श्रीकांत उपन्यास भाग-9

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कलकत्ते के घाट पर जहाज़ जा भिड़ा देखा, जेटी के ऊपर बंकू खड़ा है। वह सीढ़ी से चटपट ऊपर चढ़ आया और ज़मीन पर सिर टेक प्रणाम करके बोला, "माँ रास्ते पर गाड़ी में राह देख रही हैं। आप नीचे जाइए, मैं सामान लेकर पीछे आता हूँ।"

बाहर आते ही और भी एक आदमी झुककर पैर छूकर खड़ा हो गया। मैंने कहा, "अरे रतन कहो, अच्छे तो हो?"

रतन कुछ हँसकर बोला, "आपके आशीर्वाद से। आइए।" यह कहकर उसने रास्ता दिखाते हुए गाड़ी के समीप लाकर दरवाज़ा खोल दिया। राजलक्ष्मी बोली, "आइए, और रतन, तुम लोग एक और गाड़ी करके पीछे से आ जाना दो बज रहे हैं, अभी तक इन्होंने नहाया-खाया भी नहीं, हम लोग डेरे पर चलते हैं। गाड़ी हाँकने को कह दे।" मैं गाड़ी पर बैठ गया। रतन ने 'जी, अच्छा' कहकर गाड़ी का दरवाज़ा बन्द कर दिया और गाड़ीवान को हाँकने के लिए इशारा कर दिया। राजलक्ष्मी ने झुककर पद-धूलि ली और कहा, "जहाज़ में कष्ट तो नहीं हुआ?"

"नहीं।"

"तबीयत बहुत ख़राब हो गयी थी क्या?"

"तबीयत ख़राब तो ज़रूर हो गयी थी, परन्तु बहुत नहीं। किन्तु तुम भी तो स्वस्थ नहीं दीख पड़तीं। घर से कब आईं?"

"परसों। अभया के द्वारा तुम्हारे आने की खबर पाते ही हम लोग घर से चल दिये। आना तो था ही, इसलिए दो दिन पहले ही चले आए। यहाँ पर तुम्हें कितना काम करना है, मालूम है?"

मैं बोला, "काम की बात फिर होगी- किन्तु तुम ऐसी क्यों दिखाई दे रही हो? तुम्हें क्या हुआ था?"

राजलक्ष्मी हँस दी। इस हँसी को देखकर ही आज खयाल आया कि न जाने कितने दिनों से यह हँसी नहीं देखी और साथ ही एक कितनी बड़ी अदम्य इच्छा को उस समय चुपचाप दमन कर डाला, सो उस अन्तर्यामी के सिवाय और किसी ने नहीं जाना। किन्तु, दीर्घ श्वास को मैं उससे छिपा नहीं सका। उसने विस्मित की तरह क्षण-भर तक मेरी तरफ ताकते रहकर फिर हँसकर पूछा, "कैसी दिख पड़ती हूँ मैं-बीमार?"

एकाएक इस प्रश्न का उत्तर न दे सका। बीमार? हाँ, कुछ बीमार-सी जान पड़ती है। किन्तु नहीं, यह कुछ भी नहीं है। खयाल हुआ, मानो वह कितने ही देश-विदेश पैदल चलकर, तीर्थाटन करके, उसी समय लौट आई है- ऐसी मुरझाई-सी, ऐसी थकी-सी। अपना भार आप वहन करने की जैसे उसमें शक्ति ही नहीं है प्रवृत्ति भी नहीं है- इस समय वह केवल निश्चिन्त, निर्भय होकर ऑंखें मूँदकर सोने की जरा-सी जगह ढूँढ़ रही है। मुझे निरुत्तर देखकर बोली, "क्यों, कहते क्यों नहीं?"

मैंने कहा, "मत कहलवाओ।"

राजलक्ष्मी बच्चों की तरह ज़ोर से सिर हिलाकर बोली, "नहीं, कहना ही होगा। लोग तो कहते हैं कि देखने में बिल्कु।ल बदसूरत हो गयी हूँ। यह सच है?"

मैंने गम्भीर होकर कहा, "हाँ सच है।"

राजलक्ष्मी हँस पड़ी, बोली, "तुम आदमी को इस क़दर अप्रतिभ कर देते हो कि बस-अच्छा, इसमें बुरा क्या है? अच्छा ही तो है! सुन्दरता लेकर अब मैं करूँगी क्या? तुम्हारे साथ मेरा सुन्दर-असुन्दर का-अच्छी-बुरी दीख पड़ने का तो सम्बन्ध है नहीं, जो मैं इसकी चिन्ता में मर जाऊँ!"

मैंने कहा, "सो तो ठीक है, चिन्ता में मरने का कोई कारण नहीं है। एक तो लोग यह बात तुमसे कहते नहीं, इसके सिवाय, यदि वे कहें भी तो तुम विश्वास करने वाली नहीं। मन ही मन समझती तो हो कि..."

राजलक्ष्मी गुस्से से बोल उठी, "तुम अन्तर्यामी जो हो कि सबके मन की बात जानते हो। मैं कभी यह बात नहीं सोचती। तुम खुद ही सच-सच कहो, जब वहाँ शिकार करने गये थे तब तुमने जैसा देखा था, अब भी क्या मैं वैसी रही हूँ? तब से तो कितनी बदसूरत हो गयी हूँ।"

मैंने कहा, "नहीं, बल्कि तबसे अच्छी दीख पड़ती हो।"

राजलक्ष्मी ने पल-भल में खिड़की के बाहर मुँह फेरकर अपना हँसता हुआ चेहरा शायद मेरी मुग्ध दृष्टि की ओर से हटा लिया और कोई उत्तर न देखकर चुप्पी साध ली। कुछ देर बाद परिहास के सब निशान अपने चेहरे पर से दूर करके उसने अपना चेहरा फिर इस ओर फेर लिया और पूछा, "तुम्हें क्या बुखार आ गया था? उस देश का हवा-पानी माफिक नहीं आता?"

मैंने कहा, "न आवे तो उपाय ही क्या है? जैसे बने वैसे माफिक ही कर लेना पड़ता है।" मैं मन ही मन निश्चिन्त रूप से जानता था कि राजलक्ष्मी इस बात का क्या उत्तर देगी। क्योंकि, जिस देश का जल-वायु आज तक अपना नहीं हो सका, किसी सुदूर भविष्य में भी उसे अपने अनुकूल कर लेने की आशा के भरोसे वह किसी तरह भी मेरे लौट जाने पर सम्मत नहीं होगी, बल्कि घोर आपत्ति उठाकर रुकावट डालेगी-यही मेरा खयाल था। किन्तु, ऐसा नहीं हुआ। वह क्षण-भर मौन रहकर कोमल-स्वर से बोली, "सो सच है। इसके सिवाय, वहाँ पर और भी तो बहुत-से बंगाली रहते हैं। उन्हें जब माफिक आता है तब तुम्हें ही क्यों न माफिक आवेगा? क्या कहते हो?" मेरे स्वास्थ्य के सम्बन्ध में उसकी इस प्रकार की उद्वेगहीनता ने मुझे चोट पहुँचाई। इसीलिए, केवल एक इशारे-भर से 'हाँ' कहकर चुप हो गया। एक बात मैं बार-बार सोचता था कि अपनी प्लेग की कथा किस रूप में राजलक्ष्मी के कानों पर डालूँ। सुदूर प्रवास में जिस समय मेरे दिन जीवन-मृत्यु के सन्धि-स्थल में बीत रहे थे उस समय के हजारों तरह के दु:खों का वर्णन सुनते-सुनते उसके हृदय के भीतर कैसा तूफ़ान उठेगा! दोनों नेत्रों को प्लावित करके कैसे ऑंसुओं की धारा बह निकलेगी। कह नहीं सकता कि इसे कितने रसों और कितने रंगों से भरकर मैं कल्पना के नेत्रों से दिन-प्रतिदिन देखता रहा हूँ। इस समय इसी कल्पना ने मुझे सबसे अधिक लज्जित किया; सोचा-छि:-छि: सौभाग्य से कोई किसी के मन की बात नहीं जानता। नहीं तो- परन्तु जाने दो उस बात को। मन ही मन कहा, और चाहे जो करूँ, अपनी उस मरने-जीने की कहानी इससे न कहूँगा।

बहूबाज़ार के डेरे पर आ पहुँचा। राजलक्ष्मी ने हाथ दिखाकर कहा, "यह जीना है, तुम्हारा कमरा तीसरे मंज़िल पर है। जरा जाकर सो रहो, मैं जाती हूँ।" यह कहकर वह अपने रसोई-घर की ओर चल दी।

कमरे में घुसते ही देखा कि कमरा मेरे ही लिए सजाया गया है। प्यारी पटने के मकान से मेरी किताबें, और मेरा हुक़्क़ा तक लाना नहीं भूली है। सूर्यास्त का एक कीमती चित्र मुझे बहुत पसन्द था। वहाँ पर उसने उसे अपने कमरे में से निकालकर मेरे सोने के कमरे में टाँग दिया था। उस चित्र तक को वह कलकत्ते अपने साथ लाई है और ठीक उसी तरह उसी दीवाल पर टाँग दिया है। मेरे लिखने-पढ़ने का साज-सरंजाम, मेरे कपड़े, मेरी लाल मखमली चट्टियाँ, ठीक उसी तरह यत्नपूर्वक सजाकर रक्खी हुई हैं। वहाँ एक आराम-कुर्सी मैं सदा ही व्यवहार में लाता था। उसे शायद लाना सम्भव नहीं हुआ, इसीलिए, उसी तरह की एक नयी कुर्सी खिड़की के समीप रक्खी हुई है। धीरे-धीरे जाकर मैं उसी के ऊपर ऑंखें मूँदकर लेट गया। जान पड़ा, जैसे भाटे की नदी में ज्वार के जलोच्छ्वास का शब्द मुहाने के निकट फिर सुनाई दे रहा है। नहा-खाकर थकावट के मारे दिन-दोपहर को ही सो गया। नींद टूटते ही देखा-पश्चिम की ओर की खिड़की से शाम की धूप मेरे पैरों के समीप आकर पड़ रही है और प्यारी एक हाथ के बल मेरे मुँह पर झुकी हुई दूसरे हाथ से ऑंचल के छोर से सिर, कन्धे और छाती पर का पसीना पोंछ रही है। बोली, "पसीने से तकिये और बिछौने भीग गये हैं। पश्चिम की ओर खुला होने से यह कमरा बड़ा गरम है। कल दूसरे मंज़िल पर अपने पास के कमरे में ही तुम्हारे बिस्तर कर दूँगी।" यह कहकर मेरी छाती के बिल्कुहल निकट बैठकर पंखा उठाकर हवा करने लगी। रतन ने कमरे में आकर पूछा, "माँ, बाबू के लिए चाय ले आऊँ?"

"हाँ, ले आ। और बंकू यदि मकान में हो तो उसे जरा भेज देना।" मैंने फिर अपनी ऑंखें बन्द कर लीं। थोड़ी ही देर बाद बाहर से चट्टियों की आवाज़ सुन पड़ी। प्यारी ने पुकारकर कहा, "कौन, बंकू? "जरा इधर तो आ।"

उसके पैरों के शब्द से मालूम हुआ कि उसने अतिशय संकुचित भाव से अन्दर प्रवेश किया है। प्यारी उसी तरह पंखा झलते बोली, "जरा कागज-पेन्सिल लेकर बैठ जा। क्या-क्या लाना है, उसकी फेहरिस्त बनाकर दरबान के साथ जरा बाज़ार जा बेटा, घर में कुछ है नहीं।"

मैंने देखा, यह एक बिल्कु'ल नया वाकया है। बीमारी की बात अलहदा पर उसे छोड़कर इसके पहले किसी दिन मेरे बिछौने के इतने समीप बैठकर उसने हवा तक नहीं की थी। किन्तु यह भी, न हो तो, मैं एक दिन सम्भव मान सकता। किन्तु, यह जो उसने रंच-मात्र भी दुविधा नहीं की, सब नौकर-चाकरों के, यहाँ तक कि बंकू के सामने भी दर्प के साथ अपने आपको प्रकट कर दिया- इसके अपूर्व सौन्दर्य ने मुझे अभिभूत कर डाला। मुझे उस दिन की बात याद आ गयी जिस दिन पटने के मकान से मुझे इसलिए बिदा लेनी पड़ी थी कि यह बंकू ही कुछ और खयाल न करने लगे। उस दिन के साथ आज के आचरण में कितना अन्तर है।

चीज-बस्त की फेहरिस्त बनाकर बंकू चला गया। रतन भी चाय-तमाखू देकर नीचे चला गया। प्यारी कुछ देर चुपचाप मेरे मुँह की ओर निहारती रही; फिर एकाएक बोली, "तुमसे मैं एक बात पूछती हूँ- अच्छा, रोहिणी बाबू और अभया में से किसका प्यार अधिक है, बता सकते हो?"

मैंने हँसकर कहा, "जो तुम पर पूरी तरह हावी हो गयी है, निश्चय से उस अभया का ही प्यार अधिक है।"

राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी, बोली, "यह तुमने कैसे जाना कि वह मुझ पर हावी हो गयी है?"

मैंने कहा, "चाहे जैसे जाना हो, पर बात सच है या नहीं, यह बताओ?"

राजलक्ष्मी क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, "सो जैसे भी हो, किन्तु, अधिक प्यार तो रोहिणी बाबू ही करते हैं। दरअसल वे इतना प्यार करते थे, इसीलिए उन्होंने इतना बड़ा दु:ख अपने सिर पर उठा लिया। अन्यथा यह उनका कोई अवश्य कर्त्तव्य तो था नहीं। उनकी अभया को कितना सा स्वार्थ-त्याग करना पड़ा?"

