एक स्वभाव हम लोग हमेशा से देखते आ रहे थे। कभी किसी भी कारण वे शोरगुल करके लोगों को इकट्ठा करना पसन्द नहीं करती थीं। हज़ार गुस्सा होने पर भी वे कभी ज़ोर से नहीं बोलती थीं। वे बोलीं, "जान पड़ता है, तेरे ही डर से यह यहाँ खड़ा है। देख सतीश, जब तब सुना करती हूँ कि तू बच्चों को मारता-पीटता है। आज से यदि कभी किसी को हाथ भी लगाया, और मुझे मालूम हो गया; तो इसी खम्भे से बँधवाकर नौकर के हाथ तुझे बेंत लगवाऊँगी। बेहया खुद तो हर साल फेल हुआ करता है- और फिर दूसरों पर रुआब गाँठता है! कोई पढ़े चाहे न पढ़े, आगे से तू किसी से भी कुछ पूछ न सकेगा!"

इतना कहकर, जिस रास्ते आई थीं कि उसी रास्ते मुझे लेकर वे चली गयी। मँझले भइया अपना-सा मुँह लिये बैठे रहे। यह बात मँझले भइया भली-भाँति जानते थे कि इस आदेश की अवहेलना करना किसी के वश की बात नहीं है।

मुझे अपने साथ ले बुआ अपने कमरे में आयीं, मेरे कपड़े बदलवाए, पेट भरकर गरम-गरम जलेबियाँ खिलाईं, बिस्तर पर सुला दिया और यह बात अच्छी तरह जताकर, बाहर से साँकल लगाकर, चली गयी कि मैं मर जाऊँ तो उनके हाड़ जुड़ा जाएँ!

पाँचेक मिनट के बाद खट-से साँकल खोलकर छोटा भाई हाँफता-हाँफता आया और मेरे बिछौने पर आकर पट पड़ गया। आनन्द के अतिरेक से पहले तो वह बात भी न कर सका, फिर थोड़ा 'दम' लेकर फुसफुसाकर बोला, "मँझले भइया को माँ ने क्या हुक्म दिया है, जानते हो? हम लोगों के किसी भी काम में पड़ने की उन्हें अब ज़रूरत नहीं है। अब तुम और मैं दोनों एक कमरे में पढ़ेंगे- मँझले भइया की हम जरा भी 'केयर' (परवाह) न करेंगे।" इतना कहकर उसने अपने दोनों हाथों के अंगूठे एकत्र करके ज़ोर से नचा दिए।

तीन भी पीछे-पीछे आकर हाजिर हो गया। यह अपनी कारगुजारी की उत्तेजना में एकबारगी अधीर हो रहा था और छोटे भाई को यह सुसमाचार देकर यहाँ खींच लाया था। पहले तो वह कुछ देर तक खूब हँसता रहा। फिर हँसना बन्द करके अपनी छाती बारम्बार ठोंककर बोला, "मैं! मैं!! मेरे ही सबब से यह सब हुआ है, सो क्या तुम नहीं जानते? मैं यदि इसे (मुझे) मँझले भइया के सामने न ले गया होता तो क्या माँ ऐसा हुक्म देतीं? पर छोटे भइया, तुम्हें अपना कलदार लट्टू मुझे देना होगा सो कहे देता हूँ।", "अच्छा दिया। ले आ, जा, मेरे डेस्क में से।" छोटे भाई ने उसी क्षण हुक्म दे डाला। किन्तु उसी लट्टू को घण्टे भर पहले शायद वह पृथ्वी की सारी सम्पत्ति के बदले भी न दे सकता।

सा ही मूल्य होता है, मनुष्य की स्वाधीनता का। व्यक्तिगत न्याय अधिकारों को प्राप्त करने का ऐसा ही आनन्द होता है। आज मुझे बार-बार खयाल आता है कि बच्चों के निकट भी उसकी अमूल्यता बिन्दुभर भी कम नहीं है। मँझले भइया, बड़े होने के कारण, स्वेच्छाचार से, अपने से छोटों के जिन समस्त अधिकारों को ग्रास कर बैठे थे, उन्हें फिर से प्राप्त करने के सौभाग्य लाभ से छोटे भाई ने अपनी प्राणों से भी प्रिय वस्तु बिना संकोच के दे डाली। दरअसल मँझले भइया के अत्याचारों की सीमा न थी। रविवार को कड़ी-दुपहरी में एक मील का रास्ता नापकर, उनके ताश खेलनेवाले दोस्तों को बुलाने जाना पड़ता था। गर्मी की छुट्टियों में, दिन में जब तक वे सोते रहते थे तब तक पंखा झलना पड़ता था। सर्दी के दिनों में, जब वे लिहाफ के भीतर हाथ-पैर छिपाकर कछुए की तरह बैठे किताब पढ़ते थे, तब हमें बैठे-बैठे उनकी किताब के पन्ने पलट देने होते थे- यही सब उनके अत्याचार थे। और फिर 'न' कहने का भी कोई उपाय नहीं था। किसी के निकट शिकायत करने की भी ताब नहीं थी। घुणाक्षर-न्याय से भी यदि वे जान पाते तो हुक्म दे बैठते, "केशव, जा तो अपनी जाग्रफी ले आ, देखूँ तुझे पुराना सबक याद है कि नहीं। जतीन, जा तो एक अच्छी-सी झाऊ की छड़ी तोड़ ला।" अर्थात् पिटना अनिवार्य था, अतएव आनन्द की मात्रा में इन लोगों में यदि प्रतिस्पर्धा हो रही थी तो इसमें अचरज की बात ही क्या थी?

किन्तु आनन्द कितना ही क्यों न हो, अन्त में उसे स्थगित रखना आवश्यक हो गया; क्योंकि स्कूल का समय हो रहा था। मुझे तो ज्वर था, इसलिए कहीं जाना न था।

याद आता है कि उस रात को बुखार तेज हो गया और फिर, 7-8 दिन तक खाट में ही पड़े रहना पड़ा!

इसके कितने दिनों बाद स्कूल गया और फिर कितने दिनों बाद इन्द्र से भेंट हुई सो याद नहीं है; परन्तु इतना ज़रूर याद है कि बहुत दिनों बाद हुई। शनिवार का दिन था, जल्दी बन्द हो जाने के कारण मैं जल्दी ही स्कूल से लौट आया था। उन दिनों गंगा में पानी उतरना शुरू हो गया था और गंगा से लगे हुए एक नाले के किनारे मैं बंसी डालकर मछली पकड़ने बैठा था। वहाँ और भी बहुत-से आदमी मछली पकड़ रहे थे। एकाएक मैंने देखा कि एक आदमी, पास में ही सरकी के झुण्ड की आड़ में, बैठकर टपाटप मछलियाँ पकड़ रहा है। आड़ में होने के कारण वह तो अच्छी तरह दिखाई न देता था। परन्तु उसका मछली पकड़ना दिखाई पड़ता था। बहुत देर से मुझे अपनी जगह पसन्द नहीं आ रही थी। मन में सोचा कि चलो, मैं भी उसी के निकट जा बैठूँ। बंसी हाथ में लेकर मेरे एक बार घूमकर खड़े होते ही वह बोला, "मेरे दाहिनी ओर आकर बैठ जा। अच्छा तो है श्रीकान्त?" छाती धक् कर उठी। यद्यपि मैं उसका मुँह न देख पाया था तो भी- पहिचान गया कि इन्द्र है। शरीर के भीतर से बिजली का तीव्र प्रवाह बह जाने से, जो जहाँ है वह, एक मुहूर्त में, जैसे सजग हो उठा है, उसके कण्ठ-स्वर से भी मेरी वही दशा हुई। पलक मारते-मारते सर्वांग का रक्त चंचल हो उठा और उद्दाम होकर छाती पर मानो जोर-जोर से पछाड़ खाने लगा। किसी तरह भी मुँह से जरा-सा जवाब न निकला। यह बात मैं लिख तो ज़रूर गया हूँ किन्तु उस वस्तु को भाषा में व्यक्त करने की बात तो दूर, उसे समझना भी मेरे लिए, अत्यन्त कठिन ही नहीं, शायद असाध्यक था। क्योंकि बोलने के लिए यही बहुव्यवहृत साधारण वाक्य-राशि-जैसे हृदय का रक्त आलोड़ित हो रहा था- उद्दाम या चंचल हो रहा था, बिजली के प्रवाह के समान बह रहा था- आदि के उपयोग के सिवाय और तो कोई रास्ता है नहीं। किन्तु इससे कितना-सा व्यक्त किया जा सकता है? जो जानता नहीं उसके आगे मेरे मन की बात कितनी-सी प्रकाशित हुई? जिसने अपने जीवन में एक दिन के लिए भी यह अनुभव नहीं किया, मैं कहीं उसे यह किस तरह जताऊँ और वही इसे किस तरह जाने? जिसकी कि मैं प्रति समय याद करता रहता था- कामना करता रहता था, आकांक्षा करता रहता था और फिर भी, कहीं उससे किसी रूप में मुलाकात न हो जाय, इस भय के मारे दिन-ब-दिन सूखकर काँटा हुआ जाता था- उसी ने, इस प्रकार अकस्मात् इतने अमानवीय रूप में मेरी ऑंखों के सामने, मुझे अपने पार्श्व में आकर बैठने का अनुरोध किया! उसके पास जाकर बैठ भी गया; परन्तु फिर भी कुछ कह न सका।

इन्द्र बोला, "उस दिन वापिस आकर तूने बड़ी मार खाई- क्यों न श्रीकान्त? तुझे ले जाकर मैंने अच्छा काम नहीं किया। उसके लिए रोज मुझे बड़ा दु:ख होता है।" मैंने सिर हिलाकर कहा, "मार नहीं खाई।" इन्द्र खुश होकर बोला, "नहीं खाई? सुन रे श्रीकान्त, तेरे जाने के बाद मैंने काली माता को अनेक दफे पुकारा था जिससे तुझे कोई न मारे। काली माता बड़ी जागृत देवी हैं रे! उन्हें मन लगाकर पुकारने से कभी कोई मार नहीं सकता। माता आकर इस प्रकार भुला देती हैं कि कोई कुछ भी नहीं कर सकता।" ऐसा कहकर उसने बंसी को रख दिया और हाथ जोड़कर कपाल में लगा लिये, मानो उन्हीं को मन ही मन प्रणाम किया हो। फिर बंसी में चारा लगाकर उसे जल में डालते हुए वह बोला, "मुझे तो खयाल न था कि तुझे ज्वर आ जायेगा, यदि होता तो मैं वह भी न आने देता।"

मैंने आहिस्ते से प्रश्न किया, "क्या करते तुम?" इन्द्र बोला, "कुछ नहीं, सिर्फ जवाफूल (गुड़हल) लाकर माता के पैरों पर चढ़ा देता। उन्हें जवा फूल बड़े प्यारे हैं। जो जैसी कामना से उन्हें चढ़ाता है उसका वैसा ही फल होता है। यह तो सभी जानते हैं, क्या तू नहीं जानता?" मैंने पूछा, "तुम्हारी तबियत तो नहीं बिगड़ी थी?" इन्द्र ने आश्चर्य से कहा, "मेरी? मेरी तबियत कभी ख़राब नहीं होती। कभी कुछ नहीं होता।" वह एकाएक उद्दिप्त होकर बोला, "देख श्रीकान्त, मैं तुझे एक चीज़ सिखाए देता हूँ। यदि तू दोनों बेला खूब मन लगाकर देवी का नाम लिया करेगा, तो वे सामने आकर खड़ी हो जाँयगी- तू उन्हें स्पष्ट देख सकेगा। और फिर वे कभी तेरा बुरा न होने देंगी। तेरा कोई बाल भी बाँका न कर सकेगा- तू स्वयं जान जायेगा-फिर मेरी तरह मन चाहे वहाँ जाना, खुशी पड़े सो करना, फिर कोई चिन्ता नहीं। समझ में आया?"

