श्रीकांत उपन्यास भाग-19

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दूसरे दिन मेरी अनिच्छा के कारण जाना न हुआ किन्तु उसके अगले दिन किसी प्रकार भी न अटका सका और मुरारीपुर के अखाड़े के लिए रवाना होना पड़ा। जिसके बिना एक क़दम भी चलना मुश्किल है वह राजलक्ष्मी का वाहन रतन तो साथ चला ही, पर रसोईघर की दाई लालू की माँ भी साथ चली। कुछ ज़रूरी चीज़ें लेकर रतन सबेरे की गाड़ी से रवाना हो गया है। वहाँ पहुँचकर वह स्टेशन पर पहले ही से दो घोड़ागाड़ियाँ ठीक कर रक्खेगा। हम लोगों के साथ जो सामान बाँध गया है वह भी तो कम नहीं है।

मैंने प्रश्न किया, "वहाँ क्या घर-बार बसाने जा रही हो?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "वहाँ क्या दो-एक दिन भी न रहेंगे? देश के वन-जंगल, नदी-नाले, घाट-मैदान क्या तुम अकेले ही देख आओगे? मैं क्या उस देश की लड़की नहीं हूँ? मेरी क्या देखने की इच्छा नहीं होती?"

"मानता हूँ कि होती है, पर इतनी चीजें, इतने तरह का खाने-पीने का आयोजन।"

"तो तुम क्या यह कहते हो कि देवस्थान में ख़ाली हाथ चला जाय? और तुम्हें तो कुछ सब ढोना नहीं है, फिर इतनी चिन्ता क्यों?"

चिन्ता तो बहुत थी, पर कहता किससे? सबसे अधिक भय इसी बात का था कि यह वैष्णवी-वैरागियों का छुआ हुआ देवता का प्रसाद माथे पर तो मजे से चढ़ा लेगी किन्तु मुँह में न डालेगी। और कौन जानता है कि वहाँ जाकर किस बहाने उपवास प्रारम्भ कर देगी या भोजन पकाने बैठ जायेगी। केवल एक भरोसा है। राजलक्ष्मी का मन सचमुच ही भद्र है। अकारण गले पड़कर वह किसी को चोट नहीं पहुँचा सकती। यदि उसे कुछ ऐसा करना भी हुआ तो प्रसन्न-मुख हास-परिहास के साथ इस प्रकार करेगी कि मुझे और रतन को छोड़ कोई समझ भी नहीं पायेगा।

राजलक्ष्मी के शारीरिक गठन में बाहुल्य-भार कभी नहीं हुआ और फिर संयम तथा उपवास ने उसे मानो लघुता की एक दीप्ति दान दी है। विशेषकर आज उसकी साज-सज्जा कुछ विचित्र ही है। भोर होने के पहले ही वह स्नान कर आई है, गंगाघाट के उड़िया पण्डे का यत्नपूर्वक लगाया हुआ तिलक उसके मस्तक पर है, कत्थई रंग की फूल-फल तथा बेल-बूटों से चित्रित वृन्दावनी साड़ी पहन रक्खी है, शरीर पर वे ही कुछ थोड़े-से गहने हैं, मुख पर स्निग्धा प्रसन्नता है, और अपने काम में तल्लीन है। कल लम्बे आइने लगीं दो आलमारियाँ ख़रीद लाई थी, आज जाने से पूर्व उनमें जल्दी-जल्दी न जाने क्या रख रही है। काम करते-करते उसके हाथों के कड़ों की शार्क मछली की ऑंखें बीच-बीच में चमक उठती हैं, गले में पड़े हुए हीरे-पन्ने की जड़ाऊ हार की विभिन्न वर्णच्छटा किनारी के व्यवधान में से झलक उठती है। उसके कानों के पास से भी एक नीली आभा निकल रही है। मेज पर चाय पीने बैठकर मैं एकटक उसी ओर देख रहा था। उसमें एक दोष था, घर में वह जाकेट ब्लाउज नहीं पहिनती थी, अतएव जरा असावधन होने पर उसकी गर्दन तथा बाहु का बहुत-सा अंश अनावृत हो पड़ता था। यदि इसके लिए कहा जाता तो वह हँसकर कहती- बाबा, मुझसे यह सब नहीं हो सकता। मैं ठहरी गाँव की औरत, मुझे दिन-रात बीबियाना ठाठ नहीं सुहाता। अर्थात्, हम शुचि-वायुग्रस्त जीवों के लिए कपड़ों का ज़्यादा पहिनना परेशानी का काम है। आलमारी का पलड़ा बन्द करते हुए एकाएक आइने में उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ गयी। शीघ्रता से साड़ी सँभालकर वह मेरी ओर घूमकर खड़ी हो गयी और नाराज होकर बोली, "फिर भी ताक रहे हो? अबकी बार-बार मुझे इतना क्यों ताक रहे हो, कहो तो?" और कहकर ही वह हँस पड़ी।

मैं भी हँसा, बोला, "सोच रहा था कि विधाता को फरमाइश देकर न जाने किसने तुम्हें गढ़वाया था।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तुमने। नहीं तो दुनिया से ऐसी निराली पसन्दगी और किसकी हो सकती है? मेरे आने के पाँच-छह वर्ष पूर्व तुम आये थे, और आते समय उन्हें बयाना दे आये थे। याद नहीं है क्या?"

"नहीं, किन्तु तुमने कैसे जाना?"

"चालान करते समय विधाता ने ही कान में कह दिया था। पर तुम चाय पी चुके? देर करोगे तो आज भी जाना नहीं होगा।"

"न सही।"

"पर बतलाओ, क्यों?"

"वहाँ भीड़ में शायद तुम्हें ढूँढ़ न पाऊँगा।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "मुझे तो तुम पा लोगे, पर मैं तुम्हें खोजकर पा जाऊँ तो गनीमत है।"

मैंने कहा, "यह भी तो ठीक नहीं है।"

उसने हँसकर कहा, "नहीं, ऐसा नहीं होगा। तुम्हें चलना ही पड़ेगा। सुना है कि 'नये गुसाईं' का वहाँ एक अलग कमरा है, मैं जाते ही उसका कुण्डा तोड़कर रख दूँगी। कोई भय नहीं, ढूँढ़ना नहीं होगा- दासी तुम्हें यों ही मिल जायेगी।"

"तो चलो।"

जिस समय हम लोग मठ में पहुँचे उस समय देवता की मधयाह्नकालीन पूजा समाप्त ही हुई थी। बिना बुलाए बिना सूचना के अकस्मात् इतने प्राणी हाजिर हो गये, किन्तु फिर भी, उन लोगों की इतनी खुशी हुई कि कह नहीं सकता। बड़े गुसाईं आश्रम में नहीं हैं, गुरुदेव से मिलने फिर नवद्वीप गये हैं, किन्तु इस बीच ही दो वैरागियों ने आकर मेरे कमरे में अड्डा जमा लिया है।

कमललता, पद्मा, लक्ष्मी, सरस्वती तथा और भी कई ने आकर हम लोगों की सादर अभ्यर्थना की। कमललता ने भरे गले से कहा, "नये गुसाईं, तुम इतनी जल्दी फिर हम लोगों को दिखाई दोगे, ऐसी आशा नहीं की थी।"

राजलक्ष्मी ने इस प्रकार बातचीत की, मानो न जाने कब का परिचय है। कहा, "कमललता जीजी, इन कई दिनों से इनकी जबान पर केवल तुम्हारी ही चर्चा थी। इससे पहले ही आना चाहते थे, पर मेरे कारण ही ऐसा न हो सका। इसमें मेरा ही दोष है।"

कमललता का मुख कुछ क्षण के लिए लाल हो गया, पद्मा हँस पड़ी और उसने ऑंखें फिरा लीं।

राजलक्ष्मी की वेश-भूषा तथा चेहरे से सभी ने उसे भद्र परिवार का समझा, केवल मेरे साथ उसका क्या सम्बन्ध है, यह निस्सन्देह कोई न जान सका। परिचय के लिए सभी उत्सुक हो रहे। राजलक्ष्मी की ऑंखों से कुछ भी नहीं छिपता। उसने कहा, "कमललता दीदी, मुझे पहिचान नहीं सकीं?"

कमललता ने सिर हिलाकर कहा, "नहीं।"

"वृन्दावन में कभी नहीं देखा?"

कमललता भी निर्बोध नहीं है, उसने परिहास समझ लिया और हँसकर कहा, "याद तो नहीं पड़ रहा बहन।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "याद न पड़ना ही अच्छा है जीजी। मैं इसी देश की लड़की हूँ, वृन्दावन को कभी नहीं गयी।" कहकर वह हँस पड़ी। फिर लक्ष्मी, सरस्वती तथा अन्य सबके चले जाने के बाद मुझे दिखाकर कहा, "हम लोग एक ही गाँव में एक ही गुरु की पाठशाला में पढ़ते थे, दोनों में ऐसा प्रेम था जैसे भाई-बहन हों। मैं मुहल्ले के रिश्ते से 'दादा' कहकर पुकारती थी और ये मुझे बहन की तरह प्यार करते। शरीर पर कभी हाथ तक नहीं लगाया।" फिर मेरी ओर देखकर कहा, "क्यों जी, जो कुछ कह रही हूँ सच है न?"

पद्मा खुश होकर बोली, "इसी से तुम दोनों देखने में एक से लगते हो। दोनों ही ऊँचे और पतले, केवल तुम गोरी हो और नये गुसाईं साँवले।"

राजलक्ष्मी ने गम्भीर होकर कहा, "हम लोगों के ठीक एक से हुए बिना काम कैसे चल सकता पद्मा?"

"अरी मैया! तुम्हें तो मेरा नाम भी मालूम है। नये गुसाईं ने बता दिया है शायद?"

"बताया है, तभी तो तुम लोगों को देखने आयीं। मैंने कहा, "अकेले क्यों जाओगे? मुझे भी साथ ले चलो। तुमसे तो मुझे कोई डर नहीं, एक साथ देखकर कोई कलंक भी न लगायेगा और यदि लगाया भी तो हर्ज क्या है, विष नीलकण्ठ के गले में ही रह जायेगा, पेट में नहीं उतरेगा।"

मैं अब चुप न रह सका। औरतों का यह किस प्रकार का मजाक है, यह वे ही जानें। क्रोधित होकर कहा, "बताओ, लड़कियों के साथ क्यों झूठा मजाक कर रही हो?"

राजलक्ष्मी ने भले मानुस की तरह कहा, "सच्चा मजाक न हो तुम्हीं बता दो। जो कुछ जानती हूँ, सरल मन से कह रही हूँ, इससे तुम नाराज क्यों होते हो?"

उसका गाम्भीर्य देखकर गुस्से होकर भी मैं हँस पड़ा, "हाँ, सरल मन से कह रही हो! कमललता, संसार में इतनी बड़ी शैतान और वाचाल तुम्हें तलाश करने पर भी दूसरी नहीं मिलेगी। इसका कुछ न कुछ मतलब है, इसकी सब बातों पर सहज ही विश्वास न कर लेना।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "निन्दा क्यों करते हो गुसाईं? तब तो मेरे सम्बन्ध में तुम्हारे मन में ही कोई मतलब है।"

"हाँ, है तो।"

"पर मेरे मन में नहीं है। मैं निष्पाप निष्कलंक हूँ।"

"हाँ, युधिष्ठिर!"

कमललता भी हँसी, किन्तु उसके बोलने की भंगिमा पर। वह शायद ठीक-ठीक कुछ समझ न सकी, सिर्फ उलझन में पड़ गयी। कारण, उस दिन भी तो किसी रमणी से अपने सम्बन्ध का मैंने कोई आभास नहीं दिया था। और देता भी किस तरह? देने के लिए उस दिन था ही क्या?