उसके सवाल को सुनकर मैं सचमुच ही विस्मित हो गया। मैं बोला, बल्कि मैं तो ठीक इससे उलटा देखता हूँ। और उस हिसाब से जो कुछ कठिन दु:ख-भोग और त्याग है, वह सब अभया को ही करना पड़ा है। तुम इस अभ्रान्त सत्य को क्यों भूली जाती हो कि रोहिणी बाबू चाहे जो करें, समाज की नजरों में आखिर वे मर्द हैं।

राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा, "मैं कुछ भी नहीं भूलती। उन्हें मर्द बतलाकर सहज में बच निकलने के जिस मौके की ओर तुम इशारा कर रहे हो वह अत्यन्त क्षुद्र और अधम पुरुषों के लिए है- रोहिणी बाबू सरीखे मनुष्य के लिए नहीं। शौक़ पूरा हो गया, अथवा कुछ सार न रहा, तो छोड़-छाड़कर फेंककर भाग सकते हैं और घर लौटकर फिर गण्य-मान्य भद्र मनुष्यों की तरह जीवन-यात्रा कर सकते हैं- यही न कहते हो? कर सकते हैं-ठीक है; किन्तु, क्या सभी कर सकते हैं? तुम कर सकते हो? तब, जो नहीं कर सकता उसके बोझ के वजन को तो जरा सोच देखो। उसे अपना निन्दित जीवन मकान के निराले कोने में काट डालने का भी सुभीता नहीं। उसे तो संसार के बीच द्वन्द्व-युद्ध में उतर आना होगा, अविचार और अपयश का बोझा चुपचाप अकेले ही वहन करना पड़ेगा। अपने एकान्त-स्नेह की पात्री को- भावी सन्तान की जननी को समाज के सारे अपमानों और अकल्याणों से बचाकर रखना होगा। तुम क्या इसे मामूली कष्ट समझते हो? और, सबसे बढ़कर दु:ख यह है कि जो अनायास ही इस दु:ख के बोझे को उतारकर खिसक सकता है, सर्वनाशी विकट प्रलोभन से अपने आपको रात-दिन बचाकर चलने का गुरुभार भी उसको ही लिये घूमना पड़ता है। दु:ख के तराजू में इस आत्मोत्सर्ग के साथ समतौलता बनाए रखने के लिए जिस प्रेम की ज़रूरत है, उसे यदि पुरुष अपने भीतर से बाहर न प्रकट कर सके, तो किसी भी स्त्री के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह उसे पूरा कर सके।"

इस बात को इस पहलू से, इस तरह, कभी सोचकर नहीं देखा था। रोहिणी का वह सीधा-सादा गुमसुम भाव और उसके बाद, अभया जब अपने पति के घर चली गयी तब उसके उसी शान्त मुखमण्डल के ऊपर अपरिसीम वेदना को चुपचाप सहन करने का जो चित्र मैंने अपनी ऑंखों देखा था, वही पल-भर में ज्यों का त्यों, प्रत्येक रेखा सहित मेरे मन में खिंच गया। किन्तु, मुँह से मैंने कहा, "चिट्ठी में तो तुमने सिर्फ अभया के लिए ही पुष्पांजलि भेजी थी।"

राजलक्ष्मी बोली, "उनका जो प्राप्त है वह आज भी उन्हें ही देती हूँ। क्योंकि, मेरा विश्वास है कि जो भी पाप या अपराध था उसने उनके आन्तरिक तेज से जलकर उन्हें शुद्ध-निर्मल कर दिया है। यदि ऐसा न होता, तो आज वे बिल्कुकल साधारण स्त्रियों के समान ही तुच्छ-हीन हो जाती।"

"हीन क्यों?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "खूब! पति-परित्याग के पाप की भी कोई सीमा है? उस पाप को ध्वंहस करने योग्य आग उनमें न होती तो आज वे..."

मैंने कहा, "आग की बात जाने दो। किन्तु उनका पति कैसा नष्ट है, सो तो एक दफे सोच देखो।"

राजलक्ष्मी बोली, "पुरुष जाति चिरकाल से ही उच्छृंखल रही है- चिरकाल से ही कुछ-कुछ अत्याचारी भी रही है; किन्तु, इसीलिए तो स्त्री के पक्ष में भाग खड़े होने की युक्ति काम नहीं दे सकती। स्त्री-जाति को सहन करना ही होगा; नहीं तो संसार नहीं चल सकता।"

बात सुनकर मेरे सारे विचार गड़बड़ा गये। मन ही मन बोला, "यह स्त्रियों का वही सनातन दासत्व का संस्कार है! कुछ असहिष्णु होकर पूछा, "तो फिर अभी तक तुम 'आग आग, क्या बक रही थीं?"

राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, "क्या बक रही थी, सुनोगे? आज ही दो घण्टे पहले पटने के ठिकाने पर लिखी हुई अभया की चिट्ठी मिली है। आग क्या है, जानते हो? उस दिन 'प्लेग' कहकर जब तुम उनकी तुरंत की जमाई गिरस्ती के द्वार पर जा खड़े हुए तब जिस वस्तु ने तुम्हें निर्भयता से बिना किसी सोच-विचार के भीतर बुला लिया, मैं उसी को कहती हूँ उनकी 'आग'। उस समय उन्हें अपने सुख का खयाल नहीं था। जो तेज मनुष्य को कर्त्तव्य समझकर सामने की ओर ही ढकेलता है, दुविधा से पीछे नहीं हटने देता, अब तक मैं उसी को 'आग-आग' कह रही थी। आग का एक नाम 'सर्वभुक्' है, सो क्या तुम नहीं जानते? वह सुख और दु:ख- दोनों को खींच लेती है, उसे किसी तरह का भेद-विचार नहीं होता। उन्होंने एक और बात क्या लिखी है, जानते हो? वे रोहिणी बाबू को सार्थक कर देना चाहती हैं। क्योंकि उनका विश्वास है कि केवल अपने जीवन की सार्थकता के भीतर से ही संसार में दूसरे के जीवन में सार्थकता पहुँचाई जा सकती है; और व्यर्थता से सिर्फ अकेला ही जीवन व्यर्थ नहीं होता- वह अपने साथ और भी अनेक जीवनों को जुदा-जुदा दिशाओं से व्यर्थ करके व्यर्थ हो जाता है। बिल्कुनल सच है न?" इतना कहकर वह एकाएक श्वास छोड़कर चुप हो रही। इसके बाद हम दोनों ही बहुत देर तक मौन रहे। जान पड़ता है, कहने को कुछ न होने के कारण ही अब वह मेरे सिर के रूखे बालों को अपनी अंगुलियों से व्यर्थ ही इधर-उधर विपर्यस्त करने लगी। उसका यह आचरण भी बिल्कु'ल नया था। सहसा बोली, "वे खूब शिक्षिता हैं न? नहीं तो, इतनी तेजस्विता नहीं होती।"

मैंने कहा, "हाँ, दरअसल वे एक शिक्षिता रमणी हैं।"

राजलक्ष्मी बोली, "किन्तु, एक बात उन्होंने मुझसे छिपाई है। माँ होने के लोभ को वे चिट्ठी के अन्दर बार-बार दबा गयी हैं।"

मैंने कहा, "क्या उन्हें यह लोभ है? कहाँ, मैं तो नहीं सुना?"

राजलक्ष्मी बोल उठी, "जाओ,- यह लोभ भला किस स्त्री को नहीं है? किन्तु क्या इसलिए उसे मर्दों से कहते फिरना चाहिए? तुम तो खूब हो!" मैंने कहा, "तो फिर तुम्हें भी है, क्या?"

"जाओ!" कहकर वह अकस्मात् लज्जा से लाल हो गयी और दूसरे ही क्षण अपने आरक्त मुख को छिपाने के लिए बिछौने पर झुक गयी। उसी समय अस्तोन्मुख सूर्य की किरणों ने पश्चिम की खुली हुई खिड़की से प्रवेश किया था। वह आरक्त आभा उसके मेघ के समान काले केशों पर विचित्र शोभा के साथ बिखर गयी। और, कानों के हीरे के दोनों लटकनों में नाना वर्णों की द्युति झिलमिल करती हुई खेलने लगी। क्षण-भर बाद ही अपने आपको सँभालकर और सीधे बैठकर उसने कहा, "क्यों, क्या मेरे लड़के-बच्चे नहीं हैं जो लोभ होगा, लड़कियों का ब्याह कर चुकी हूँ, लड़के को ब्याहने आई हूँ,- एक-दो नाती-पोते हो जाँयगे, उनको लेकर सुख-स्वच्छता से रहूँगी,- मुझे अभाव किस बात का है?"

मैं चुप हो रहा। इस बात को लेकर बहस करने की प्रवृत्ति नहीं हुई।

रात को राजलक्ष्मी ने कहा, "बंकू के ब्याह के लिए तो अब भी दस-बारह दिन की देर है; चलो न काशी चलें, तुम्हें अपने गुरुजी को दिखा लाऊँ।"

मैंने हँसकर कहा, "मैं क्या कोई नुमाइशी चीज़ हूँ?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "यह सोचने का भार जो लोग देखते उन पर है, तुम पर नहीं।"

मैंने कहा, "ऐसे ही सही, परन्तु, इससे मुझे ही क्या लाभ और तुम्हारे गुरुदेव को भी क्या लाभ होगा?"

राजलक्ष्मी ने गम्भीर होकर कहा, "लाभ तुम लोगों को नहीं है, किन्तु मुझे है न हो, तो केवल मेरे लिए ही चले चलो।"

इसलिए मैं राजी हो गया। आगे बहुत समय तक लग्न न थी, इसीलिए उस समय जैसे चारों ओर से विवाहों की बाढ़ आ गयी थी। जब तक बैण्ड का कार्नेट और बैग-पाइप की बाँसुरी विविध तरह के वाद्य-भाडों के सहयोग से मनुष्य को पागल बना डालने की तजवीज कर रही थी। हम लोगों की स्टेशन-यात्रा के समय भी इस तरह की कुछ उत्तम आवाजों की झड़ प्रचण्ड वेग से बह गयी। वेग के कुछ कम हो जाने पर राजलक्ष्मी ने सहसा प्रश्न किया, अच्छा, तुम्हारे मत से यदि सभी लोग चलने लगें, तो फिर ग़रीबों का विवाह ही न हो और घर-गिरस्ती भी न बने। तब फिर सृष्टि कैसे रहे?"

उसकी असाधारण गम्भीरता देखकर मैं हँस पड़ा। बोला, "सृष्टि-रक्षा के लिए चिन्ता करने की तुम्हें जरा भी ज़रूरत नहीं। क्योंकि हमारी तरह चलने वाले लोग दुनिया में अधिक नहीं हैं। कम से कम अपने इस देश में तो नहीं है; यह कहा जा सकता है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "न रहना ही भला है। केवल बड़े आदमी ही मनुष्य हैं? और क्या ग़रीब बेचारे संसार में कहीं से बह आए हैं? बाल-बच्चों को लेकर घर-गिरस्ती करने की साध क्या उन्हें नहीं होती?" मैंने कहा, "पर इसका क्या यह अर्थ है कि साध होती है इसलिए उसे प्रश्रय देना ही चाहिए?"

राजलक्ष्मी ने पूछा "क्या नहीं मुझे समझा दो।"

कुछ देर चुप रहकर मैंने कहा, "सभी दरिद्रों के सम्बन्ध में मेरा यह मत नहीं है। मेरा मत केवल दरिद्र भले आदमियों के सम्बन्ध में है और मेरा विश्वास है कि तुम उसका कारण भी जानती हो।"

राजलक्ष्मी ने ज़िद के स्वर में कहा, "तुम्हारा यह मत ग़लत है।"

मुझ पर भी मानो ज़िद सवार हो गयी, मैंने कह डाला, "हज़ार ग़लत होने पर भी कम से कम तुम्हारे मुँह से तो यह बात शोभा नहीं देती। बंकू के बाप ने सिर्फ बहत्तर रुपयों के लोभ से दोनों बहिनों को व्याह लिया था,- वह दिन अभी इतना पुराना नहीं हुआ है कि भूल गयी होओ। खैर मनाओ कि उस आदमी का पेशा ही यही था। नहीं तो, कल्पना करो, यदि वह तुम्हें अपने घर ले जाता, तुम्हारे दो-चार बाल-बच्चे हो जाते-तब एक दफे सोच देखो कि तुम्हारी क्या दशा होती?" राजलक्ष्मी की ऑंखों में जैसे झगड़ने का भाव घना हो उठा; बोली, "भगवान जिन्हें भेजते हैं, उनकी देख-भाल भी कर करते हैं। तुम नास्तिक हो, इसीलिए विश्वास नहीं करते।"

मैंने भी जवाब दिया, "मैं नास्तिक होऊँ चाहे जो होऊँ परन्तु आस्तिक लोगों को भगवान की ज़रूरत क्या केवल इसीलिए है?- इन सब बच्चों को आदमी बनाने के लिए?" राजलक्ष्मी ने क्रुद्ध कण्ठ से कहा, "भले ही वे न बनावें। किन्तु मैं तुम्हारी तरह डरपोक नहीं हूँ। मैं द्वार-द्वार भिक्षा माँगकर भी उन्हें आदमी बनाती। और जो भी हो, नाचने-गाने वाली बनने की अपेक्षा वह मेरे हक में बहुत अच्छा होता?"

मैंने फिर और तर्क नहीं किया। आलोचना बिल्कुेल ही व्यक्तिगत और अप्रिय ढंग पर उतर आई थी, इसलिए, मैं खिड़की के बाहर रास्ते की ओर देखता हुआ बैठा रहा। हमारी गाड़ी धीरे-धीरे सरकारी और गैर सरकारी ऑफिस क्वार्टर्स छोड़कर बहुत दूर आ पड़ी। शनिवार का दिन है, दो बजे के बाद अधिकांश दफ़्तरों के क्लर्क छुट्टी पाकर ढाई की ट्रेन पकड़ने के लिए तेज़ीसे चले आ रहे हैं। प्राय: सभी के हाथों में कुछ न कुछ खाद्य-सामग्री है। किसी के हाथ में एक-दो बड़ी-बड़ी मछलियाँ, किसी के रूमाल में बकरे का मांस, किसी के हाथ में गँवई-गाँव में नहीं मिलने वाली हरी तरकारियाँ और फल। सात दिनों के बाद घर पहुँचकर उत्सुक बाल-बच्चों के मुँह पर जरा-सी आनन्द की हँसी देखने के लिए क़रीब-क़रीब सभी अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार थोड़ी-बहुत मिठाई चादर के छोर में बाँधकर भागे जा रहे हैं। प्रत्येक के मुँह पर आनन्द और ट्रेन पकड़ने की उत्कण्ठा एक साथ इस तरह परिस्फुटित हो उठी है कि राजलक्ष्मी ने मेरा हाथ खींचकर अत्यन्त कुतूहल के साथ पूछा, "हाँ जी, ये सब लोग इस तरह स्टेशन की ओर क्यों भाग रहे हैं? आज क्या है?"

मैंने घूमकर कहा, "आज शनिवार है। ये सब दफ़्तरों के क्लर्क हैं, रविवार की छुट्टी में घर जा रहे हैं।"

राजलक्ष्मी ने गर्दन हिलाकर कहा, "हाँ यही मालूम होता है। और देखो सब एक न एक खाने की चीज़ लिये जाते हैं। गँवई-गाँव में तो यह सब मिलता नहीं, इसलिए मालूम होता है, बाल-बच्चों को हाथ में देने के लिये ख़रीदे लिए जाते हैं, क्यों न?"

मैंने कहा, "हाँ।"

उसकी कल्पना तेज़ीसे दौड़ने लगी। इसीलिए, उसने उसी क्षण कहा "आ:, लड़के-लड़कियों में आज कितना उत्साह होगा। कोलाहल मचाएँगे, गले से लिपटकर बाप की गोद में चढ़ने की चेष्टा करेंगे, माँ को खबर देने रसोईघर में दौड़ जाँयगे, घर-घर में आज मानो एक काण्ड-सा मच जायेगा। क्यों न?" कहते-कहते उसका सारा मुँह उज्ज्वल हो उठा।

मैंने स्वीकार करते हुए कहा, "खूब सम्भव है।"

राजलक्ष्मी ने गाड़ी की खिड़की में से और भी कुछ देर उनकी तरफ निहारते रहकर एकाएक एक गहरी नि:श्वास छोड़ दी और कहा, "हाँ जी, उनकी तनखा कितना होगी?"