मैंने सिर हिलाकर कहा, "ठीक है।" फिर बंसी में चारा लगाकर और उसे पानी में डालकर मृदु-कण्ठ से पूछा, "अब तुम किसे साथ लेकर वहाँ जाते हो?"

"कहाँ?"

"उस पार मछली पकड़ने।"

इन्द्र बंसी को उठाकर और सावधानी से पास में रखकर बोला, "अब मैं नहीं जाता।" उसकी बात सुनकर मुझे अचरज हुआ। पूछा, "उसके बाद क्या तुम एक दिन भी नहीं गये?"

'नहीं, एक दिन भी नहीं- मुझे सिर की कसम रखकर।" बात को पूरा किये बगैर ही कुछ सिटपिटाकर इन्द्र चुप हो गया।

उसके सम्बन्ध में मुझे यह बात रह-रहकर काँटे जैसी चुभती रही है। किसी तरह भी उस दिन की वह मछली बेचने की बात भूल न सका था, इसलिए यद्यपि वह चुप हो रहा पर मैं न रह सका। मैंने पूछा, "किसने तुम्हें सिर की कसम रखाई भाई? तुम्हारी माँ ने?"

"नहीं, माँ ने नहीं।" कहकर इन्द्र फिर चुप हो रहा। बंसी में धीरे-धीरे डोरी लपेटता हुआ बोला, "श्रीकान्त, अपनी उस रात की बात घर में तूने किसी से कही तो नहीं?"

'नहीं, किन्तु यह सभी जानते हैं कि मैं तुम्हारे साथ चला गया था।"

इन्द्र ने और कोई प्रश्न न किया। मैंने सोचा था कि अब वह उठेगा। किन्तु वह नहीं उठा, चुप बैठा रहा। उसके मुँह पर हमेशा हँसी का-सा भाव रहता था, परन्तु इस समय वह नहीं था। मानो, वह कुछ मुझसे कहना चाहता हो और किसी कारण, कुछ न कह सकता हो, तथा साथ ही, बिना कुछ कहे रहा भी न जाता हो- बैठे-बैठे भी मानो वह आकुलता का अनुभव कर रहा हो। आप लोग शायद यह कह बैठेंगे कि, "यह तो बाबू, तुम्हारी बिल्कु।ल मिथ्या बात है, इतना मनस्तत्व आविष्कार करने की उम्र तो वह तुम्हारी नहीं थी।" मैं भी इसे स्वीकार करता हूँ। किन्तु आप लोग भी इस बात को भूले जाते हैं कि मैं इन्द्र को प्यार करता था; एक आदमी दूसरे के मन की बात को जान सकता है तो केवल सहानुभूति और प्यार से- उम्र और बुद्धि से नहीं। संसार में जिसने प्यार किया है, दूसरे के मन की भाषा उसके आगे उतनी ही व्यक्त हो उठी है। यह अत्यन्त कठिन अन्तर्दृष्टि सिर्फ प्रेम के ज़ोर से ही प्राप्त की जा सकती है, और किसी तरह नहीं। उसका प्रमाण देता हूँ।

इन्द्र ने मुँह उठाकर मानो कुछ बोलना चाहा परन्तु बोल न सकने से उसका समस्त मुख आकरण ही रँग गया। चट से सरकी का एक सोंटा उसने तोड़ लिया और वह उसे नीचा मुँह किये, पानी पर पटकने लगा; फिर बोला, "श्रीकान्त!"

"क्या है भइया?"

"तेरे-पास रुपये हैं?"

"कितने रुपये?"

"कितने? अरे यही चार-पाँच रुपये।"

"हैं। तुम लोगे?" कहकर मैंने बड़ी प्रसन्नता से उसके मुख की ओर देखा। ये थोड़े से रुपये ही मेरे पास थे। इन्द्र के काम में आने की अपेक्षा इनके और अधिक सद्व्यवहार की मैं कल्पना भी न कर सकता था! किन्तु कहाँ, इन्द्र तो कुछ खुश न हुआ। उसका मुँह तो मानो और भी अधिक लज्जा के कारण कुछ विचित्र किस्म का हो गया। कुछ देर चुप रहने के उपरान्त वह बोला, "किन्तु मैं इन रुपयों को तुम्हें लौटा न सकूँगा।"

"मैं इन्हें लौटाना चाहता भी नहीं," यह कहकर गर्व के साथ मैं उसकी ओर देखने लगा।

और भी थोड़ी देर तक नीचा मुँह किये रहने के उपरान्त वह धीरे से बोला, "रुपये मैं स्वयं अपने लिए नहीं चाहता। एक आदमी को देने होंगे; इसी से मैंने माँगे हैं। वे लोग बेचारे बड़े दु:खी हैं- उन्हें खाने को भी नहीं मिलता। क्या तू वहाँ चलेगा?" निमेष-मात्र में ही मुझे उस रात की बात याद आ गयी। बोला, "वही न, जिनको रुपया देने के लिए उस दिन तुम नाव पर से उतरे जा रहे थे?" इन्द्र ने अन्यमनस्क भाव से सिर हिलाकर कहा, "हाँ, वही। रुपया तो मैं खुद ही बहुत-से दे सकता था, परन्तु जीजी तो किसी तरह लेना ही नहीं चाहतीं। तुझे भी साथ चलना होगा श्रीकान्त, नहीं तो इन रुपयों को वे न लेंगी, सोचेंगी कि मैं माँ के बक्से में से चोरी करके लाया हूँ। चलेगा श्रीकान्त?"

"मालूम होता है वे तुम्हारी जीजी होती हैं?"

इन्द्र ने कुछ हँसकर कहा, "नहीं, जीजी होती नहीं हैं- जीजी कहता हूँ। चलेगा न?" मुझे चुप देखकर वह बोला, "दिन को जाने में वहाँ कुछ भय नहीं है। कल रविवार है, तू खा-पीकर यहाँ आ जाना, मैं तुझे ले चलूँगा; तुरंत ही लौट आवेंगे। चलेगा न भाई?" इतना कहकर वह जिस प्रकार मेरा हाथ पकड़कर मेरे मुँह की ओर देखने लगा, उससे मेरा 'नहीं' कहना सम्भव नहीं रहा, मैं दुबारा उसकी नौका में जाने का वचन देकर घर लौट आया।

वचन तो सचमुच ही दे आया, किन्तु वहाँ जाना कितना बड़ा दु:साहस है, यह तो मुझसे बढ़कर कोई न जानता था। उसी समय से मेरा मन भारी हो गया और नींद के समय में प्रगाढ़ अशान्ति का भाव मेरे सर्वांग में विचरण करता रहा। सुबह उठते ही, पहले यही मन में आया कि आज जिस जगह जाने के लिए वचन-बद्ध हुआ हूँ, उस जगह जाने से किसी भी तरह मेरा भला न होगा। किसी सूत्र से यदि कोई जान जायेगा, तो वापिस लौटने पर जो सज़ा भुगतनी पड़ेगी, उसकी चाहना तो शायद मँझले भइया के लिए भी छोटे भइया न कर सकेंगे। अन्त में खा पीकर, पाँच रुपये छिपाकर, जब मैं घर से बाहर निकला तब यह बात भी अनेक बार मन में आई कि, जाने की ज़रूरत नहीं है। बला से, न रक्खा अपने वचन को, और इससे मेरा आता-जाता ही क्या है?

यथा-स्थान पहुँचकर देखा कि सरकी के झुण्ड के नीचे, उसी छोटी-सी नाव के ऊपर, इन्द्र सिर ऊपर उठाए मेरी राह देख रहा है। ऑंख से ऑंख मिलते ही उसने इस तरह हँसकर मुझे बुलाया कि न जाने की बात अपने मुँह से मैं निकाल ही न सका। सावधानी से, धीरे-धीरे उतरकर, चुपचाप, मैं नाव पर चढ़ गया। इन्द्र ने नाव खोल दी।

आज मैं सोचता हूँ कि बहुत जन्म के पुण्यों का फल था जो उस दिन मैं भय के मारे लौट न आया। उस दिन को उपलक्ष्य करके जो चीज़ मैं देख आया, उसे देखना, सारे जीवन सारी पृथ्वीि छान डालने पर भी कितने से लोगों के भाग्य में होता है? स्वयं मैं भी वैसी वस्तु और कहाँ देख सका हूँ? जीवन में ऐसा शुभ मुहूर्त अनेक बार नहीं आता। यदि कभी आता भी है तो, वह समस्त चेतना पर ऐसी गम्भीर छाप मार जाता है कि बाद का सारा जीवन मानो उसी साँचे में ढल जाता है। मैं समझता हूँ कि इसीलिए मैं स्त्री-जाति को कभी तुच्छ रूप में नहीं देख सका। इसीलिए बुद्धि से मैं इस प्रकार के चाहे जितने तर्क क्यों न करूँ कि संसार में क्या पिशाचियाँ नहीं हैं? यदि नहीं, तो राह घाट में इतनी पाप-मूर्तियाँ किनकी देख पड़ती हैं? सब ही यदि इन्द्र की जीजी हैं, तो इतने प्रकार के दु:खों के स्रोत कौन बहाती हैं? तो भी, न जाने क्यों, मन में आता है कि यह सब उनके बाह्य आवरण हैं, जिन्हें कि वे जब चाहें तब दूर फेंककर ठीक उन्हीं के (दीदी के) समान उच्च आसन पर जाकर विराज सकती हैं। मित्र लोग कहते हैं कि यह मेरा अति जघन्य शोचनीय भ्रम है। मैं इसका भी प्रतिवाद नहीं करता, सिर्फ इतना ही कहता हूँ कि यह मेरी युक्ति नहीं है, संस्कार है! इस संस्कार के मूल में जो है, नहीं मालूम, वह पुण्यवती आज भी जीवित है या नहीं। यदि हो भी तो वह कैसे, कहाँ पर है, इसकी खोज-खबर लेने की चेष्टा भी मैंने नहीं की है। किन्तु फिर भी मन ही मन मैंने उन्हें कितनी बार प्रणाम किया है, इसे भगवान ही जानते हैं।

