ब्रज का गुप्त काल

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मौर्य शासकों के बाद विदेशी शक-कुषाण राजाओं का शासन इस देश में रहा, उनमें कनिष्क महान और वीर था । कनिष्क के बाद कोई राजा इतना वीर और शक्तिशाली नहीं हुआ, जो विस्तृत और सुदृढ़ राज्य का गठन करता । इसके परिणाम स्वरुप देश में अनेक छोटे-बड़े राज्य बन गये थे । किसी में राजतंत्र और किसी में जनतंत्र था । राजतंत्रों में मथुरा और पद्मावती राज्य के नागवंश विशेष प्रसिद्व थे । जनतंत्र शासकों में यौधेय, मद्र, मालव और अजुर्नायन प्रमुख थे । उत्तर-पश्चिम के प्रदेशों में शक और कुषाणों के विदेशी राज्य थे । चंद्रगुप्त प्रथम के उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने सत्ता में आते ही उन छोटे-छोटे राज्यों के स्थान पर एक समृध्द, विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की ।

समुद्र गुप्त:- (335-376)

चंद्रगुप्त प्रथम के बाद समुद्रगुप्त मगध के सिंहासन पर बैठा । उसका समय भारतीय इतिहास में `दिग्विजय` नामक विजय अभियान के लिए प्रसिद्व है; समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नाग राजाओं को पराजित कर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया । उसने वाकाटक राज्य पर विजय प्राप्त कर उसका दक्षिणी भाग, जिसमें चेदि, महाराष्ट्र राज्य थे, वाकाटक राजा रुद्रसेन के अधिकार में छोड़ दिया था । उसने पश्चिम में अर्जुनायन, मालव गण और पश्चिम-उत्तर में यौधेय, मद्र गणों को अपने अधीन कर, सप्तसिंधु को पार कर वाल्हिक राज्य पर भी अपना शासन स्थापित किया । समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार कायम कर उसने `दिग्विजय` की । समुद्र गुप्त की यह विजय-गाथा इतिहासकारों में 'प्रयाग प्रशस्ति` के नाम से जानी जाती है ।

इस विजय के बाद समुद्र गुप्त का राज्य उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विध्य पर्वत, पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी और पश्चिम में चंबल और यमुना नदियों तक हो गया था। पश्चिम-उत्तर के मालव, यौघय, भद्रगणों आदि दक्षिण के राज्यों को उसने अपने साम्राज्य में न मिला कर उन्हें अपने अधीन शासक बनाया । इसी प्रकार उसने पश्चिम और उत्तर के विदेशी शक और 'देवपुत्र शाहानुशाही` कुषाण राजाओं और दक्षिण के सिंहल द्वीप-वासियों से भी उसने विविध उपहार लिये जो उनकी अधीनता के प्रतीक थे । उसके द्वारा भारत की दिग्विजय की गई, जिसका विवरण इलाहाबाद क़िले के प्रसिद्ध शिला-स्तम्भ पर विस्तारपूर्वक दिया है ।[1]

आर्यावत में समुद्रगुप्त ने 'सर्वराजोच्छेत्ता'[2] नीति का पालन नहीं किया। आर्यावर्त के अनेक राजाओं को हराने के पश्चात उसने उन राजाओं के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया । पराजित राजाओं के नाम इलाहबाद-स्तम्भ पर मिलते हैं --अच्युत, नागदत्त, चंद्र-वर्मन, बलधर्मा, गणपति नाग, रुद्रदेव, नागसेन, नंदी तथा मातिल । इस महान विजय के बाद उसने अश्वमेघ यज्ञ किया और `विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी । इस प्रकार समुद्रगुप्त ने समस्त भारत पर अपनी पताका फहरा कर गुप्त-शासन की धाक जमा दी थी ।

उत्तरापथ के जीते गये राज्यों में मथुरा भी था, समुद्रगुप्त ने मथुरा राज्य को भी अपने साम्राज्य में शामिल किया । मथुरा के जिस राजा को उसने हराया । उसका नाम गणपति नाग मिलता है । उस समय में पद्मावती का नाग शासक नागसेन था, जिसका नाम प्रयाग-लेख में भी आता है । इस शिलालेख में नंदी नाम के एक राजा का नाम भी है । वह भी नाग राजा था और विदिशा के नागवंश से था ।[3] समुद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी । इस साम्राज्य को उसने कई राज्यों में बाँटा ।