कमललता ने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है बहिन?"

"मेरा नाम राजलक्ष्मी है, और ये पहले का अंश छोड़कर कहते हैं, केवल 'लक्ष्मी'। मैं इन्हें 'ए जी', 'ओ जी', 'सुनो' कहकर पुकारती थी। किन्तु अब 'नये गुसाईं' कहकर पुकारने के लिए कहा है। कहते हैं इससे तृप्ति होगी।"

पद्मा ने सहसा ताली बजाकर कहा, "मैं समझ गयी।"

कमललता ने उसे धमकाकर कहा, "जलमुँही के भारी बुद्धि है न। बता तो, क्या समझी?"

"निश्चय समझ गयी। बताऊँ?"

"बताना नहीं होगा, जा।" कहकर उसने स्नेह के साथ राजलक्ष्मी का हाथ पकड़कर कहा, "बातों ही बातों में देर हो रही है बहन, धूप में मुँह सूख गया है। जानती हूँ, कुछ खाकर भी नहीं आयी। चलो, हाथ-मुँह धोकर देवता को प्रणाम करो, फिर सभी मिलकर प्रसाद पाएं। तुम भी चलो गुसाईं- कहकर वह उसका हाथ पकड़कर मन्दिर की ओर खींच ले गयी।

अबकी बार मन ही मन मुझे विपत्ति दिखाई दी, क्योंकि अब आयेगा प्रसाद ग्रहण करने का आह्नान। खाने-पीने और छुआछूत का विचार राजलक्ष्मी के जीवन के साथ इस प्रकार ग्रंथित है कि इस विषय में सत्यासत्य का प्रश्न अवैध है। यह केवल विश्वास नहीं है, उसका स्वभाव है। इसे छोड़कर वह जी नहीं सकती। यह कोई नहीं जान सकता कि जीवन के इस एकान्त प्रयोजन की सहज और सक्रिय सजीवता ने कितनी बार कितने संकटों से उसकी रक्षा की है- अपने आप वह बतायेगी नहीं और जानने से कोई लाभ नहीं। केवल मैं ही जानता हूँ कि एक दिन राजलक्ष्मी को बिना चाहे ही दैवात् पाया है और आज वह सभी प्राप्त वस्तुओं से बढ़कर है। किन्तु इस समय उस बात को जाने दो।

उसकी जो कुछ कठोरता है वह केवल अपने लिए, उसमें दूसरे पर कोई अत्याचार नहीं है। वह हँसकर कहती है, "बाबा, ज़रूरत क्या है इतना कष्ट करने की? आजकल के समय में इतना बचकर चलने से प्राण नहीं बच सकते।" वह जानती है कि मैं कुछ नहीं मानता। वह इसी में खुश है कि उसकी ऑंखों के सामने कुछ भयंकर घटना न हो। मेरी परोक्ष अनाचार की कहानी से कभी तो वह अपने दोनों कानों को बन्द करके अपनी रक्षा करती है, या कभी गाल पर हाथ देकर अवाक् होकर कहती है, मेरे दुर्भाग्य से तुम ऐसे क्यों हुए? तुम्हारे कारण मेरा सब कुछ गया।

किन्तु आज का मामला ठीक वैसा नहीं है। इस निर्जन मठ में जो कई प्राणी शान्ति से रहते हैं वे सब दीक्षित वैष्णव-धार्मावलम्बी हैं। ये लोग जाति-भेद नहीं मानते और पूर्वाश्रम की बातें कभी मन में भी नहीं लाते। इसी से किसी अतिथि के आने पर ये लोग नि:संकोच श्रद्धापूर्वक प्रसाद वितरण करते हैं और आज तक किसी ने भी प्रसाद को अस्वीकार कर इन लोगों का अपमान नहीं किया। किन्तु यह अप्रीतिकार कार्य यदि आज, बिना बुलाये आकर, हमारे ही द्वारा घटित हो तो दु:ख की सीमा न रहेगी- और विशेषकर मेरे दु:ख की। यह मैं जानता था कि कमललता मुँह से कुछ न कहेगी, किसी को कुछ कहने भी न देगी- और शायद केवल एक बार मेरी ओर देखकर ही फिर सिर नीचा कर अन्यत्र खिसक जायेगी। तब उस मूक अभियोग का क्या उत्तर होगा- खड़ा-खड़ा मैं यही सोच रहा था कि। इसी समय पद्मा ने आकर कहा, "चलो नये गुसाईं, दीदी तुम्हें बुला रही हैं। हाथ-मुँह धो लिया है?"

"नहीं।"

"तो आओ, मैं पानी देती हूँ। प्रसाद दिया जा रहा है।"

"आज क्या प्रसाद बना है?"

"आज देवता को अन्न-भोग लगा है।"

मैंने मन ही मन कहा कि तब तो और भी खुशी की खबर है। पूछा, "प्रसाद किस जगह दिया जा रहा है?"

पद्मा ने कहा, "देवगृह के बरामदे में। तुम बाबाजी लोगों के साथ बैठोगे और हम औरतें बाद में खायेंगीं। आज हम लोगों को स्वयं राजलक्ष्मी दीदी परोसेंगी।"

"वे खायेंगी नहीं?"

"नहीं, वह तो हम लोगों की तरह वैष्णव नहीं हैं, ब्राह्मण की लड़की हैं। हम लोगों का छुआ खाने से उन्हें पाप लगता है।"

"तुम्हारी कमललता दीदी नाराज नहीं हुईं?"

"नाराज क्यों होंगी, वरन् हँसने लगीं। राजलक्ष्मी ने दीदी से कहा, अगले जन्म में हम दोनों बहिनें एक ही माँ के पेट से जन्म लेंगी। पहले मैं पैदा होऊँगी और तुम बाद में। तब दोनों बहिनें माँ के हाथ से एक ही पत्तल भर खायेंगी। उस समय यदि जात नष्ट होने की बात कहोगी तो माँ कान मल देंगी।"

सुनकर खुश होकर सोचा, अब ठीक हुआ। राजलक्ष्मी को बात करने में अभी तक कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं मिला था। पूछा, "क्या जवाब दिया?"

पद्मा ने कहा, "राजलक्ष्मी दीदी भी सुनकर हँसने लगीं। कहने लगीं, माँ क्यों दीदी, तुम तो बड़ी बहन होगी ही, स्वयं कान मल देना। छोटी की इतनी हिमाकत किसी तरह बर्दाश्त न करना।"

प्रत्युत्तर सुनकर चुप हो गया। मन ही मन प्रार्थना करता रहा कि कमललता इसके भीतरी अर्थ को न समझ सके।

जाकर देखा कि मेरी प्रार्थना मंजूर हो गयी है। कमललता ने उस बात पर कोई ध्‍यान नहीं दिया, बल्कि इस अमल को न मानकर ही इस बीच दोनों में खूब मेल हो गया है।

शाम की गाड़ी से बड़े गुसाईं द्वारिकाप्रसाद आ गये और उनके साथ और भी कई बाबाजी आये। सर्वांग में छापों का परिमाण और वैचित्रय देखकर सन्देह न रहा कि ये भी अवहेलना के पात्र नहीं हैं। बड़े गुसाईं मुझे देखकर बहुत खुश हुए किन्तु उनके साथियों ने मेरी कोई परवाह न की। परवाह करनी भी न चाहिए, क्योंकि, सुना गया, उनमें से तो एक तो ख्यातिप्राप्त कीर्त्तन-कर्त्ता हैं और दूसरे मृदंग बजाने में उस्ताद।

प्रसाद पाना समाप्त होने पर मैं बाहर निकल पड़ा। वही सूखी नदी और वही वन-जंगल। चारों ओर वेणु और बेंत के कुंज हैं- शरीर बचाकर चलना मुश्किल है। आसन्न सूर्यास्त के समय किनारे पर बैठकर प्रकृति की लीला निरीक्षण करने का संकल्प किया, किन्तु बोध हुआ कि पास ही कहीं अरबी जाति के 'अंधेरे के माणिक' (फूल) खिले हैं। उनकी सड़े हुए मांस जैसी बीभत्स दुर्गन्ध ने बैठने नहीं दिया। मन ही मन सोचा कि कवियों को यह फूल बहुत पसन्द है। कोई इन फूलों को ले जाकर उन्हें उपहार क्यों नहीं देता? संध्‍या होने के पूर्व ही लौट आया। जाकर देखा कि वहाँ समारोह की धूम है। ठाकुर- घर सजाया जा रहा है और आरती के बाद कीर्तन की बैठक होगी।

पद्मा ने कहा, "नये गुसाईं, कीर्तन सुनना तुम्हें अच्छा लगता है, आज मनोहरदास बाबाजी का गाना सुनने पर तुम अवाक् हो जाओगे। कैसा बढ़िया गाते हैं!"

वस्तुत: मेरे लिए वैष्णव कवियों की पदावली जैसी अन्य कोई मधुर वस्तु नहीं है। कहा, "सच, मुझे बहुत अच्छा लगता है पद्मा। बचपन में दो-चार कोस के भीतर कहीं भी कीर्तन होने की खबर सुनता था तो तत्काल दौड़ जाता था, किसी भी तरह घर में नहीं रह सकता था। समझ में आये चाहे न आये, लेकिन अन्त तक बैठा रहता था। कमललता, आज तुम नहीं गाओगी?"

कमललता ने कहा, "नहीं गुसाईं, आज नहीं। मेरी तो वैसी शिक्षा नहीं है, इसीलिए उनके सामने गाते हुए शर्म आती है। इसके अलावा उस बीमारी से गला इतना ख़राब हो गया है कि अभी तक ठीक नहीं हुआ।"

"पर लक्ष्मी तो तुम्हारा गाना सुनने ही आई है। उसका खयाल है कि मैंने तुम्हारे विषय में बढ़ा-चढ़ाकर कहा है।"

कमललता ने लज्जा से कहा, "बढ़ा-चढ़ाकर तो ज़रूर कहा होगा गुसाईं।" इसके बाद स्मित हास्य के साथ राजलक्ष्मी से कहा, "तुम कुछ खयाल न करना बहन, जो कुछ थोड़ा-बहुत आता है, वह किसी और दिन सुनाऊँगी।"

राजलक्ष्मी ने प्रसन्न होकर कहा, "अच्छा दीदी, तुम्हारी जिस दिन इच्छा हो बुला भेजना, मैं खुद आकर तुम्हारा गाना सुन जाऊँगी।" मुझसे कहा, "तुम्हें कीर्तन सुनना इतना अच्छा लगता है, यह तो तुमने कभी नहीं कहा?"

उत्तर दिया, "तुमसे क्यों कहता? गंगामाटी में बीमार पड़कर जब शय्या पर पड़ा था, तब सूखे और सूने मैदानों की ओर देखते-देखते दोपहर का वक्त कटता था, और दुर्भर संध्‍या किसी तरह अकेले कटना ही न चाहती थीं...।"

राजलक्ष्मी ने चट से मेरे मुँह को अपने हाथ से दबा दिया। कहा, "अगर और कुछ ज़्यादा कहा, तो पैरों में सिर पटककर मर जाऊँगी।" फिर खुद ही अप्रतिम हो हाथ हटाकर बोली, "कमललता दीदी, अपने बड़े गुसाईंजी से कह आओ बहन, आज बाबाजी महाशय के कीर्तन के बाद ही मैं देवता को गाना सुनाऊँगी।"

कमललता ने संदिग्ध कण्ठ से कहा, "लेकिन बहिन, बाबाजी बड़े टीका-टिप्पणी करने वाले हैं।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "भले ही हों, भगवान का नाम तो होगा।" विग्रह मूर्तियों को हाथ से दिखाते हुए कहा, "ये शायद खुश हों। और बाबाजीओं का तो मैं उतना खयाल नहीं करती बहिन, पर मेरे ये दुर्वासा-देवता प्रसन्न हो जाँय तो जान में जान आये!"