श्मशान के उसी सँकरे घाट के पास, बड़ के वृक्ष की जड़ों से, नाव को बाँधकर जब हम दोनों रवाना हुए तब बहुत दिन बाकी था। कुछ दूर चलने पर, दाहिनी तरफ, वन के भीतर अच्छी तरह देखने से एक रास्ता-सा दिखाई दिया। उसी से होकर इन्द्र ने अन्दर प्रवेश किया। क़रीब दस मिनट चलने के बाद एक पर्णकुटी दिखाई दी। नजदीक जाकर देखा कि भीतर जाने का रास्ता एक बेंड़े से बन्द है। इन्द्र ने सावधानी से, उसका बन्धन खोलकर, प्रवेश किया; और मुझे अन्दर लेकर फिर उसे उसी तरह बाँध दिया। मैंने वैसा वास-स्थान अपने जीवन में कभी नहीं देखा। एक तो चारों तरफ निबिड़ जंगल, दूसरे सिर के ऊपर एक प्रकाण्ड इमली और पाकर के वृक्ष ने सारी जगह को मानो अन्धकारमय कर रक्खा था। हमारी आवाज़ पाकर मुर्गियाँ और उनके बच्चे चीत्कार कर उठे। एक तरफ बँधी हुई दो बकरियाँ मिमियाँ उठीं। ध्‍यान से सामने देखा तो- अरे बाबा! एक बड़ा भारी अजगर, टेढ़ा-मेढ़ा होकर, क़रीब-क़रीब सारे ऑंगन को व्याप्त करके पड़ा है! पल-भर में एक अस्फुट चीत्कार करके मुर्गियों को और भी भयभीत करता हुआ, मैं एकदम उस बेंड़े पर चढ़ गया। इन्द्र खिल-खिलाकर हँस पड़ा, बोला, "यह किसी से नहीं बोलता है रे, बड़ा भला साँप है- इसका नाम है रहीम।" इतना कहकर वह उसके पास गया और उसने उसे, पेट पकड़कर ऑंगन की दूसरी ओर, खींचकर सरका दिया। तब मैंने बेंड़े पर से उतरकर दाहिनी ओर देखा। उस पर्णकुटी के बरामदे में बहुत-सी फटी चटाइयों और फटी कथरियों के बिछौने पर बैठा हुआ एक दीर्घकाय दुबला-पतला मनुष्य प्रबल खाँसी के मारे हाँफ रहा है। उसके सिर की जटाएँ ऊँची बँधी हुई थीं और गले में विविध प्रकार की छोटी-बड़ी मालाएँ पड़ी थीं। शरीर के कपड़े अत्यन्त मैले और एक प्रकार के हल्दी के रंग में रँगे हुए थे। उसकी लम्बी दाढ़ी कपड़े की एक चिन्दी के जटा के साथ बँधी हुई थी। पहले तो मैं उसे पहिचान नहीं सका; परन्तु पास में आते ही पहिचान गया कि वह सँपेरा है। पाँच-छ: महीने पहले मैं उसे क़रीब-क़रीब सभी जगह देखा करता था। हमारे घर भी वह कई दफे साँप का खेल दिखाने आया है। इन्द्र ने उसे 'शाहजी' कहकर सम्बोधन किया। उसने हमें बैठने का इशारा किया और हाथ उठाकर इन्द्र को गाँजे का साज-सरंजाम और चिलम दिखा दी। इन्द्र ने कुछ कहे बगैर ही उसके आदेश का पालन करना शुरू कर दिया। जब चिलम तैयार हुई तब शाहजी, खाँसी से बेदम होने पर भी, मानो 'चाहे मरुँ चाहे बचूँ' का प्रण करके, दम खींचने लगा और रत्ती भर भी धुऑं कहीं से बाहर न निकल जाय, इस आशंका के मारे उसने अपनी बाईं हथेली से नाक और मुँह अच्छी तरह दबा लिया, फिर सिर के एक झटके के साथ उसने चिलम इन्द्र के हाथ में दे दी और कहा, "पियो।"

इन्द्र ने चिलम पी नहीं। धीरे-से उसे नीचे रखते हुए कहा, "नहीं।" शाहजी ने अत्यन्त विस्मित होकर कारण पूछा, किन्तु उत्तर के लिए एक क्षण की भी प्रतीक्षा नहीं की। फिर स्वयं ही उसे उठा लिया और खींच-खींचकर नि:शेष करके उलटकर रख दिया! इसके बाद दोनों के बीच कोमल स्वर में बातचीत शुरू हुई जिसमें से अधिकांश को न तो मैं सुन सका और न समझ ही सका। किन्तु एक बात को मैंने लक्ष्य किया कि शाहजी हिन्दी बोलते रहे और इन्द्र ने बंगला छोड़ और किसी भाषा का व्यवहार न किया।

शाहजी का कंठ-स्वर क्रम-क्रम से गर्म हो उठा और देखते ही देखते वह पागलों की-सी चिल्लाहट में परिणत हो गया। इन्द्र को उद्देश्य करके वह जो गाली-गलौज करने लगा वह ऐसी थी कि न सुनी जा सकती है और न सही। इन्द्र ने तो उसे सह लिया परन्तु मैं कभी नहीं सहता। इसके बाद वह बेंड़े के सहारे बैठ गया और दम-भर बाद ही गर्दन झुका करके सो गया। दोनों जनों के, कुछ देर तक, वैसे ही चुपचाप बैठे रहने के कारण मैं ऊब उठा और बोला, "समय जा रहा है, तुम्हें क्या वहाँ नहीं जाना?"

"कहाँ श्रीकान्त?"

"अपनी जीजी के यहाँ। क्या रुपये देने नहीं जाना है?"

"अपनी जीजी के लिए ही तो मैं बैठा हूँ। यही तो उनका घर है।"

"यही क्या तुम्हारी जीजी का घर है? यह तो सँपेरे-मुसलमान हैं!" इन्द्र कुछ कहने को उद्यत हुआ-पर फिर उसे दबा गया और चुप रहकर मेरी ओर ताकने लगा। उसकी दृष्टि बड़ी भारी व्यथा से मानो म्लान हो गयी। कुछ ठहरकर बोला, "एक दिन तुझे सब कहूँगा। साँप खिलाना देखेगा श्रीकान्त?"

उसकी बात सुनकर मैं अवाक् हो गया। "क्या साँप को खिलाओगे तुम? यदि काट खाए तो?"

इन्द्र उठकर घर के अन्दर गया और एक छोटी-सी पिटारी और सँपेरे की तूँबी (बाजा) ले आया। उसने उसे सामने रखा, पिटारी का ढक्कन खोला और तूँबी बजाई। मैं डर के मारे काठ हो गया, "पिटारी मत खोलो भाई, भीतर यदि गोखरू साँप हुआ तो?" इन्द्र ने इसका जवाब देने की भी ज़रूरत नहीं समझी, केवल इशारे से बता दिया कि मैं गोखरू साँप को भी खिला सकता हूँ। दूसरे ही क्षण सिर हिला-हिलाकर तूँबी बजाते हुए उसने ढक्कन को अलग कर दिया। बस फिर क्या था, एक बड़ा भारी गोखरू साँप एक हाथ ऊँचा होकर फन फैलाकर खड़ा हो गया। मुहूर्त मात्र का भी विलम्ब किये बगैर इन्द्र के हाथ के ढक्कन में उसने ज़ोर से मुँह मारा और पिटारी में से बाहर निकल पड़ा।

'अरे बाप रे!' कहकर इन्द्र ऑंगन में उछल पड़ा। मैं बेंडे पर चढ़ गया। क्रुद्ध सर्पराज, तूँबी पर और एक आघात करके, घर के भीतर घुस गये। इन्द्र का मुँह काला हो गया। उसने कहा, "यह तो एकदम जंगली है। जिसे मैं खिलाया करता था, वह यह नहीं है!" भय, झुँझलाहट और खीझ से मुझे क़रीब-क़रीब रुलाई आ गयी। मैं बोला, "क्यों ऐसा काम किया? उसने जाकर कहीं शाहजी को काट खाया तो?" इन्द्र असीम शर्म के मारे गड़ा जा रहा था। बोला, "घर का अर्गल लगा आऊँ? किन्तु यदि पास में ही छिपा हुआ हो तो?" मैं बोला, "तो फिर, निकलते ही उसे काट खाएगा।" निरुपाय भाव से इधर-उधर देखकर इन्द्र बोला, "काटने दो बच्चू को जंगली साँप रख छोड़ा है जो- साले गँजेड़ी को इतनी भी अक्ल नहीं है- यह लो वह जीजी आ गयी। आना मत! आना मत! वहीं खड़ी रहो।" मैंने सिर घुमाकर इन्द्र की जीजी को देखा। मानो राख से ढँकी हुई आग हो। जैसे युग-युगान्तरव्यापी कठोर तपस्या समाप्त करके अभी आसन से ही उठकर आई हों। बाईं ओर कमर पर रस्सी से बँधी हुई थोड़ी-सी सूखी लकड़ियाँ थीं और दाहिने हाथ में फूलों की डलिया के समान एक टोकनी में कुछ शाक-सब्जी थी। पहिनावे में हिन्दुस्तानी मुसलमानिन के कपड़े थे, जो गेरुए रंग में रंगे हुए थे, परन्तु मैले नहीं थे। हाथ में लाख की दो चूड़ियाँ थीं। माँग हिन्दुस्तानियों के समान सिन्दूर से भरी थी। उन्होंने लकड़ी का बोझा नीचे रख दिया और बेंड़ा खोलते-खोलते कहा, "क्या है?" इन्द्र बहुत ही व्यस्त होकर बोला, "खोलो मत जीजी, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ- एक बड़ा भारी साँप घर में घुस गया है।" उन्होंने मेरे मुँह की ओर देखकर मानो कुछ सोचा। इसके बाद थोड़ा-सा हँसकर कहा, "वही तो। सँपेरे के घर में साँप घुसा है, यह तो बड़े अचरज की बात है! है न, श्रीकान्त?" मैं अनिमेष दृष्टि से केवल उन्हीं के मुँह की ओर देखता रहा। "किन्तु, यह तो कहो इन्द्रनाथ, वह अन्दर किस तरह गया?" इन्द्र बोला, "पिटारी के भीतर से निकल पड़ा है। एकदम जंगली साँप है।"

"शायद वे अन्दर सो रहे हैं, क्यों?" इन्द्र ने गुस्से से कहा, "गाँजा पीकर एकदम बेहोश पड़े हैं। चिल्ला-चिल्लाकर मर जाने पर भी न उठेंगे।" उन्होंने फिर हँसकर कहा, "और यही सुयोग पाकर तुम श्रीकान्त को साँप का खिलाना दिखाने चले थे, क्यों न? अच्छा, आओ, मैं पकड़े देती हूँ।"

"तुम मत जाना जीजी, तुम्हें काट खायगा। शाहजी को उठा दो- मैं तुम्हें न जाने दूँगा।" यह कहकर और दोनों हाथ पसारकर वह रास्ता रोककर खड़ा हो गया। उसके इस व्याकुल कण्ठ-स्वर में जो प्रेम प्रकाशित हो उठा, उसे उन्होंने खूब ही अनुभव किया। मुहूर्त-भर के लिए उनकी दोनों ऑंखें छल छला उठीं; किन्तु उन्हें छिपाकर वे हँसकर बोलीं, "अरे पागल, इतना पुण्य तेरी इस जीजी ने नहीं किया। मुझे वह नहीं काटेगा, अभी पकड़े देती हूँ देख..." कहकर बाँस के मंच पर से एक किरोसीन की डिबिया उठाकर और जलाकर वे घर में गयी। एक मिनट-भर में ही साँप को पकड़ लाईं और उसे पिटारी में बन्द कर दिया। इन्द्र ने चट से उनके पैरों पर गिरकर नमस्कार किया और पैरों की धूल सिर पर लगाकर कहा, "जीजी, यदि तुम कहीं मेरी जीजी होतीं!" उन्होंने दाहिना हाथ बढ़ाकर इन्द्र का चिबुक स्पर्श किया और उस अंगुली को चूम लिया। फिर मुँह फेरकर अलक्ष्य में मानो उन्होंने अपनी दोनों ऑंखें पोंछ डालीं।

000 सारी घटना सुनते-सुनते इन्द्र की जीजी हठात् दो-एक बार इस तरह सिहर उठीं कि यदि इन्द्र का उस तरफ तनिक भी ध्याकन होता, तो उसे बड़ा आश्चर्य होता। वह तो न देख पाया, परन्तु मैंने देख लिया। वे कुछ देर तक चुपचाप उसकी ओर देखकर स्नेहभरे तिरस्कार से बोलीं, "छि: भइया, ऐसा कार्य अब और कभी मत करना। इन सब भयानक जानवरों से क्या खिलवाड़ किया जाता है? भाग्य से तुम्हारे हाथ की पिटारी के ढक्कन पर ही उसने फन मारा, नहीं तो आज कैसा अनर्थ हो जाता, बोलो तो?"