समुद्रगुप्त के परवर्ती राजाओं के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गंगा यमुना का दोआब 'अंतर्वेदी विषय' के नाम से जाना जाता था । स्कन्दगुप्त के राज्य काल में अंतर्वेदी का शासक 'शर्वनाग' था । इस के पूर्वज भी इस राज्य के राजा रहे होंगे । सम्भवः समुद्रगुप्त ने मथुरा और पद्मावती के नागों की शक्ति को देखते हुए उन्हें शासन में उच्च पदों पर रखना सही समझा हो । समुद्रगुप्त ने यौधेय, मालव, अर्जुनायन, मद्र आदि प्रजातान्त्रिक राज्यों को कर लेकर अपने अधीन कर लिया । दिग्विजय के पश्चात समुद्रगुप्त ने एक अश्वमेध यज्ञ भी किया । यज्ञ के सूचक सोने के सिक्के भी समुद्रगुप्त ने चलाये । इन सिक्कों के अतिरिक्त अनेक भाँति के स्वर्ण सिक्के भी मिलते हैं ।
समुद्र गुप्त के दो पुत्र थे- रामगुप्त और चंद्रगुप्त । समुद्र गुप्त के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त मगध का सम्राट् हुआ था ।

ध्रुवस्वामिनी की कथा

समुद्रगुप्त के पश्चात उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त गद्दी पर बैठा जो कुछ ही दिनों के लिए राज्य का अधिकारी रहा । 'हर्षचरित' 'श्रृंगार-प्रकाश', 'नाट्य-दर्पण', 'काव्य मीमांसा' आदि ग्रन्थों से रामगुप्त के विषय में ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त जैसे दिग्विजयी शासक का पुत्र होकर भी वह बड़ा भीरु, कायर और अयोग्य शासक सिद्ध हुआ । समुद्र गुप्त ने जिन विदेशी शकों को हरा दिया था, वे उसके मरते ही फिर सिर उठाने लगे थे । उन्होंने राज्य की सीमा में प्रवेश कर रामगुप्त को युद्ध की चुनौती दी । शकों के आक्रमण से भयभीत होकर राम गुप्त ने संधि का प्रस्ताव किया और शकों ने संधि की जो शर्ते रखी, उनमें एक थी कि राम गुप्त अपनी पटरानी 'ध्रुवदेवी', जिसे 'ध्रुवस्वामिनी' [4] भी कहा जाता था, उसे सौंप दी जाय ।

राम गुप्त उस शर्त को भी मानने के लिए तैयार हो गया; किंतु उसका छोटा भाई चद्रगुप्त ने उस घोर अपमानजनक बात को मानने की अपेक्षा युद्व कर मर जाना अच्छा समझा । वह स्वयं ध्रुवस्वामिनी का वेश धारण कर अकेला की शत्रुओं के शिविर में गया और शकराज को मार डाला । [5] फिर उसने शक सेना से वीरतापूर्वक युद्व कर उसे मगध साम्राज्य की सीमा से बाहर कर दिया । चंद्रगुप्त के शौर्य के कारण मगध के गौरव की रक्षा हुई और उसकी चारों ओर ख्याति हो गई । यह घटना कहाँ हुई, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । श्री कृष्णदत्त वाजपेयी का अनुमान है कि वह घटना मथुरा नगर अथवा उसके समीप ही किसी स्थान पर हुई थी । ऐसा कहा जाता है, चंद्रगुप्त की ख्याति से रामगुप्त उससे ईर्ष्या करने लगा और उसने चंद्रगुप्त को मारने का षड़यंत्र किया; किंतु उसमें राम गुप्त ही मारा गया । रामगुप्त की मृत्यु के पश्चात चंद्रगुप्त मगध का शासक हुआ । अपने साहस, पराक्रम तथा दान-वीरता के कारण चंद्रगुप्त प्रजा का अति प्रिय हो गया । [6]

375-376 ई. में सिंहासन पर बैठ कर चंद्रगुप्त ने राम गुप्त की विधवा ध्रुवस्वामिनी को अपनी पटरानी बनाया । उसकी प्रिय रानी कुबेरानागा थी, जिससे उसे प्रभावती नामक एक पुत्री हुई थी । शासन संभालने के बाद चंद्रगुप्त ने अपना राज-प्रबंध किया और स्थायी सुरक्षा के लिए शकों को समूल नष्ट करने का निश्चय किया । शक अपनी पराजय के कारण मगध से हटकर भारत के पश्चिमी भाग जा बसे और अवसर मिलते ही आक्रमण करने को तत्पर थे । चन्द्रगुप्त ने उनसे सफलता पूर्वक मोर्चा लेने के लिए पश्चिमी सीमा के शक्तिशाली वाकाटक राज्य से घनिष्ट संबंध स्थापित किया । चंद्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक राजा रुद्रसेन द्वितीय के साथ किया । इस विवाह से दोनों राज्यों में घनिष्ठ संबंध हुए और गुप्त साम्राज्य की शक्ति बढ़ गयी ।

