प्रलय-प्रपंच
परिवर्तन
(1)
जल को थल होते देखा।
थल है जलमय हो जाता।
है गत्ता जहाँ पर गहरा।
था गिरिवर वहाँ दिखाता॥1॥
वे द्वीप जहाँ सुरपुर-से।
बहु सुन्दर नगर दिखाते।
हैं उदधिक-गर्भगत अधुना।
हैं पता न उनका पाते॥2॥
नन्दन-वन-से दृग-रंजन।
बहु वन बन गये मरुस्थल।
हो गये मरुस्थल कितने।
दुरम-वलित शस्य-से श्यामल॥3॥
प्रज्वाल-वमन-रत पर्वत।
बनता है दिव्य हिमाचल।
है अग्नि-गर्भ हो जाता।
हिमराशि-विसिद्बिचत अद्बचल॥4॥
जो नगर अपर अलका था।
थी जहाँ खिंची सुख-खा।
उसको क्षिति हिलते क्षण में।
अन्तर्हित होते देखा॥5॥
निधिकता अवलोक जहाँ की।
था वरुण-कलेजा हिलता।
बहु-योजन-व्यापी भूतल।
है वहीं अचानक मिलता॥6॥
अति तरल सलिल कहलाकर।
है बूँद बूँदपन खोती।
है स्रोत सरित बन पाता।
सरि निधिक में मिल निधिक होती॥7॥
फिर रही किसी फिरकी-से।
है काल कहीं फुरतीला।
होती रहती है भव में।
पल-पल परिवर्त्तन-लीला॥8॥
(2)
है बीज अंकुरित होता।
अंकुर तरु है बन पाता।
हो शाखा-पत्रा-सुशोभित।
है तरु प्रसून पा जाता॥1॥
खिल-खिल प्रसून छविशाली।
बनता है फल का दाता।
फल बीज से भरित होकर।
है सृजन-दृश्य दिखलाता॥2॥
बहु-वाष्प-समूह सघनता।
है घनमाला कहलाती।
घन है बूँदों से भरता।
बूँदें हैं वारि बनाती॥3॥
सागर हो या हो वसुधा।
जल कहाँ नहीं दिखलाता।
वह तप-तपकर तापों से।
है पुन: वाष्प बन जाता॥4॥
तृण हैं मिट्टी में उगते।
मिट्टी में हैं पल पाते।
जल गये, राख होने पर।
मिट्टी में है मिल जाते॥5॥
जो च गये पशुओं से।
वे हैं मल बने दिखाते।
फिर बाहर निकल उदर के।
मिट्टी ही हैं हो जाते॥6॥
ऐसी ही विधिकयों से ही।
है बना विश्व यह सारा।
चाहे हो कोई रजकण।
या हो नभतल का तारा॥7॥
है संसृति का संचालन।
है प्रकृति-प्रवृत्तिक-प्र्रवत्तान।
है भरित गूढ़ भावों से।
भव का अद्भुत परिवर्त्तन॥8॥
(3)
जो तपते हुए तवे पर।
कुछ बूँदें हैं पड़ पाती।
तो वे छन-छनकर छन में।
अन्तर्हित हैं हो जाती॥1॥
समझा जाता है जलकर।
वे हैं विनष्ट हो जाती।
पर वाष्प-रूप में पल में।
वे हैं परिणत हो पाती॥2॥
जल तेल धूम होता है।
वत्तिकका राख है बनती।
दीपक के बुझ जाने पर।
है ज्योति ज्योति में मिलती॥3॥
मरने पर प्राणी-तन को।
पंचत्व प्राप्त होता है।
अजरामर जीव कभी भी।
निज स्वत्व नहीं खोता है॥4॥
अवसर पर वसन बदलता।
जैसे जन है दिखलाता।
वैसे ही जीव पुरातन।
तन तज, नव तन है पाता॥5॥
जैसे मिट्टी में मिल तन।
है विविध रूप धार पाता।
तृण-लता गुल्म पादप हो।
बनता है बहु-फल-दाता॥6॥
वैसे ही निज जीवन का।
होता है वह निर्माता।
अनुकूल योनियों में जा।