"प्रसन्न होने पर लेकिन बखशीश मिलेगी!"

राजलक्ष्मी ने सभय कहा, "रक्षा करो, गुसाईं, कहीं सबके सामने बखशीश देने मत आ जाना। तुम्हारे लिए असम्भव कुछ भी नहीं है।"

सुनकर वैष्णवियाँ हँसने लगीं, पद्मा खुश होने पर ताली बजाने लगती है। बोली, "मैं स-म-झ-ग-ई।"

कमललता ने उसकी तरफ सस्नेह देखकर हँसते हुए कहा, "दूर हटकलमुँही-चुप रह।" राजलक्ष्मी से बोली, "इसे ले जाओ बहन, क्या मालूम अचानक क्या कह बैठे।"

देवता की संध्‍या-आरती के बाद कीर्तन की बैठक जमी। आज बहुत-से दीपक जल रहे थे। वैष्णव-समाज में मुरारीपुर का आश्रम नितान्त अप्रसिद्ध नहीं है, नाना स्थानों से कीर्तन करने वाले वैरागियों के दल आने पर इस तरह का आयोजन अक्सर हुआ करता है। मठ में सब तरह के वाद्ययन्त्र मौजूद रहते हैं, देखा कि वे सब हाजिर कर दिये गये हैं। एक ओर वैष्णवियाँ बैठी हैं, सब परिचित हैं, दूसरी ओर अज्ञात-कुलशील अनेक वैरागी-मूर्तियाँ हैं, नाना उम्र और तरह-तरह के चेहरों की। बीच में विख्यात मनोहरदास और उनके मृदंगवादक आसीन हैं। मेरे कमरे पर हाल में ही दख़ल करने वाले नवयुवक बाबाजी हारमोनियम में सुर दे रहे हैं। यह प्रचार हो गया है कि कलकत्ते से एक सम्भ्रान्त घर की महिला आई हैं- वे ही गाना गायेंगी। वे युवती हैं और धनवती, उनके साथ आये हैं, दास-दासी, आयें हैं अनेक प्रकार के खाद्य-समूह और कोई एक नया गुसाईं भी आया है- वह है यहीं का एक घुमक्कड़।

मनोहरदास की कीर्तन की भूमिका और गौर-चन्द्रिका के* बीच राजलक्ष्मी कमललता के पास आकर बैठ गयी। हठात् बाबाजी महोदय का गला कुछ काँपकर सँभल गया, मृदंग पर थपकी नहीं पड़ी। यह एक नितान्त दैव की ही लीला थी। सिर्फ द्वारिकादास दीवार के सहारे जैसे ऑंखें बन्द किये बैठे थे वैसे ही बैठे रहे। क्या मालूम, शायद वे जान ही न पाये कि कौन आया और कौन नहीं।

राजलक्ष्मी एक नीलाम्बरी साड़ी पहनकर आई है, और उसकी महीन जरी की किनारी के साथ नीले रंग का ब्लाउज मिलकर एक हो गया है। बाकी सब वैसा ही है, सिर्फ सुबह की उड़िया पण्डे की लगाई हुई छापें इस वक्त बहुत कुछ मिट गयी हैं- जो छापें बाकी बची हैं वे मानो आश्विन के छिन्न-भिन्न मेघ हैं जो न जाने कब नील आकाश में बिला जाँयगे। वह अति शिष्ट शान्त है, उसने मेरी ओर कटाक्ष से भी न ताका- मानो पहिचानती ही नहीं, तो भी क्यों उसने अपनी जरा-सी हँसी दबा दी, यह वही जाने। अथवा मेरी भी भूल हो सकती है; असम्भव तो है नहीं।

आज बाबाजी महाराज का गाना जमा नहीं, पर यह उनके अपने दोष से नहीं, लोगों की अधीरता के कारण। द्वारिकादास ने ऑंखें खोल राजलक्ष्मी का आह्नान कर कहा, "दीदी, हमारे देवता को अब तुम कुछ निवेदन करके सुनाओ, सुनकर हम भी धन्य हों।"

राजलक्ष्मी उसी ओर मुँह करके बैठ गयी। द्वारिकादास ने मृदंग की ओर अंगुली से इशारा कर पूछा, "इससे कोई बाधा तो पैदा न होगी?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं।"

यह सुनकर सिर्फ वे ही नहीं, बल्कि मनोहरदास भी मन ही मन कुछ विस्मित हुए, क्योंकि, एक साधारण स्त्री से शायद उन्होंने इतनी आशा नहीं की थी।

गाना शुरू हुआ। संकोच की जड़ता-अज्ञता की दुविधा कहीं भी नहीं है- नि:संशय कण्ठ अबाध जलस्रोत की तरह प्रवाहित होने लगा। जानता हूँ, इस विद्या में वह सुशिक्षिता है- यह उसकी जीविका थी, पर खयाल नहीं था कि बंगाल के अपने संगीत की इस धारा पर भी उसने इतने यत्न के साथ अधिकार कर रक्खा है। किसे मालूम था कि प्राचीन और आधुनिक वैष्णव कवियों की इतनी विभिन्न पदावलियों को उसने कण्ठस्थ कर रक्खा होगा। सिर्फ सुर, ताल और लय में नहीं, बल्कि वाक्य की विशुद्धता,

उच्चारण की स्पष्टता और प्रकाश-भंगी की मधुरता से उसने इस शाम को जिस विस्मय की सृष्टि की वह कल्पनातीत थी। पत्थर के देवता उसके सामने हैं और दुर्वासा देवता पीछे- कहना मुश्किल है कि उसकी यह आराधना किसको ज़्यादा प्रसन्न करने के लिए थी। क्या जाने, यह बात आज उसके मन में थी या नहीं कि गंगामाटी के अपराध का थोड़ा-सा क्षालन भी इससे हो जाय।

  • गाने के पहले चैतन्य देव की वन्दना।

वह गा रही थी-

एके पद-पंकज पंके विभूषित, कंटक जर जर मेल,

तुया दरसन आशे कछु नाहिं, जानलु, चिरदुख अब दूर गेल।

तोहारि मुरली जब श्रवणे प्रवेराल, छोड़नु गृहसुखआस,

पंथक दु:ख तृणहुं करि न गणनु कहतँ ह गोविन्ददास॥

बड़े गुसाईंजी की ऑंखों से अश्रुधारा बह रही थी, वे आवेग और आनन्द की प्रेरणा से उठ खड़े हुए। मूर्ति से कण्ठ से मल्लिका की माला उतारकर उन्होंने राजलक्ष्मी के गले में पहना दी और कहा, "प्रार्थना करता हूँ, तुम्हारे सब अकल्याण दूर हो जाँय।"

राजलक्ष्मी ने झुककर नमस्कार किया, फिर उठकर मेरे पास आयीं, सबके सामने पैरों की धूल माथे पर लगाई और आहिस्ते से कहा, "यह माला रक्खी है, बख्शीश का डर न दिखाया होता तो यहीं तुम्हारे गले में पहना देती।" कहकर तुरन्त ही वह चली गयी।

गाने की बैठक खत्म हुई। ऐसा लगा मानो आज जीवन सार्थक हो गया।

क्रमश: प्रसाद-वितरण का आयोजन शुरू हुआ। अन्धकार में उसे जरा ओट में बुलाकर कहा, "वह माला रख दो। यहाँ नहीं, घर लौटकर तुम्हारे हाथों से ही पहिनूँगा।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "यहाँ ठाकुर-घर में पहिन लोगे तो फिर उतार नहीं सकोगे- शायद इसी बात का डर है?"

"ओह, कैसे दानी हो! पर वह तो तुम्हारी ही रहती जी।"

"तुम्हें आज असंख्य धन्यवाद।"

"क्यों, बताओ तो सही?"

आज खयाल हो रहा है, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ। रूप, गुण, रस, विद्या, स्नेह और सौजन्य से परिपूर्ण जो धन मुझे बिना याचना के ही मिला है, उसकी संसार में तुलना नहीं है। अपनी अयोग्यता के मारे शर्म आती है लक्ष्मी- तुम्हारे निकट मैं सचमुच बहुत कृतज्ञ हूँ।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "इस बार मैं सचमुच नाराज हो जाऊँगी।"

"सो हो जाओ। सोचता हूँ कि इस ऐश्वर्य को मैं कहाँ रक्खूँगा?"

"क्यों, चोरी जाने का डर है?"

"नहीं, ऐसा आदमी तो कोई नजर नहीं आता लक्ष्मी। चोरी करके तुम्हें रख छोड़ने लायक़ बड़ी जगह वह बेचारा कहाँ पावेगा?"

राजलक्ष्मी ने उत्तर नहीं दिया, मेरा हाथ खींचकर थोड़ी देर तक हृदय के समीप रख छोड़ा। फिर कहा, "अंधकार में ऐसे आमने-सामने खड़े रहेंगे तो लोग हँसेंगे नहीं? पर सोच रही हूँ कि रात को तुम्हें कहाँ सुलाऊँगी- जगह तो है ही नहीं।"

"रहने दो, कहीं भी सोकर रात काट दूँगा।"

"सो तो काट दोगे, पर तबियत तो तुम्हारी अच्छी है नहीं, बीमार पड़ सकते हो।"

"तुम्हें फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं, ये लोग कुछ न कुछ करेंगे ही।"

राजलक्ष्मी ने चिन्ता के स्वर में कहा, "सब कुछ देख तो रही हूँ, पता नहीं क्या व्यवस्था करेंगे! पर मैं फ़िक्र न करूँ और वे करें? चलो, थोड़ा-सा खाकर सो जाना।

लोगों की भीड़ के कारण सोने को सचमुच ही जगह न थी। उस रात को किसी तरह एक खुले बरामदे में मसहरी लगाकर मेरे सोने की व्यवस्था की गयी। त्रुटियों के कारण राजलक्ष्मी अशान्ति बोध करने लगी, शायद रात को बीच-बीच में आकर देख भी गयी, पर मेरी नींद में कोई बाधा नहीं पड़ी।

दूसरे दिन बिछौने से उठने पर देखा कि दोनों बहुत सारे फूल तोड़कर लौट आयी हैं। कमललता ने आज मेरे बदले राजलक्ष्मी को ही साथी बना लिया था। यह नहीं जानता था कि वहाँ अकेले में उनमें क्या-क्या बातें हुईं, पर आज उन दोनों का चेहरा देखकर मुझे बहुत सन्तोष हुआ। मानो दोनों बहुत पुरानी सखियाँ हैं, न जाने कितने समय की आत्मीय। कल दोनों एक साथ एक ही शय्या पर सोई थीं- जाति के विचार ने वहाँ किसी तरह का रोड़ा नहीं अटकाया। इस बारे में कि एक-दूसरे के हाथ का नहीं खातीं, कमललता ने मुझसे हँसकर कहा, "तुम कुछ खयाल न करना गुसाईं, इसका प्रबन्ध हमारा हो गया है। अगली बार, मैं बड़ी बहिन होकर पैदा होऊँगी और इसके दोनों कान अच्छी तरह से मल दूँगी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "इसके बदले मैंने भी एक शर्त करा ली है गुसाईं, कि अगर मैं मर जाऊँ तो इसे वैष्णवीपन से इस्तीफा देकर तुम्हारी सेवा में नियुक्त होना पड़ेगा। मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि तुम्हारे बिना मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी और तब भूत बनकर दीदी के सिर पर चढ़ी फिरूँगी- उसी सिन्दबाद जहाजी के कन्धों पर बूढ़े दैत्य की तरह-कन्धों पर बैठे-बैठे इसके द्वारा सब काम करा लूँगी, तब छोड़ूंगी।"