मैंने कहा, "क्लर्कों की तनख्वाह और कितनी होती है,- यही बीस-पच्चीस तीस रुपये।

राजलक्ष्मी ने कहा- "किन्तु, घर तो इनके माँ है, भाई-बहिन हैं, स्त्री हैं, लड़के-बच्चे हैं।"

मैंने इतना और जोड़ दिया, "दो-एक विधवा बहिनें हैं: शादी-ब्याह, क्रिया-कर्म, लोक-व्यवहार, भलमंसी है; कलकत्ते का भोजन-खर्च है, लगातार रोगों का खर्चं है,-बंगाली क्लर्क-जीवन का सब कुछ इन्हीं तीस रुपयों पर निर्भर रहता है।"

राजलक्ष्मी की मानो साँस ही अटकने लगी। वह बहुत व्याकुल होकर बोल उठी,

"तुम नहीं जानते। इन लोगों के घर ज़मीन-जायदाद भी है, निश्चय से है।"

उसका मुँह देखकर निराश करते हुए मुझे वेदना हुई, फिर भी, मैंने कहा, "मैं इन लोगों की घर-गिरस्ती का इतिहास खूब घनिष्ठता से जानता हूँ। मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि इनमें से चौदह आने लोगों के पास कुछ भी नहीं है। यदि नौकरी चली जाय तो या तो इन्हें भिक्षावृत्ति करनी होगी या फिर पूरे परिवार के साथ उपवास करना होगा। इन लोगों के लड़के-लड़कियों की कहानी सुनोगी?"

राजलक्ष्मी अकस्मात् दोनों हाथ उठाकर चिल्ला उठी, "नहीं-नहीं, नहीं सुनूँगी,- मैं नहीं सुनना चाहती।"

यह बात मैं उसकी ऑंखों की ओर निहारते ही जान गया कि उसने प्राणपण से ऑंसुओं को रोक रक्खा है। इसीलिए मैंने और कुछ न कहकर फिर रास्ते की ओर मुँह मोड़ लिया। बहुत देर तक उसकी कोई आहट नहीं मिली। इतनी देर, शायद, अपने आपसे वकालत करके और अन्त में अपने कुतूहल के निकट ही पराजय मानकर उसने मेरे कोट का खूँट पकड़कर खींचा और पलटकर देखते ही करुण कण्ठ से कहा, "अच्छा तो, कहो उनके लड़के-लड़कियों की कहानी। किन्तु तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, झूठ-मूठ बढ़ाकर मत कहना। दुहाई है तुम्हारी!"

उसकी मिन्नत करने की भाव-भंगीमा देखकर हँसी तो छूटी, किन्तु, हँसा नहीं। बल्कि कुछ अतिरिक्त गम्भीरता से बोला, "बढ़ाकर कहना तो दूर, तुम्हारे पूछने पर भी मैं नहीं सुनाता, यदि तुमने अभी कुछ ही पहले अपने सम्बन्ध में भीख माँगकर बच्चों को आदमी बनाने की बात न कही होती। भगवान जिन्हें भेजते हैं, उनकी सुव्यवस्था का भार भी वे लेते हैं, यह बात अवश्य है। इसे अस्वीकार करूँ तो शायद नास्तिक कहकर फिर भला-बुरा कहोगी; किन्तु सन्तान की जवाबदारी बाप के ऊपर कितनी है और भगवान के ऊपर कितनी है, इन दो समस्याओं की मीमांसा तुम खुद ही करो। मैं जो जानता हूँ केवल वही कहूँगा,- है न ठीक?"

यह देखकर कि वह चुपचाप मेरी ओर जिज्ञासु-मुख से निहार रही है, मैंने कहा, "बच्चा पैदा होने पर उसे कुछ दिन छाती का दूध पिलाकर जिलाए रखने का भार, मैं समझता हूँ, उसकी माँ के ऊपर है। भगवान के ऊपर अचल भक्ति है, उनकी दया पर भी मुझे अन्धविश्वास है, किन्तु फिर भी, माँ के बदले इस भार को खुद अपने ऊपर लेने का उपाय उनके पास है कि नहीं,..."

राजलक्ष्मी नाराज होकर हँस पड़ी और बोली, "देखो चतुराई रहने दो- यह मैं भी जानती हूँ।"

"जानती हो? तब जाने दो, एक जटिल समस्या की मीमांसा हो गयी। किन्तु, तीस रुपये के घर की जननी के दूध का स्रोत सूख जाने में देर क्यों नहीं लगती, यह जानना हो तो किसी तीस रुपये मासिक के घर की जच्चा के आहार के समय उपस्थित रहना आवश्यक होगा। किन्तु, तुमसे जब यह नहीं हो सकता तब इस विषय में न हो तो मेरी बात मान लो।"

राजलक्ष्मी मलीन मुख किये चुपचाप मेरी ओर ताकती रही।

मैं बोला, "देहात में गो-दुग्ध का बिल्कुसल अभाव है, यह बात भी तुम्हें मान लेनी होगी।"

राजलक्ष्मी ने चट से कहा, "सो तो मैं खुद भी जानती हूँ। घर में गाय हो तब तो ठीक, नहीं तो, आजकल सिर पटककर मर जाने पर भी किसी गाँव में एक बूँद दूध पाना कठिन है ढोर ही नहीं हैं, दूध कहाँ से हो?"

मैंने कहा, "खैर और भी एक समस्या का समाधान हो गया। तब फिर बच्चों के भाग में रहा खालिस स्वदेशी ताल-तलैयों का जल और विदेशी डब्बों का खालिस बार्ली (जौ) का चूरा। अभागियों के भाग्य में अक्सर उनका स्वाभाविक खाद्य,- थोड़ा- बहुत माता का दूध भी, जुटा सकता है, किन्तु वह सौभाग्य भी इन सब घरों में अधिक दिनों तक टिकने का नियम नहीं। क्योंकि चारेक महीने के भीतर ही और एक नूतन आगन्तुक अपने आविर्भाव का नोटिस देकर अपने भाई के दूध का हक एकदम बन्द कर देता है। यह शायद तुम..."

राजलक्ष्मी लज्जा के मारे लाल होकर बोल उठी, "हाँ हाँ, जानती हूँ, जानती हूँ। मुझे व्याख्या करके समझाने की ज़रूरत नहीं। तुम इसके बाद की बात कहो।"

मैंने कहा, "इसके बाद धर दबाता है बच्चे को पेट का दर्द और स्वदेशी मलेरिया बुखार। तब बाप का कर्तव्य होता है विदेशी कुनैन और बार्ली का चूरा जुटाना। और माँ के सिर पर पड़ता है, जैसा कि मैंने पहले कहा, प्रसूतिगृह में पुन: भर्ती होने के बीच के समय की फुरसत में इन सबको खालिस देशी जल में घोलकर पिलाने का काम! इसके बाद यथासमय सूतिका-गृह का झगड़ा मिटने पर नवजात शिशु को गोद में लेकर बाहर आना और पहले बच्चे के लिए कुछ दिन तक रोना।"

राजलक्ष्मी नीली पड़कर बोली, "रोना क्यों?"

मैंने कहा, "अरे, यह तो माता का स्वभाव है! और ऐसा स्वभाव जो क्लर्क के घर में भी अन्यथा नहीं हो सकता जब कि भगवान दायित्व से मुक्त करने के लिए उस पहले बच्चे को अपने श्रीचरणों में बुला लेते हैं।"

इतनी देर बाहर की ओर ताकते रहकर ही बातें कर रहा था। अकस्मात् नजर घुमाकर देखा कि उसकी बड़ी-बड़ी ऑंखें अश्रु-जल में तैर रही हैं। मुझे अत्यन्त दु:ख मालूम हुआ। सोचा, इस बेचारी को व्यर्थ दु:ख देने से क्या लाभ? अधिकांश धनियों के समान जगत के इस विराट दु:ख की बाजू यदि इसके लिए भी अगोचर बनी रहती तो क्या हर्ज था! भयंकर दरिद्रता से पीड़ित बंगाल के क्षुद्र नौकरपेशा गृहस्थ-परिवार केवल अन्न के अभाव से ही, मलेरिया हैजा आदि के बहाने, दिन पर दिन शून्य होते जा रहे हैं,- यह बात अन्य बहुत-से बड़े आदमियों की तरह, न होता, यह भी न जानती। इससे क्या ऐसी कोई बड़ी भारी हानि हो जाती!

ठीक ऐसे ही समय राजलक्ष्मी ऑंखें पोंछते-पोंछते अवरुद्ध कण्ठ से बोल उठी, "भले ही क्लर्क हों, फिर भी वे तुमसे कई दर्जे अच्छे हैं। तुम तो पत्थर हो! तुम्हें स्वयं कोई दु:ख नहीं है, इसीलिए इन लोगों के दु:ख कष्ट इस तरह आह्लाद के साथ वर्णन कर रहे हो। किन्तु मेरा तो हृदय फटा जाता है।"

यह कहकर वह ऑंचल से बार-बार ऑंखें पोंछने लगी। इसका मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया, क्योंकि, इससे कोई लाभ न होता। बल्कि नम्रता के साथ कहा, "इन लोगों के सुख का हिस्सा भी तो मेरे भाग्य में नहीं है। घर पहुँचने की उनकी उत्सुकता भी तो एक सोचने-देखने की चीज़ है।"

राजलक्ष्मी का मुँह हँसी और ऑंसुओं से एक साथ दीप्त हो उठा। वह बोली, "मैं भी तो यही कहती हूँ। आज पिता आ रहे हैं, इसलिए सारे बाल-बच्चे रास्ता देख रहे हैं। उन्हें कष्ट किस बात का है? उन लोगों की तनखा शायद कम हो, किन्तु वैसी बाबूगिरी भी तो नहीं है। किन्तु फिर भी क्या पचीस-तीस ही रुपया?-इतना कम? कभी नहीं। कम से कम सौ-डेढ़ सौ रुपये तो होंगे, मैं निश्चय से कहता हूँ।"

मैंने कहा, "हो भी सकता है। मैं शायद ठीक-ठीक नहीं जानता।"

उत्साह पाकर राजलक्ष्मी का लोभ बढ़ गया। अतिशय क्षुद्र क्लर्क के लिए भी डेढ़ सौ रुपया महीना उसे नहीं जँचा। बोली, "क्या तुम समझते हो कि केवल उसी मासिक पर ही उनका सारा दारोमदार है? ऊपर से भी तो कितना ही पा जाते हैं।"

मैंने कहा, "ऊपर से? प्याला?"

अब उसने कुछ नहीं कहा। वह मुँह भारी करके रास्ते की ओर ताकती हुई बैठी रही। कुछ देर बाद बाहर की ओर दृष्टि रक्खे हुए ही उसने कहा, "तुम्हें जितना ही देखती हूँ तुम्हारे ऊपर से मेरा मन उतना ही हटता जाता है। तुम जानते हो कि तुम्हें छोड़कर मेरी ओर कोई गति नहीं है, इसीलिए तुम मुझे इस क़दर छेदते हो!

इतने दिनों बाद, आज शायद पहले ही पहल मैंने उसके दोनों हाथ ज़ोर से अपनी ओर खींच लिये और उसके मुँह की ओर देखकर मानो कुछ कहना भी चाहा; किन्तु इतने में ही गाड़ी स्टेशन के समीप आकर खड़ी हो गयी। एक स्वतन्त्र डिब्बा रिजर्व कर लिया गया था, फिर भी, बंकू कुछ सामान लेकर दोपहर के पहले ही आ गया था। कोचबाक्स पर रतन को देखते ही वह दौड़ आया। मैं हाथ छोड़कर सीधा बैठ गया। जो बात मुँह पर आ गयी थी। वह चुपचाप अन्दर में जाकर छिप गयीं।

ढाई बजे की लोकल ट्रेन छूटने ही को थी। हमारी ट्रेन उसके बाद जाती थी। इसी समय एक प्रौढ़ अवस्था का दरिद्र भला आदमी एक हाथ में तरह-तरह की हरी तरकारियों की पोटली और दूसरे हाथ में डण्डी पर बैठा हुआ एक मिट्टी का पक्षी लिये, केवल प्लेटफार्म पर लक्ष्य रक्खे और सब दिशाओं के ज्ञान से शून्य होकर दौड़ता हुआ राजलक्ष्मी के ऊपर आ पड़ा। मिट्टी का खिलौना नीचे गिरकर चूर हो गया। वह हाय-हाय करके शायद उसे बटोरने जा रहा था कि पाण्डेजी ने हुँकार मारकर एक छलाँग में उसकी गर्दन धर दबाई और बंकू छड़ी उठाकर 'अन्धे' आदि कहकर मारने को तैयार हो गया। मैं कुछ दूरी पर अन्यमनस्क-सा खड़ा था,-घबड़ाकर रंगभूमि पर आ गया। वह बेचारा भय और शर्म के मारे बार-बार कहने लगा, "देख नहीं पाया माँ, मुझसे बड़ा कसूर हो गया..."

मैंने उसे चटपट छुड़ा दिया और कहा, "जो होना था सो हो गया, आप शीघ्र जाइए, आपकी गाड़ी छूट रही है।"

उस बेचारे ने फिर भी अपने खिलौने के टुकड़े इकट्ठा करने के लिए कुछ देर इधर-उधर किया और अन्त में दौड़ लगा दी। किन्तु अधिक दूर नहीं जाना पड़ा, गाड़ी चल दी। तब लौटकर फिर उसने एक दफा क्षमा माँगी और वह उन टूटे टुकड़ों को बटोरने में प्रवृत्त हो गया। यह देखकर मैंने जरा हँसकर कहा, "इससे अब क्या होगा?" उसने कहा, "कुछ नहीं महाशय, लड़की बीमार है। पिछले सोमवार को घर से आते समय उसने कह दिया था- "मेरे लिए एक खिलौना ख़रीद लाना।" ख़रीदने गया तो बच्चू ने गरज समझकर दाम हाँके, "दो आने-एक पैसा भी कम नहीं। खैर वही सही। रामराम करके किसी तरह पूरे आठ पैसे फेंककर ले आया। किन्तु देखिए दुर्भाग्य की बात कि ऐन मौके पर फूट गया, रोगी लड़की के हाथ में न दे सका। बिटिया रोकर कहेगी, "बाबा, लाए नहीं!" कुछ भी हो, टुकड़े ही ले जाऊँ, दिखाकर कहूँगा, बेटी, इस महीने की तनखा पाने पर पहले तेरा खिलौना ख़रीदूँगा, तब और काम करूँगा।"

इतना कहकर सारे टुकड़े बटोरकर और चादर के छोर में बाँधकर कहने लगा, "आपकी स्त्री को शायद बहुत चोट लग गयी है, मैंने देखा नहीं- नुकसान का नुकसान हुआ और गाड़ी भी नहीं मिली। मिल जाती तो रोगी बिटिया को आधा घण्टे पहले पहुँचकर देख लेता।" कहते-कहते वह फिर प्लेटफार्म की ओर चल दिया। बंग पाण्डेजी को लेकर किसी काम से कहीं अन्यत्र चला गया था। मैंने एकाएक पीछे की ओर घूमकर देखा, राजलक्ष्मी की ऑंखों से सावन की धारा की तरह ऑंसू बह रहे हैं। व्यस्त होकर निकट जाकर पूछा, "ज़्यादा चोट आ गयी क्या? कहाँ लगी है?"