"मैं क्या ऐसा बेवकूफ हूँ जीजी।" इतना कहकर उसने अपनी धोती का छोर खींचकर कमर में से सूत से बँधी हुई एक सूखी जड़ी दिखाकर कहा, "यह देख जीजी, पूरी सावधानी के साथ बाँध रखी है। यदि यह न होती तो क्या आज वह मुझे काटे बिना छोड़ देता? शाहजी के पास से इसे प्राप्त करने में क्या मुझे कम कष्ट उठाने पड़े हैं? इसके होते हुए तो मुझे कोई भी नहीं काट सकता, और यदि काट भी लेता- तो भी क्या बिगड़ता? शाहजी को तुरंत ही जगाकर उनसे जहर-मोहरा लेकर कटी जगह पर रख देता। अच्छा, जीजी, यह जहर-मोहरा कितनी देर में सब विष खींच लेता है? आधा घण्टे में? एक घण्टे में? नहीं, इतनी देर न लगती होगी, क्यों जीजी?"

जीजी, किन्तु उसी तरह, चुपचाप देखती रहीं। इन्द्र उत्तेजित हो गया था, बोला, "आज दो न जीजी मुझे एक जहर-मोहरा-तुम्हारे पास तो दो-तीन पड़े हैं- कितने दिनों से मैं माँग रहा हूँ।" फिर उत्तर के लिए प्रतीक्षा किये बगैर ही वह क्षुब्ध अभिमान के स्वर में उसी क्षण बोल उठा, "मुझसे तो तुम लोग जो भी कहते हो मैं वही कर देता हूँ- पर तुम लोग मुझे हमेशा झाँसा देकर कहते हो, आज नहीं कल, कल नहीं परसों-यदि नहीं देना है तो साफ़ क्यों नहीं कह देते? मैं फिर नहीं आऊँगा- जाओ।"

इन्द्र ने लक्ष्य नहीं किया, किन्तु मैंने जीजी की तरफ देखते हुए खूब अनुभव किया कि उनका मुख, किसी असीम व्यथा और लज्जा के कारण, मानो एकदम काला हो गया है। किन्तु दूसरे ही क्षण कुछ हँसी का भाव अपने सूखे होठों पर जबर्दस्ती लाकर उन्होंने कहा, "हाँ रे इन्द्र, क्या तू अपनी जीजी के यहाँ सिर्फ साँप के मन्त्र और जहर-मोहरा के लिए ही आया करता है?"

इन्द्र नि:संकोच होकर बोल उठा, "और नहीं तो क्या!" फिर निद्रित शाहजी की ओर तिरछी नजर से देखकर बोला, "किन्तु वह मुझे हमेशा झाँसा ही देते रहते हैं- इस तिथि को नहीं, उस तिथि को नहीं-केवल वह एक झाड़ने का मन्त्र दिया था, बस और कुछ देना ही नहीं चाहते। किन्तु, आज मुझे खूब मालूम हो गया है जीजी, कि तुम भी कुछ कम नहीं हो- तुम भी सब जानती हो। अब और उनकी खुशामद नहीं करूँगा जीजी, तुम्हारे पास से ही सब मन्त्र सीख लूँगा।" इतना कहकर उसने मेरी ओर देखा और फिर सहसा एक दीर्घ नि:श्वास छोड़कर शाहजी को लक्ष्य करके उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करते हुए कहा, "शाहजी गाँजा-वाँजा ज़रूर पीते हैं श्रीकान्त, किन्तु तीन दिन के मरे हुए मुर्दे को आधा घण्टे के भीतर ही उठाकर खड़ा कर सकते हैं- इतने बड़े उस्ताद हैं ये! हाँ जीजी, तुम भी तो मुर्दे को ज़िला सकती हो?"

जीजी कुछ देर चुपचाप देखती रहीं और फिर एकाएक खिलखिलाकर हँस पड़ीं। वह कितना मधुर हास था! इस तरह मैंने बहुत ही थोड़े लोगों को हँसते देखा है; किन्तु वह हास, मानो निबिड़ मेघों से भरे हुए आकाश की बिजली को चमक की तरह, दूसरे ही क्षण अन्धकार में विलीन हो गया।

किन्तु इन्द्र ने उस तरफ ध्या न ही नहीं दिया, वह एकदम जीजी के गले पड़ गया और बोला, "मैं जानता हूँ कि तुम्हें सब मालूम है; परन्तु मैं कहे देता हूँ कि एक-एक करके तुम्हें अपनी सब विद्याएँ देनी होंगी। जितने दिन जाऊँगा उतने दिन तुम्हारा पूरा ग़ुलाम होकर रहूँगा। तुमने कितने मुर्दे जिलाए हैं जीजी?"

जीजी बोली, "मैं तो मुर्दे जिलाना जानती नहीं, इन्द्रनाथ!"

इन्द्र ने पूछा, "तुम्हें शाहजी ने यह मन्त्र नहीं दिया?" जीजी ने सिर हिलाकर कहा, "नहीं।" इन्द्र, मिनट-भर तक उनके मुँह की ओर देखते रहने के उपरान्त, स्वयं भी अपना सिर हिलाते-हिलाते बोला, "यह विद्या क्या कोई शीघ्र देना चाहता है जीजी? अच्छा, कौड़ी चलाना तो तुमने निश्चय ही सीख लिया होगा?"

जीजी बोली, "कौड़ी चलाना किसे कहते हैं, सो भी तो मैं नहीं जानती भाई।"

इन्द्र को विश्वास नहीं हुआ। वह बोला, "हुश्, जानती कैसे नहीं! नहीं दूँगी, यही कह दो न!" फिर मेरी ओर देखकर बोला, "कौड़ी चलाना कभी देखा है श्रीकान्त? दो कौड़ियाँ मन्त्र पढ़कर छोड़ दी जाती हैं, वे जहाँ साँप होता है वहाँ जाकर उसके सिर पर जा चिपटती हैं और उसे दस दिन तक के रास्ते से खींच लाकर हाजिर कर देती हैं। ऐसा ही मन्त्र का ज़ोर है! अच्छा जीजी, घर बाँधना, देह-बाँधना, धूल पढ़ना- यह सब तो तुम जानती हो न? यदि जानती न होतीं, तो इस तरह साँप को कैसे पकड़ लेतीं?" इतना कहकर वह जिज्ञासु-दृष्टि से जीजी के मुँह की ओर देखने लगा।

जीजी ने बहुत देर तक सिर झुकाए हुए चुपचाप मन ही मन मानो कुछ सोच लिया और फिर मुँह उठाकर धीरे से कहा, "इन्द्र, तेरी जीजी के पास ये सब विद्याएँ कानी-कौड़ी की भी नहीं हैं किन्तु; क्यों नहीं है, सो यदि तू विश्वास करे भाई, तो आज तेरे आगे सब बातें खोलकर अपनी छाती का बोझ हलका कर डालूँ। बोलो, तुम लोग आज मेरी सब बातों पर विश्वास करोगे?" बोलते-बोलते ही उनके पिछले शब्द एक तरह से कुछ भारी-से हो उठे।

अभी तक मैं प्राय: कुछ भी न बोला था। इस दफे, सबसे आगे ज़ोर से बोल उठा, "मैं तुम्हारी सब बातों पर विश्वास करूँगा जीजी! सब पर- जो तुम कहोगी, सब पर। एक भी बात पर अविश्वास न करूँगा।"

मेरी ओर देखकर वे कुछ हँसीं और बोलीं, "विश्वास क्यों न करोगे भाई, तुम भले घरों के लड़के जो ठहरे! इतर (छोटे) लोग ही अनजान अपरिचित लोगों की बात में सन्देह करते और भय से पीछे हट जाते हैं। सिवाय इसके मैंने तो कभी झूठ बोला नहीं भाई!" इतना कहकर उन्होंने एक दफे सिर हमारी ओर देखकर म्लान भाव-से थोड़ा-सा हँस दिया।

उस समय संध्याे की धुंध दूर होकर, आकाश में चन्द्रमा का उदय हो रहा था और उसकी धुँधली-सी किरण-रेखाएँ, वृक्षों की घनी शाखाओं और पत्तों में से छनकर नीचे के गहरे अन्धकार में पड़ रही थीं।

कुछ देर चुप रहकर जीजी एकाएक बोल उठीं, "इन्द्रनाथ, सोचा था कि आज ही अपनी सब कहानी तुम्हें सुना दूँ। किन्तु सोचकर देखा कि नहीं, अभी वह समय नहीं आया है। परन्तु मेरी एक बात पर अवश्य विश्वास कर लो कि हम लोगों की सारी करामात शुरू से आखिर तक प्रवंचना ही है। इसलिए अब तुम झूठी आशा से शाहजी के पीछे-पीछे चक्कर मत काटो। हम लोग मन्त्र-तन्त्र कुछ नहीं जानते, मुर्दे को भी नहीं ज़िला सकते; कौड़ी फेंककर साँप को भी पकड़कर नहीं ला सकते। और कोई कर सकता है या नहीं, सो तो मैं नहीं जानती, परन्तु हम लोगों में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है।"

न मालूम क्यों इस अत्यल्प काल के परिचय से ही मैंने उनके प्रत्येक शब्द पर असंशय विश्वास कर लिया; किन्तु, इतने दिनों के घनिष्ठ परिचय के होते हुए भी इन्द्र विश्वास न कर सका। वह क्रुद्ध होकर बोला, "यदि शक्ति नहीं है तो तुमने साँप को पकड़ किस तरह लिया?"

जीजी बोलीं, "यह तो सिर्फ हाथ का कौशल-भर है इन्द्र, किसी मन्त्र का ज़ोर नहीं। साँप का मन्त्र हम लोग नहीं जानते।"

इन्द्र बोला, "यदि नहीं जानते; तो तुम दोनों ने धूर्तता से मुझसे इतने रुपये क्यों ठग लिये?"

जीजी तत्काल जवाब न दे सकीं; शायद अपने को कुछ सँभालने लगीं। इन्द्र ने फिर कर्कश कण्ठ से कहा, "तुम सब ठग, धूर्त, चोट्टे हो- अच्छा दिखाता हूँ तुम लोगों को इसका मजा।"

पास में ही एक किरासन की डिबिया जल रही थी। मैंने उसी के प्रकाश में देखा, जीजी का मुँह मुर्दे के समान सफेद हो गया है। वे भय और संकोच के साथ बोलीं, "हम लोग मदारी जो हैं भाई- ठगना ही तो हमारा व्यवसाय है।"

"तुम्हरा व्यवसाय मैं अभी सब बाहर निकाले देता हूँ- चल रे श्रीकान्त, इन साले धूर्तों की छाया से भी बचना चाहिए। हरामजादे, बदजात, धूर्त, बदमाश!" यह कहकर इन्द्र सहसा मेरा हाथ पकड़कर और ज़ोर से एक झटका देकर खड़ा हो गया और जरा भी विलम्ब किये बिना मुझे खींच ले गया।

इन्द्र को दोष नहीं दिया जा सकता; क्योंकि उसकी बहुत दिनों की बड़ी-बड़ी आशाएँ, मानो पलक मारते ही, भूमिसात हो गयी थीं। किन्तु मैं अपनी दोनों ऑंखों को जीजी की उन ऑंखों की ओर से फिर न लौटा सका। मैं बलपूर्वक इन्द्र से अपना हाथ छुड़ाकर पाँच रुपये सामने रखते हुए बोला, "तुम्हारे लिए लाया था जीजी-इन्हें ले लो।"

इन्द्र ने झपटकर उन्हें उठा लिया और कहा, "अब और रुपये! धूर्तता से इन्होंने मुझसे कितने रुपये लिये हैं, सो क्या तुझे मालूम है श्रीकान्त? मैं तो अब यही चाहता हूँ कि ये लोग बिना खाए-पिए सूखकर मर जाँय।"

मैंने उसका हाथ दबाकर कहा, "नहीं इन्द्र, दे देने दो- मैं ये जीजी के लिए ही लाया हूँ?"