है जीव कर्म-फल पाता॥7॥
है वस्तु-विनाश असम्भव।
बतलाते हैं यह बुध जन।
है दशा बदलती रहती।
है मृत्यु एक परर्वत्तान॥8॥
(4) नैमिक्तिक
प्रलय
भले ही ऊषा आती रहे।
लिये अंजलि में सुमन अपार।
बनी अनुरंजित कर अनुराग।
वारती रवि पर मुक्ता-हार॥1॥
खग-स्वरों में भर मंजुल नाद।
सजाये अपना उज्ज्वल गात।
अरुण अरुणाभा से हो लसित।
प्रति दिवस आये दिव्य प्रभात॥2॥
गगन-मण्डल में ज्योति पसार।
जगमगायें ता छविधाम।
दिव्य नन्दनवन-सुमन-समान।
बन परम रम्य लोक अभिराम॥3॥
हरित तरु-दल से कर बहु केलि।
परसता लतिका ललित शरीर।
वहन कर सौरभ का संभार।
बहे कुंजों में मंजु समीर॥4॥
भरा नगरों में रहे विनोद।
सुखों का हो बहुविध विस्तार।
बने अत्यन्त प्रफुल्ल त्रिकलोक।
विहँसता रहे सकल संसार॥5॥
ध्वनित हो समय-करों से छिड़े।
प्रकृति-तन्त्राी के अद्भुत तार।
विश्व-कानों में गूँजा क।
अलौकिकतम उसकी झंकार॥6॥
किन्तु क्या उसको, जिसका आज।
टूटता है साँसों का तार।
नहीं जो जुड़ पाता है कभी।
काल-कर का सह सबल प्रहार॥7॥
गगनचुम्बी उसके प्रासाद।
मोहते रहें, बनें छविमान।
रात में जिनके कलश विलोक।
कलानिधि भी हों मुग्ध महान॥8॥
लगाए उसके उपवन बाग।
फूल-फल लाएँ बन छविवन्त।
बढ़ाता उनकी शोभा रहे।
समय पर आकर सरस वसन्त॥9॥
स्नेह-परिपालित सकल कुटुम्ब।
प्रीति में रत पूरा परिवार।
समुन्नत हो पाए सुख भूरि।
बने बहु वैभव-पारावार॥10॥
किया जिन भावों का उपयोग।
लिया जिन मधुर रसों का स्वाद।
बनें वे उन्नत पाकर समय।
या बताए जावें अपवाद॥11॥
कलित क्रीड़ाओं के प्रिय धाम।
घूमने-फिरने के मैदान।
सुसज्जित विलसित हों सर्वदा।
या बनें प्रेत-निवासस्थान॥12॥
क्या उसे जिसकी ग्रीवा-मध्य।
अचानक पड़ा काल का फन्द।
समय के फरफन्दों में फँसे।
हो गयीं जिसकी ऑंखें बन्द॥13॥
बनेगा पाँच तत्तव की भूति।
म पर, पाँच तत्तव का गात।
ज्योति में मिल जाएगी ज्योति।
वात में मिल पाएगा वात॥14॥
व्योम में समा जाएगा व्योम।
नीर भी बन जाएगा नीर।
मृत्तिकका में होयेगा मग्न।
मृत्तिकका से संभूत शरीर॥15॥
कर्म-अनुसार लाभ कर योनि।
जीव पा जाता है तन अन्य।
किन्तु व्यक्तित्व किसी का कभी।
यों नहीं हो पाता है धान्य॥16॥
व्यक्ति में रहता है व्यक्तित्व।
उसी से है उसका संबंधा।
पर मिला एक बार वह कभी।
नियति का है यह गूढ़ प्रबन्धा॥17॥
पंचतन्मात्राकओं का मिलन।
लाभ कर आत्मा का संसर्ग।
प्राणियों का करता है सृजन।
पृथक होते हैं जिनके वर्ग॥18॥
वर्ग में परिचय का प्रिय कार्य।
कर सका है केवल व्यक्तित्व।
बिना व्यक्तित्व महत्तव-विकास।