राजलक्ष्मी ने ऑंचल से ऑंख पोंछकर कहा, "हाँ, बहुत चोट लगी है- परन्तु लगी है ऐसी जगह कि तुम जैसे पत्थर न उसे देख उसे देख सकते हैं और न समझ सकते हैं!"


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श्रीमान् बंकू को बाध्ये होकर हमारे लिए स्वतन्त्र डब्बा क्यों रिज़र्व करना पड़ा उनसे जब मैं इस बात की पूछताछ कर रहा था तब राजलक्ष्मी कान लगाकर सुन रही थी। इस समय उनके जरा अन्यत्र जाते ही राजलक्ष्मी ने बिल्कुकल ही गले पड़कर मुझे सुना दिया कि अपने लिए फिजूल के खर्च करना वह जितना ही नापसन्द करती है उसके भाग्य से उतनी ही ये सब विडम्बनाएँ उपस्थित हो जाती हैं। वह बोली- "यदि उन लोगों की तृप्ति सेकण्ड क्लास या फर्स्ट क्लास में जाने से ही होती हो तो ठीक है; पर मेरे लिए तो औरतों का डब्बा था। रेलवे कम्पनी को फिजूल ही इतने अधिक रुपये क्यों दिये जाँय?"

बंकू की कैफियत के साथ उसकी माँ की इस मितव्यय-निष्ठा का कोई विशेष सामंजस्य मैं नहीं देख पाया। किन्तु, ऐसी बातें स्त्रियों से कहने से व्यर्थ का कलह होता है। अतएव, चुपचाप मैं केवल सुनता रहा। कुछ बोला नहीं।

प्लेटफार्म की एक बेंच पर बैठकर पूर्वोक्त सज्जन ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे। सामने से जाते हुए मैंने पूछा, "आप कहाँ जाँयगे?"

वे बोले, "बर्दवान।"

कुछ आगे जाते ही राजलक्ष्मी ने मुझसे धीरे से कहा, "तो फिर वे अनायास ही अपने डब्बे में चल सकते हैं, न? किराया तो देना न होगा- फिर क्यों नहीं उन्हें बुला लेते!" मैंने कहा, "टिकट तो निश्चय से ख़रीद लिया गया है- किराए के पैसे नहीं बचेंगे।"

राजलक्ष्मी बोली- "भले ही ख़रीद लिया गया हो-भीड़ के कष्ट से तो बच जाँयगे।"

मैंने कहा, "उन्हें अभ्यास है, वे भीड़ की तकलीफ की परवाह नहीं करते।"

तब राजलक्ष्मी ने ज़िद करके कहा, "नहीं-नहीं, तुम उनसे कहो। हम लोग तीन आदमी बातचीत करते हुए जाँयगे, इतना रास्ता मजे से कट जायेगा।"

मैंने समझ लिया कि इस समय उसे अपनी भूल महसूस हो रही है। बंकू और अपने नौकर-चाकरों की नजर में मेरे साथ अकेली अलहदा डब्बे में बैठने की खटक को वह किसी तरह कुछ हलका कर लेना चाहती है। फिर भी मैंने इसको और भी अधिक ऑंखों में अंगुली डालकर दिखाने के अभिप्राय से लापरवाही के भाव से कहा, "ज़रूरत क्या है एक अनावश्यक आदमी को डब्बे में बुलाने की? तुम मेरे साथ जितनी चाहो उतनी बातें कर लेना- मजे से समय कट जायेगा।"

राजलक्ष्मी ने मुझ पर एक तीक्ष्ण कटाक्ष निक्षेप करके कहा- "सो मैं जानती हूँ। मुझे छकाने का इतना बड़ा मौक़ा क्या तुम छोड़ सकते हो?"

इतना कहकर वह चुप हो रही। किन्तु ट्रेन के स्टेशन पर आते ही मैंने जाकर कहा, "आप क्यों नहीं हमारे डब्बे में बैठ जाँय। हम दो को छोड़कर उसमें और कोई नहीं है। भीड़ की तकलीफ से आप बच जाँयगे।"

कहने की ज़रूरत नहीं, उन्हें राजी करने में कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी। अनुरोध करने-भर की देर थी कि वे अपनी पोटली लेकर हमारे डब्बे में आ बैठै।

ट्रेन दो-चार स्टेशन ही पार कर पाई थी कि राजलक्ष्मी ने उनके साथ खूब बातचीत करना शुरू कर दिया और कुछ ही स्टेशनों को पार करते-करते तो उनके घर की खबरें, मुहल्ले की खबरें यहाँ तक कि आस-पास के गाँवों तक की खबरें कुरेद-कुरेदकर जान लीं।

राजलक्ष्मी के गुरुदेव काशी में अपने नाती पातिनों के साथ रहते हैं, उनके लिए वह कलकत्ते से अनेक चीज़ें लिये जा रही थी। बर्दवान नजदीक आते ही ट्रंक खोलकर उनमें से चुनकर एक सब्ज रंग की रेशमी की साड़ी बाहर निकाली और कहा, "सरला को उसके खिलौने के बदले साड़ी दे देना।"

वे सज्जन पहले तो अवाक् हो रहे, बाद में सलज्ज भाव से जल्दी से बोले- "नहीं बेटी, सरला को मैं अबकी दफे खिलौना ख़रीद दूँगा- आप साड़ी रहने दें। इसके सिवाय, यह तो बहुत बेशकीमती कपड़ा है बेटी!"

राजलक्ष्मी ने कपड़े को उनके पास रखते हुए कहा, "बेशकीमती नहीं है और और कीमत कुछ भी हो, इसे उसके हाथ में देकर कहिएगा कि तुम्हारी मौसी ने अच्छे होने पर पहिरने के लिए दिया है!"

सज्जन की ऑंखें छलछला आईं। आधा घण्टे की बातचीत में ही एक अपरिचित आदमी की पीड़िता कन्या को एक मूल्यवान् वस्तु का उपहार देना, उन्होंने शायद अपने जीवन में और कभी नहीं देखा था। कहा, "आशीर्वाद दीजिए कि वह अच्छी हो जाय; किन्तु, ग़रीबी का घर है, इतने कीमती कपड़े का वह क्या करेगी बेटी? आप उसे उठाकर रख लीजिए।" इतना कहकर उन्हांने मेरी ओर भी एक दफे देखा। मैंने कहा, "जब उसकी मौसी पहिरने के लिए दे रही है तब आपका ले जाना ही उचित है।" फिर हँसकर कहा, "सरला का भाग्य अच्छा है, हम लोगों की भी कोई मौसी-औसी होती तो बड़ा सुभीता होता! अबकी बार महाशय, आपकी लड़की, आप देखेंगे कि, चटपट अच्छी हो जायगीं

उस समय उस पुरुष के समस्त चेहरे से कृतज्ञता मानो उछल पड़ने लगी। और आपत्ति न करके उन्होंने उस वस्त्र को ग्रहण कर लिया। अब दोनों जनों में फिर बातचीत होने लगी। गृहस्थाश्रम की बातें, समाज की बातें, सुख-दु:ख की बातें, और न जाने क्या-क्या। मैं सिर्फ खिड़की के बाहर ताकता हुआ स्तब्ध होकर बैठा रहा और जो प्रश्न अपने आपसे बहुत बार पूछ चुका था वही इस छोटी-सी घटना के सूत्र के सहारे फिर मेरे मन में उठ खड़ा हुआ कि इस यात्रा का अन्त कहाँ है?

एक दस-बारह रुपये का वस्त्र दान कर देना राज्यलक्ष्मी के लिए कठिन बात थी और नयी। उसके दास-दासी शायद इस बात का कभी खयाल भी नहीं करते। किन्तु मेरी चिन्ता दूसरी ही थी। यह दी हुई चीज़ दान के हिसाब से उसके लिए कुछ न थी। यह मैं जानता था। किन्तु, मैं सोच रहा था कि उसके हृदय की धारा जिस ओर लक्ष्य करके अपने आपको नि:शेष करने के लिए उद्दाम के लिए गति से दौड़ी चली जा रही है, उसका अवसान कहाँ होगा और किस तरह?

समस्त रमणियों के अन्तर में 'नारी' वास करती है या नहीं, यह ज़ोर से कहना अत्यन्त दु:साहस का काम है। किन्तु नारी की चरम सार्थकता मातृत्व में है, यह बात शायद खूब गला फाड़ करके प्रचारित की जा सकती है।

राजलक्ष्मी को मैंने पहिचान लिया था। यह मैंने विशेष ध्या नपूर्वक देखा था कि उसमें की प्यारी बाई अपने अपरिणत यौवन के समस्त दुर्दम्य मनस्तापों के साथ प्रति-मुहूर्त मर रही है। आज उस नाम का उच्चारण करने से भी वह मानो लज्जा के मारे मिट्टी में मिल जाती है। मेरे लिए एक यह समस्या हो गयी।

सर्वस्व लगाकर संसार का उपभोग करने का वह उत्तम आवेग राजलक्ष्मी में अब नहीं है; आज वह शान्त, स्थिर हैं उसकी कामना वासना आज उसी के मध्यप में इस तरह गोता लगा गयी है कि बाहर से एकाएक सन्देह होता है कि वह है भी या नहीं। उसी ने इस सामान्य घटना को उपलक्ष्य करके मुझे फिर स्मरण दिला दिया कि आज उसके परिणत यौवन के सुगम्भीर तल-देश से जो मातृत्व सहसा जाग उठा है, तुरन्त ही जागे हुए कुम्भकर्ण के समान उसकी विराट क्षुधा के लिए आहार कहाँ मिलेगा? उसके सन्तान होने पर जो बात सहज और स्वाभाविक हो सकती, उसी के अभाव में समस्या इस तरह एकान्त जटिल हो उठी है।

उस दिन पटने में उसके जिस मातृरूप को देखकर मैं मुग्ध और अभिभूत हो गया था, आज उसी मूर्ति का स्मरण करके अत्यन्त व्यथा के साथ मैं केवल यही सोचने लगा कि इतनी बड़ी आग को केवल फूंक मारकर नहीं बुझाया जा सकता। इसीलिए, आज पराए लड़के को पुत्र कल्पित करने के खिलवाड़ से राजलक्ष्मी के हृदय की तृष्णा किसी तरह भी नहीं मिट रही है। इसलिए आज एक मात्र बंकू ही उसके लिए पर्याप्त नहीं है, आज दुनिया में जहाँ जितने भी लड़के हैं उन सबका सुख-दु:ख भी उसके हृदय को आलोड़ित कर रहा है।

बर्दवान में वे महाशय उतर गये। राजलक्ष्मी बहुत देर चुपचाप बैठी रही। मैंने खिड़की की ओर से दृष्टि हटाकर पूछा, "यह रोना किसके लिए हुआ? सरला के लिए, या उसकी माँ के लिए?"

राजलक्ष्मी ने मुँह उठाकर कहा, "मालूम होता है, तुम इतनी देर तक हम लोगों की बात चीत सुन रहे थे।"

मैंने कहा, "यों ही अनायास। स्वयं बात न करने पर भी बाहर से बहुत-सी बातें मनुष्य के कानों में आ घुसती हैं। संसार में भगवान ने कम बोलने वालों के लिए इस दण्ड की सृष्टि कर रक्खी है। इससे बचने की कोई युक्ति नहीं। खैर जाने दो, किन्तु यह ऑंखों का पानी किसके लिए झरा, सो नहीं बताया?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "मेरी ऑंखों का पानी किसके लिए झरता है, यह जानने से तुम्हें कोई लाभ नहीं।"

मैंने कहा, "लाभ की आशा नहीं करता- केवल नुकसान बचाकर ही चला जा सके तो काफ़ी है। सरला अथवा उसकी माँ के लिए जितनी इच्छा हो ऑंसू बहाओ, मुझे कोई आपत्ति नहीं-किन्तु, उसके बाप के लिए बहाना मैं पसन्द नहीं करता।"

राजलक्ष्मी केवल एक 'हूँ' करके खिड़की के बाहर झाँकने लगी।

सोचा था कि यह दिल्लगी निष्फल नहीं जायेगी, अनेक रुँधे हुए झरनों के द्वार खोल देगी। किन्तु, सो तो हुआ नहीं; हुआ यह कि अब तक वह इस ओर देख रही थी सो दिल्लगी सुनकर उस ओर को मुँह फेरकर बैठ गयी।

किन्तु बहुत देर से मौन था- बातचीत करने के लिए भीतर ही भीतर एक आवेग उपस्थित हो गया था। इसलिए अधिक देर तक चुप न रह सका और बोला, "बर्दवान से कुछ खाने को मोल ले लिया होता!"

राजलक्ष्मी ने कोई जवाब नहीं दिया, वह उसी तरह चुप बनी रही।

मैं बोला, "दूसरे के दु:ख में रो-रोकर नद बहा दिया, और घर के दु:ख पर कान ही नहीं देतीं! तुमने यह विलायत से लौटे हुओं की विद्या कहाँ से सीख ली?"

राजलक्ष्मी ने इस दफे धीरे से कहा, "देखती हूँ कि विलायत से लौटे हुओं पर तुम्हारी भारी भक्ति है!"

मैंने कहा, "हाँ, वे लोग भक्ति के पात्र जो हैं!"

"क्यों, उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?"

"अभी तक तो कुछ नहीं बिगाड़ा किन्तु, बाद में कहीं कुछ बिगाड़ न दें, इस डर से पहले ही भक्ति करता हूँ।"

राजलक्ष्मी ने क्षण-भर चुप रहकर कहा, "यह तुम लोगों का अन्याय है। तुम लोगों ने उन्हें अपने दल से, जाति से, समाज से-सब ओर से बहिष्कृत कर दिया है। फिर भी, यदि वे लोग तुम्हारे लिए थोड़ा-सा भी कुछ करते हैं, तो उतने ही के लिए तुम्हें उनका कृतज्ञ होना चाहिए।"

मैंने कहा, "हम लोग बहुत ज़्यादा कृतज्ञ होते, यदि वे उस क्रोध के कारण पूरे-पूरे मुसलमान या क्रिस्तान हो जाते! उन लोगों में जो अपने को 'ब्राह्म' कहते हैं वे ब्राह्म-समाज को नष्ट करते हैं, जो 'हिन्दू' कहते हैं वे हिन्दू समाज को हैरान करते हैं। यदि वे पहले यह ठीक करके कि स्वयं कौन हैं दूसरों के लिए रोने बैठते तो उससे उनका खुद का कल्याण होता और जिनके लिए रोते हैं उनका भी शायद कुछ उपकार हो जाता।"

राज्यलक्ष्मी बोली, "किन्तु, मुझे तो ऐसा नहीं जान पड़ता।"

मैंने कहा, "नहीं जान पड़ता तो कोई विशेष हानि नहीं। किन्तु, जिसके लिए इस समय अटका हुआ हूँ वह अन्य बात है। कहाँ, उसका तो कोई जवाब ही नहीं दिया?" इस दफे राजलक्ष्मी ने हँसकर कहा, "अजी, उसके लिए अटकना नहीं पड़ेगा। पहले तुम्हारी भूख तो पक जाय, उसके बाद विचार किया जायेगा।"

मैंने कहा, "तब विचार क्या होगा, जिस-किसी स्टेशन से जो कुछ मिलेगा वही निगलने को दे दोगी!-किन्तु, सो नहीं होगा, मैं कहे रखता हूँ।"

मेरा उत्तर सुनकर वह मेरे मुँह की ओर कुछ देर चुपचाप देखती रही और फिर कुछ हँसकर बोली, "सो मैं कर सकती हूँ- तुम्हें विश्वास होता है?"