"ओ:, बड़ी आई तेरी जीजी!" कहकर वह मुझे खींचकर बेंड़े के पास घसीट लाया!

इतने में इस गोल माल से शाहजी का नशा उचट गया। "क्या हुआ! क्या हुआ!" कहते हुए वह उठ बैठा।

इन्द्र मुझे छोड़कर उसकी ओर बढ़ गया और बोला, "डाकू साले! कभी रास्ते में देख पाया तो चाबुक से तेरी पीठ का चमड़ा उधेड़ दूँगा।" "क्या हुआ?", "बदमाश साला, जानता कुछ भी नहीं, फिर भी कहता फिरता है, मन्त्र के ज़ोर से मुर्दे जिलाता हूँ! यदि कभी रास्ते पर दिखाई दिया तो अबकी बार अच्छी तरह 'देखूँगा तुझे?" इतना कहकर उसने एक ऐसा अशिष्ट इशारा किया जिससे कि शाहजी चौंक उठा।

एक तो नशे की खुमारी फिर अकस्मात् यह अचिन्तय काण्ड। इससे यह 'किंतर्कव्य-विमूढ़' हो गया और उसी भाव से टुकुर-टुकुर देखने लगा।

इन्द्र मुझे लेकर जब तक द्वार के बाहर आया, तब तक शायद वह कुछ होश में आकर शुद्ध बंगाली में पुकार उठा, "सुन इन्द्रनाथ, क्या हुआ है बोल तो?" यह पहले ही पहल मैंने उसे बंगाली में बोलते सुना।

इन्द्र लौटकर बोला, "जन्त्र-मन्त्र तुम कुछ नहीं जानते, फिर क्यों' झूठ मूठ मुझे धोखा देकर इतने दिनों तक रुपया ऐंठते रहे? इसका जवाब दो!"

वह बोला, "नहीं जानता, यह तुमसे किसने कहा?"

इन्द्र ने उसी क्षण उस स्तब्ध नतमुखी जीजी की ओर हाथ बढ़ाकर कहा, "इन्होंने कहा कि तुम्हारे पास कानी कौड़ी की भी विद्या नहीं है। विद्या है सिर्फ धूर्तता की और लोगों को ठगने की। यही तुम लोगों का व्यवसाय है! मिथ्यावादी, चोर!"

शाहजी की ऑंखें भक से जल उठीं। वह कैसी भीषण प्रकृति का आदमी है, इसका परिचय मुझे तब तक भी नहीं था। उसकी केवल उस दृष्टि से ही मेरे शरीर में मानो काँटे उठ आए। वह अपनी बिखरी हुई जटाओं को बाँधते-बाँधते उठ खड़ा हुआ और सामने आकर बोला, "कहा है, तूने?"

जीजी उसी तरह नीचा मुँह किये निरुत्तर बैठी रही। इन्द्र ने मुझे एक धक्का देकर कहा, "रात हो गयी- चल न।" मैंने कहा, "रात अवश्य हो रही है, परन्तु मेरे पैर तो जैसे अपनी जगह से हिलते ही नहीं हैं।" किन्तु इन्द्र ने उस ओर भ्रूक्षेप भी न किया। वह मुझे प्राय: जबर्दस्ती ही खींच ले चला।

कुछ क़दम आगे बढ़ते ही शाहजी का कंठ-स्वर फिर सुनाई दिया, "क्यों कहा तूने?"

प्रश्न तो ज़रूर सुना किन्तु प्रत्युत्तर न सुन सका। थोडे क़दम और अग्रसर होते ही अकस्मात् चारों ओर के उस निबिड़ अन्धकार की छाती को चीरता हुआ एक तीव्र आर्त्त-स्वर पीछे की अंधेरी झोंपड़ी में से हमारे कानों को बेधता हुआ निकल गया; और ऑंख की पलक गिरते-न गिरते इन्द्र उस शब्द का अनुसरण करके अदृश्य हो गया। किन्तु मेरे भाग्य में कुछ और ही था। सामने ही एक बड़ी कँटीली झाड़ी थी। मैं ज़ोर से उसी पर जा गिरा और काँटों से मेरा सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। यह जो हुआ, सो हुआ किन्तु अपने को काँटों से छुड़ाने में ही मुझे क़रीब दस मिनट लग गये। इस काँटे को छुड़ाओ तो किसी अन्य काँटे में कपड़ा बिंध जाता और उसे छुड़ाओ तो किसी तीसरे में जा अटकता। इस प्रकार अनेक कष्ट और विलम्ब के उपरान्त जब मैं शाहजी के घर के ऑंगन के किनारे पहुँचा, तब देखा कि उस ऑंगन के एक हिस्से में जीजी मूर्च्छित पड़ी हुई हैं और दूसरे हिस्से में दोनों का- गुरु-शिष्य का बाकायदा मल्ल-युद्ध हो रहा है। पास ही में एक तेजधार वाली बर्छी पड़ी हुई है।

शाहजी-शरीर से अत्यन्त बलवान था, किन्तु उसे पता न था कि इन्द्र उससे भी कितना अधिक बली है। यदि होता तो शायद वह इतने बड़े दु:साहस का परिचय न देता। देखते ही देखते इन्द्र उसे चित्त करके उसकी छाती पर चढ़ बैठा और उसकी गर्दन को ज़ोर से दबोचने लगा। वह ऐसा दबोचना था कि यदि मैं बाधा न देता तो, शायद, शाहजी का मदारी-जीवन उसी समय समाप्त हो जाता।

बहुत खींच-तान के बाद जब मैंने दोनों को पृथक् किया तब इन्द्र की अवस्था देखकर डर के मारे एकदम रो दिया। पहले मैं अन्धकार में देख न सका था कि उसके सब कपड़े ख़ून से तर-ब-तर हो रहे हैं। इन्द्र हाँफते-हाँफते बोला, "साले गँजेड़ी ने मुझे साँप मारने का बर्छा मारा है- यह देख?" कुरते की आस्तीन उठाकर उसने बताया, भुजा में क़रीब दो-तीन इंच गहरा घाव हो गया है, और उसमें से लगातार ख़ून बह रहा है।

इन्द्र बोला, "रो मत, इस कपड़े से मेरे घाव को खूब खींचकर बाँध दे। अरे खबरदार! ठीक ऐसा ही बैठा रह, उठा तो गले पर पैर रखकर तेरी जीभ खींचकर बाहर निकाल लूँगा, हरामजादे सूअर! ले इन्द्र, तू खींचकर बाँध, देरी न कर।" इतना कहकर उसने चर्र-चर्र अपनी धोती के छोर का एक अंश फाड़ डाला। मैं काँपते हाथों से घाव को बाँधने लगा और शाहजी निकट ही, आसन्न मृत्यु विषैले सर्प की तरह, बैठा हुआ, चुपचाप देखने लगा।

इन्द्र बोला, "नहीं, तेरा विश्वास नहीं है, तू ख़ून कर डालेगा। मैं तेरे हाथ बाँधूँगा।" यह कहकर उसने उसी की गेरुए रंग की पगड़ी से खींच-खींचकर उसके दोनों हाथ खूब कसकर बाँध दिए। उसने कोई बाधा नहीं दी, प्रतिवाद नहीं किया, जरा-सी चूँ-चपड़ भी न की।

जिस लाठी के प्रहार से जीजी बेहोश हो गयी थीं उसे उठाकर एक तरफ रखते हुए इन्द्र बोला, "कैसा नमकहराम शैतान है यह साला! मैंने इसे अपने पिता के न जाने कितने रुपये चुराकर दिए हैं, और यदि जीजी ने सिर की कसम रखाकर रोका न होता तो और भी देता। इतने पर भी यह मुझे बर्छी मार बैठा! श्रीकान्त, इस पर नजर रख जिससे यह उठ न बैठे- मैं जीजी की ऑंखों और चेहरे पर जल के छींटे देता हूँ।"

पानी के छींटे देकर हवा करते हुए वह बोला, "जिस दिन जीजी ने कहा कि इन्द्रनाथ तेरे कमाए हुए पैसे होते तो मैं ले लेती- किन्तु इन्हें लेकर मैं अपना इहलोक-परलोक मिट्टी न करूँगी।' उस दिन से अब तक इस शैतान के बच्चे ने उन्हें कितनी मार मारी है, इसका कोई हिसाब नहीं। इतने पर भी जीजी लकड़ी ढोकर कंडे बेचकर किसी तरह इसे खिलाती-पिलाती हैं, गाँजे के लिए पैसे देती हैं- फिर भी यह उनका अपना न हुआ। किन्तु अब मैं इसे पुलिस के हाथ में दूँगा, तब छोड़ूँगा- नहीं तो यह जीजी का ख़ून कर डालेगा, यह ख़ून कर सकता है।"

मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मानो वह मनुष्य इस बात से सिहर उठा और सिर उठाकर उसे तुरंत नीचा कर लिया। यह सब निमेष-भर में ही हो गया। किन्तु अपराधी की निबिड़ आशंका मैंने उसके चेहरे पर इस प्रकार परिस्फुट होती हुई देखी कि उसका उस समय का वह चेहरा मुझे आज भी साफ-साफ याद आ जाता है।

मैं अच्छी तरह जानता हूँ, कि इस कहानी को, जिसे कि आज मैं लिख रहा हूँ, इतना ही नहीं कि सत्य मानकर ग्रहण करने में लोग दुविधा करेंगे परन्तु इसे विचित्र कल्पना कहकर उपहास करने में भी शायद संकोच न करेंगे। फिर भी, यह सब कुछ जानते हुए भी, मैंने इसे लिखा है और यही मेरी अभिज्ञता का सच्चा मूल्य है। क्योंकि सत्य के ऊपर खड़े हुए बगैर, किसी भी तरह यह सब कथा मुँह से बाहर नहीं निकाली जा सकती। पग-पग पर डर लगता है कि लोग इसे हँसी में न उड़ा दें। जगत में वास्तविक घटनाएँ कल्पना को भी बहुत दूर पीछे छोड़ जाती हैं-यह कैफियत, स्वयं उसे लेखबद्ध करने में, किसी तरह की मदद नहीं करती, बल्कि हाथ की कलम को बार-बार खींचकर रोकती है।

पर जाने दो इस बात को। जीजी जब ऑंखें खोलकर उठ बैठीं तब शायद आधी रात हो गयी थी। उनकी विह्वलता दूर होते और भी एक घण्टा बीत गया। इसके बाद हमारे मुँह से सारा वृत्तान्त सुनकर वे उठकर धीरे-धीरे खड़ी हो गयीं और शाहजी को बन्धन-मुक्त करके बोलीं, "जाओ; अब सो रहो।"