कमललता ने सहास्य कहा, "तुम्हें मरने की ज़रूरत नहीं बहन, तुम्हें कन्धों पर लिये मैं हर वक्त नहीं घूम सकूँगी।"

सवेरे चाय पीकर गौहर की तलाश में बाहर निकला। कमललता ने आकर कहा, "ज़्यादा देर न करना गुसाईं, और उन्हें भी साथ लेते आना। इधर देवता का भोग तैयार करने के लिए आज एक ब्राह्मण पकड़ लाई हूँ। जैसा गन्दा है वैसा ही आलसी। उसे सहायता देने राजलक्ष्मी साथ में गयी हैं।"

"यह अच्छा नहीं किया। राजलक्ष्मी का खाना तो हो जायेगा, पर तुम्हारे देवता उपासे रहेंगे।"

कमललता ने डर से जीभ काटते हुए कहा, "ऐसी बात न कहो गुसाईं, उसके कानों में भनक पड़ जायेगी तो फिर यहाँ जल भी ग्रहण नहीं करेगी।"

हँसकर कहा, "चौबीस घण्टे भी नहीं बीते कमललता, पर तुमने उसको पहिचान लिया है।" उसने भी हँसकर कहा, "हाँ गुसाईं, पहिचान लिया है। करोड़ों में खोजने पर भी तुम्हें ऐसा एक भी मनुष्य नहीं मिलेगा भाई। तुम भाग्यवान् हो।"

गौहर से मुलाकात नहीं हुई, वह घर पर नहीं था। उसकी एक विधवा बहन सुनाम ग्राम में रहती है। नवीन ने बताया कि वहाँ न जाने कौन-सा एक नया रोग फैला है, बहुत आदमी मर रहे हैं। दरिद्र बहिन लड़के-बच्चों को लेकर आफत में पड़ गयी है, इसीलिए दवा-दारू कराने वह गया है। आज दस-बारह दिनों से कोई खबर नहीं है, नवीन डर के मारे मरा जा रहा है, पर कोई भी रास्ता उसे नहीं सूझता। एकाएक बड़े ज़ोर से चीख मारकर वह रोने लगा। बोला, "शायद मेरे बाबू अब ज़िन्दा नहीं हैं। मैं एक मूरख किसान हूँ, कभी गाँव से बाहर नहीं गया, नहीं जानता कि कहाँ वह देश है और कहाँ से जाना होता है, नहीं तो सारी घर-गृहस्थी डूब जाती तो भी नवीन अब तक घर न बैठा रहता। चक्रवर्ती की दिन-रात खुशामद करता हूँ कि महाराज, दया करो, ज़मीन बेचकर तुम्हें सौ रुपये देता हूँ, एक बार मुझे ले चलो, पर वह धूर्त ब्राह्मण जरा भी नहीं हिलता। पर यह भी कहे देता हूँ बाबू, कि अगर मेरे मालिक मर गये तो चक्रवर्ती के मकान को आग लगाकर जला दूँगा और फिर उसी आग में आत्महत्या करके मर जाऊँगा। इतने बड़े नमकहराम को मैं ज़िन्दा नहीं रहने दूँगा।"

उसको सान्त्वना देकर पूछा, "जिले का नाम जानते हो नवीन?"

नवीन ने कहा, "केवल यह सुना है कि वह गाँव नदिया ज़िले के किसी कोने में है। स्टेशन से बैलगाड़ी में काफ़ी दूर जाना होता है।" फिर बोला, "चक्रवर्ती जानता है, पर ब्राह्मण यह भी नहीं बतलाना चाहता।"

नवीन पुरानी चिट्ठियाँ वगैरह संग्रह कर लाया, पर उनसे कोई पता नहीं चला। सिर्फ यह पता लगा कि दो महीने पहले विधवा बेटी की लड़की की शादी के लिए चक्रवर्ती ने गौहर से दो सौ रुपये वसूल किये थे!

मूर्ख गौहर के पास बहुत रुपया है, फलत: अक्षम्य दरिद्र उसे ठगेंगे ही- इसके लिए क्षोभ करना वृथा है, फिर भी इतनी बड़ी शैतानी बहुत कम नजर आती है।

नवीन ने कहा, "उसके लिए तो बाबू का मरना ही अच्छा है, झंझटों से बच जायेगा न! उधर का एक पैसा भी नहीं चुकाना पड़ेगा।" यह असम्भव नहीं है।

दोनों आदमी चक्रवर्ती के घर गये। इतना विनयी, ऐसी मीठी बातें करने वाला और ऐसा पर-दु:खकातर भद्र व्यक्ति संसार में दुर्लभ है! पर वृद्ध हो जाने के कारण स्मृति-शक्ति इतनी क्षीण हो गयी है कि उसे किसी भी तरह याद नहीं आया, यहाँ तक कि ज़िले का नाम भी खयाल न आया! बड़ी कोशिशों के बाद एक टाइम-टेबल लाकर उत्तर और पूर्व बंगाल के रेलवे स्टेशनों के सबके सब नाम पढ़ गया, फिर भी वह स्मरण न कर सका। दु:ख प्रकट करते हुए बोला, "लोग न जाने कितनी चीज़ें और रुपया-पैसा उधर ले जाते हैं। बाबा, याद नहीं रहता और फिर कोई लौटाने भी नहीं आता। मन ही मन कहता हूँ कि सिर पर भगवान हैं, वे ही इसका विचार करेंगे।"

नवीन अब और बर्दाश्त न कर सका, गरज उठा, "हाँ, वे ही तुम्हारा विचार करेंगे। अगर न करेंगे तो फिर मैं करूँगा!"

चक्रवर्ती ने स्नेहार्द्र मधुर कण्ठ से कहा, "नवीन, झूठ-मूठ के लिए क्यों नाराज होते हो भैया, तीन पन बीत गये, एक पन बाकी रहा है। यदि जानता तो क्या इतना भी न करता? गौहर क्या मेरे लिए पराया है? वह तो मेरे लड़के की तरह है रे!"

नवीन ने कहा, "यह सब मैं नहीं जानता। तुमसे अन्तिम बार कहता हूँ कि बाबू के पास ले चलना है तो ले चलो, नहीं तो जिस दिन उनकी कोई बुरी खबर मिलेगी, उस दिन रहे तुम और रहा मैं।"

चक्रवर्ती ने प्रत्युत्तर में कपाल पर हाथ मारकर सिर्फ इतना कहा, "तकदीर नवीन, तकदीर! नहीं तो तुम मुझसे ऐसी बात कहते!"

अतएव, फिर दोनों आदमी लौट आये। मकान के बाहर खड़े होकर मैंने आशा की कि अनुतप्त चक्रवर्ती शायद अब भी बुला ले। पर कोई उत्तर नहीं मिला, दरवाज़े की आड़ से झाँककर देखा कि चक्रवर्ती जली हुई चिलम फेंककर बड़े सन्तोष के साथ हुक़्क़ा तैयार कर रहा है।

गौहर का संवाद पाने का उपाय सोचते-सोचते जब मैं अखाड़े में पहुँचा, तब क़रीब तीन बजे थे। देवता के कमरे के बरामदे में औरतों की भीड़ लगी हुई थी। बाबाजियों में से कोई नहीं है, सम्भवत: सुप्रचुर प्रसाद-सेवा के परिश्रम से निर्जीव हो कहीं विश्राम कर रहे हैं-चूँकि रात के वक्त फिर एक बार प्रसाद से लड़ना होगा, अतएव उसके लिए भी बल-संचय करना ज़रूरी है!

झाँककर देखा कि भीड़ के बीच एक हाथ देखने वाला पण्डित बैठा हुआ है- पंचांग, पोथी, खड़िया, स्लेट, पेन्सिल इत्यादि गणना के विविध उपकरण उसके पास हैं। सबसे पहले पद्मा की नजर ही मुझ पर पड़ी, वह चिल्ला उठी, "नये गुसाईं आ गये!"

कमललता ने कहा, "तब ही जान गयी थी कि गौहर गुसाईं तुम्हें यों ही नहीं छोड़ देंगे, उन्होंने क्या खिलाया?"

राजलक्ष्मी ने उसका मुँह दबा दिया, "रहने दो दीदी, यह मत पूछा।"

कमललता ने उसका हाथ हटाते हुए कहा, "धूप में मुँह सूख गया है, रास्ते की धूल-मिट्टी सिर पर जम गयी है- नहाना-धोना हो गया क्या?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तेल तो छूते नहीं, इसलिए नहा-धो लेने पर भी पता नहीं चलेगा दीदी।"

"इसमें शक नहीं कि नवीन ने हर प्रकार की कोशिश की, पर मैंने स्वीकार नहीं किया, बिना नहाये खाये ही वापस लौट आया हूँ।"

राजलक्ष्मी ने बड़े आनन्द के साथ कहा, "ज्योतिषी ने मेरा हाथ देखकर कहा है कि मैं राजरानी होऊँगी।"

"क्या दिया?'

पद्मा ने कह दिया, "पाँच रुपया। राजलक्ष्मी दीदी के ऑंचल में बँधे थे।"

मैंने हँसकर कहा, "मुझे देतीं तो मैं उससे भी अच्छा बता सकता था।"

ज्योतिषी उड़िया ब्राह्मण था, बहुत अच्छी बंगला बोलता था- बंगाली कहा जा सकता है। उसने भी हँसकर कहा, "नहीं महाशय, रुपये के लिए नहीं, रुपये तो मैं बहुत कमाता हूँ। सच कहता हूँ कि ऐसा अच्छा हाथ मैंने दूसरा नहीं देखा। देखिएगा, मेरा हाथ देखना कभी झूठ नहीं होता।"

कहा, "ज्योतिषीजी, बिना हाथ देखे कुछ बता सकते हो?"

"बता सकता हूँ। एक फूल का नाम लीजिए।"

"सेमर का फूल।"

ज्योतिषी ने हँसकर कहा, "सेमर का फूल ही सही। मैं बता दूँगा कि आप क्या चाहते हैं।" कहकर उसने खड़िया से दो मिनट तक हिसाब लगाकर कहा, "आप एक खबर जानना चाहते हैं।"

"कौन-सी खबर?"

वह मेरी ओर देखकर कहने लगा, "नहीं, मामले-मुकदमे की नहीं, आप किसी आदमी की खबर जानना चाहते हैं।"

"कैसी खबर है, बता सकते हैं?"

"बता सकता हूँ। खबर अच्छी है, दो-एक दिन में ही मिल जायेगी।" सुनकर मन ही मन विस्मित हुआ, मेरा चेहरा देखकर सबने ही यह अनुमान किया।

राजलक्ष्मी ने खुश होकर कहा, "देखा न? मैं कहती हूँ कि ये बड़ी अच्छी गणना करते हैं, पर तुम लोग तो किसी बात पर विश्वास ही, करना चाहते-हँसकर उड़ा देते हो।"

कमललता ने कहा, "अविश्वास किसका? नये गुसाईं, जरा अपना हाथ भी तो एक बार ज्योतिषीजी को दिखाओ।"

मेरे हाथ फैलाते ही ज्योतिषीजी ने अपने हाथ में मेरा हाथ ले लिया, दो-तीन मिनट तक पर्यवेक्षण किया, हिसाब लगाया, फिर कहा, "महाशय, देखता हूँ कि आपके लिए एक बड़ी बहुत विपत्ति...

"विपत्ति? कब?"