"मैंने कहा- "खूब! इतना-सा भी विश्वास तुम पर नहीं होगा?"

"तो ठीक है!" कहकर वह फिर अपनी खिड़की से बाहर झाँकती हुई चुपचाप बैठी रही।

अगले स्टेशन पर राजलक्ष्मी ने रतन को बुलाकर खाने के लिए जगह करा दी और उसे हुक़्क़ा लाने का हुक्म देकर थाली में समस्त खाद्य-सामग्री सजाकर सामने रख दी। देखा, इस विषय में कहीं बिन्दु-भर भी भूल-चूक नहीं हुई है- मुझे जो कुछ अच्छा लगता है वह सब चुन-चुन कर संग्रह करके लाया गया है।

बेंच पर रतन ने बिस्तर कर दिये। इतमीनान के साथ भोजन समाप्त करके गुड़गुड़ी की नली मुँह में डालकर आराम से ऑंखें मूँदने की तैयारी कर रहा था कि राजलक्ष्मी बोली, "खाने की चीज़ें उठा ले जा रतन, इनमें से जो भावे सो खा लेना- और तेरे डिब्बे में और भी कोई खावे तो दे देना।"

किन्तु, रतन को अत्यन्त लज्जित और संकुचित लक्ष्य करके मैंने कुछ, अचरज के साथ पूछा, "कहाँ, तुमने तो कुछ खाया नहीं?"

राजलक्ष्मी बोली, "नहीं, मुझे भूख नहीं है। जा न रतन, खड़ा क्यों है? गाड़ी चल देगी जो!"

रतन लज्जा के मारे मानो गड़ गया। "मुझसे बड़ी भूल हो गयी बाबू मुसलमान कुली से खाना छू गया है! कितना ही कहता हूँ- माँ, स्टेशन से कुछ ख़रीद लाने दो, किन्तु किसी तरह मानती ही नहीं।" इतना कहकर उसने मेरे मुँह पर अपनी कातर-दृष्टि डाली जैसे मेरी ही अनुमति चाह रहा हो।

किन्तु मैं कुछ कहूँ, इसके पहले ही राजलक्ष्मी ने उसे धमकाकर कहा, तूँ जायेगा नहीं, खड़ा-खड़ा तर्क करेगा?"

रतन फिर कुछ न बोला और भोजन के बर्तन हाथ में लेकर बाहर चला गया। ट्रेन के चलते ही राजलक्ष्मी मेरे सिरहाने आ बैठी और सिर के बालों में धीरे-धीरे अंगुलियाँ चलाते-चलाते बोली, "अच्छा देखो..."

बीच में ही टोककर बोला, "देखूँगा फिर कभी। किन्तु..."

उसने भी मुझे उसी घड़ी टोककर कहा, "तुम्हें 'किन्तु' से शुरू करके लेक्चर न देना होगा, मैं सब समझ गयी। मैं मुसलमान से घृणा नहीं करती; उसके छू लेने से भोजन नष्ट हो जाता है, सो भी नहीं मानती। यदि ऐसा होता तो तुम्हें अपने हाथों से वह भोजन न परोसती।"

"किन्तु, तुमने खुद क्यों नहीं खाया?"

"स्त्रियों को नहीं खाना चाहिए।"

"क्यों?"

"क्यों और क्या? स्त्रियों को खाने की मनाई है।"

"और पुरुषों के लिए मनाई नहीं है?"

राजलक्ष्मी ने मेरा सिर हिलाकर कहा- नहीं, मर्दों के लिए ये बँधे हुए आईन-कानून किसलिए? वे जो इच्छा हो खावें, जो इच्छा हो पहिनें, जैसे भी हो सुख से रहें- हम लोग आचार का पालन करती जावें, बस यही बहुत है। हम तो सैकड़ों कष्ट सह सकती हैं, किन्तु क्या तुम लोग सह सकते हो? यही देखो न शाम होते न होते ही भूल के मोर ऑंखों के आगे अंधेरा देखने लगे थे!"

मैंने कहा, "हो सकता है, किन्तु, हम कष्ट नहीं सहन कर सकते, इसमें हम लोगों के लिए भी तो कोई गौरव की बात नहीं है।"

राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा- "नहीं, इसमें तुम्हारा जरा भी अगौरव नहीं है। तुम लोग हम लोगों की तरह दासी की जाति नहीं हो जो कष्ट सहन करके जाओ। लज्जा की बात तो हमारे लिए है, यदि हम कष्ट न सहन कर सकें।"

मैंने कहा, "यह न्याय-शास्त्र तुम्हें सिखाया किसने? काशी के गुरुजी ने?"

राजलक्ष्मी मेरे मुँह के अत्यन्त निकट झुककर क्षण-भर स्थिर हो रही, फिर मुस्कराकर बोली, "मुझे जो कुछ शिक्षा मिली है सब तुम्हारे ही समीप- तुमसे बढ़कर गुरु मेरा और कोई नहीं।"

मैंने कहा, "तब तो फिर, गुरु से तुमने ठीक उलटी बात सीख रक्खी है। मैंने किसी दिन नहीं कहा कि तुम लोग दासी की जाति हो। बल्कि, मैं तो यही बात चिरकाल से मानता हूँ कि तुम दासी नहीं हो। तुम किसी तरह भी हम लोगों की अपेक्षा तिल-भर छोटी नहीं हो।"

राजलक्ष्मी की ऑंखें छलछला आईं, बोली, "सो मैं जानती हूँ। और जानती हूँ इसीलिए तो यह बात तुम्हारे समीप सीख पाई हूँ। तुम्हारी तरह यदि सभी पुरुष यही बात सोच सकते, तो फिर पृथ्वी-भर की समस्त स्त्रियों के मुँह से यही बात सुन पड़ती। कान बड़ा है और कान छोटा, यह समस्या ही कभी न उठती।"

"अर्थात्, यह सत्य बिना किसी विचार के सभी मान लेते?"

राजलक्ष्मी बोली, "हाँ।"

तब मैंने हँसकर कहा, "सौभाग्य से पृथ्वी-भर की स्त्रियाँ, तुम्हारे साथ सहमत नहीं हैं, यही खैरियत है। किन्तु, अपनी जाति को इतना हीन समझते तुम्हें लाज नहीं आती?"

मेरे उपहास पर राजलक्ष्मी ने ध्याकन दिया या नहीं, इसमें सन्देह है। यह बहुत ही सहज भाव से बोली, "किन्तु, इसमें तो हीनता की कोई बात नहीं है।"

मैंने कहा, "सो ठीक है, हम लोग मालिक हैं और तुम दासी, यह संस्कार इस देश की स्त्रियों के मन में इस तरह बद्धमूल हो गया है कि इसकी हीनता भी तुम्हारी नजर में नहीं आती। जान पड़ता है कि इसी पाप से पृथ्वी के सारे देशों की स्त्रियों की अपेक्षा तुम सचमुच ही आज छोटी हो गयी हो।"

राजलक्ष्मी एकाएक सख्त होकर बैठ गयी और दोनों नेत्रों को प्रदीप्त करके बोली, "नहीं, इस कारण नहीं। तुम्हारे देश की स्त्रियाँ अपने आपको छोटा समझने के कारण छोटी नहीं हो गयीं। सच यह है कि तुम्हीं लोगों ने उन्हें छोटा समझकर छोटा बना दिया है, और तुम खुद भी छोटे हो गये हो।"

यह बात मुझे अकस्मात् कुछ नयी-सी मालूम हुई। इसमें जो कुछ गूढ़ अर्थ छिपा हुआ था वह धीरे-धीरे सुस्पष्ट-सा होने लगा। सचमुच ही इसमें बहुत-सा सत्य छिपा हुआ है जो अब तक मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुआ था।

राजलक्ष्मी बोली, "तुमने तो उस भद्र पुरुष के सम्बन्ध में मजाक किया था किन्तु उसकी बात सुनकर मेरी ऑंखें कितनी खुल गयी हैं, सो तुम नहीं जानते।"

'नहीं जानता', यह स्वीकार करते ही वह कहने लगी, "नहीं जानते इसके कारण हैं। किसी भी वस्तु को जानने के लिए जब तक मनुष्य के हृदय के भीतर एक तरह की व्याकुलता नहीं उठती तब तक सब कुछ उसकी नजर में धुँधला ही बना रहता है। इतने दिन तुम्हारे मुँह से सुनकर सोचा करती थी कि सचमुच कि सचमुच ही यदि हमारे देश के लोगों का दु:ख इतना अधिक है, सचमुच ही यदि हमारा समाज इतना अधिक अन्धा है, तो उसमें मनुष्य जीता ही क्योंकर है, और उसको मानकर ही क्यों चलता है?"

मैं चुपचाप सुन रहा हूँ, यह देखकर वह आहिस्ते-आहिस्ते कहने लगी, "और तुम भी क्या समझोगे? कभी इन लोगों के बीच रहे नहीं, कभी इन लोगों के सुख-दु:ख भोगे नहीं; इसीलिए बाहर ही बाहर बाहर के समाज के साथ तुलना करके समझते हो कि इन लोगों के कष्टों की शायद कोई सीमा ही नहीं। धनी ज़मींदार पुलाव खाया करता है। वह अपनी किसी दरिद्र प्रजा को बासी भात खाते देखकर सोचता है कि 'इसके दु:ख की कोई सीमा नहीं है'- जिस तरह वह भूलता है उसी तरह तुम भूलते हो।" मैंने कहा, "तुम्हारा तर्क यद्यपि न्याय-शास्त्र के नियमानुसार नहीं चल रहा है, फिर भी पूछता हूँ कि तुमने कैसे जाना कि मुझे देश के सम्बन्ध में इससे अधिक ज्ञान नहीं है?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "हो ही कैसे सकता है? दुनिया में तुम्हारे जैसा स्वार्थी कोई भी है क्या? जो केवल अपने ही आराम के लिए भागता फिरता है, वह घर की खबर जानेगा ही कहाँ से? तुम जैसे लोग ही तो समाज की अधिक निन्दा करते फिरते हैं जो समाज से कोई सम्बन्ध ही नहीं रखते, बल्कि उसकी ओर से सर्वथा उपेक्षित रहते हैं। तुम लोग न तो अच्छी तरह पराए समाज को जानते हो और न अच्छी तरह अपने ही समाज को।"

मैंने कहा, "इसके बाद?"

राजलक्ष्मी बोली, "इसके बाद बाहर रहकर बाहरी सामाजिक व्यवस्था देखकर तुम लोग सोच में मरे जाते हो कि हमारी स्त्रियाँ मकान में कैद रहकर दिन-रात काम किया करती हैं, इसलिए उनके समान दु:खी, उनके समान पीड़ित, उनके समान हीन, शायद और किसी देश की स्त्रियाँ नहीं हैं। किन्तु कुछ दिन हमारी चिन्ता छोड़कर केवल अपनी ही चिन्ता कर देखो, अपने को कुछ ऊँचा उठाने की चेष्टा करो!- यदि कहीं कुछ सचमुच का दोष होगा तो वह केवल उसी समय नजर आयेगा- उससे पहले नहीं।"

"इसके बाद?"

राजलक्ष्मी ने क्रुद्ध होकर कहा, "तुम मुझसे मजाक कर रहे हो, यह मैं जानती हूँ। किन्तु, मैं मजाक की बात नहीं कर रही हूँ। घर की मालकिन सब लोगों से ख़राब खाती-पीती है, कभी-कभी तो नौकरों की अपेक्षा भी। बहुधा उसे नौकरों से भी अधिक मेहनत करनी पड़ती है। किन्तु, तुम इस दु:ख से व्याकुल होकर रोते हुए मत फिरो; हम लोगों को दासी के समान ही बनी रहने दो, दूसरे देशों जैसी रानी बना डालने की चेष्टा मत करो;- मैं यही बात तुमसे कहती हूँ।"

मैंने, कहा, यद्यपि तुम तर्क-शास्त्र के गाथे पर पैर देकर उसे डुबा देने की तजबीज कर रही हो, किन्तु, फिर भी यह स्वीकार करता हूँ कि शास्त्रानुसार तर्क करने का रास्ता मुझे भी नहीं मिल रहा है।"

उसने कहा, "इसमें तर्क करने- जैसा कुछ भी नहीं है।"

मैंने कहा, "हो भी, तो वह शक्ति मुझमें नहीं है-बड़ी नींद आ रही है। किन्तु, "तुम्हारी बात एक तरह से समझ रहा हूँ।"

राजलक्ष्मी जरा चुप रहकर बोली, "हमारे देश में चाहे जिस कारण हो, छोटे-बड़े, ऊँच-नीच, सभी लोगों में रुपयों का लोभ बहुत ही बढ़ गया है। कोई भी थोड़े में सन्तुष्ट होना नहीं जानता, चाहता भी नहीं। इससे कितना अनिष्ट हुआ है, इसका पता मैंने पा लिया है।"

"बात सच है, किन्तु तुमने पता किस तरह पाया?"

राजलक्ष्मी बोली, "रुपयों के लोभ से ही तो मेरी यह दशा हुई है! किन्तु पूर्व काल में शायद इतना लोभ नहीं था।"

मैंने कहा, "इस इतिहास को मैं ठीक-ठीक नहीं जानता।"

वह कहने लगी, "इतना कभी नहीं था। उस समय माता रुपये के लोभ से अपनी बेटी को कभी इस रास्ते पर नहीं ढकेलती, उस समय धर्म का डर था। आज तो मेरे पास रुपयों की कमी नहीं है किन्तु मेरे समान दु:खी भी क्या कोई है? रास्ते का भिखारी भी, मैं समझती हूँ, मुझसे बहुत अधिक सुखी है।"

उसका हाथ अपने हाथ में मैं रखकर पूछा, "तुम्हें सचमुच ही इतना कष्ट है!"

राजलक्ष्मी ने क्षण-भर मौन रहकर और एक बार ऑंचल से ऑंख-मुँह पोंछकर कहा, "मेरी बात मेरे अन्तर्यामी ही जानते हैं।"

इसके बाद दोनों ही गुमसुम हो रहे। गाड़ी की रफ्तार कम होकर वह एक छोटे स्टेशन पर आकर खड़ी हो गयी। कुछ देर बाद उसने फिर चलना शुरू किया। मैंने कहा, "क्या करने से तुम्हारा शेष जीवन सुख से कट सकता है, यह मुझे बतला सकती हो?"