उसके चले जाने के उपरान्त उन्होंने इन्द्र को पास बुलाकर और उसका दाहिना हाथ अपने सिर पर रखकर कहा, "इन्द्र, मेरे इस सिर पर हाथ रखकर शपथ तो कर भाई, कि अब फिर कभी तू इस घर में न आयेगा। हमारा जो होना हो सो हो, तू अब कोई खबर न लेना।"

इन्द्र पहले तो अवाक् हो रहा; परन्तु दूसरे ही क्षण आग की तरह जल उठा और बोला, "ठीक ही तो है! मेरा ख़ून किये डालता था, सो तो कुछ भी नहीं। और मैंने जो उसे थोड़ी देर के लिए बाँध दिया, सो इस पर तुम्हारा इतना गुस्सा! ऐसा न हो तो फिर यह कलियुग ही क्यों कहलावे! परन्तु तुम दोनों कितने नमकहराम हो! आ रे श्रीकान्त, चलें, बस हो चुका।"

जीजी चुप हो रहीं- उन्होंने इस अभियोग का जरा भी प्रतिवाद नहीं किया। क्यों नहीं किया सो, पीछे मैंने चाहे जितना क्यों न समझा हो, परन्तु उस समय मैं बिल्कुथल न समझ सका। तथापि मैं अलक्ष्य रूप से चुपचाप वे पाँच रुपये वहीं खम्भे के पास रखकर इन्द्र के पीछे-पीछे चल दिया। ऑंगन के बाहर आकर इन्द्र चिल्लाकर बोला, "हिन्दू की लड़की होकर जो एक मुसलमान के साथ भाग आती है, उसका धर्म-कर्म ही क्या! चूल्हे में चली जाय, अब मैं न कोई खोज ही करूँगा और न खबर ही लूँगा। हरामजादा, नीच कहीं का!" यह कहकर वह तेज़ीसे उस वन-पथ को लाँघकर चल दिया।

हम दोनों नाव में आकर बैठ गये, इन्द्र चुपचाप नाव खेने लगा और बीच-बीच में हाथ उठा-उठाकर ऑंखें पोंछने लगा। यह साफ-साफ समझकर कि वह रो रहा है, मैंने और कोई भी प्रश्न नहीं किया।

श्मशान के उसी रास्ते से मैं लौट आया और उसी रास्ते अब भी चला जा रहा हूँ, परन्तु न मालूम क्यों, आज मेरे मन में भय की कोई बात ही नहीं आती। मालूम होता है, शायद, उस समय मन इतना विह्वल और इतना ढँका हुआ था कि इतनी रात को किस तरह घर में घुसूँगा और घुसने पर क्या दशा होगी, इसकी चिन्ता भी उसमें स्थान न पा सकी।

प्राय: पिछली रात को नाव घाट पर आ लगी। मुझे उतारकर इन्द्र बोला, "घर चला जा श्रीकान्त, तू बड़ा अपशकुनिया है। तुझे साथ लेने से एक न एक फसाद उठ खड़ा होता है। आज से अब तुझे किसी भी कार्य के लिए न बुलाऊँगा- और तू भी अब मेरे सामने न आना। जा, चला जा।" इतना कहकर वह गहरे पानी में नौका ठेलकर देखते ही देखते घुमाव की तरफ अदृश्य हो गया। विस्मित, व्यथित और स्तब्ध होकर मैं निर्जन नदी के तीर पर अकेला खड़ा रह गया।

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निस्तब्ध गम्भीर रात में पाता गंगा के किनारे बिल्कुाल अकारण ही, जब इन्द्र मुझे बिल्कुसल अकेला छोड़कर चला गया, तब मैं रुलाई को और न सँभाल सका। उसे मैं प्यार करता हूँ, इसका उसने कोई मूल्य ही नहीं समझा। दूसरे के घर में रहते हुए कठोर शासन-जाल की उपेक्षा करके, उसके साथ गया, इसकी भी उसने कोई कद्र नहीं की। सिवाय इसके, मुझे अपशकुनिया अकर्मण्य कहकर और अकेले असहाय अवस्था में विदा करके, बेपरवाही से चला गया। उसकी यह निष्ठुरता मुझे कितनी अधिक चुभी इसको बताने की चेष्टा करना भी निरर्थक है। इसके बाद, बहुत दिनों तक न उसने मुझे खोजा और न मैंने ही उसे। दैवात् यदि कभी राह-घाट में मिल भी जाता तो मैं इस तरह मुँह मोड़कर चला जाता मानो उसे देखा ही न हो। किन्तु मेरा यह 'मानो' मुझे ही हमेशा तुस की आग की तरह जलाया करता, उसकी जरा-सी भी हानि न कर सकता। लड़कों के दल में उसका बड़ा सम्मान था। फुटबाल-क्रिकेट का वह दलपति था, जिमनास्टिक अखाड़े का मास्टर था। उसके कितने ही अनुचर थे, और कितने ही भक्त। मैं तो उसकी तुलना में कुछ भी न था। फिर-क्यों वह दो ही दिन के परिचय में मुझे 'मित्र' कहने लगा और फिर क्यों उसने त्याग दिया? परन्तु जब उसने त्याग दिया तब मैं भी जबर्दस्ती करके उससे सम्बन्ध जोड़ने नहीं गया।

मुझे खूब याद है कि मेरे संगी-साथी जब इन्द्र का उल्लेख करके उसके सम्बन्ध में तरह-तरह की अद्भुत अचरजभरी बातें कहना शुरू कर देते, तब मैं चुपचाप उन्हें सुनता रहता। छोटी-सी बात कहकर भी मैंने कभी यह ज़ाहिर नहीं किया कि वह मुझे जानता है अथवा उसके सम्बन्ध में मैं कुछ जानता हूँ। न जाने कैसे मैं उस उम्र में ही यह जान गया था कि 'बड़े' और 'छोटे' की दोस्ती का परिणाम प्राय: ऐसा ही होता है। भविष्य जीवन में मैं भाग्यवश अनेक 'बड़े' मित्रों के संसर्ग में आऊँगा इसलिए, शायद, भगवान ने दया करके यह सहज-ज्ञान मुझे दे दिया था जिससे कि मैं कभी किसी भी कारण से अपनी अवस्था का अतिक्रमण करके अर्थात् अपनी योग्यता का खयाल किये बिना मित्रता का मूल्य ऑंकने न जाऊँ। नहीं तो देखते-देखते 'मित्र' प्रभु बन जाता है, और साध की 'मित्रता' का पाश दासत्व की बेड़ी बनकर 'छोटे' के पैरों को जकड़ लेता है। यह दिव्यज्ञान इतने सहज में और इस तरह सत्य रूप में मुझे प्राप्त हो गया था कि इसमें मैं हमेशा के लिए अपमान और लांछनाओं से छुटकारा पा गया हूँ।

तीन-चार महीने कट गये। दोनों ने ही दोनों को त्याग दिया- भले ही इसकी वेदना किसी पक्ष के लिए कितनी ही निदारुण क्यों न हो; किसी ने किसी की भी खोज-खबर नहीं ली।

दत्त-परिवार के घर में काली-पूजा के उपलक्ष्य में उस मुहल्ले का शौकिया नाटक-स्टेज तैयार हो रहा था। 'मेघनाद वध' का अभिनय होने वाला था। इसके

¹ बंगाल में जो दृश्य-पट हीन अभिनय होते हैं, उन्हें 'यात्रा' कहते हैं, जैसे कि यहाँ पर रामलीला होती है।

पहले देहात में यात्रा¹ तो अनेक बार देखी थी किन्तु नाटक अधिक नहीं देखे थे। मैंने सारे दिन न नहाया, न खाया और न विश्राम ही किया। स्टेज बनाने में सहायता कर सकने से ही मैं मानो बिल्कुतल कृतार्थ हो गया था। इतना ही नहीं, जो सज्जन राम का अभिनय करने वाले थे, उन्होंने स्वयं मुझसे उस दिन एक रस्सी पकड़े रहने के लिए कहा था। इसलिए मुझे बड़ी आशा थी कि रात्रि में जब लड़के कनात के छेदों में से अन्दर ग्रीन-रूम में ढूँकेंगे और मार तथा लाठी के हूले खायँगे, तब मैं 'श्रीराम' की कृपा से बच जाऊँगा। शायद, वे मुझे देखकर भीतर भी एकाध बार जाने दें। किन्तु हाय रे दुर्भाग्य! सारे दिन जी-जान लगाकर जो परिश्रम किया, संध्यान के बाद उसका कुछ भी पुरस्कार नहीं मिला। घण्टों ग्रीन-रूम के द्वार पर खड़ा रहा, 'रामचन्द्र' कितने ही बार आए और गये; किन्तु, उन्होंने मुझे न पहिचाना। एक बार पूछा भी नहीं कि मैं इस तरह खड़ा क्यों हूँ। हाय रे! अकृतज्ञ राम! क्या रस्सी पकड़वाने का मतलब भी तुम्हारा एकबारगी समाप्त हो गया?

रात्रि के दस बजे नाटक की पहली घण्टी बजी। नितान्त खिन्न चित्त से, सारे व्यापार के प्रति श्रद्धाहीन होकर, परदे के सामने ही एक जगह पर मैंने दख़ल जमाया और वहीं बैठ गया। किन्तु थोड़ी ही देर में सारा रूठना भूल गया। कैसा सुन्दर नाटक था! जीवन में मैंने बहुत-से नाटक देखे हैं, किन्तु वैसा कभी नहीं देखा। मेघनाद स्वयं एक अद्भुत तमाशा था। उसकी छह हाथ ऊँची देह और चार-साढ़े चार हाथ पेट का घेरा था। सभी कहते थे कि यदि यह मर गया तो बैलगाड़ी पर ले जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं। बहुत दिनों की बात हो गयी। मुझे सारी घटना का स्मरण नहीं है। किन्तु इतना स्मरण है, कि उसने उस दिन जो विक्रम दिखाया वह हमारे देस के हारान पलसाई भीम के अभिनय में सागौन की डाल कन्धों पर रखकर दाँत किड़मिड़ाकर भी नहीं दिखा सकते।

ड्रॉप सीन उठा। जान पड़ा- वे लक्ष्मण ही होंगे-थोड़ा-बहुत वीरत्व प्रकाश कर रहे हैं। इसी समय वही मेघनाद कहीं से एक छलाँग मारकर सामने आ धमका। सारा स्टेज चरमराकर काँप उठा, फूट-लाइट के पाँच-छ: गोले उलटकर बुझ गये- और साथ ही साथ उसका खुद का पेट बाँधने का जरी का कमरपट्टा भी तड़ाक से टूट गया! एक हलचल सी मच गयी। उसे बैठ जाने के लिए कई लोग तो भयभीत चीत्कार कर उठे, और कई लोग सीन ड्राप कर देने के लिए चिल्ला उठे- परन्तु बहादुर मेघनाद, किसी की भी किसी बात से, विचलित नहीं हुआ। बाएँ हाथ के धनुष को फेंककर उसने पटलून को थाम लिया और दाहिने हाथ से केवल तीरों से ही युद्ध करना शुरू किया।

धन्य वीर! धन्य वीरत्व! मानता हूँ कि मैंने तरह-तरह के युद्ध देखे हैं किन्तु हाथ में धनुष नहीं, बाएँ हाथ की अवस्था भी युद्ध-क्षेत्र के लिए अनुकूल नहीं-फिर भी केवल दाहिने हाथ और सिर्फ तीरों से लगातार लड़ाई क्या कभी किसी ने देखी है! अन्त में उसी की जीत हुई। शत्रु को भागकर आत्म-रक्षा करनी पड़ी।

आनन्द की सीमा नहीं थी, मग्न होकर देख रहा था और मन ही मन इस विचित्र लड़ाई के लिए उसकी शत-कोटि प्रशंसा कर रहा था। ऐसे ही समय पीठ के ऊपर अंगुली का दबाव पड़ा। मुँह घुमाकर देखा तो इन्द्र।

वह धीरे-से बोला, "बाहर आ श्रीकान्त- जीजी तुझे बुलाती हैं।" बिजली के द्वारा छू जाने के समान मैं सीधा खड़ा हो गया और बोला, "क्हाँ हैं वे?"