व्यर्थ हो जाता है अस्तित्व॥19॥
मिल सका किसे पूर्व व्यक्तित्व।
जन्म ले-लेकर भी शत बार।
म के लिए सभी मर गया।
भले ही मरा न हो संसार॥20॥
गमन है पुनरागमन-विहीन।
भाव है सकल अभाव-निलय।
कहा जाता है भय-सर्वस्व।
मरण माना जाता है प्रलय॥21॥
(5)
जगद्विजयी उठता है काँप।
कान में पड़े काल का नाम।
मृत्यु का भीषण दृश्य विलोक।
न लेगा कौन कलेजा थाम॥1॥
यही है वह कराल यमदण्ड।
दहलता है जिससे संसार।
वार बेकार न जिसकी हुई।
यही है वह बाँकी तलवार॥2॥
यही है काली की वह जीभ।
लपलपाती अतीव विकराल।
जिसे है सृष्टि देखती सदा।
करोड़ों के लोहू से लाल॥3॥
यही है वह त्रिकनेत्र का नेत्र।
खुले जिसके होता है प्रलय।
ज्वाल से जिसके हो-हो दग्धा।
भस्म होता है विश्व-वलय॥4॥
यही है वह रण का उन्माद।
कटाए जिसने लाखों शीश।
प्रहारों से जिसके हो व्रणित।
रुधिकर-धारा में बहे क्षितीश॥5॥
यही है वह जल-प्लावन जो कि।
देश को करता है उत्सन्न।
प्राणियों का लेता है प्राण।
बनाकर उनको विपुल विपन्न॥6॥
यही है वह भारी भूकम्प।
काल का जो है महाप्रकोप।
धारा का फट जाता है हृदय।
हुए लाखों लोगों का लोप॥7॥
अयुत-फणधार का है फुफकार।
भीतिमय है भौतिक उत्पात।
मरण है वज्रपात-सन्देश।
है महा सांघातिक आघात॥8॥
सशंकित हुआ कहाँ कब कौन।
प्रलय का अवलोके भ्रू बंक।
विश्व के अन्तर में है व्याप्त।
प्रलय से अधिक मरण-आतंक॥9॥
(6)
क्षणिक जीवन के विविध विचार।
कीत्तिक-रक्षण के नाना भाव।
स्वर्ग-सुख-लाभ,नरक-आतंक।
संकटों से बचने के चाव॥1॥
कराते हैं नर से शुभ कर्म।
भिन्न होते हैं उनके रूप।
साधनाएँ होती हैं सधी।
साधाकों की रुचि के अनुरूप॥2॥
मन्दिरों के चमकीले कलश।
लगाए ह-भ बहु बाग।
सरों में उठती तरल तरंग।
सुर-यजन-पूजन का अनुराग॥3॥
भंग यदि कर पाएँ निज मौन।
तो बताएँगे वे यह बात।
सभी हैं स्वर्गलाभ के यत्न।
कीत्तिक-रक्षण इच्छा-संजात॥4॥
विरागी जन का गृह-वैराग्य।
तापसों के नाना तप-योग।
त्यागियों के कितने ही त्याग।
शान्ति-कामुक के शान्ति-प्रयोग॥5॥
विपद-निपतित का पूजा-पाठ।
विनय से भरी विपन्न पुकार।
मुक्ति से सुपथों का संधन।
मृत्युभय के ही हैं प्रतिकार॥6॥
संकटों के संहारनिमित्त।
किए जाते हैं जितने कर्म।
पुण्य के उपकारक उपकरण।
जिन्हें माना जाता है धर्म॥7॥
भाव वे जो होते हैं सुखित।
दीन-दुखियों को दान दिला।
सबों में अवलोके दृग खोल।
मृत्यु का भय प्रतिबिंबित मिला॥8॥
काल है बहुत बड़ा विकराल।
हो सका उसका कभी न अन्त।
बंक भुकृटी उसकी अवलोक।
दैव बनता है महा दुरन्त॥9॥
बहाता है वह हो-हो कुपित।
जग-दृगों से जितनी जलधार।