"बहुत जल्दी। मरने-जीने की बात है।"

राजलक्ष्मी की ओर ताककर देखा कि उसके चेहरे पर ख़ून नहीं है- वह डर से सफेद पड़ गया है।

ज्योतिषी ने मेरा हाथ छोड़कर राजलक्ष्मी से कहा, "माँ, तुम्हारा हाथ एक बार और..."

"नहीं, मेरा हाथ अब नहीं देखना होगा, देख चुके।"

उसका तीव्र भावान्तर अत्यन्त स्पष्ट था। चतुर ज्योतिषी फौरन समझ गया कि हिसाब करने में उसने ग़लती नहीं की है। बोला, "मैं तो माँ दर्पण-मात्र हूँ, जो छाया पड़ेगी वही कहूँगा- पर रुष्ट ग्रह को भी शान्त किया जा सकता है, इसकी विधि है- सिर्फ दस-बीस रुपये खर्च करने की बात है।"

"तुम हमारे कलकत्ते के मकान पर आ सकते हो?"

'क्यों न आ सकूँगा माँ, ले जाने पर चला चलूँगा।"

"अच्छा।"

देखा कि ग्रह के कोप के प्रति तो उसको पूरा विश्वास है, पर उसे प्रसन्न कर लेने के बारे में काफ़ी सन्देह है।

कमललता ने कहा, "चलो गुसाईं, तुम्हारी चाय तैयार कर दूँ, वक्त हो गया है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "मैं बना लाती हूँ दीदी, तुम जरा इनके बैठने की जगह ठीक कर दो और रतन से हुक़्क़ा तैयार करने के लिए कह दो। कल से तो उसकी छाया भी नजर नहीं आयी।"

ज्योतिषी को लेकर सब कलरव करने लगीं, हम चले आये।

दक्षिण के खुले बरामदे में मेरी रस्सी की खाट पड़ी है, रतन ने झाड़-पोंछ दी, हुक़्क़ा दिया, मुँह-हाथ धोने को पानी ला दिया। कल सबेरे ही बेचारे को काम से फुर्सत नहीं मिली, फिर भी मालकिन कहती हैं कि उसकी छाया तक नहीं दीखी! मेरी विपत्ति-योग आसन्न है, पर रतन से पूछने पर वह अवश्य कहता, "जी नहीं, विपत्ति-योग आपका नहीं- मेरा है।"

कमललता नीचे बरामदे में बैठकर गौहर का संवाद पूछ रही थी। राजलक्ष्मी चाय ले आयी, चेहरा बहुत भारी हो रहा है, सामने के स्टूल पर प्याली रखकर बोली, "देखो, तुमसे हज़ार दफा कह चुकी कि वन-जंगलों में मत घूमा करो- आफत आते कितनी देर लगती है? गले में ऑंचल डाल और हाथ जोड़कर तुमसे प्रार्थना करती हूँ कि मेरी बात मानो।"

अब तक चाय बनाते-बनाते राजलक्ष्मी ने शायद यही सोचकर स्थिर किया था। 'बहुत जल्दी' का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है?

कमललता ने आश्चर्य के साथ कहा, "वन-जंगलों में गुसाईं कब गये थे?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "कब गये, क्या यह मैं देखा करती हूँ दीदी? मुझे क्या दुनिया में और कोई काम नहीं है?"

मैंने कहा, "देखा कभी नहीं है, सिर्फ अंदाज़है। ज्योतिषी बेटा अच्छी आफत में डाल गया!"

सुनकर रतन दूसरी ओर मुँह फेर जल्दी से चला गया।

राजलक्ष्मी ने कहा, "ज्योतिषी का क्या दोष है, वह जो देखेगा वही तो बतायेगा? संसार में विपत्ति-योग नाम की क्या कोई चीज़ ही नहीं है? आफत में क्या कभी कोई नहीं पड़ता?"

इन सब प्रश्नों का उत्तर देना फिजूल है। राजलक्ष्मी को कमललता ने भी पहिचान लिया है, वह भी चुप रही।

चाय की प्याली अपने हाथों में लेते ही राजलक्ष्मी ने कहा, "दो-चार फल और थोड़ी-सी मिठाई ले आऊँ?"

कहा, "नहीं।"

"नहीं क्यों?" 'नहीं' छोड़कर 'हाँ' कहना क्या भगवान ने तुम्हें सिखाया ही नहीं?" पर मेरे मुँह की ओर देखकर सहसा अधिकतर उद्विग्न कण्ठ से प्रश्न किया, "तुम्हारी दोनों ऑंखें इतनी लाल क्यों दिखाई दे रही हैं? नदी के सड़े पानी में नहाकर तो नहीं आये हो?"

"नहीं, आज स्नान ही नहीं किया।"

"और वहाँ खाया क्या?"

"कुछ भी नहीं खाया। इच्छा भी नहीं हुई।"

जाने क्या सोचकर नजदीक आकर उसने मेरे सिर पर हाथ रक्खा, फिर वही हाथ कुर्ते के भीतर मेरी छाती के नजदीक डालकर कहा, "जो सोचा था ठीक वही है। कमल दीदी, देखो तो इनका शरीर गरम मालूम नहीं पड़ रहा है?"

कमललता व्यस्त होकर उठी नहीं। बोली, "जरा-सा गरम हो गया तो क्या हुआ राजू-डर क्या है?"

वह नामकरण करने में अत्यन्त पटु है। यह नया नाम मेरे कानों में भी पड़ा।

राजलक्ष्मी ने कहा, "इसके मानी ज्वर जो है दीदी!"

कमललता ने कहा, "अगर ज्वर ही हो तो तुम लोग पानी में नहीं आ पड़ी हो? हमारे पास आई हो, हम ही इसकी व्यवस्था कर देंगे बहन- तुम्हें फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं।"

अपनी इस असंगत व्याकुलता में दूसरे के अविचलित शान्त कण्ठ ने राजलक्ष्मी को प्रकृतिस्थ कर दिया। शर्मिंदा होकर उसने कहा, "अच्छी बात है दीदी, पर एक तो यहाँ डॉक्टर-वैद्य नहीं हैं, फिर हमेशा देखा है कि यदि इन्हें कुछ हो जाता है, तो जल्दी आराम नहीं होता- बहुत भोगना पड़ता है। फिर जलमुँहा ज्योतिषी ने जाने कहाँ से आकर डर दिला गया..."

"दिला जाने दो।"

"नहीं दीदी, मैंने देखा है कि इनकी अच्छी बातें तो नहीं फलतीं, पर अशुभ बातें ठीक निकल जाती हैं।"

कमललता ने स्मित हास्य से कहा, "डरने की बात नहीं राजू, इस क्षेत्र में उसकी बात ठीक न होगी। सबेरे से ही गुसाईं धूप में घूमते रहे हैं, ठीक वक्त पर स्नान-आहार नहीं हुआ, शायद इसी कारण शरीर कुछ गर्म हो गया है- कल सुबह तक नहीं रहेगा।"

लालू की माँ ने आकर कहा, "माँ, रसोईघर में ब्राह्मण-रसोइया तुम्हें बुला रहा है।"

"जाती हूँ," कहकर कमललता की तरफ कृतज्ञ दृष्टिपात करके वह चली गयी।

मेरे रोग के सम्बन्ध में कमललता की बात ही फली। ज्वर ठीक सुबह ही तो नहीं गया, पर एक-दो दिन में ही मैं स्वस्थ हो गया। किन्तु इस घटना से कमललता को हमारी भीतर की बातों का पता चल गया, शायद एक और व्यक्ति को भी पता चला- स्वयं बड़े गुसाईंजी को।

जाने के दिन कमललता ने हम लोगों को आड़ में बुलाकर पूछा, "गुसाईं, तुम्हें अपनी शादी का साल याद है?" निकट ही देखा कि एक थाली में देवता का प्रसाद, चन्दन और फूलों की माला रखी है।

प्रश्न का जवाब दिया राजलक्ष्मी ने, कहा, "इन्हें क्या खाक मालूम होगा, मुझे याद है।"

कमललता ने हँसते हुए कहा, "यह कैसी बात है कि एक को तो याद रहे और दूसरे को नहीं?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "बहुत छोटी उम्र थी न, इसीलिए। इन्हें तब भी ठीक ज्ञान न था।"

"पर उम्र में तो यही बड़े हैं, राजू?"

"ओ: बहुत बड़े हैं! कुल पाँच-छह साल। मेरी उम्र तब आठ-नौ साल की थी। एक दिन गले में माला पहनाकर मैंने मन-ही-मन कहा, आज से तुम मेरे दूल्हा हुए! दूल्हा! दूल्हा!" कहकर मुझे इशारे से दिखाते हुए कहा, "पर ये देवता उसी वक्त मेरी माला को वहीं खड़े-खड़े खा गये!"

कमललता ने आश्चर्य से पूछा, "फूलों की माला किस तरह खा गये?"

मैंने कहा, "फूलों की माला नहीं, पके हुए, करोदों की माला थी। जिसे दोगी वही खा जायेगा।"

कमललता हँसने लगी। राजलक्ष्मी ने कहा, "पर वहीं से मेरी दुर्गति शुरू हो गयी। इन्हें खो बैठी। इसके बाद की बातें मत जानना चाहो दीदी- पर लोग जो कल्पना करते हैं सो बात भी नहीं है- वे तो न जाने क्या-क्या सोचते हैं। इसके बाद बहुत दिनों तक रोती-पीटती भटकती फिरी और तलाश करती रही। आखिर भगवान की दया हुई, और जैसे एक दिन खुद ही देकर एकाएक छीन लिया था, वैसे ही अकस्मात् एक दिन हाथोंहाथ लौटा भी दिया।" कहकर उसने भगवान के उद्देश्य से प्रणाम कर लिया।

कमललता ने कहा, "उन्हीं भगवान की माला बड़े गुसाईं ने भेजी है, आज जाने के दिन तुम दोनों एक-दूसरे को पहना दो।"

राजलक्ष्मी ने हाथ जोड़कर कहा, "इनकी इच्छा ये जानें, पर इसके लिए मुझे आदेश न करो। बचपन की मेरी वह लाल रंग की माला आज भी ऑंखें बन्द करने पर इनके उसी किशोर गले में झूलती हुई दिखाई देती है। भगवान की दी हुई मेरी वही माला हमेशा बनी रहे दीदी।"

मैंने कहा, "पर वह माला तो खा डाली थी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "हाँ जी देवता, इस बार मुझे भी खा डालो।" कहकर हँसते हुए उसने चन्दन की कटोरी में अंगुलियाँ डुबोकर मेरे मस्तक पर छाप लगा दी।

हम सब मिलने के लिए द्वारिकादास के कमरे में गये। वे न जाने किस ग्रन्थ का पाठ करने में लगे हुए थे, आदर से बोले, 'आओ भाई, बैठो।"

राजलक्ष्मी ने ज़मीन पर बैठकर कहा, "बैठने का वक्त नहीं है गुसाईं। बहुत उपद्रव किया है, इसलिए जाने के पहले नमस्कार कर आपसे क्षमा की भिक्षा माँगने आई हूँ।"

गुसाईं बोले, "हम बैरागी आदमी हैं, भिक्षा ले तो सकते हैं, दे नहीं सकते। लेकिन फिर कब उपद्रव करने आओगी बताओ दीदी? आश्रम में तो आज अन्धकार हो जायेगा।"

कमललता ने कहा, "सच है गुसाईं- सचमुच में यही मालूम होगा कि आज कहीं भी बत्ती नहीं जली है, सब जगह अन्धकार हो रहा है।"

बड़े- गुसाईं ने कहा, "गान, आनन्द और हास-परिहास के कारण इन कई दिनों से ऐसा लग रहा था कि मानो हमारे चारों ओर विद्युत के दीपक जल रहे हैं-यह और कभी नहीं देखा। मैंने सुना कमललता ने तुम्हारा नाम 'नये गुसाईं' रक्खा है, और मैंने इन्हें नाम दिया है आनन्दमयी..."