"बाहर तो आ, कहता हूँ।" रास्ते पर आने पर वह, सिर्फ 'मेरे साथ चल' कहकर चलने लगा।

गंगा के घाट पर पहुँचकर देखा, उसकी नाव बँधी हुई है- चुपचाप हम दोनों उस पर जा बैठे, इन्द्र ने बन्धन खोल दिया।

फिर उसी अन्धकारपूर्ण जंगल के रास्ते से होते हुए दोनों जने शाहजी की कुटी में जा पहुँचे। उस समय, शायद रात्रि अधिक बाकी नहीं थी।

किरासिन का एक दीपक जलाए जीजी बैठी हुई थीं। उनकी गोद में शाहजी का सिर रक्खा हुआ था और उनके पैरों के पास एक बड़ा लम्बा काला साँप पड़ा था।

जीजी ने कोमल स्वर में सारी घटना संक्षेप में कह सुनाई। आज दोपहर को किसी के घर से साँप पकड़ने का बुलावा आया था। वहाँ इस साँप को पकड़ने में जो इनाम मिला उसने उससे ताड़ी लेकर पी ली और चढ़े नशे में संध्यां के कुछ पहले घर लौट आया। फिर जीजी के बार-बार मना करने पर भी वह उस साँप को खिलाने के लिए उद्यत हुआ और देर तक खिलाता भी रहा। परन्तु अन्त में खेल को समाप्त करने के पहले, जब वह उसे पूँछ पकड़कर हंडी में बन्द करने लगा तब नशे की झोंक में आकर ज्यों ही उसके मुख को अपने मुख के पास लाकर, चुम्बन करके, अपना प्यार प्रकट करने गया, त्यों ही उसने भी अपना प्यार व्यक्त करने को शाहजी के गले पर तीव्र चुम्बन अंकित कर दिया।

जीजी ने अपने मैले ऑंचल के छोर से अपनी ऑंखें पोंछते हुए मुझे लक्ष्य करके कहा, "श्रीकान्त, उसी समय उसे ज्ञात हुआ कि अब समय अधिक नहीं है। तब उन्होंने यह कहकर कि 'आ रे, अब हम दोनों इस दुनिया से एक साथ ही कूच करें' साँप के सिर को पैर के नीचे दबा लिया और दोनों हाथों से उसकी पूँछ खींचकर इतना लम्बा करके फेंक दिया। इसके बाद दोनों का ही 'खेल' समाप्त हो गया!" इतना कहकर उन्होंने, हाथ से अत्यन्त वेदना के साथ, शाहजी के मुख के ऊपर का कपड़ा दूर कर दिया और बहुत सावधानी से उसके नीले होठों को अपने हाथ से स्पर्श करके कहा, "जाने दो, अच्छा ही हुआ इन्द्रनाथ, भगवान को मैं तनिक भी दोष नहीं देती।"

हम दोनों में से किसी से भी बोलते न बन पड़ा। उस कण्ठ-स्वर में जो मर्मान्तिक वेदना, जो प्रार्थना और जो घना अभिमान प्रकाशित हुआ, उसे जिसने सुना उसके लिए, भूल जाना इस जीवन में कभी सम्भव नहीं, किन्तु किसके लिए था यह अभिमान! और प्रार्थना भी किसके लिए?

कुछ देर स्थिर रहकर वे बोलीं, "तुम लोग अभी बच्चे हो, किन्तु, दोनों को छोड़कर मेरा तो कोई और है नहीं भाई; इसीलिए तुमसे भिक्षा माँगती हूँ कि इनका कुछ उपाय कर जाओ!" फिर अंगुली से कुटी के दक्षिण ओर के जंगल को बताकर कहा, "वहाँ पर जगह है। इन्द्रनाथ, बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी कि यदि मैं मर जाऊँ तो उसी जगह जा सोऊँ। सुबह होते ही उसी जगह ले जाकर इन्हें सुला देना। इस जीवन में इन्होंने अनेक कष्ट भोगे हैं- वहाँ कुछ शान्ति पाएँगे।"

इन्द्र ने पूछा, "शाहजी क्या बर में दफनाए जाँयगे!"

जीजी बोलीं, "मुसलमान जब हैं तब क़ब्र में ही दफनाना होगा भाई!"

इन्द्र ने पुन: पूछा, "जीजी, क्या तुम भी मुसलमान हो?"

जीजी बोली, "हाँ, मुसलमान नहीं तो और क्या हूँ?"

उत्तर सुनकर इन्द्र भी मानो कुछ संकुचित और कुण्ठित हो उठा। उसके चेहरे के भाव से अच्छी तरह देख पड़ता था कि इस जवाब की उसने आशा नहीं की थी। जीजी को वह दरअसल चाहता था। इसीलिए मन ही मन वह एक गुप्त आशा पोषण कर रहा था कि उसकी जीजी उसी के समाज की एक स्त्री है। परन्तु मुझे उनके कहने पर विश्वास नहीं हुआ। खुद उनके मुँह से स्वीकारोक्ति सुनकर भी मेरे मन में यह बात न बैठी कि वे हिन्दू-कन्या नहीं हैं।

बाकी रात भी कट गयी। इन्द्र निर्दिष्ट स्थान में जाकर क़ब्र खोद आया और हम तीनों जनों ने ले जाकर शाहजी की मृत देह को समाहित कर दिया। गंगाजी के ठीक ऊपर, कंकरों का एक कगारा, टूटकर, मानो किसी की ठीक अन्तिम शय्या के लिए ही अपने आप यह जगह बन गयी थी। 20-25 हाथ नीचे ही जाद्रवी मैया की धारा थी- और सिर से ऊपर वन्य-लताओं का आच्छादन। किसी प्रिय वस्तु को सावधानी से लुका रखने के लिए मानो यह स्थान बनाया गया था। बड़े ही भाराक्रान्त हृदय से हम तीनों जनें पास ही बैठे- और एक जन हमारी गोद के ही पास मिट्टी के नीचे चिर-निद्रा में अभिभूत होकर सो गया। तब भी सूर्योदय नहीं हुआ था- नीचे से मन्द-स्रोता भागीरथी का कलकल शब्द कानों में आने लगा- सिर के ऊपर, आसपास, वन के पक्षी प्रभाती गाने लगे। कल जो था आज वह नहीं है। कल सुबह क्या यह सोचा था कि आज रात इस तरह बीतेगी? कौन जानता था कि एक मनुष्य का शेष मुहूर्त इतने निकट आ पहुँचा है?

हठात् जीजी उसकी क़ब्र पर लेट गयी और विदीर्ण कण्ठ से चिल्लाकर रो पड़ी, "माँ गंगा, मुझे भी अपने चरणों में स्थान दो, मेरे लिए अब और कहीं जगह नहीं है।" उनकी यह प्रार्थना, वह निवेदन, कितना मर्मान्तिक सत्य था यह उस दिन मैं उतनी तीव्रता से अनुभव नहीं कर सका था जितना कि उसके दो दिन बाद कर सका। इन्द्र ने एक बार मेरी ओर ऑंखें उठाकर देखा, इसके बाद उस आर्त्त-स्वर में कहा, "जीजी, तुम मेरे यहाँ चलो- मेरी माँ अब भी जीती हैं, वे तुम्हें फेंकेंगी नहीं, अपनी गोद में उठा लेंगी। वे प्रेम-मूर्ति हैं, एक बार चलकर तुम सिर्फ उनके सामने खड़ी भर हो जाना। चलो, तुम हिन्दू ही की लड़की हो जीजी, मुसलमानिन किसी तरह भी नहीं!"

जीजी कुछ बोली नहीं, कुछ देर उसी तरह मूर्च्छित-सी पड़ी रहीं और अन्त में उठ बैठीं। इसके बाद उठकर हम तीनों ने गंगा-स्नान किया। जीजी ने हाथ की चूड़ियाँ और सुहाग की कण्ठी तोड़कर गंगा में बहा दी। मिट्टी से मस्तक का सिन्दूर पोंछकर, सद्य-विधवा के वेष में सूर्योदय के साथ ही साथ वे कुटी में लौट आईं।

इतने दिनों बाद पहले-पहल आज उन्होंने कहा कि शाहजी उनका पति था किन्तु, इन्द्र के मन में यह बात अच्छी तरह जमकर बैठती ही नहीं थी। संदिग्ध स्वर से उसने प्रश्न किया, "किन्तु तुम तो हिन्दू की लड़की हो जीजी?"

जीजी बोली, "हाँ, ब्राह्मण की लड़की हूँ और वे भी ब्राह्मण थे।"

इन्द्र कुछ देर अवाक् हो रहा, फिर बोला, "उन्होंने अपनी जात क्यों छोड़ दी?"

जीजी बोली, "सो बात मैं अच्छी तरह नहीं जानती भाई। किन्तु जब उन्होंने अपनी जात खो दी, तो उसके साथ मेरी भी खो गयी। स्त्री सहधर्मिणी जो है! नहीं तो वैसे मैंने अपने हाथों अपनी जाति भी नहीं छोड़ी- और किसी दिन किसी तरह का अनाचार भी नहीं किया।"

इन्द्र गाढ़े स्वर में बोला, "सो तो मैं देखता हूँ जीजी! इसीलिए तो जब तब मेरे मन में यही बात आती रही है, मुझे माफ करना जीजी- तुम कैसे यहाँ आ पड़ीं, तुम्हारी किस तरह ऐसी दुर्बुद्धि हुई। परन्तु अब मैं तुम्हारी कोई बात नहीं मानूँगा, मेरे घर तुम्हें चलना ही पड़ेगा। चलो, इसी वक्त चलो।"

जीजी देर तक चुपचाप मानो कुछ सोचती रहीं, फिर मुँह उठाकर धीरे-धीरे बोलीं, "अभी मैं कहीं भी जा न सकूँगी, इन्द्रनाथ।"

"क्यों नहीं जा सकोगी जीजी?"

जीजी बोलीं, "मुझे मालूम है कि वे कुछ 'देना' कर गये हैं। जब तक उसे चुका न दूँ, तब तक मैं कहीं हिल नहीं सकती।"

इन्द्र हठात् क्रुद्ध हो उठा, बोला, "सो तो मैं भी जानता हूँ। ताड़ी की दुकान का, गाँजे की दुकान का ज़रूर कुछ देना होगा; किन्तु इससे तुम्हें क्या? किसकी ताकत है कि तुमसे रुपया माँगे? चलो तुम मेरे साथ, देखूँ कौन रोकता है तुम्हें?"