शक सेना से युद्ध करने के लिए चंद्रगुप्त स्वयं एक बड़ी सेना लेकर विदिशा गया और आक्रमण आरंभ किया । इस युद्व में शकों की पराजय हुई, पश्चिमी मालवा, गुजरात और सौराष्ट्र में जमा हुआ शक शासन जड़ से उखड़ गया । इस विजय के बाद चंद्रगुप्त ने उज्जयिनी को अपने पश्चिमी राज्य का केंन्द्र बनाया । चन्द्रगुप्त ने बंगाल पर चढ़ाई की और विजय प्राप्त की । फिर उत्तर पश्चिम की ओर सिन्धु नदी को पार कर उसने बाह्मीकों को हराया । कुछ विद्वानों का मत है कि चंद्रगुप्त ने ही यौधेय, मालव, कुणिंद आदि अनेक राज्यों को समाप्त किया । परंतु इस विषय में प्रमाणित विवरण उपलब्ध नहीं है । संभवत: ये राज्य ई. पाँचवी शती में हूणों के आक्रमण के समय समाप्त हो गया ।

चंद्रगुप्त के शासन-काल में उज्जयिनी, पाटलिपुत्र और अयोध्या नगरों की बहुत उन्नति हुई । इस समय में विद्या और ललित कलाओं की बहुत प्रगति हुई। तत्कालीन साहित्य एवं कला-कृतियों से इसका पता चलता है । गुप्तों के शासन -काल को भारतीय इतिहास का `स्वर्ण युग` कहा जाता है । महाकवि कालिदास जैसे प्रतिभासंपन्न कवि और लेखक इसी काल में हुए जिनकी रचनाएँ भारतीय साहित्य में आज भी अमर हैं ।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय के तीन लेख मथुरा नगर से मिले है । पहला लेख (मथुरा संग्रहालय सं. 1931) गुप्त संवत 61 (380 ई.) का है यह मथुरा नगर में रंगेश्वर महादेव के समीप एक बगीची से प्राप्त हुआ है । शिलालेख लाल पत्थर के एक खंभे पर है । यह सम्भवतः चंद्रगुप्त के पाँचवे राज्यवर्ष में लिखा गया था । इस शिलालेख में उदिताचार्य द्वारा उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नामक शिव-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना का वर्णन है । खंभे पर ऊपर त्रिशूल तथा नीचे दण्डधारी रुद्र (लकुलीश ) की मूर्ति है ।

चंद्रगुप्त के शासन-काल के उपलब्ध लेखों में यह लेख सब से प्राचीन है । इससे तत्कालीन मथुरा में शैव धर्म के होने की पुष्टि के होती है । अन्य दोनों शिलालेख मथुरा के कटरा केशवदेव से मिले हैं । इनमें से एक शिलालेख (मथुरा संग्रहालय सं. क्यू. 5) में महाराज गुप्त से लेकर चंद्रगुप्त विक्रमादित्य तक की वंशावली अंकित है । लेख में अन्त में चंद्रगुप्त द्वारा कोई बड़ा धार्मिक कार्य किये जाने का अनुमान होता है । लेख का अंतिम भाग खंडित है इस कारण यह निश्चित रूप से कहना कठिन है । बहुत संभव है कि महाराजाधिराज चंद्रगुप्त के द्वारा श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया हो, जिसका विवरण इस शिलालेख में रहा होगा । [7] तीसरा शिलालेख (मथुरा संग्रहालय सं. 3835) कृष्ण जन्मस्थान की सफ़ाई कराते समय 1954 ई.. में मिला है । यह लेख बहुत खंडित है । इसमें गुप्त-वंशावली के प्रारंभिक अंश के अतिरिक्त शेष भाग खंड़ित है ।