कँपाता है वह जितने हृदय।
बहु व्यथाएँ दे बारम्बार॥10॥
अचानक जितनों पर सब काल।
किया करता है वह पवि-पात।
मचाता रहता है जी खोल।
जगत में वह जितना उत्पात॥11॥
कर सका है उतना कब कौन।
हो सका कब उसका अनुमान।
भयंकर ऐसा है यह रोग।
नहीं जिसका हो सका निदान॥12॥
मरण-भय का ही है परिणाम।
विश्व का प्रबल निराशावाद।
श्रवणगत होता है सब ओर।
उर कँपाकर जिसका गुरु नाद॥13॥
क्षणिकता जीवन का अवलोक।
बन गया है असार संसार।
कहाँ है ठीक-ठीक बज रहा।
आज आशा-तन्त्री का तार॥14॥
विरागी जन के कुछ साहित्य।
सुनाते हैं वह निर्मम राग।
बना जिससे बहु जीवन व्यर्थ।
ग्रहण कर महा अवांछित त्याग॥15॥
मृत्यु के पंजे में पड़ गये।
छूटता है सारा संसार
मिटा करता है वह व्यक्तित्व।
नहीं मिल पाता जो दो बार॥16॥
रही जो हृदयेश्वरी सदैव।
प्रीति की मूर्ति जो गयी कही।
कलेजे के टुकड़े जो बने।
ऑंख की पुतली जो कि रही॥17॥
देखने को जिनकी प्रिय झलक।
ललक सहती न पलक की ओट।
अलग जिनका होना अवलोक।
लगन को लग जाती थी चोट॥18॥
बिना देखे जिनका वर वदन।
नहीं चित को मिलता था चैन।
विलोके जिनका दिव्य स्वरूप।
विमोहित होता रहता मैन॥19॥
पिपासित ऑंखें रहकर खुली।
ताकती रहतीं जिनकी राह।
अदर्शन से जिनके बन विकल।
बहुत चंचल होती थी चाह॥20॥
इन प्रणय-रस-सिक्तों का साथ।
जो छुड़ा देता है तत्काल।
कुछ दिनों नहीं, सदा के लिए।
काल वह है, कितना विकराल॥21॥
डाल पाए उतना न प्रभाव।
प्रलय के गा-गाकर बहु गीत।
लोग जितने कि प्रभावित हुए।
मरण-वृतों से हो भयभीत॥22॥
(7) मृत्यु-आतंक
तब क्यों नहीं ऑंख खुलती है।
होश क्यों नहीं आता।
जब कि पलक मारते काल का।
रंग पलट है जाता।
तब किसलिए अधमता करते
नहीं धाड़कती छाती।
जब घन की छाया समान है
काया क्षणिक कहाती॥1॥
तब क्यों लोग दूसरों को।
दुख देते नहीं अघाते।
जब जीवन के दिवस।
भोर के ता हैं बन जाते।
तब किसलिए अहित की धारा।
हृदयों में है बहती।
जब बहु छिद्रवान घट-जल-सम।
आयु छीजती रहती॥2॥
तब क्यों पीड़ित क उरों को।
कह नितान्त कटु वाणी।
जब बालू की भीत के सदृश
पतनशील है प्राणी।
तब किसलिए किसी का कोई
क्यों है गला दबाता।
ओले के समान जब जन-तन
है गलता दिखलाता॥3॥
तब क्यों बार-बार कल-छल कर
है बलवान कहाता।
जब बुलबुले-समान बात कहते
है मनुज बिलाता।
उथल-पुथल किसलिए मचाता है
तब कोई पल-पल।
चलदल-दल-गत सलिल-बिन्दु-सम।
जब जीवन है चंचल॥4॥
(8) प्रलय-प्रसंग
खुले, रजनी में निद्रा-गोद।
जब शयन करता है मनुजात।
अंक में उसके रखकर शीश।
भूलकर भव की सारी बात॥1॥
सुषुप्तावस्था का यह काल।