राजलक्ष्मी बोली, "यह मैंने सोच रक्खा है मेरा सारा धन यदि किसी तरह चला जाय, कुछ न बच रहे-एकबारगी निराश्रय हो जाऊं, तो..."

अब फिर बिल्कु'ल गुमसुम हो रहे। उसकी बात इतनी स्पष्ट थी कि सभी समझ सकते हैं, मुझे भी मसझने में देर न लगी। कुछ देर चुप रहकर पूछा, "यह खयाल कब से आया तुम्हारे मन में?"

राजलक्ष्मी बोली, "जिस दिन अभया की बात सुनी उसी दिन से।"

"मैने कहा, "किन्तु, उन लोगों की जीवन-यात्रा तो बीच में ही खत्म हुई नहीं जाती। भविष्य में वे कितना दु:ख पा सकते हैं, सो तो तुम जानती नहीं।"

वह सिर हिलाकर बोली, "नहीं, जानती नहीं, यह सत्य है; किन्तु वे चाहे कितना ही दु:ख क्यों न पावें, मेरे समान दु:ख किसी दिन न पावेंगे, यह मैं निश्चयपूर्वक कह सकती हूँ।"

और भी कुछ देर चुप रहकर मैंने कहा, "लक्ष्मी, तुम्हारे लिए मैं अपना सर्वस्व त्याग कर सकता हूँ; किन्तु इज्जत का त्याग कैसे करूँ?"

राजलक्ष्मी बोली, "मैं क्या तुमसे कुछ त्यागने को कहती हूँ? इज्जत ही तो मनुष्य की असली चीज़ है। उसका यदि त्याग नहीं कर सकते तो त्याग की बात ही क्यों मुँह पर लाते हो? तुमसे तो मैंने कुछ भी त्याग करने के लिए नहीं कहा।"

मैंने कहा, "कहा नहीं, सो ठीक है; किन्तु, कर सकता हूँ। इज्जत जाने के बाद पुरुष का जीता रहना एक विडम्बना है। केवल इस इज्जत को छोड़कर तुम्हारे लिए मैं सभी कुछ विसर्जित कर सकता हूँ।"

राजलक्ष्मी ने सहसा हाथ खींच लिया और कहा, "मेरे लिए तुम्हें कुछ भी विसर्जित करना पड़ेगा। किन्तु तुम क्या यह समझते हो कि केवल तुम लोगों के ही इज्जत है, हम लोगों की कोई इज्जत नहीं? हम लोगों के लिए उसका त्याग देना क्या इतना अधिक सहज है? फिर भी, तुम लोगों के लिए ही सैकड़ों-हजारों स्त्रियों ने इसे धूल की तरह फेंक दिया है, यह अवश्य ही तुम नहीं जानते, पर मैं जानती हूँ।"

मेरे कुछ बोलने की चेष्टा करते ही उसने रोकर कहा, "रहने दो, अब और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। तुम्हें इतने दिन मैंने जो समझा था वह ग़लत था। तुम सो जाओ- अब इस सम्बन्ध में मैं भी कभी कोई ऐसी बात न कहूँगी, तुम भी न कहना।" इतना कहकर वह उठी और अपनी बेंच पर जा बैठी।

दूसरे दिन ठीक समय पर काशी आ पहुँचा और प्यारी के मकान में ही ठहरा। ऊपर के दो कमरों को छोड़कर क़रीब सारा का सारा मकान जुदा-जुदा उम्र की विधवा स्त्रियों से भरा हुआ था।

प्यारी बोली, "ये सब मेरी किराएदार हैं।" इतना कहकर वह मुँह फिराकर कुछ हँस दी।

मैंने कहा, "हँसी क्यों? शायद किराया अदा नहीं होता?"

प्यारी बोली, "नहीं, बल्कि कुछ न कुछ और देना पड़ता है।"

"इसके मानी?"

प्यारी इस दफे हँस पड़ी और बोली, "इसके मानी है, भविष्य की आशा पर मुझको ही इन्हें खाना-कपड़ा देकर जिलाए रखना है। जीती रहेंगी तभी तो बाद में देंगी, यह भी क्या नहीं समझ सकते?"

मैंने भी हँसकर कहा, "समझता नहीं तो! इस तरह भविष्य की आशा पर कितने लोगों को तुम्हें गुपचुप अन्न-वस्त्र जुटाना-पटाना पड़ता होगा- मैं केवल वही सोच रहा हूँ!" इनके सिवाय मेरी दो-एक रिश्तेदार भी हैं।"

"सो भी है क्या? किन्तु, मालूम कैसे हुआ तुम्हें कि रिश्तेदार हैं?"

प्यारी जरा सूखी हँसी हँसकर बोली, "माँ के साथ आने पर इस काशी में ही तो मेरी 'मौत' हुई थी, शायद तुम्हें यह याद नहीं रहा। तब असमय में ही जिन्होंने मेरी 'सद्गति' की थी, उन लोगों का वह उपकार क्या प्राण रहते कभी भूला जा सकता है?"

मैं चुप हो रहा। प्यारी कहने लगी- "इन लोगों का वह शरीर बड़ा ही दयापूर्ण है। इसीलिए, पास रखकर इन पर जरा कड़ी नजर रखती हूँ, जिससे इन्हें और अधिक उपकार करने का सुयोग न मिले।"

उसके चेहरे की ओर निहारते ही एकाएक मेरे मुँह से बाहर निकल गया, "तुम्हारे हृदय के भीतर क्या है-बीच-बीच में उसे ही चीरकर देखने की इच्छा होती है राजलक्ष्मी!"

"मरने पर देखना। अच्छा, कमरे में जाकर सो जाओ। रसोई बन जाने पर उठा दूँगी।" इतना कहकर और हाथ के इशारे से कमरा दिखाकर वह जीने से नीचे उतर गयी। मैं वहीं पर कुछ देर चुपचाप खड़ा रहा। यह नहीं कि आज मैंने उसके हृदय का कोई नया परिचय प्राप्त किया हो, किन्तु, मेरे खुद के हृदय में यह सामान्य कहानी एक नये चक्कर की सृष्टि कर गयी।

रात को प्यारी बोली, "तुम्हें फिजूल कष्ट देकर इतनी दूर ले आई। गुरुदेव तीर्थाटन करने निकल गये हैं, उनसे नहीं मिला सकी।"

मैंने कहा, "इसके लिए मैं जरा भी दु:खित नहीं हूँ। अब तो कलकत्ते लौट चलना होगा न?"

प्यारी ने गर्दन हिलाकर बताया, "हाँ।"

मैंने कहा, "क्या मेरा साथ चलना आवश्यक है? न हो तो मैं जरा और पश्चिम की ओर घूम आना चाहता हूँ।"

प्यारी ने कहा, "बंकू के ब्याह में तो अब भी कुछ देर है। चलो न, मैं भी प्रयाग चलकर स्नान कर आऊँ।"

मैं जरा मुश्किल में पड़ गया। मेरे दूर के रिश्ते के एक चचा वहाँ नौकरी करते हैं। सोचा था कि वहीं जाकर ठहरूँगा। सिवाय इसके और भी कई परिचित मित्र दोस्त वहाँ रहते हैं।

प्यारी ने निमेष-मात्र में मेरे मन का भाव ताड़कर कहा, "मैं साथ रहूँगी तो शायद कोई देख लेगा, यही न?'

अप्रतिभ होकर कहा, "वास्तव में कलंक चीज़ ही ऐसी है कि लोग झूठे कलंक का भी भय किये बगैर नहीं रह सकते।"

प्यारी ने जबर्दस्ती हँसते हुए कहा, "सो ठीक है। गत साल आरे में तो तुम्हें एक तरह से गोद में लिये ही लिये मेरे दिन-रात कटे हैं। सौभाग्य से उस दशा में किसी ने तुम्हें नहीं देखा। उस जगह शायद तुम्हारी जान-पहिचान का कोई बन्धु-बान्धव नहीं था।"

मैंने अतिशय लज्जित होकर कहा, "मुझे ताना मारना वृथा है। मनुष्यता के लिहाज़ से मैं तुम्हारी अपेक्षा बहुत हीन हूँ, इस बात को मैं अस्वीकार करता नहीं।"

प्यारी तीक्ष्ण स्वर से बोल उठी, "ताना! तुम्हें ताना मार सकूँगी, यही सोचकर शायद मैं वहाँ गयी थी, क्यों? देखो, मनुष्य के पीड़ा पहुँचाने की भी एक हद होती है- उसे मत लाँघ जाना।"

कुछ देर चुप रहकर फिर बोली, "ठीक, कलंक ही तो है! यदि मैं होती तो इस कलंक को सिर पर लेकर लोगों को बुलाकर दिखाती फिरती, पर ऐसी बात मुँह से बाहर न निकाल सकती।"

मैंने कहा, "तुमने मुझे प्राण-दान ज़रूर दिया है-किन्तु, मैं अत्यन्त छोटा आदमी हूँ राज्यलक्ष्मी, तुम्हारे साथ तुलना ही नहीं हो सकती।" राजलक्ष्मी दर्पयुक्त स्वर में बोली, "प्राण-दान यदि दिया है तो अपनी ही गरज से दिया है, तुम्हारी गरज से नहीं। उसके लिए तुम्हें रत्ती-भर भी अहसान मानने की ज़रूरत नहीं। किन्तु मैं तुम्हें छोटा-छोटी तबीयत का आदमी नहीं खयाल कर सकती। ऐसा होता तो आफत कटती, गले में फाँसी लगाकर सारी ज्वाला को जुड़ा सकती।" इतना कहकर वह मेरे जवाब की राह देखे बगैर ही कमरे से बाहर चली गयी।

दूसरे दिन सुबह राजलक्ष्मी चाय देकर चुपचाप चली जा रही थी कि मैंने बुलाकर कहा, "बात-चीत बन्द है क्या?"

वह पलटकर खड़ी हो गयी, बोली, "नहीं तो, कुछ कहोगे?"

मैंने कहा, "चलो, एक दफे प्रयाग घूम आवें?"

"ठीक तो है, जाइए।"

"तुम भी चलो।"

"अनुग्रह करते हो क्या?"

"नहीं चाहतीं?"

"नहीं। ज़रूरत होगी तब माँग लूँगी, इस समय नहीं।" इतना कहकर वह अपने काम से चली गयी।

मेरे मुँह से केवल एक लम्बी साँस बाहर निकल गयी, किन्तु कोई बात नहीं निकली।

दोपहर को भोजन के समय मैंने हँसकर कहा, "अच्छा लक्ष्मी, मुझसे बोलना बन्द करके क्या तुमसे रहा जायेगा जो इस असाध्यह-साधन की कोशिश कर रही हो?" राजलक्ष्मी ने शान्त-गम्भीर मुद्रा से कहा- "सामने होने पर किसी से नहीं रहा जाता- मुझसे भी नहीं रहा जायेगा। इसके सिवाय, यह मेरी इच्छा भी नहीं है।"

"तब फिर इच्छा क्या है?"

राजलक्ष्मी बोली, "मैं कल से ही सोच रही हूँ कि इस खींच-तान को बन्द किये वगैर नहीं चल सकता। तुमने भी एक तरह से साफ-साफ जता दिया है और मैं भी एक तरह से खूब जान गयी हूँ। ग़लती मेरी ही हुई, यह मैं स्वीकार करती हूँ, किन्तु..."

उसे सहसा रुकते देख मैंने पूछा, "किन्तु, क्या?"

राजलक्ष्मी बोली, "किन्तु, कुछ भी नहीं। यह जो एक निर्लज्ज वाचाल की तरह याचना करती तुम्हारे पीछे-पीछे घूमती फिरती हूँ," इतना कहकर उसने एकाएक अपना मुँह मानो घृणा से सिकोड़ लिया और कहा, "लड़का ही क्या सोचता होगा, नौकर-चाकर ही मन ही मन क्या कहते होंगे! राम, राम, मानो मैंने इसे एक हँसी का व्यापार बना डाला है।"

कुछ देर ठहर कर फिर कहने लगी, "बुढ़ापे में यह क्या मुझे सोहता है? तुम इलाहाबाद जाना चाहते थे, जाओ। फिर भी यदि हो सके तो बर्मा रवाना होने के पहिले एक दफे भेंट कर जाना।" इतना कहकर वह चली गयी।

साथ ही साथ मेरी भूख भी गायब हो गयी। उसका मुँह देखकर आज मुझे पहले ही पहल ज्ञात हुआ कि यह सब मान-मनौवल का मामला नहीं है, सचमुच ही उसने कुछ न कुछ सोचकर स्थिर कर लिया है।

संध्याष के समय आज एक हिन्दुस्तानी दासी जल-पान आदि सामग्री लेकर आई तो उससे कुछ अचरज के साथ प्यारी का हाल पूछा। जवाब सुनकर मैंने और भी अचरज के साथ जाना कि प्यारी मकान में नहीं है, वह साज-सिंगार करके फिटन पर कहीं गयी है। फिटन कहाँ से आई, उसे साज-सिंगार करके कहाँ जाने की ज़रूरत पड़ गयी- सो कुछ भी न समझा। तब स्वयं उसी के मुँह की वह बात याद आ गयी कि वह काशी में ही एक दिन 'मरी' थी।

यह सच है कि कुछ भी समझ में न आया, फिर भी, इस खबर से सारा मन बेस्वाद हो गया।

शाम हुई, घर-घर में दीए जले, किन्तु राजलक्ष्मी नहीं लौटी।

चादर कन्धों पर डालकर जरा घूम आने के लिए बाहर निकल पड़ा। रास्ते-रास्ते चक्कर काटता, बहुत देखता-सुनता, रात के दस बजे के बाद मकान पर लौटा, तो सुना कि प्यारी तब भी लौटकर नहीं आई है। मामला क्या है? कुछ डर-सा मालूम होने लगा। सोच ही रहा था कि रतन को बुलाकर सारा संकोच दूर करके इस सम्बन्ध का पता लगाऊँ या नहीं कि एक भारी जोड़ी के घोड़ों की टापों का शब्द सुनाई दिया। खिड़की में से झाँका तो देखता हूँ एक बड़ी भारी फिटन मकान के सामने आकर खड़ी है।

प्यारी उतरकर आई। ज्योत्स्ना के आलोक में उसके सर्वांग के जेवर झलमला उठे। जो दो भले आदमी फिटन में बैठे थे वे धीमे स्वर से जान पड़ा, प्यारी को सम्बोधन कर कुछ कह रहे हैं जिसे मैं सुन न सका। वे बंगाली हैं या बिहारी, सो भी न जान सका। चाबुक खाकर घोड़े पलक मारते न मारते ऑंखों के ओझल हो गये।


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राजलक्ष्मी ने मेरी खबर लेने के लिए उसी साज-सिंगार के साथ मेरे कमरे में प्रवेश किया।

मैं उछलकर और उसकी ओर दाहिना हाथ पसारकर थिएटरी गले से बोला, "अरी पाखण्डिनी रोहिणी1! तू गोविन्द2 लाल को नहीं पहचानती? अहा! आज यदि मेरे पास एक पिस्तौल होती, या एक तलवार ही होती!"