चन्द्रगुप्त के काल में फ़ाह्यान नाम का चीनी पयर्टक पश्चिमोत्तर मार्ग से भारत आया । वह अनेक नगरों में होता हुआ मथुरा भी पहुँचा । मथुरा नगरी का जो वर्णन उसने लिखा है उससे मथुरा की धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है । फ़ाह्यान लिखता है--यहाँ (मथुरा) के छोटे-बड़े सभी लोग बौद्ध, धर्म को मानते हैं । शाक्यमुनि के बाद से यहाँ के निवासी इस धर्म का पालन करते आ रहे हैं । मोटुलो (मथुरा) नगर तथा उसके आस-पास पूना (यमुना) नदी के दोनों ओर 20 संघाराम (बौद्ध मठ) हैं, जिनमें लगभग 3,000 भिक्षु निवास करते हैं । वह बौद्ध स्तूप भी है ।

सारिपुत्र के सम्मान में बना हुआ स्तूप सबसे अधिक प्रसिद्ध है। दूसरा स्तूप आनंद के तथा तीसरा मुद्गल-पुत्र की याद में बनाया गया है । शेष तीनों क्रमश: अभिधर्म, सूत्र और विनय के लिए निर्मित किये गये हैं, जो बौद्ध धर्म के तीन अंग (त्रिपिटक) हैं। फ़ाह्यान के इस प्रकार के वर्णन से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त के समय में मथुरा में बौद्ध धर्म शिखर पर था, यद्यपि उसका यह सही प्रतीत नहीं होता कि शाक्यमुनि के बाद से लोग बौद्ध धर्म का पालन कर रहे थे । बुद्ध के बाद कई सौ वर्षों तक मथुरा में हिंदू धर्म चरम पर था, न कि बौद्ध । फ़ाह्यान ने जिन बौद्ध संघारामों का विवरण किया है वे यमुना नदी के दोनों ओर दूर तक फैले होगें ।

महाकवि कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन माने जाते हैं । 'रघुवंश' में कालिदास ने शूरसेन जनपद के अंर्तगत मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन और यमुना का वर्णन किया है, इंदुमती के स्वयंवर में अनेक राज्यों से आये हुए राजाओं के साथ उन्होंने शूरसेन जनपद के राजा सुषेण का भी वर्णन किया है । (रघुवंश,सर्ग 6,45-51) मगध, अंसु, अवंती, अनूप, कलिंग और अयोध्या के महान राजाओं के बीच शूरसेन -नरेश का वर्णन किया है । कालिदास के विशेषण, जिनका प्रयोग राजा सुषेण के लिए किया है उससे ज्ञात होता है कि वह वीर एवं प्रतापी शासक राजा था, जिसका गुणगान स्वर्ग के देवता भी करते थे और जिसने अपने विशुद्ध व्यवहार एवं आचरण से माता-पिता के वंशों को रोशन किया था ।[8]

सुषेण विधिवत यज्ञ-पूजन करने वाला, शांत प्रकृति का शासक था, जिसके तेज से शत्रु भयभीत रहते थे । महाकवि कालिदास ने मथुरा और यमुना का वर्णन करते हुए लिखा है कि राजा सुषेण के अपनी प्रेयसियों के साथ यमुना में नौका-विहार करते समय यमुना का कृष्णवर्णीय जल गंगा की श्वेत एवं पवित्र उज्जवल लहरों जैसा प्रतीत होता था ।[9] मथुरा का वर्णन करते समय संभवत: कालिदास को समय का ज्ञान नहीं रहा ।

इंदुमती का विवाह अयोध्या-नरेश अज के साथ हुआ था और उस समय में मथुरा नगरी थी ही नहीं । अज की कई पीढ़ी बाद शत्रुघ्न के द्वारा मथुरा नगरी को बसाने का वर्णन मिलता है । टीकाकार मल्लिनाथ ने भी उक्त श्लोक की टीका लिखते समय इस संबंध में आपत्ति की है । [10] अन्यत्र कालिदास ने शत्रुघ्न द्वारा यमुना-तट पर भव्य मथुरा नगरी के निर्माण का वर्णन किया है ।[11]शत्रुघ्न के पुत्रों शूरसेन और सुबाहु का क्रमश: मथुरा तथा विदिशा के अधिकारी होने का भी वर्णन रघुवंश में मिलता है ।[12]