इस बार उनके उच्‍छ्वास में मुझे बाधा देना पड़ी। कहा, "बड़े गुसाईं, विद्युत का दीपक ही आप लोगों की ऑंखों ने देखा है, पर जिनके कर्ण-रन्धरों में उसकी कड़कड़ ध्‍वनि दिन-रात पहुँचती रहती है, उनसे तो जरा पूछिए। आनन्दमयी के सम्बन्ध में कम-से-कम रतन की राय..."

रतन पीछे खड़ा था, भाग गया।

राजलक्ष्मी ने कहा, "इनकी बातें तुम न सुनो गुसाईं, मुझसे ये दिन-रात ईर्ष्या करते हैं।" फिर मेरी ओर देखकर कहा, "इस बार जब आऊँगी तो इस रोगी और अरसिक आदमी को कमरे में ताला लगाकर बन्द कर आऊँगी, इसके मारे मुझे कहीं चैन नहीं मिलती!"

बड़े गुसाईं ने कहा, "नहीं आनन्दमयी, नहीं बनेगा, छोड़कर नहीं आ सकोगी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "अवश्य आ सकूँगी। बीच-बीच में मेरी ऐसी इच्छा होती है गुसाईं, कि मैं जल्दी मर जाऊँ।"

बड़े गुसाईं जी बोले, "यह इच्छा तो वृन्दावन में एक दिन उनके मुँह से भी निकली थी बहिन, पर वैसा हो नहीं सका। हाँ आनन्दमयी, तुम्हें क्या वह बात याद नहीं?-

सखी, दे जाउँ मैं किसको कन्हैयालाल की सेवा।

वे जानें क्या बताओ तो..."

कहते-कहते वे मानो अन्यमनस्क हो गये। बोले, 'सच्चे प्रेम के बारे में हम लोग कितना-सा जानते हैं? केवल छलना में अपने को भुलाये रखते हैं। पर तुम जान सकी हो बहिन, इसीलिए कहता हूँ कि तुम जिस दिन यह प्रेम श्रीकृष्ण को अर्पण कर दोगी, आनन्दमयी..."

सुनकर राजलक्ष्मी मानो सिहर उठी, व्यस्त होकर बाधा देते हुए बोली, "ऐसा आशीर्वाद मत दो गुसाईं, मेरे भाग्य में ऐसा न घटे। बल्कि यह आशीर्वाद दो कि इसी तरह हँसते-खेलते इनके समक्ष ही एक दिन मर जाऊँ।"

कमललता ने बात सँभालते हुए कहा, "बड़े गुसाईं तुम्हारे प्रेम की बात ही कर रहे हैं राजू, और कुछ नहीं।"

मैंने भी समझ लिया कि अन्य भावों के भावुक द्वारिकादास की विचार-धारा सहसा एक और पथ पर चली गयी थी, बस।

राजलक्ष्मी ने शुष्क मुँह से कहा, "एक तो यह शरीर और फिर एक न एक रोग साथ लगा ही रहता है- एकांगी आदमी, किसी की बात सुनना नहीं चाहते-मैं रात-दिन किस तरह डरी-सहमी रहती हूँ दीदी, किसे बताऊँ?"

अब तो मैं मन-ही-मन उद्विग्न हो उठा। जाते वक्त बातों-ही-बातों में कहाँ का पानी कहाँ पहुँच गया, इसका ठिकाना ही नहीं। मैं जानता हूँ कि मुझे अवहेलना के साथ बिदा करने की मर्मान्तक आत्मग्लानि लेकर ही इस बार राजलक्ष्मी काशी से आई है और सर्व प्रकार के हास-परिहास के अन्तराल में न जाने किस अनजान कठिन दण्ड की आशंका उसके मन में बनी रहती है जो किसी तरह मिटना ही नहीं चाहती। इसी को शान्त करने के अभिप्राय से मैं हँसकर बोला, "लोगों के आगे मेरे दुबले-पुतले शरीर की तुम चाहे जितनी निन्दा क्यों न करो लक्ष्मी, पर इस शरीर का विनाश नहीं है। तुम्हारे पहले मरे बिना मैं मरने का नहीं, यह निश्चित है।"

उसने बात खत्म भी न करने दी, धप से मेरा हाथ पकड़कर कहा, "तब इन सबके सामने मुझे छूकर तीन बार कसम खाओ। कहो कि यह बात कभी झूठ न होगी!" कहते-कहते उद्गत ऑंसू उसकी दोनों ऑंखों से बह पड़े।

सबके-सब अवाक् हो रहे। लज्जा के मारे उसने मेरा हाथ जल्दी-से छोड़ दिया और जबरदस्ती हँसकर कहा, "इस जलमुँहे ज्योतिषी ने झूठमूठ ही मुझे इतना डरा दिया कि..."

यह बात भी वह खत्म न कर सकी, और चेहरे की हँसी तथा लज्जा की बाधा के होते हुए भी उसकी ऑंखों से ऑंसुओं की बूँदें दोनों गालों पर ढुलक पड़ीं।

एक बार फिर सबसे एक-एक करके विदा ली गयी। बड़े गुसाईं ने वचन दिया कि इस बार कलकत्ते जाने पर वह हमारे यहाँ भी पधारेंगे और पद्मा ने कभी शहर नहीं देखा है, इसलिए वे भी साथ में आयेगी।

स्टेशन पर पहुँचते ही सबसे पहले वही 'जुलमुँहा' ज्योतिषी नजर आया। प्लेटफार्म पर कम्बल बिछाकर बड़ी शान से बैठा है और उसके आसपास काफ़ी लोग जमा हो गये हैं।

पूछा, "यह भी साथ चलेगा क्या?"

राजलक्ष्मी ने दूसरी ओर देखकर अपनी सलज्ज हँसी छिपा ली। पर सिर हिलाकर बताया कि "हाँ, जायेगा।"

कहा, "नहीं, नहीं जायेगा।"

"लेकिन जाने से कुछ भला न होगा तो बुरा भी तो न होगा। साथ चलने दो न?"

"नहीं। भला-बुरा कुछ भी हो, वह साथ नहीं चलेगा। उसे जो कुछ देना हो दे- दिलाकर यहीं से बिदा कर दो। ग्रह शान्त करने की क्षमता और साधुता अगर उसमें हो भी, तो तुम्हारी ऑंखों की आड़ में ही वह करे।"

"तो यही कह देती हूँ," कहकर रतन को उसे बुलाने के लिए भेज दिया। नहीं जानता कि उसे क्या दिया, पर कई बार माथा हिलाकर और अनेक आशीर्वाद देकर हँसते हुए ही उसने बिदा ली।

थोड़ी देर बाद ही ट्रेन आकर हाजिर हुई और हम कलकत्ते को चल दिये।

12

राजलक्ष्मी के एक प्रश्न के उत्तर में रुपयों की प्राप्ति का क़िस्सा बताना पड़ा। "हमारे बर्मा ऑफिस से एक ऊँचे दर्जे के साहब बने घुड़दौड़ में सर्वस्व गँवाकर मेरे इकट्ठे किये हुए रुपये उधार ले लिये थे और खुद ही उन्होंने यह शर्त की थी कि सिर्फ सूद ही नहीं, बल्कि अगर अच्छे दिन आए तो मुनाफे का भी आधा हिस्सा देंगे। इस बार कलकत्ते लौटकर रुपये माँगने पर उन्होंने कर्ज़ का चौगुना रुपया भेज दिया। बस यही मेरी पूँजी है।"

"वह कितनी है?"

"मेरे लिए तो बहुत है, पर तुम्हारे निकट अतिशय तुच्छ।"

"सुनूँ तो कितनी?"

"सात-आठ हजार!"

"वह मुझे देनी होगी।"

डर से कहा, "यह कैसी बात है! लक्ष्मी तो दान ही करती हैं, वे हाथ भी फैलाती हैं क्या?"

राजलक्ष्मी ने सहास्य कहा, "लक्ष्मी अपव्यय सहन नहीं करतीं और अयोग्य समझकर संन्यासी फ़कीरों का विश्वास नहीं करतीं। लाओ रुपये।"

"क्या करोगी?"

"अपने खाने-कपड़े की व्यवस्था करूँगी। अब से यही होगा मेरे जीवित रहने का मूलधन।"

"पर इतने-से मूलधन से काम कैसे चलेगा? तुम्हारे झुण्ड के झुण्ड नौकर-नौकरानियों की पन्द्रह दिन की तनख्वाह भी तो इससे पूरी नहीं होगी। इसके अलावा गुरु-पुरोहित हैं, तैंतीस करोड़ देवता हैं, बहुत-सी विधवाओं का भरण-पोषण है- उनका क्या उपाय होगा?"

"इनके लिए फ़िक्र मत करो, उनका मुँह बन्द न होगा। मैं अपने ही भरण-पोषण की बात सोच रही हूँ। समझे?"

कहा, "समझ गया। अब से अपने को एक माया में भुलाये रखना चाहती हो- यही न?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं, सो नहीं। वह सब रुपया दूसरे कामों के लिए है। मेरे भविष्य की पूँजी वही होगा, जो अब से तुम्हारे सामने हाथ पसारने पर मिलेगा। उसी से भरपेट खाऊँगी, नहीं तो उपवास करूँगी।"

"तो तुम्हारे भाग्य से यही लिखा है!"

"क्या लिखा है- उपवास?" यह कहकर उसने हँसते हुए कहा, "तुम सोच रहे हो कि साधारण-सी पूँजी है, पर वह विद्या मैं जानती हूँ कि साधारण ही किस तरह बढ़ाया जाता है। एक दिन समझोगे कि मेरे धन के बारे में तुम जो सन्देह करते हो वह सच नहीं है।"

"यह बात तुमने इतने दिनों से क्यों नहीं कही?"

"इसीलिए नहीं कही कि विश्वास नहीं करोगे। मेरा रुपया तुम घृणा के मारे छूते तक नहीं, पर तुम्हारी घृणा से मेरी छाती फट जाती है।"

व्यथित होकर कहा, "अचानक आज ये सब बातें क्यों कह रही हो लक्ष्मी?"

राजलक्ष्मी क्षण-भर तक मेरे चेहरे की ओर देखती रही, फिर बोली, "यह बात तुम्हें आज एकाएक खटकी है पर मेरी तो रात-दिन यही भावना रही है। तुम क्या यह समझते हो कि अधर्म की कमाई से ही मैं देवी-देवताओं की सेवा करती हूँ? उस धन का एक अणु भी अगर तुम्हारी चिकित्सा में मैं खर्च करती, तो तुम्हें बचा सकती? अवश्य ही मेरे पास से भगवान तुम्हें छीन लेते। इस बात को सत्य मानकर तुम कहाँ विश्वास करते हो कि मैं तुम्हारी ही हूँ।"

"विश्वास तो करता हूँ।"

"नहीं, नहीं करते।"

उसके प्रतिवाद का तात्पर्य नहीं समझा। वह कहने लगी, "कमललता से तुम्हारा दो दिन का परिचय है, तो भी तुमने उसकी सारी कहानी मन लगाकर सुनी, उसकी सारी बाधाएँ मिट गयीं- वह मुक्त हो गयी। पर तुमने मुझसे कभी कोई बात नहीं पूछी, कभी तो नहीं कहा कि लक्ष्मी अपने जीवन की सारी घटनाएँ खोलकर बताओ। क्यों नहीं पूछा? तुम विश्वास नहीं करते मेरा और न विश्वास कर सकते हो अपने ऊपर!"