राजलक्ष्मी ने सूखे कण्ठ-स्वर से कहा, "तो क्या करते?- खून?"

हँसकर बोला, "नहीं प्यारी, मुझे इतना बड़ा नवाबी शौक़ नहीं है। इसके सिवाय इस बीसवीं शताब्दि में ऐसा निष्ठुर राक्षस धाम कौन है जो संसार की इतनी बड़ी आनन्द की खान को पत्थर से मूँद दे? बल्कि, आर्शीवाद देता हूँ कि हे बाई-कुल-शिरोमणि! तुम दीर्घजीवी होओ- तुम्हारा सुन्दर रूप त्रिलोक विजयी हो, तुम्हारा कण्ठ-स्वर वीणा-विनिन्दित हो, तुम्हारे इन दोनों चरण कमलों नृत्य उर्वशी-तिलोत्तमा का गर्व खर्व कर दे, और मैं दूर से तुम्हारा जय-गान करके धन्य होऊँ!" प्यारी बोली, "इन सब बातों का अर्थ?"

मैंने कहा, "अर्थमनर्थम्-! उसे जाने दो। मैं इसी एक बजे की गाड़ी से बिदा होता हूँ। अभी तो प्रयाग जाता हूँ, इसके बाद जाऊँगा बंगालियों के परमतीर्थ चाकरिस्तान- अर्थात् बर्मा को। यदि समय और सुयोग होगा, तो मिलकर जाऊँगा।"

"मैं कहाँ गयी थी, यह सुनना भी आवश्यक नहीं समझते?"

"नहीं, बिल्कुतल नहीं।"

"यह बहाना पाकर क्या तुम एकदम चले जा रहे हो?"

मैंने कहा, "इस पापी मुँह से अब भी कुछ नहीं कह सकता। इस गोरख-धन्धे से यदि पार हो सकूँ तो..."

प्यारी कुछ देर चुपचाप खड़ी रही और बोली, "तुम क्या मुझ पर जो जी चाहे वही अत्याचार कर सकते हो?"

मैं बोला, "जो जी चाहे? बिल्कुनल नहीं। बल्कि, जान-अनजान में यदि बिन्दुमात्र अत्याचार किया हो तो उसके लिए क्षमा चाहता हूँ।"

"इसके माने, आज रात को ही तुम चले जाओगे?"

"हाँ।"

"मुझे बिना अपराध दण्ड देने का तुम्हें अधिकार है?"

1-2. बंकिमबाबू के 'विषवृक्ष' नामक उपन्यास के दो पात्र।

"नहीं, तिल-भर भी नहीं। किन्तु, यदि मेरे जाने को ही तुम 'दण्ड देना' समझती हो, तो वह अधिकार मुझे ज़रूर है।"

प्यारी ने हठात् कोई जवाब नहीं दिया। मेरे मुँह की ओर कुछ क्षण चुपचाप देखते रहकर कहा, "मैं कहाँ गयी थी, क्यों गयी थी- नहीं सुनोगे?"

"नहीं, मेरी सम्मति लेकर तो तुम वहाँ गयी नहीं थी, जो लौट आकर उसका हाल सुनाओगी। सिवाय इसके; उसके लिए मेरे पास न समय है और न इच्छा।"

प्यारी चोट खाई हुई सर्पिणी की तरह एकाएक फुंकार उठी, "मेरी भी सुनाने की इच्छा नहीं है। मैं किसी की ख़रीदी हुई बाँदी नहीं हूँ जो कहाँ जाऊँ और कहाँ न जाऊँ, इसकी अनुमति लेती फिरूँ! जाते हो, जाओ!" यों कहकर रूप और अलंकारों की एक हिलोर-सी उठाकर वह तेज़ीके साथ कमरे से बाहर हो गयी।

आदमी गाड़ी बुलाने गया। कोई घण्टे-भर बाद सदर दरवाज़े पर एक गाड़ी के खड़े होने का शब्द सुनकर बैग हाथ में लेकर जा ही रहा था कि प्यारी आकर पीछे खड़ी हो गयी। बोली, "इसे क्या तुम बच्चों का खिलवाड़ समझते हो? मुझे अकेली छोड़कर चले जाओगे, तो नौकर-चाकर क्या सोचेंगे? तुम क्या इन लोगों के सामने भी मुझे मुँह दिखाने योग्य न रक्खोगे?"

पलटकर खड़े होकर कहा, "अपने नौकरों के साथ तुम निपटती रहना- मेरा उससे कोई ताल्लुक नहीं।"

"वह न हो न सही, किन्तु लौटकर मैं बंकू को ही क्या जवाब दूँगी?"

"यही जवाब दे देना कि वे पश्चिम को घूमने चले गये हैं।",

"इस पर क्या कोई विश्वास करेगा?

"जिस पर विश्वास किया जा सके ऐसी ही कोई बात बनाकर कह देना।"

प्यारी क्षण-भर मौन रहकर बोली, "यदि कुछ अन्याय ही कर बैठी हूँ तो क्या वह माफ नहीं हो सकता? तुम क्षमा न करोगे तो और कौन करेगा?"

"मैं बोला, "प्यारी, यह तो एक बाँदी-दासी सरीखी बात हुई। तुम्हारे मुँह से तो नहीं सोहती।"

इस ताने का प्यारी सहसा कोई उत्तर न दे सकी। उसका मुँह लाल हो गया, वह चुपचाप खड़ी रही। यह साफ़ मालूम हो गया कि वह प्राणपण से अपने आपको सँम्हाालने की चेष्टा कर रही है। बाहर से गाड़ीवान ने चिल्लाकर देर का कारण पूछा। मेरे चुपचाप बैग हाथ में लेते ही प्यारी धप से पैरों के समीप बैठ गयी और रुद्ध स्वर में बोल उठी, "मैं सचमुच का अपराध कभी कर ही नहीं सकती, यह जानते हुए भी यदि तुम दण्ड देना चाहते हो तो अपने हाथ से दो, किन्तु, घर-भर के लोगों के समीप मेरा सिर नीचा मत करो। यदि आज तुम इस तरह चले जाओगे तो मैं अब किसी के समीप कभी अपना मुँह ऊँचा करके खड़ी न हो सकूँगी।"

हाथ का बैग नीचे रखकर एक चौकी पर बैठ गया और बोला- "अच्छा आज तुम्हारे-हमारे बीच अन्तिम फैसला हो जाय। तुम्हारा आज का आचरण मैंने माफ कर दिया। किन्तु, मैंने बहुत विचार करके देखा है कि हम दोनों का मिलना-जुलना अब नहीं को सकेगा।"

प्यारी ने अपना अत्यन्त उत्कण्ठित मुँह मेरे मुँह की ओर उठाकर डरते हुए पूछा, "क्यों?"

मैं बोला, "अप्रिय सत्य सह सकोगी?"

प्यारी गर्दन हिलाकर अस्फुट स्वर में कहा, "हाँ, सह सकूँगी।"

किन्तु, किसी आदमी के व्यथा सहने को तैयार हो जाने से ही कुछ व्यथा देने का कार्य सहज नहीं हो जाता। मुझे बहुत देर तक चुपचाप बैठकर सोचना पड़ा। फिर भी मैंने स्थिर कर लिया कि आज किसी तरह भी अपना इरादा नहीं बदलूँगा और इसीलिए अन्त में मैंने धीरे से कहा, "लक्ष्मी, तुम्हारा आज का व्यवहार माफ करना कितना ही कठिन क्यों न हो, मैंने माफ कर दिया। किन्तु, तुम स्वयं इस लोभ को किसी तरह नहीं छोड़ सकोगी। तुम्हारे पास बहुत धन-दौलत है- बहुत-सा रूप-गुण है। बहुतों पर तुम्हारा असीम प्रभुत्व भी है। संसार में इससे बढ़कर लोभ की वस्तु और कोई नहीं है। तुम मुझे प्यार कर सकती हो, किन्तु इस मोह को किसी तरह भी नहीं काट सकोगी।"

राजलक्ष्मी ने मृदु कण्ठ से कहा, "अर्थात् इस तरह का काम मैं बीच-बीच में करूँगी ही?"

जवाब में मैं केवल मौन हो रहा। वह खुद भी कुछ देर चुप रहकर बोली, "उसके बाद?"

"उसके बाद एक दिन ताश के मकान की तरह सब गिर पड़ेगा। उस दिन की उस हीनता से तो यही भला है कि आज मुझे हमेशा के लिए रिहाई दे दो-तुम्हारे समीप मेरी यही प्रार्थना है।"

प्यारी बहुत देर तक मुँह नीचा किये चुपचाप बैठी रही। इसके बाद जब उसने मुँह उठाया तब देखा, उसकी ऑंखों से पानी गिर रहा है। उसे ऑंचल से पोंछकर पूछा, "क्या मैंने कभी तुम्हें कोई छोटा काम करने के लिए प्रवृत्त किया है?"

इस गिरती हुई अश्रु-धारा ने मेरे संयम की भीत पर चोट पहुँचाई; किन्तु, बाहर से मैंने उसे किसी तरह प्रकट नहीं होने दिया। शान्त दृढ़ता के साथ कहा, "नहीं, किसी दिन नहीं। तुम स्वयं छोटी नहीं हो। छोटा काम तुम स्वयं कभी कर नहीं सकती और दूसरों को भी नहीं करने दे सकतीं।"

फिर कुछ ठहरकर कहा, "किन्तु दुनिया तो मनसा पण्डित की पाठशाला की उस राजलक्ष्मी को पहिचानेगी नहीं। वह तो पहिचानेगी सिर्फ पटना की प्रसिद्ध प्यारी बाई को। तब दुनिया की नजरों में कितना छोटा हो जाऊँगा, सो तुम क्या नहीं देख सकती? बतलाओ, तुम उसे किस तरह रोकोगी?"

राजलक्ष्मी ने एक लम्बी साँस छोड़कर कहा, "किन्तु, उसे तो सचमुच में छोटा होना नहीं कहते?"

मैंने कहा, "भगवान की नजर में न हो, किन्तु, संसार की ऑंखें भी तो उपेक्षा करने की चीज़ नहीं है लक्ष्मी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "किन्तु, उन्हीं की नजर को ही तो सबसे पहले मानना उचित है।"

मैंने कहा, एक तरह से यह बात सच है। किन्तु, उनकी नजर तो हमेशा दीख नहीं पड़ती और फिर जो दृष्टि संसार में दस आदमियों के भीतर से प्रकाश पाती है, वह भी भगवान की ही दृष्टि है राजलक्ष्मी, इसे भी अस्वीकार करना अन्याय है।"

"इसी डर से तुम मुझे जन्म-भर के लिए छोड़कर चले जाओगे?"

मैं बोला, "फिर मिलूँगा। तुम कहीं भी क्यों न होओ, बर्मा जाने के पहले मैं एक दफे और भी तुमसे मिल जाऊँगा।"

राजलक्ष्मी तेज़ीके साथ सिर हिलाकर रूँआसे स्वर से कह उठी, "जाते हो तो जाओ। किन्तु तुम मुझे चाहे जैसा क्यों न समझो, मुझसे बढ़कर अपना तुम्हारा और कोई नहीं। पर उसी से मुझको त्याग कर जाना दस आदमियों की निगाह में धर्म है, यह बात मैं कभी स्वीकार नहीं करूँगी।" इतना कहकर वह तेज़ीसे कमरा छोड़कर चली गयी।

घड़ी निकालकर देखा, अब भी समय है, अब भी शायद एक बजे की गाड़ी मिल जाय। चुपचाप बैग उठाकर धीरे से उतरकर मैं गाड़ी में जा बैठा।

इनाम के लोभ से गाड़ीवान ने प्राणपण से दौड़कर स्टेशन पहुँचा दिय। किन्तु उसी क्षण पश्चिम की ट्रेन ने प्लेटफार्म छोड़ दिया। पूछने से मालूम हुआ कि आधा घण्टे बाद ही एक ट्रेन कलकत्ते की ओर जायेगी। सोचा, चलो, यही अच्छा है; गाँव का मुँह बहुत दिन से नहीं देखा- उस जंगल में ही जाकर बाकी के कुछ दिन काट दूँ।

इसलिए, पश्चिम के बदले पूर्व का टिकट ख़रीद कर आधा घण्टे के बाद एक विपरीत-गामिनी भाफ की गाड़ी में बैठकर काशी से चल दिया।


000 बहुत दिनों बाद फिर एक दिन शाम को गाँव में आकर प्रवेश किया। मेरा मकान उस समय सगे-सम्बन्धी रिश्तेदारों तथा उनके भी रिश्तेदारों से भरा हुआ था। बड़े मजे से सारे घर को घेरकर उन्होंने अपनी घर-गिरस्ती फैला रक्खी थी, कहीं सुई रखने के लिए भी जगह नहीं थी।

मेरे एकाएक आ पहुँचने और वहाँ रहने के इरादे को सुनकर आनन्द के मारे उनका चेहरा स्याह हो गया। वे कहने लगे, "आहा, यह तो बड़े आनन्द की बात है। इस बार ब्याह करके संसारी बन जाओ श्रीकान्त, हम लोग देखकर अपनी ऑंखें ठण्डी करें।"

मैंने कहा, "इसीलिए तो आया हूँ। इस समय कम से कम मेरी माँ का कमरा ख़ाली कर दो, मैं अपने हाथ-पाँव फैलाकर जरा लेट रहूँ।"

मेरे पिता की ममेरी बहिन अपने पति-पुत्र के साथ कुछ दिन से रह रही थी। वे आकर बोलीं, "ठीक तो कहते हो!"

मैंने कहा, "अच्छा, न हो तो मैं बाहर के कमरे में पड़ रहूँगा।"

जाकर देखा, कोने में सुर्खी, और एक कोने में चूने का ढेर लगा हुआ है। उसके भी 'मालिक' बोले, "ठीक तो है। देखता हूँ कि वे सब चीज़ें तो जरा देख-सुनकर हटानी पड़ेंगी। पर कमरा तो छोटा नहीं है, तब तक न हो तो इस किनारे एक तख्त-पोश बिछाकर- क्या कहते हो श्रीकान्त?"