कालिदास द्वारा वर्णित शूरसेन के राजा सुषेण का नाम प्रमाणित नहीं होता है । शिलालेखों आदि में मथुरा के किसी सुषेण राजा का नाम संज्ञान में नहीं आता । कालिदास ने उन्हें 'नीप-वंश' का कहा है । (रघुवंश, 6,46) नीप दक्षिण पंचाल के एक नृप का नाम था, जो मथुरा के यादव-राजा भीम सात्वत के समकालीन थे । उनके वंशज नीपवंशी कहलाये । कालिदास ने वृन्दावन और गोवर्धन का भी वर्णन किया है । वृन्दावन के वर्णन से ज्ञात होता है कि कालिदास के समय में यहाँ का सौंदर्य बहुत प्रसिद्ध था और यहाँ अनेक प्रकार के फूल वाले लता-वृक्ष विद्यमान थे । कालिदास ने वृन्दावन की उपमा कुबेर के चैत्ररथ नाम उद्यान से दी है ।[13]

कुमार गुप्त, प्रथम (414-455) चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का पुत्र था । चन्द्रगुप्त के पश्चात उसका पुत्र मगध का सम्राट् हुआ । उसने सम्भवतः सं. 414 से 455 तक राज्य किया । उसके शासन काल में शांति और सुव्यवस्था रही और विभिन्न विधाओं और कलाओं की ख़ूब उन्नति हुई । कुमार गुप्त ने नालंदा में एक महाविहार की स्थापना की , जो उस समय भारत का प्रसिद्व विश्वविद्यालय था । उसके शासन के अंतिम समय में राज्य में अव्यवस्था हो गई थी और देशी और विदेशी राजाओं के आक्रमण की घटनायें हुईं ।

विदेशी आक्रमणकारी हूण जाति के लोग थे, जो मध्य एशिया से आकर यहाँ लूटमार और गड़बड़ी कर रहे थे । चंद्रगुप्त विक्रमादित्य से पराजित होने के कारण शकों की शक्ति समाप्त हो गई थी; परन्तु हूणों के आक्रमण प्रारंभ हो गये थे । हूण आक्रमणकारियों ने आगे बढ़ कर पंजाब तथा पूर्वी मालवा में अधिकार कर लिया था और गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर अधिकार कर लिया था । हूण यहाँ की शांति और सुव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा संकट बन गये थे ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसी स्तम्भ पर सम्राट अशोक का एक लेख भी खुदा हुआ है ।
  2. समुद्र्गुप्त के कुछ सिक्कों पर 'सर्वराजोच्छेत्ता' उपाधि मिलती है । उसकी दूसरी प्रसिद्ध उपाधि 'पराक्रमांक ' से भी समुद्रगुप्त के पराक्रम का पता चलता है ।
  3. शिशुनंदि नामक एक राजा का उल्लेख पुराणों में मिलता है।
  4. इसका दूसरा नाम ध्रुवस्वामिनी भी मिलता है।
  5. सम्भवतः यह घटना मथुरा नगर या उसके निकट ही घटी । बाणभट्ट ने हर्षचरित में इसका विवरण किया है- अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनीवेशगुप्तश्र्चन्द्र्गुप्तः शकपतिमशातयन(हर्षच.,5,1)
  6. राष्ट्र्कूट-वंश के संजन-ताम्रपत्र में भी इसका ज़िक्र मिलता है-हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरद्देवीं च दीनस्तथा । लक्षं कोटिमलेखयन्किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः
  7. लेख के प्राप्ति-स्थान कटरा केशवदेव से गुप्तकालीन कलाकृतियाँ बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं,जिनसे ज्ञात होता है कि इस समय में यहाँ विभिन्न सुन्दर प्रतिमाओं सहित एक वैष्णव मंन्दिर था ।
  8. सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकन्तरगीतकीर्तिम् । आचारशुध्दोभयवंशदीपं शुध्दान्तरक्ष्या जगदे कुमारी।। (रघु.6,45) ।
  9. यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद्वारि -विहारकाले । कलिन्दकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्तजलेव भाति ।। (रघु. 6,48)
  10. "कालिन्दीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्म्मास्यत इति वक्ष्यति तत्कथमधुना मथुरासम्भव, इति चिन्त्यम् ।
  11. "उपकूलं स कालिन्द्याः पुरी पौरुषभूषणः । निर्ममे निर्ममोसSर्थेषु मथुरां मधुराकृतिः । या सौराज्यप्रकाशाभिर्वभौ पौरविभूतिभिः । स्वर्गाभिष्यन्दवमनं कृत्वेवोपनिवेशिता । । "(रघु. 15,28-29)
  12. शत्रुघातिनी शत्रुघ्न सुबाहौ च बहुश्रुते । मथुराविदिशे सून्वोर्निदधे पूर्वजोत्सुकः।। (रघु. 15,36)
  13. संभाव्य भर्तारममुं युवानं मृदुप्रवालोत्तर पुष्पशय्ये।
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