कहा जाता है नित्य प्रलय।
क्योंकि हो जाता है उस समय।
गहन निद्रा में भव का लय॥2॥
मृतक के लिए विना क्षय हुआ।
क्षयित होता है विश्व-वलय।
अत: प्राणी का प्राण-प्रयाण।
कहाता है नैमित्तिकक प्रलय॥3॥
मनोहर लोक-विलोचन-चोर।
गगन-सर-सरसीरुह अभिराम।
तामसी रजनी के सर्वस्व।
जगमगाते ता छवि-धाम॥4॥
धारातल-जैसे ही हैं ओक।
अत: उनका भी होगा नाश।
एक दिन वे, हो बहुश: खंड।
गँवाएँगे निज दिव्य प्रकाश॥5॥
बना नभ-तल को ज्योति-निकेत।
हुआ करता है उल्कापात।
और क्या है? वह है, द्युतिप्राप्त
मृतक तारक-तनांश-विनिपात॥6॥
धारा पर लाखों बरसों बाद।
काल का जब होगा आघात।
उस समय उसके भी तन-खंड।
करेंगे अरबों उल्कापात॥7॥
पिंड हो या हो कोई लोक।
जब कि उसका होता है नाश।
है महाप्रलय कहाता वही।
प्राकृतिक है यह भव अवकाश॥8॥
सकल लोकों का करके नाश।
प्रकृति को दे देना विश्राम।
बनाना भव को तिमिराच्छन्न।
है महा महाप्रलय का काम॥9॥
काल का है प्रकाण्ड व्यापार।
प्रकृति का विधवंसक आरोप।
लोप-लीलाओं का है केन्द्र।
लोक कम्पित कर प्रलय-प्रकोप॥10॥
(9)
काल-सागर में बन निस्सार।
एक दिन डूबेगा संसार॥1॥
तब दिवस-मणि मणिता कर लाभ।
न मण्डित हो पाएगा व्योम।
न रजनी के रंजन के हेतु।
विलस हँस रस बरसेगा सोम।
कगा नभतल में न विहार॥2॥
ललकते लोचन के सर्वस्व।
मनोहर मोहक परम ललाम।
गगनतल के तारक-समुदाय।
न बन पाएँगे, हो छविधाम।
प्रकृति-उर-विलसित मुक्ता-हार॥3॥
विहँसती लसती भरी उमंग।
रंगिणी ऊषा प्रात:काल।
खुले प्राची-दिगंगना-द्वार।
न झाँकेगी घूँघट-पट टाल।
लिए रवि-पूजन का संभार॥4॥
सुनाता बड़े रसीले राग।
बहाता गात-विमोहक वात।
खिलाता सुन्दर सरस प्रसून।
न आयेगा उत्फुल्ल प्रभात।
कर जगत में नव ज्योति-प्रसार॥5॥
धारा पर उज्ज्वल चादर डाल।
रजकणों को कर रजत-समान।
दलन कर रजनी का तमतोम।
दृगों को कर दिव्यता-प्रदान।
दिखाएँगे न दमकते बार॥6॥
गगनतल-चुम्बी मेरु-समूह।
न पहनेंगे कमनीय किरीट।
कलित कर से उनपर राकेश।
सकेगा नहीं छटाएँ छींट।
न शृंगों का होगा शृंगार॥7॥
दिखाएँगे न दिव्यतम दृश्य।
विरचकर विचित्रतामय वेश।
विविधताओं से हो परिपूर्ण।
बड़े ही सुन्दर बहुश: देश।
करेंगे नहीं विभव-विस्तार॥8॥
वहन कर बहु विभूति-अनुभूति।
सृजन कर सरस हृदय-समुदाय।
ग्रहण कर नूतनता-सम्पत्तिक।
नागरिकतामय नगर-निकाय।
न खोलेंगे विमुग्धता-द्वार॥9॥
कगी उन्हें नहीं अति कान्त।
नवल कोमल किसलय कर दान।
बना पादपचय को हरिताभ।
तानकर सुन्दर लता-विमान।
वनों में लसित वसंत-बहार॥10॥
करेंगे कलिका का न विकास।
परसकर उसका मृदुल शरीर।