इतने दु:ख में भी जीजी को कुछ हँसी आ गयी। बोलीं, "अरे पागल, मुझे रोकने वाला मेरा खुद का ही धर्म है। पति का ऋण मेरा खुद का ही ऋण है और उन लेने वालों को तुम किस तरह रोक सकोगे भाई? यह नहीं हो सकता। आज तुम लोग घर जाओ- मेरे पास जो कुछ थोड़ा-बहुत है, उसे बेच-बाच कर कर्ज़ चुकाने की कोशिश करूँगी। कल-परसों फिर किसी दिन आना।"

इतनी देर मैं चुपचाप ही था। इस बार बोला, "जीजी, मेरे पास घर में और भी चार-पाँच रुपये पड़े हैं- ले आऊँ क्या?" बात पूरी भी न होने पाई थी कि वे उठकर खड़ी हो गयी और छोटे बच्चे की तरह मुझे अपनी छाती से लगाकर, मेरे मस्तक पर अपने होंठ छुआकर, मेरे मुँह की ओर प्रेम से देखती हुई बोलीं, "नहीं भइया, और लाने को ज़रूरत नहीं है। उस दिन तुम पाँच रुपये रख गये थे, तुम्हारी वह दया मैं मरने तक याद रखूँगी, भइया! आशीर्वाद दिये जाती हूँ कि भगवान सदा तुम्हारे हृदय के भीतर बसें और इसी तरह दुखियों के लिए ऑंसू बहाते रहें।" बोलते-बोलते ही उनकी ऑंखों से झर-झर नीर झरने लगा।

क़रीब आठ-नौ बजे हम घर जाने को तैयार हुए। उस दिन वे साथ-साथ रास्ते तक पहुँचाने आयीं। जाते समय इन्द्र का एक-हाथ पकड़कर बोलीं, "इन्द्रनाथ, श्रीकान्त को तो आशीर्वाद दे दिया, किन्तु तुम्हें आशीर्वाद देने का साहस मुझ में नहीं है। तुम मनुष्य के आशीर्वाद के परे हो। इसलिए मैंने आज मन ही मन तुम्हें भगवान के श्रीचरणों में सौंप दिया है। वे तुम्हें अपना लें।"

इन्द्र को उन्होंने पहिचान लिया था। रोकते हुए भी इन्द्र ने उनके पैरों की धूलि सिर पर लेकर प्रणाम किया और रोते-रोते कहा, "जीजी, इस जंगल में तुम्हें अकेली छोड़ जाने को मेरा किसी तरह साहस नहीं होता। मन में न जाने क्यों, ऐसा लगता है कि मैं तुम्हें और न देख पाऊँगा!"

जीजी ने उनका कुछ जवाब नहीं दिया, सहसा मुँह फेरकर ऑंखें पोंछती हुईं वे उसी वन-पथ से अपनी शोक से ढँकी हुई उस शून्य कुटी में लौट गयीं। जहाँ तक दिखाई देती रहीं वहाँ तक मैं उनकी ओर देखता रहा। किन्तु उन्होंने एक बार भी लौटकर नहीं देखा-उसी तरह, मस्तक नीचा किये, एक ही भाव से चलती हुई वे दृष्टि से ओझल हो गयीं और तब, उन्होंने लौटकर क्यों नहीं देखा, इसे मन ही मन हम दोनों ही जनों ने अनुभव किया।

तीन दिन बाद स्कूल की छुट्टी होते ही बाहर आकर देखा कि इन्द्रनाथ फाटक के बाहर खड़ा है। उसका मुँह अत्यन्त शुष्क हो रहा था, पैरों में जूते नहीं थे और वे घुटनों तक धूल में भरे हुए थे। उस अत्यन्त दीन चेहरे को देखकर मैं भयभीत हो गया। वह बड़े आदमी का लड़का था और साधारणतया बाहर से कुछ शौकीन भी था। ऐसी अवस्था में मैंने उसको कभी नहीं देखा था और मैं समझता हूँ कि और किसी ने भी न देखा होगा। इशारा करके मुझे मैदान की ओर ले जाकर उसने कहा, "जीजी नहीं हैं। कहीं चली गयीं। मेरे मुँह की ओर उसने ऑंख उठाकर भी नहीं देखा। बोला, "कल से कितनी जगह जाकर मैं खोज आया हूँ, परन्तु कहीं वे नहीं दिखाई दीं। तेरे लिए वे एक चिट्ठी लिखकर रख गयी हैं; यह ले।" इतना कहकर एक मुड़ा हुआ पीला काग़ज़ मेरे हाथ में थमाकर वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ दूसरी ओर चल दिया। जान पड़ा कि हृदय उसका इतना पीड़ित, इतना शोकातुर हो रहा था कि किसी के साथ आलोचना करना उसके लिए असाध्यक था।

उसी जगह मैं धम से बैठ गया और घड़ी खोलकर उस काग़ज़ को मैंने अपनी ऑंखों के सामने रखा। उसमें जो कुछ लिखा था, इतने समय बाद, यद्यपि वह सब याद नहीं रहा है फिर भी बहुत-सी बातें याद कर सकता हूँ- लिखा था, "श्रीकान्त, जाते समय मैं तुम लोगों को आशीर्वाद दिए जाती हूँ। केवल आज ही नहीं, जितने दिन जीऊँगी तुम्हें आशीर्वाद देती रहूँगी। किन्तु मेरे लिए तुम दु:ख मत करना। इन्द्रनाथ मुझे ढूँढ़ता फिरेगा, यह मैं जानती हूँ; किन्तु तुम उसे समझाकर रोकना। मेरी सब बातें तुम आज ही नहीं समझ सकोगे; किन्तु, बड़े होने पर एक दिन अवश्य समझोगे, इस आशा से यह पत्र लिखे जा रही हूँ। अपनी कहानी अपने ही मुँह से तुमसे कह जा सकती थी, परन्तु, न जाने क्यों, नहीं कह सकी; कहूँ-कहूँ सोचते हुए भी न जाने क्यों चुप रह गयी। परन्तु, यदि आज न कह सकी तो फिर कभी कहने का मौक़ा न मिलेगा।

"मेरी कहानी सिर्फ मेरी कहानी ही नहीं है भाई- मेरे स्वामी की कहानी भी है। और फिर, वह भी कुछ अच्छी कहानी नहीं है। मेरे इस जन्म के पाप कितने हैं, सो तो मैं नहीं जानती; किन्तु पूर्व जन्म के संचित पापों की कोई सीमा-परिसीमा नहीं, इसमें जरा भी सन्देह नहीं। इसीलिए, जब-जब मैंने कहना चाहा है तब-तब मेरे मन में यही आया है कि स्त्री होकर, अपने मुँह से, पति की निन्दा करके, उस पाप के बोझ को और भी भाराक्रान्त नहीं करूँगी। किन्तु, अब वे परलोक चले गये। और परलोक चले गये इसलिए उसके कहने में कोई दोष नहीं है, यह मैं नहीं मानती। फिर भी, न जाने क्यों, अपनी इस अन्तविहीन दु:ख-कथा को तुम्हें जनाए बगैर, मैं किसी तरह भी विदा लेने में समर्थ नहीं हो रही हूँ।

"श्रीकान्त, तुम्हारी इस दु:खिनी जीजी का नाम अन्नदा है। पति का नाम क्यों छिपा रही हूँ, इसका कारण, इस लेख को, शेष पर्यन्त पढ़ने के बाद, मालूम होगा।

"मेरे पिता बड़े आदमी हैं। उनके कोई लड़का नहीं है। हम सिर्फ दो बहनें थीं। इसीलिए, मेरे पिता ने मेरे पति को एक दरिद्र के घर से लाकर, अपने पास रखकर, पढ़ा-लिखाकर 'आदमी' बनाना चाहा था। वे उन्हें पढ़ा-लिखा तो अवश्य सके, किन्तु 'आदमी' नहीं बना सके। मेरी बड़ी बहन विधवा होकर घर ही रहती थी- उसी की हत्या करके वे एक दिन लापता हो गये। यह दुष्ट कर्म उन्होंने क्यों किया, इसका हेतु, तुम अभी बच्चे हो, इसलिए न समझ सकोगे, फिर भी किसी दिन जान लोगे। पर कहो तो श्रीकान्त, यह दु:ख कितना बड़ा है? यह लज्जा कितनी मर्मान्तिक है? फिर भी तुम्हारी जीजी ने सब कुछ सह लिया। किन्तु पति बनकर जिस अपमान की अग्नि को उन्होंने अपनी स्त्री के हृदय में जला दिया था उस ज्वाला को तुम्हारी जीजी आज तक भी बुझा नहीं सकी। पर जाने दो उस बात को-

"उक्त घटना के सात वर्ष के बाद मैं उन्हें फिर देख पाई। जिस वेश में तुमनें उन्हें देखा था उसी वेश में वे हमारे घर के सामने साँप का खेल दिखा रहे थे। उन्हें और कोई तो नहीं पहिचान सका, किन्तु मैंने पहिचान लिया। मेरी ऑंखों को वे धोखा नहीं दे सके। सुना है कि यह दु:साहस उन्होंने मेरे लिए ही किया था। परन्तु यह झूठ है! फिर भी, एक दिन गहरी रात में, खिड़की का द्वार खोलकर मैंने पति के लिए ही गृह-त्याग कर दिया। किन्तु सबने यही सुना, यही जाना कि अन्नदा कुल को कलंक लगाकर घर से निकल गयी।

"यह कलंक का बोझा मुझे हमेशा ही अपने ऊपर लादे फिरना होगा। कोई उपाय नहीं है क्योंकि, पति के जीवित रहते तो अपने आपको प्रकट नहीं कर सकी-पिता को पहचानती थी; वे कभी, किसी तरह भी, अपनी संतान की हत्या करने वाले को क्षमा नहीं कर सकते। किन्तु आज यद्यपि वह भय नहीं है- आज जाकर यह सब हाल उनसे कह सकती हूँ, किन्तु इस पर, इतने दिनों बाद, कौन विश्वास करेगा? इसलिए पितृ-गृह में मेरे लिए अब कोई स्थान नहीं है। और फिर, अब मैं मुसलमानिन हूँ।

"यहाँ पर जो पति का कर्ज़ था वह सब चुक गया है। मैंने अपने पास सोने की दो बालियाँ छिपाकर रख छोड़ी थीं, उन्हें आज बेच दिया है। तुम जो पाँच रुपये एक दिन रख गये थे उन्हें मैंने खर्च नहीं किया। बड़े रास्ते के मोड़ पर जो मोदी की दुकान है, उसके मालिक के पास उन्हें रख दिया है- माँगते ही वे तुम्हें मिल जाँयगे। मन में दु:ख मत करना भइया! ये रुपये तो अवश्य मैंने लौटा दिए हैं, किन्तु तुम्हारे उस कच्चे कोमल छाटे-से हृदय को मैं अपने हृदय में रखे लिए जाती हूँ। और तुम्हारी जीजी का यह एक आदेश है श्रीकान्त, कि तुम लोग मेरी याद करके अपना मन ख़राब न करना। समझ लेना कि तुम्हारी जीजी जहाँ कहीं भी रहेगी अच्छी ही रहेगी। क्योंकि दु:ख सहन करते-करते उसकी यह दशा हो गयी है, कि उसके शरीर पर अब किसी भी दु:ख का असर नहीं होता। किसी तरह भी उसे व्यथा नहीं पहुँच सकती। मेरे दोनों भाइयों, तुम्हें मैं क्या कहकर आशीर्वाद दूँ, सो मैं ढूँढकर भी नहीं पा सकती हूँ। इसीलिए, केवल यही कहे जाती हूँ कि, भगवान-यदि पतिव्रता स्त्री की बात रखते हैं तो, वे तुम लोगों की मैत्री चिरकाल के लिए अक्षय करेंगे। -तुम्हारी जीजी, अन्नदा।"

श्रीकांत उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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