मैंने कहा, "अच्छा रात-भर के लिए न हो तो यही सही।"

वास्तव में मैं इतना थक गया था कि मालूम होता था जहाँ भी हो जरा-सी सोने को जगह भर मिल जाय तो जान में जान आ जाय। बर्मा की उस बीमारी के बाद से अब तक शरीर पूरी तौर से स्वस्थ और सबल न हो पाया था। भीतर ही भीतर एक तरह का अवसाद प्राय: भी अनुभव होता था। इसी से शाम के बाद जब माथा दुखने लगा तब विशेष अचरज नहीं हुआ।

नयी बनी हुई बहिन ने आकर कहा- "अरे यह तो जरा गर्मी-सी चढ़ गयी है भात खाकर सोने से ही चली जायेगी।"

तथास्तु। वही हुआ। गुरुजन की आज्ञा शिरोधार्य करके गर्मी दूर करने के लिए भात खाकर शय्या ग्रहण कर ली। पर सुबह नींद टूटी खूब अच्छी तरह बुखार लिये हुए! दीदी ने शरीर पर हाथ रखकर कहा, "कुछ नहीं, यह तो मलेरिया है, इसमें भोजन किया जाता है।"

किन्तु अब हाँ में हाँ न मिला सका। बोला, "नहीं जीजी, मैं अब तक तुम्हारे मलेरिया-राज की प्रजा नहीं बना हूँ। उनकी दुहाई देकर अत्याचार किया जाना शायद मैं सहन नहीं कर सकूँ। आज मेरी लंघन है।"

सारी रात गुजरी, दूसरा दिन गुजरा, उसके बाद का दिन भी कट गया, किन्तु बुखार ने पीछा नहीं छोड़ा। बल्कि, उसे अधिकाधिक चढ़ते देख मन ही मन व्याकुल हो उठा। गोविन्द डॉक्टर इस बेला उस बेला देखने आने लगे। नाड़ी, पकड़कर, जीभ देखकर, पेट ठोककर 'सुस्वादु' ओषधियों की योजना कर केवल 'लागत के दाम' भर लेने लगे, किन्तु एक-एक दिन करके सारा सप्ताह इसी तरह गुजर गया। मेरे पिता के मामा, मेरे बाबा आकर बोले, "इसीलिए तो भइया, मैं कहता हूँ कि वहाँ खबर पठा दो, तुम्हारी फुआ को आ जाने दो। बुखार तो जैसे..."

बात पूरी न होने पर भी मैं समझ गया कि बाबा कुछ मुश्किल में पड़ गये हैं। इस तरह और भी चार-पाँच दिन बीत गये, किन्तु, बुखार में कोई फ़र्क़ नहीं हुआ। उस दिन सुबह गोविन्द डॉक्टर ने आकर यथारीति दवाई देकर तीन दिन के बाकी 'लागत के दाम' माँगे। शय्या में पड़े-पड़े किसी तरह हाथ बढ़ाकर अपना बैग खोला- देखा तो मनी-बैग गायब है! अतिशय शंकित होकर मैं उठ बैठा। बैग को औंधा करके हर एक चीज़ अलग-अलग करके खोज की; किन्तु जो नहीं था सो नहीं मिला।

गोविन्द डॉक्टर मामला समझकर चिन्तित होकर बार-बार सवाल करने लगे, "कुछ चला गया है क्या?"

मैंने कहा, "नहीं, कुछ भी तो नहीं गया।"

किन्तु उनकी दवा का मूल्य जब मैं न दे सका तब वे समझ गये। स्तम्भित की तरह कुछ देर खड़े रहकर उन्होंने पूछा, "थे कितने?"

"कुछ थोड़े-से।"

"चाबी को जरा सावधानी से रखना चाहिए भइया। खैर, तुम पराए नहीं हो, रुपये की चिन्ता मत करना। अच्छे हो जाओ, उसके बाद जब सुभीता हो भेज देना। इलाज में कोई कसर न होगी।" इतना कहकर डॉक्टर साहब गैर होकर भी परम आत्मीय से भी अधिक सान्त्वना देकर चले गये। उनसे कह दिया कि "यह बात कोई सुन न पावे।"

डॉक्टर साहब बोले, "अच्छा, अच्छा, देखा जायेगा।"

देहात में विश्वास पर रुपये उधर देने की चाल नहीं है। रुपया ही क्यों, एक चवन्नी भी ख़ाली हाथ उधार माँगने पर लोग समझते हैं कि यह आदमी खालिस दिल्लगी कर रहा है। क्योंकि, इस बात की देहात के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि संसार में इतना नासमझ भी कोई है जो ख़ाली हाथ उधार चाहता है, अतएव, मैंने यह कोशिश भी नहीं की। पहले से ही स्थिर कर लिया था कि इसकी सूचना राजलक्ष्मी को नहीं दूँगा। जरा स्वस्थ हो जाऊँ तब जो हो सकेगा करूँगा। मन में सम्भवत: यह संकल्प था कि अभया को पत्र लिखकर रुपये मँगाऊँगा। किन्तु, इसके लिए समय नहीं मिला। सहसा सेवा-शुश्रूषा का सुर भी 'तारा' से 'उदारा' में उतर पड़ते ही समझ गया कि मेरी विपत्ति की बात मकान के भीतर छिपी नहीं रही है।

परिस्थिति को संक्षेप में जताकर राजलक्ष्मी को एक चिट्ठी लिखी अवश्य, किन्तु उसमें मैं अपने आपको इतना हीन, अपमानित, महसूस करने लगा कि किसी तरह भी उसे न भेज सका- फाड़कर फेंक दिया। दूसरा दिन इसी तरह कट गया। किन्तु, इसके बाद के दिन ने किसी तरह भी कटना न चाहा। उस दिन किसी ओर से कोई रास्ता न देख पाकर अन्त में एक तरह से जान पर खेलकर ही कुछ रुपयों के लिए राजलक्ष्मी को पत्र लिखकर पटना और कलकत्ते के ठिकाने पर भेज दिए। वह रुपये भेजेगी, इसमें जरा भी सन्देह नहीं था, फिर भी, उस दिन सुबह से ही मानो एक प्रकार के उत्कण्ठित संशय से पोस्टमैन की आशा में सामने की खुली खिड़की में से रास्ते के ऊपर अपनी दृष्टि बिछाए हुए उन्मुख पड़ा रहा।

समय निकल गया। आज अब उसकी आशा नहीं है। ऐसा सोचकर करवट बदलने की तैयारी कर रहा था कि उस समय दूर पर एक गाड़ी के शब्द से चकित होकर तकिये पर भार देकर उठ बैठा। गाड़ी आकर ठीक सामने ही खड़ी हो गयी। देखता हूँ, कोचवान के बगल में रतन बैठा है। उसके नीचे उतरकर गाड़ी का दरवाज़ा खोलते ही जो दिखाई दिया उस पर सत्य मानकर विश्वास करना कठिन हो गया।

प्रकट रूप से दिन के समय इस गाँव के रास्ते पर राजलक्ष्मी आकर खड़ी हो सकती है, यह मेरी कल्पना के भी परे की बात थी।

रतन बोला- "ये हैं बाबूजी।"

राजलक्ष्मी ने केवल एक बार मेरे मुँह की ओर देखा। गाड़ीवान बोला- "माँ, देर लगेगी? घोड़ा खोल दूँ?"

"जरा ठहरो।" कहकर उसने अविचिलित धीर पद रखते हुए मेरे कमरे में प्रवेश किया। प्रणाम करके, पैरों की धूलि मस्तक पर लगाकर और हाथ से मस्तक और छाती का उत्ताप देखकर कहा, "इस समय तो अब बुखार नहीं है। उस जून सात बजे की गाड़ी से जाना हो सकेगा? घोड़े छोड़ देने को कह दूँ?"

मैं अभिभूत की तरह उसके मुँह की ओर निहार रहा था। बोला, "दो दिन से बुखार आना तो बन्द है, क्या मुझे आज ही ले चलना चाहती हो?"

राजलक्ष्मी बोली, "न हो तो आज रहने दो। रात में चलने की ज़रूरत नहीं, सर्दी लग सकती है, कल सुबह ही चलेंगे।"

इतनी देर में जैसे मैं होश में आ गया। बोला, "इस गाँव में इस मुहल्ले के बीच तुम आई किस साहस से? तुम क्या सोचती हो कि यहाँ तुम्हें कोई भी न पहिचान सकेगा?" राजलक्ष्मी ने सहज में ही कहा, "भले ही पहिचान लें। यहीं तो पैदा हुई और बड़ी हुई और यहीं पर लोग मुझे पहिचान न सकेंगे? जो देखेगा वही पहिचान लेगा।" "तब?"

"क्या करूँ बताओ? मेरा भाग्य! नहीं तो तुम यहाँ आकर बीमार ही क्यों पड़ते?"

"आई क्यों? रुपये मँगाए थे, रुपये भेज देने से ही तो चल जाता!"

"सो क्या कभी हो सकता है? ऐसी बीमारी की खबर सुनकर क्या केवल रुपये भेजकर ही स्थिर रह सकती हूँ?"

मैंने कहा, "तुम तो शायद स्थिर हो गयीं, किन्तु मुझे तो बहुत ही अस्थिर कर दिया। अभी ही यहाँ जब सब आ पड़ेंगे तब तुम अपना मुँह किस तरह दिखाओगी, और मैं ही क्या जवाब दूँगा?"

राजलक्ष्मी ने जवाब में केवल एक बार और अपने ललाट को छूकर कहा, "जवाब और क्या दोगे- मेरा भाग्य!"

उसकी बेपरवाही और उदासीनता से अत्यन्त असहिष्णु होकर बोला, "भाग्य तो ठीक है! किन्तु लाज-शर्म को एकबारगी ही चाट बैठी हो? यहाँ मुँह दिखाते भी तुम्हें हिचकिचाहट नहीं हुई?"

राजलक्ष्मी ने वैसे ही उदास कण्ठ से जवाब दिया, "मेरी लाज-शरम जो कुछ है सो इस समय बस तुम ही हो।"

इसके बाद अब मैं और कहूँ ही क्या! सुनूँ भी क्या? ऑंखें मूँदकर चुपचाप लेट रहा।

कुछ देर बाद पूछा, "बंकू का विवाह निर्विघ्न हो गया?"

राजलक्ष्मी बोली, "हाँ।"

"अभी कहाँ से आ रही हो?- कलकत्ते से?"

"नहीं पटने से। वहीं पर तुम्हारी चिट्ठी मिली थी।"

"मुझे कहाँ ले जाओगी?- पटने?"

राजलक्ष्मी ने कुछ सोचकर कहा, "एक बार तो वहाँ तुम्हें जाना ही पड़ेगा। पहले कलकत्ते चलें, वहाँ पर तुम्हें दिखा लूँ, उसके बाद तन्दुरुस्त होने पर..."

मैंने सवाल किया, "किन्तु, उसके बाद भी मुझे पटना क्यों जाना पड़ेगा?"

राजलक्ष्मी बोली, दान-पत्र की तो वहीं रजिस्टरी करानी पड़ेगी। लिखा-पढ़ी एक तरह से सब कर आई हूँ; किन्तु तुम्हारे हुक्म के बिना तो कुछ हो न सकेगा।" अत्यन्त अचरज के साथ पूछा, "क्या बात का दान-पत्र? किसके नाम?"

राजलक्ष्मी बोली, "मकान तो दोनों बंकू को दिये हैं। केवल काशी का मकान गुरुदेव को देना विचारा है। और कम्पनी के कागज, गहने वगैरह का हिस्सा-बाँट भी अपनी समझ-बूझ के अनुसार एक तरह से कर आई हूँ। अब तुम्हारे कहने- भर की..."

मेरे अचरज की सीमा नहीं रही, बोला, "ऐसी अवस्था में अब तुम्हारा खुद का और क्या रह गया? बंकू यदि तुम्हारा भार न ले तो? अब उसकी खुद की गिरस्ती हो गयी, अन्त में यदि वह भी तुम्हें खाने को न दे तो?"

"क्या मैं वह चाहती हूँ? निज का सब कुछ दान करके क्या उसी के हाथ का दिया खाऊँगी? तुम भी खूब हो!"

धीरज को और न सँम्हाल सकने के कारण मैं उठकर क्रुद्ध कण्ठ से बोला, "हरिश्चन्द्र के समान यह दुर्बुद्धि तुम्हें दी किसने? खाओगी क्या? बुढ़ापे में किसकी गल-ग्रह बनने जाओगी!"

राजलक्ष्मी बोली, "तुम्हें गुस्सा करने की ज़रूरत नहीं है, तुम लौट जाओ। जिसने मुझे यह बुद्धि दी है वही मुझे खाने को देगा। मैं हज़ार बूढ़ी हो जाऊँगी वह मुझे कभी गल-ग्रह नहीं समझेगा! तुम फिजूल सिर गर्म मत करो- शान्ति से लेट रहो।"

मैं शान्त होकर लेट रहा। सामने की खुली खिड़की से डूबते हुए सूर्य की किरणों से रँगा हुआ विचित्र आकाश दीख पड़ा। स्वप्नाविष्ट की तरह निर्निमेष दृष्टि से उसी ओर निहारते-निहारते जान पड़ने लगा- मानो एक अद्भुत शोभा और सौन्दर्य में सारा विश्व-ब्रह्माण्ड बहा जा रहा है। तीनों लोकों के बीच रोग-शोक, अभाव-अभियोग, हिंसा-द्वेष, अब कहीं भी कुछ नहीं है।

इस निर्वाक् निस्तब्धता में मग्न रहकर दोनों ने कितना समय बिता दिया, समझता हूँ, इसका किसी ने हिसाब ही नहीं किया। सहसा दरवाज़े के बाहर मनुष्य के गले की आवाज़ सुनकर हम दोनों ही चौंक पड़े और राजलक्ष्मी के शय्या छोड़ने के पहले ही डॉक्टर साहब ने प्रसन्न बाबा को साथ में लिये अन्दर प्रवेश किया। किन्तु, उसके ऊपर दृष्टि पड़ते ही रुककर खड़े हो गये। बाबा जब दिवा-निद्रा ले रहे थे तब यह खबर उनके कानों में अवश्य पड़ गयी थी कि कोई बन्धु कलकत्ते से गाड़ी लेकर मेरे पास आया है, किन्तु वह कोई स्त्री हो सकती है, यह शायद किसी की कल्पना में भी नहीं था। इसीलिए, शायद अब तक घर की स्त्रियाँ भी बाहर नहीं आईं थीं।

बाबाजी अत्यन्त विलक्षण आदमी थे। उन्होंने कुछ देर राजलक्ष्मी के नीचे झुके हुए मुख की ओर देखकर कहा, "यह लड़की कौन है श्रीकान्त? कुछ पहिचानी हुई-सी मालूम होती है।"

डॉक्टर साहब भी प्राय: साथ ही साथ कह उठे, "छोटे काका, मुझे भी ऐसा लगता है जैसे इन्हें कहीं देखा है।"

मैंने तिरछी नजर से देखा, राजलक्ष्मी का सारा मुख-मण्डल जैसे मुर्दे की तरह फक हो गया है उसी क्षण जैसे कोई मेरे हृदय के भीतर से बोल उठा-"श्रीकान्त, इस सर्वस्व-त्यागिनी स्त्री ने केवल तुम्हारे लिए ही स्वेच्छा से यह दु:ख अपने सिर पर उठा लिया है।"

एकबारगी सारी देह रोमांचित हो उठी, मन ही मन बोला, मुझे सत्य से मतलब नहीं, आज मैं मिथ्या को ही सर पर धारण करूँगा और दूसरे ही क्षण उसके हाथ को जरा दबाकर कह बैठा, "तुम अपने पति की सेवा करने आई हो। तुम्हें लाज किस बात की है राजलक्ष्मी? ये बाबा और डॉक्टर साहब हैं, इनको प्रणाम करो।"

पल-भर के लिए दोनों की चार ऑंखें हो गयीं; इसके बाद उसने उठकर ज़मीन पर सिर टेककर दोनों को प्रणाम किया।

श्रीकांत उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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