कहा, "उससे भी नहीं पूछा, जानना भी नहीं चाहा। उसने खुद ही जबरदस्ती सुनाई है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तो भी सुनी तो है। वह पराई है इसलिए उसकी कहानी नहीं सुनना चाहते थे, क्योंकि ज़रूरत नहीं थी। पर मुझसे भी क्या यही कहोगे?"

"नहीं, यह नहीं कहूँगा। पर क्या तुम कमललता की चेली हो? उसने जो कुछ किया है, तुम्हें भी वही करना होगा?"

"इन बातों में मैं भूलने वाली नहीं। मेरी सारी बातें तुम्हें सुननी ही पड़ेंगीं!"

"यह तो बड़ी मुश्किल है। मैं सुनना नहीं चाहता तो भी सुननी पड़ेगी?"

"हाँ, सुननी पड़ेंगीं। तुम्हारा खयाल है कि सुनने पर शायद मुझे प्यार नहीं कर सकोगे, या मुझे बिदा देनी पड़ेगी।"

"तब तुम्हारी विवेचना के अनुसार यह क्या तुच्छ बात है?"

राजलक्ष्मी हँस पड़ी, बोली, "नहीं, यह नहीं होगा, तुम्हें सुनना ही पड़ेगा। तुम पुरुष हो, तुम्हारे मन में क्या इतनी भी शक्ति नहीं है कि उचित मालूम होने पर मुझे दूर कर सको?"

इस अक्षमता को अत्यन्त स्पष्टता से कबूल करते हुए कहा, "तुम जिन शक्तिशाली पुरुषों का उल्लेख करके मुझे अपमानित कर रही हो लक्ष्मी, वे वीर पुरुष हैं- नमस्कार करने योग्य हैं। उनकी पद-धूलि की योग्यता भी मुझमें नहीं। तुम्हें बिदा देकर मैं एक दिन भी नहीं रह सकूँगा, शायद उसी वक्त लौटा लाने के लिए दौड़ पडँगा और तुमने यदि 'ना' कह दिया तो मेरी दुर्गति की सीमा नहीं रहेगी! अतएव, सब भयावह विषयों की आलोचना बन्द करो।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तुम्हें मालूम है, बचपन में माँ ने मुझे एक मैथिल राजकुमार के हाथों बेच दिया था।"

"हाँ, और एक राजकुमार की ही जबानी यह खबर बहुत दिनों बाद सुनी थी। वह मेरा मित्र था।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "हाँ, वह तुम्हारे मित्र का मित्र था। एक दिन नाराज होकर मैंने माँ को बिदा कर दिया और उन्होंने घर लौटकर मेरी मृत्यु की अफवाह फैला दी। यह खबर तो सुनी थी?"

"हाँ, सुनी थी।"

"सुनकर तुमने क्या सोचा था?"

"सोचा था, आह, बेचारी लक्ष्मी मर गयी।"

"यही? और कुछ नहीं?"

"और यह भी सोचा था कि काशी में मरने के कारण और कुछ न भी हो, सद्गति तो हुई ही। आह!"

"राजलक्ष्मी ने नाराज होकर कहा, "जाओ, झूठी आह-आह करके दु:ख प्रकट करने की ज़रूरत नहीं। मैं कसम खाकर कह सकती हूँ कि तुमने एक बार भी 'आह' न की थी। लो, मुझे छूकर कहो तो।"

कहा, "इतने दिनों पहले की बातें क्या ठीक-ठीक याद रहती हैं? की थी, यही तो याद आता है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "खैर, कष्ट करके इतनी पुरानी बातें अब याद करने की ज़रूरत कहीं, मैं जानती हूँ।" फिर थोड़ी देर ठहरकर उसने कहा, "और मैं? रोज सुबह विश्वनाथ से रो-रोकर कहती थी, भगवान, मेरे, भाग्य में तुमने यह क्या लिख दिया? तुम्हें साक्षी बनाकर जिसके गले में माला डाली थी क्या इस जीवन में उससे फिर कभी मिलना नहीं होगा? चिरकाल तक क्या ऐसी अपवित्रता में ही दिन बिताने पड़ेंगे? उन दिनों की बातें याद आते ही आज भी आत्महत्या करके मर जाने की इच्छा होती है!"

उसके चेहरे की ओर देखकर क्लेश बोध हुआ, पर यह सोचकर चुप ही रहा कि मेरा निषेध नहीं मानेगी।

इन बातों को उसने कितने दिनों तक मन-ही-मन कितनी तरह से उलट-पलटकर सोचा-विचारा है, उसके अपराध-भाराक्रान्त मन ने नीरव की कितनी मर्मान्तिक वेदना सहन की है, फिर भी इस डर से कि कुछ करते कुछ न हो जाय कुछ ज़ाहिर करने का साहस नहीं किया है, इतने दिनों के बाद अब वह यह शक्ति कमललता से अर्जन कर पाई है। अपनी प्रच्छन्न कलुषिता को अनावृत्त करके वैष्णवी ने मुक्ति पा ली है। राजलक्ष्मी भी आज भय और झूठी मर्यादा की जंजीरों को तोड़कर उसी की तरह सहज होकर खड़ी होना चाहती है, फिर उसके भाग्य में कुछ भी क्यों न हो। यह विद्या उसे कमललता ने दी है। संसार में इस एक व्यक्ति के आगे इस दर्पिता नारी ने सिर झुकाकर अपने दु:ख के समाधान की भिक्षा माँगी है, यह बिना किसी संशय के समझ लेने पर मुझे बहुत सन्तोष मिला।

कुछ देर दोनों ही चुप रहे। सहसा राजलक्ष्मी बोली, "राजपूत्र एकाएक मर गया, पर माँ ने मुझे फिर बेचने का षडयन्त्र रचा..."

"इस बार किसके हाथ?"

"एक दूसरे राजकुमार के- तुम्हारे उन्हीं मित्ररत्न के साथ-जिनके साथ-साथ शिकार करने के लिए जाते हुए-क्या हुआ, याद नहीं है?"

"शायद नहीं। बहुत पुरानी बात है न। पर उसके बाद?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "यह षडयन्त्र चला नहीं। मैं बोली, "माँ तुम घर जाओ।"

माँ ने कहा, "हज़ार रुपये जो ले चुकी हूँ?" कहा, "वह रुपया लेकर तुम देश चली जाओ। दलाली का रुपया चाहे जैसे होगा मैं चुका दूँगी। आज रात की गाड़ी से तुम बिदा न होगी माँ, तो कल सबेरे ही मैं अपने को बेचकर गंगा-माता के पानी में डुबा दूँगी। मुझे तो तुम जानती हो माँ, झूठा डर नहीं दिखा रही हूँ।" माँ बिदा हो गयीं। उन्हीं की जुबानी मेरी मौत की खबर सुनकर तुमने दु:ख प्रकट करते हुए कहा, "आह! बेचारी मर गयी।" यह कहकर वह खुद ही कुछ हँसी और बोली, "सच होती तो तुम्हारे मुँह से निकलती हुई यह 'आह' ही मेरे लिए बहुत थी, पर अब जिस दिन सचमुच मरूँगी, उस दिन दो बूँद ऑंसू ज़रूर गिराना। कहना कि संसार में अनेक वर-वधुओं ने अनेक मालाएँ बदली हैं, उनके प्रेम से संसार पवित्र-परिपूर्ण हो रहा है, पर तुम्हारी कुलटा राजलक्ष्मी ने अपनी नौ वर्ष की उम्र में उस किशोर वर को एक मन से जितना ज़्यादा प्यार किया था, इस संसार में उतना ज़्यादा प्यार कभी किसी ने किसी को नहीं किया। कहो कि मेरे कानों में उस वक्त यह बात कहोगे? मैं मरकर भी सुन सकूँगी।"

"यह क्या, तुम तो रो रही हो?"

उसने ऑंखों के ऑंसू ऑंचल से पोंछकर कहा, "तुम क्या सोचते हो कि इस निरुपाय बच्ची पर उसके आत्मीय स्वजनों ने जितना अत्याचार किया है, उसे अन्तर्यामी भगवान देख नहीं सके?- इसका न्याय वे नहीं करेंगे? ऑंखें बन्द किये रहेंगे?"

कहा, "सोचता तो हूँ कि ऑंखें बन्द किये रहना उचित नहीं है, पर उनकी बातें तुम लोग ही अच्छी तरह जानती हो, मेरे जैसे पाखण्डी का परामर्श वे कभी नहीं लेते।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "मजाक!" पर दूसरे क्षण गम्भीर होकर कहा, "अच्छा, लोग कहते हैं कि स्त्री और पुरुष का धर्म एक न होने से काम नहीं चलता, पर धर्म-कर्म में तो मेरा और तुम्हारा सम्पर्क साँप और नेवले जैसा है। फिर भी हम लोगों का कैसे चलता है?"

"साँप नेवले की तरह की चलता है। इस जमाने में जाने से मार डालने में बड़ी झंझट है, इसलिए एक व्यक्ति दूसरे का वध नहीं करता, निर्भय होकर बिदा कर देता है,- तब जब कि यह आशंका होती है कि उसकी धर्म-साधना में विघ्न पड़ रहा है!"

"उसके बाद क्या होता है?"

हँसकर कहा, "उसके बाद वह खुद ही रोते-रोते वापस आता है, दाँतों में तिनका दबाकर कहता है कि मुझे बहुत सज़ा मिल चुकी है, इस जीवन में अब इतनी बड़ी भूल नहीं करूँगा। गया मेरा जप-तप, गुरु-पुरोहित-मुझे क्षमा करो।"

राजलक्ष्मी भी हँसी, बोली, "पर क्षमा मिल तो जाती है?"

"हाँ, मिल जाती हैं। पर तुम्हारी कहानी का क्या हुआ?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "कहती हूँ।" क्षण-भर मेरी ओर निष्पलक नेत्रों से देखकर कहा, "माँ देश चली गयीं। उन दिनों मुझे एक बूढ़ा उस्ताद गाना-बजाना सिखाता था। वह बंगाली था। किसी जमाने में संन्यासी था, पर इस्तीफा देकर फिर संसारी हो गया था। उसके घर में मुसलमान स्त्री थी। वह मुझे नाच सिखाने आती थी। मैं उसे बाबा कहती थी और मुझे सचमुच वह बहुत प्यार करता था। रोकर कहा, "बाबा, तुम मेरी रक्षा करो, यह सब अब मुझसे न होगा।" वह ग़रीब आदमी था। एकाएक साहस न कर सका। मैंने कहा कि मेरे पास बहुत रुपया है, उससे काफ़ी दिनों तक चल जायेगा। फिर भाग्य में जो बदा होगा, वह होगा। पर अब चलो, भाग चलें। इसके बाद उसके साथ कितनी जगह घूमी- इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली, आगरा, जयपुर, मथुरा- अन्त में इस पटना में आकर आश्रय लिया। आधा रुपया एक महाजन की गद्दी में जमा करा दिया और आधे रुपये से एक मनिहारी और कपड़े की दुकान खोल ली। मकान ख़रीदकर बंकू को तलाश किया, उसे लाकर स्कूल में भर्ती करा दिया और जीविका के लिए जो कुछ करती थी, वह तो तुमने खुद अपनी ऑंखों से देखा है।"

उसकी कहानी सुनकर कुछ देर तक स्तब्ध रहा, फिर बोला, "तुम कहती हो इसलिए अविश्वास नहीं होता, पर और कोई कहता तो समझता कि सिर्फ एक मनगढ़न्त झूठी कहानी सुन रहा हूँ।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "मैं शायद झूठ नहीं बोल सकती?"