करेंगे सुमन को न उत्फुल्ल।
डुलाकर मंजुल व्यजन समीर।
प्रकृति के कर अतीव सुकुमार॥11॥
कगा नहीं मनों को मुग्ध।
भगा नहीं मही में मोद।
बनाएगा न वृत्तिक को मत्त।
वस्तुओं में भर भूरि विनोद।
सरसतम ऋतुओं का संचार॥12॥
न होगी कहीं जागती ज्योति।
कहीं भी होगा नहीं प्रकाश।
भर गया होगा तम सब ओर।
हो गया होगा भव का नाश।
वाष्पमय होगा सब व्यापार॥13॥
अचिन्तित है यह गूढ़ रहस्य।
भले ही कह लें इसे परत्रा।
और क्या कहें, कहें क्या? किन्तु
भरा होगा इसमें सर्वत्र।
सकल लोकों का हाहाकार॥14॥
(10)
एक दिन आयेगा ऐसा।
घहरते आएँगे बहु घन।
लगेगा लगातार होने।
कम्पिता भू पर वज्र-पतन॥1॥
पसा हाथ न सूझेगा।
तिमिर छा जाएगा इतना।
न अनुमिति हो पाएगी, वह।
बनेगा घनीभूत कितना॥2॥
मेघ कर महाघोर गर्जन।
कगा लोकों को स्तंभित।
जल बरस मूसलधारों से।
बना वसुधातल को प्लावित॥3॥
डुबा देगा समस्त महि को।
बना सर-सरिताओं को निधिक।
महा उत्ताकल तरंगों से।
तरंगित विस्तृत हो वारिधिक॥4॥
सहस्रानन कृतान्त-व्रत ले।
विष-वमन अयुत मुखों से कर।
कगा सहलाहल महि को।
ककुभ में बहु कोलाहल भर॥5॥
भय-भ सा भुवनों के।
बहु निकट बहुधा हो-हो उदय।
दिवाकर निज प्रचंड कर से।
कगा भव को पावकमय॥6॥
जायगा खुल प्रलयंकर का।
तीसरा अति भीषण लोचन।
बनेगा जिससे ज्वालामय।
सकल लोकों का कंपित तन॥7॥
सकल ओकों को लोकों को।
सकल ब्रह्मांडों को छन-छन।
दलित मर्दित धवंसित दग्धिकत।
कगा शिव-तांडव-नर्त्तन॥8॥
पतित यों होंगे तारकचय।
उठे कर के आघातों से।
गिरा करते हैं जैसे फल।
प्रभंजन के उत्पातों से॥9॥
पदों के प्रबल प्रहारों से।
विचूर्णि होगा वसुधातल।
विताड़ित होकर, जायेगा
कचूमर पातालों का निकल॥10॥
समय-आघातों से इतना।
बिगड़ जाएगा आकर्षण।
परस्पर टकरा, तारों का।
अधिक निपतन होगा प्रतिक्षण॥11॥
बनेगा महालोम-हर्षण।
उस समय अन्तक-मुख-व्यादन।
कालिका लेलिहान जिह्ना।
काल का विकट कराल वदन॥12॥
गगन में होगा परिपूरित।
प्रचुरता से विनाश का कण।
लोक में होगा कोलाहल।
वायु में होगा भरा मरण॥13॥
नियति-दृग के सम्मुख होगा।
विश्व-हृत्कंपितकारी तम।
प्रकृति-कर से चलता होगा।
काल-जैसा विस्फोटक बम॥14॥
रहेगा छाया सन्नाटा।
समय का मुख नीरव होगा।
अवस्था होवेगी प्रकृतिस्थ।
सूक्ष्ममत अणुगत भव होगा॥15॥
(11) शार्दूल-विक्रीडित
है पाताल-पता कहाँ, गगन भी है सर्वथा शून्य ही।
भू है लोक अवश्य, किन्तु वह क्या है एक तारा नहीं।
संख्यातीत समस्त तारक-धारा के तुल्य ही लोक हैं।
लोकों की गणना भला कब हुई, होगी कभी भी नहीं॥1॥
क्या की है, यह सोचके, विबुध ने लोकत्रायी-कल्पना।
जो हैं ज्ञापित नाम से वसुमती, आकाश, पाताल के।
ता हैं नभ में अत: गगन ही संकेत है सर्व का।
जो हो, किन्तु रहस्य लोकचय का अद्यापि अज्ञात है॥2॥
तारों में कितने सहस्रकर से भी सौगुने हैं बड़े।
ऐसे हैं कुछ सूर्य ज्योति जिनकी भू में न आयी अभी।
होता है यह प्रश्न, क्या प्रलय में है धवंस होते सभी।
है वैज्ञानिक धारणा कि इसकी संभावना है नहीं॥3॥
ज्यों भू में बहु जीव नित्य मरते होते समुत्पन्न हैं।
वैसे ही नभ-मध्य नित्य बनते हैं छीजते लोक भी।
है स्वाभाविक प्रक्रिया यदि यही, तत्काल ही साथ ही।
सा तारक-व्यूह का विलय तो क्यों मान लेगा सुधी॥4॥
शंकाएँ इस भाँति की बहु हुई, हैं आज भी हो रही।
है सिध्दान्त-विभेद भी कम नहीं है, तर्क-सीमा नहीं।
तो भी है यह बात सत्य, पहले जो विश्व सूक्ष्माणु था।
सो कालान्तर में पुन: यदि बने सूक्ष्माणु वैचित्रय क्या॥5॥
वेदों से यह बात ज्ञात विबुधों के वृन्द को है हुई।
जो है सक्रिय भाग सर्व भव का सो तो चतुर्थांश है।
है शेषांश क्रिया-विहीन, अब भी, जो सर्वथा रिक्त है।
कैसी अद्भुत गूढ़ उक्ति यह है, सत्ता महत्ताअधिकतरंकिता॥6॥
जो है निष्क्रिय तीन अंश कृतियाँ जो हैं चतुर्थांश में।
पाएगा भव पूर्णता कब? इसे क्यों धीरे सकेगी बता।
होवेगा कब नाश सर्व भव का? कोई इसे क्यों कहे।
ये बातें मन-बुध्दि-गोचर नहीं, प्राय: अविज्ञेय हैं॥7॥
शास्त्रों में विधिक-कल्प के प्रलय के कालादि की कल्पना।
है गंभीर विचार-भाव-भरिता विद्वज्जनोद्वोधिकनी।
तो भी वे कह नेति-नेति वसुधा को हैं बताते यही।
है संसार रहस्य, है प्रकृति की मायातिमायाविनी॥8॥
जो पू परमाणु-वाद-रत हैं, विज्ञान-सर्वस्व हैं।
वे भी देख विचित्रता प्रकृति की होते जड़ीभूत हैं।
क्यों कोई खग विश्वव्याप्त नभ की देगा इयत्ताक बता।
कोई कीट वसुंधरा-विभव का क्यों पा सकेगा पता॥9॥
आविष्कारक कर्मशील बहुश: हैं मेदिनी में हुए।
इच्छा के अनुकूल कूल पर जा हैं शोधा भूय: किए।
पाए हैं उनके प्रयत्न-कर ने प्राय: कई रत्न भी।
संसारांबुधिकरत्नराशि फिर भी दुष्प्राप्य दुर्बोधा है॥10॥
आके भूतल में विलोक निशि में आकाश-दृश्यावली।
होता है मनुजात बुध्दिहत-सा सोचे स्वअल्पज्ञता।
पाए हैं कुछ बुध्दिमान जन ने एकाधा मोती कहीं।
बेजाने संसार-सिंधु अब भी छाने बिना है पड़ा॥11॥
वे थे शक्ति-निधन साथ उनका था दानवों ने दिया।
क्या है मानव-शक्ति, और उसकी क्या है क्रियाशीलता।
मेधावी सुर ने समुद्र मथ के जो रत्न पाए गिने।
तो क्यों रत्न-समूह विश्व-निधिक के पाते धारा स्वल्पधी॥12॥