कहा, "शायद बोल सकती हो, पर मेरा विश्वास है कि मुझसे आज तक नहीं बोलीं।"

"यह विश्वास क्यों है?"

"क्यों? तुम्हें डर है कि झूठी प्रवंचना करने के कारण पीछे कहीं देवता रुष्ट न हो जाँय और तुम्हें दण्ड देने के लिए कहीं मेरा अकल्याण न कर बैठें।"

"मेरे मन की बात तुमने कैसे जान ली?"

"मेरे मन की बात भी तो तुम जान लेती हो?"

"मैं जान सकती हूँ, क्योंकि यह मेरी रात-दिन की भावना है, पर तुम्हारे तो वह नहीं है।"

"अगर हो तो खुश होओगी?"

राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा, "नहीं होऊँगी। मैं तुम्हारी दासी हूँ, दासी को इससे ज़्यादा मत समझना, मैं यही चाहती हूँ।"

उत्तर में कहा, "तुम उस युग की मनुष्य हो- वही हज़ार वर्ष पुराने संस्कार हैं!"

राजलक्ष्मी ने कहा, "मैं ऐसी ही हो सकूँ और हमेशा ऐसी ही हूँ।" यह कहकर क्षण-भर मेरी ओर देखा, फिर कहा, "तुम सोचते हो कि इस युग की औरतें मैंने नहीं देखी हैं? बहुत देखी हैं बल्कि तुम्हीं ने नहीं देखी हैं और देखी भी हैं तो बाहर-से। इनमें से किसी के साथ मुझे बदल लो, तो देखूँ कि तुम कैसे रह सकते हो? अभी मुझसे मजाक करते हुए कहा था कि दाँतों में तिनका दबाकर आई थी, तब तुम दस हाथ दूर से दाँतों में तिनका दबाए आओगे।"

"पर जब इसकी मीमांसा हो ही नहीं सकती, जब झगड़ा करने से क्या फ़ायदा? सिर्फ यही कह सकता हूँ कि उनके बारे में तुमने अत्यन्त अविचार किया है।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "अविचार अगर किया हो तो भी कह सकती हूँ कि अत्यन्त अविचार नहीं किया। ओ गुसाईं, मैं भी बहुत घूमी हूँ, बहुत देखा है। तुम लोग जहाँ अन्धे हो, वहाँ भी हमारी दस जोड़ी ऑंखें खुली हुई हैं।"

"पर जो कुछ देखा है रंगीन चश्मे से देखा है, इसीलिए सब ग़लत देखा है। दस जोड़ी भी व्यर्थ हैं।"

राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, "क्या कहूँ, मेरे हाथ-पैर बँधे हुए हैं, नहीं तो ऐसे आड़े हाथों लेती कि जन्म-भर न भूलते। पर जाने दो, जब मैं उस युग की तरह तुम्हारी दासी होकर ही रहती हूँ, तब तुम्हारी सेवा ही मेरे लिए सबसे बड़ा काम है। पर तुम्हें मैं अपने बारे में जरा भी नहीं सोचने दूँगी। संसार में तुम्हारे लिए बहुत काम हैं, अब से वे ही करने होंगे। इस अभागिनी के पीछे तुम्हारा काफ़ी वक्त तथा और भी बहुत कुछ नष्ट हो गया है, अब मैं और नष्ट नहीं करने दूँगी।"

कहा, "इसीलिए तो मैं जितनी जल्दी हो सके उसी पुरानी नौकरी पर जाकर हाजिर हो जाना चाहता हूँ।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "नौकरी मैं तुम्हें नहीं करने दूँगी।"

"पर मनिहारी की दुकान भी मैं नहीं चला सकूँगा।"

"क्यों नहीं चला सकोगे?"

"पहला कारण तो यह है कि चीजों का दाम मुझे याद नहीं रहता, दूसरे दाम लेना और फौरन ही हिसाब करके बाकी पैसा लौटा देना तो और भी असम्भव है। दुकान तो उठ ही जायेगी, अगर ख़रीददारों के साथ लाठी न चल जाय तो गनीमत है।"

"तो एक कपड़े की दुकान करो।"

"इससे अच्छा है कि जंगली शेर-भालुओं की एक दुकान करा दो, मेरे लिए उसे चलाना ज़्यादा आसान होगा।"

राजलक्ष्मी हँस पड़ी। बोली, मन लगाकर इतनी आराधना करने के बाद भी अन्त में भगवान ने मुझे एक ऐसा अकर्मण्य मनुष्य दिया जिसके द्वारा संसार का इतना-सा भी काम नहीं हो सकता!"

कहा, "आराधना में त्रुटि थी। उसे सुधारने का वक्त है, अब भी तुम्हें कर्मठ आदमी मिल सकता है- काफ़ी सुन्दर, स्वस्थ, लम्बा-चौड़ा जवान; जिसे न कोई हरा सकेगा और न ठग ही सकेगा; जिस पर काम का भार देकर निश्चिन्त, हाथ में रुपया-पैसा सौंपकर निर्भय हुआ जा सकेगा। जिसकी खबरदारी नहीं करनी होगी, भीड़ में जिसे खो देने की व्याकुलता नहीं, जिसे सजाकर तृप्ति, भोजन कराकर आनन्द- 'हाँ' के अलावा जो 'ना' बोलना ही नहीं जानता..."

राजलक्ष्मी चुपचाप मेरे मुँह की तरफ देख रही थी, अकस्मात् उसके सारे शरीर में काँटे उठ आय। मैंने कहा, "अरे यह क्या?"

"नहीं, कुछ नहीं।"

"काँप जो उठी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "मुँहज़बानी ही तुमने जो तसवीर खींची है, उसका अगर आधा भी सत्य हो तो शायद मैं मारे डर के ही मर जाऊँगी।"

"पर मेरे जैसे अकर्मण्य आदमी को लेकर तुम क्या करोगी?"

राजलक्ष्मी ने हँसी दबाकर कहा, "करूँगी और क्या। भगवान को कोसूँगी और हमेशा जलती-भुनती रहकर मरूँगी। इस जन्म में और तो कुछ ऑंखों से दिखाई नहीं देता।"

"बल्कि इससे अच्छा तो यही है कि तुम मुझे मुरारीपुर के अखाड़े में भेज दो।"

"उन्हीं का तुम कौन-सा उपकार करोगे?"

"उनके फूल तोड़ दिया करूँगा और देवता का प्रसाद पाकर जितने दिन ज़िन्दा हूँ पड़ा रहूँगा। इसके बाद वे उसी बकुल के तले मेरी समाधि बना देंगे। पद्मा किसी दिन शाम को दीपक जला जायेगी- जिस दिन वह भूल जायेगी उस दिन दीप न जलेगा। सुबह के फूल तोड़कर उसके पास से कमललता जब निकलेगी तो कभी एक मुट्ठी मल्लिका के फूल बिखेर देगी और कभी कुन्द के फूल। यदि कभी कोई परिचित रास्ता भूलकर आ जायेगा तो उसे समाधि दिखाकर कहेगी, यहाँ हमारे नये गुसाईं रहते हैं- यहीं जो जरा ऊँची जगह है, जहाँ मल्लिका के सूखे और कुन्द के ताजे फूलों के साथ मिलकर झरे हुए बकुल के फूल छाये हुए हैं- यहीं।"

राजलक्ष्मी की ऑंखों में ऑंसू भर आये, पूछा, "और वह परिचित व्यक्ति तब क्या करेगा।"

मैंने कहा, "यह मैं नहीं जानता। हो सकता है कि बहुत-सा रुपया खर्च कर मन्दिर बनवा जाए..."

राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं, ऐसा न होगा। वह उस बकुल के तले को छोड़कर कहीं न जायेगा। पेड़ की हर डाल पर पक्षी कलरव करेंगे, गाना गायेंगे, लड़ेंगे-सैकड़ों सूखे पत्तो, सूखी हुई डालें गिरायेंगे- उन सबको साफ़ करने का भार उस पर रहेगा। सुबह चुनकर और साफ़ कर फूलों की माला गूँथेगा, रात को सबके सो जाने पर उन्हें वैष्णव कवियों के गीत सुनायेगा, फिर वक्त आने पर कमललता दीदी को बुलाकर कहेगा, हमें एकत्र करके समाधि देना, कहीं अन्तर रहने पाये, अलग-अलग न पहचाने जायें। और यह लो रुपये, इनसे मन्दिर बनवा देना, राधाकृष्ण की मूर्ति प्रतिष्ठित करना, पर कोई नाम मत लिखना, कोई चिह्न मत रखना- किसी को मालूम न होने पाए कि कौन हैं और कहाँ से आये।"

कहा, "लक्ष्मी, तुम्हारी तसवीर तो हो गयी और भी मधुर और भी सुन्दर!"

राजलक्ष्मी ने कहा, "क्योंकि यह तसवीर सिर्फ बातों से नहीं गढ़ी गयी है गुसाईं, यह सत्य है जो है। और यहीं पर दोनों में फ़र्क़ है। मैं कर सकूँगी, पर तुमसे नहीं होगा। तुम्हारे द्वारा अंकित बातें की तसवीर सिर्फ बातें होकर ही रह जाँयगी।"

"कैसे जाना?"

"जानती हूँ। स्वयं तुमसे भी ज़्यादा जानती हूँ। यह तो मेरी पूजा है, मेरा ध्‍यान है। पूजा शेष करके किसके पैरों पर जल चढ़ाती हूँ? किसे पैरों पर फूल देती हूँ? तुम्हारे ही तो।"

नीचे से रसोइए की पुकार आयी, "माँ, रतन नहीं है, चाय का पानी तैयार हो गया।"

"आती हूँ।" यह ऑंखें पोंछकर वह उसी वक्त चली गयी।

कुछ देर बाद चाय की प्याली ले आयी और उसे मेरे सामने रखकर बोली, "तुम्हें किताबें पढ़ना अच्छा लगता है, तो अब से वही क्यों नहीं करते?"

"उससे रुपये तो आयेंगे नहीं?"

रुपयों का क्या होगा? रुपया तो हम लोगों के पास बहुत हैं?"

कुछ रुककर कहा, "ऊपर वाला यह दक्षिण का कमरा तुम्हारे पढ़ने का कमरा होगा। आनन्द देवर किताबें ख़रीदकर लायेंगे और मैं अपने मन के मुताबिक़ सजाकर रक्खूँगी। उसके एक बगल में मेरा सोने का कमरा रहेगा, और दूसरी ओर ठाकुरजी का कमरा। बस, इस जन्म में मेरा यही त्रिभुवन है- इसके बाहर मेरी दृष्टि कभी जाये ही नहीं।"

पूछा, "और तुम्हारा रसोईघर ? आनन्द संन्यासी आदमी है, उधर नजर न रक्खोगी तो उसे एक दिन भी नहीं रक्खा जा सकेगा। पर उसका पता कैसे मिला? वह कब आयेगा?"

"राजलक्ष्मी ने कहा, "कुशारीजी ने पता दिया है, कहा है कि आनन्द बहुत जल्दी आयेंगे। इसके बाद सब मिलकर गंगामाटी जायेंगे और वहीं कुछ दिन रहेंगे।"

कहा, "समझ लो कि वहाँ चली ही गयीं; किन्तु उनके निकट जाते हुए इस बार तुम्हें शर्म नहीं आयेगी?"

राजलक्ष्मी ने कुण्ठित हास्य से सिर हिलाकर कहा, "पर उनमें से तो कोई भी यह नहीं जानता कि काशी में बाल वगैरह कटाकर मैंने स्वाँग बनाया था। बाल अब बहुत कुछ बढ़ गये हैं, पता नहीं पड़ सकता कि कभी कटे थे, और फिर मेरे सारे अन्याय और सारी लज्जा दूर करने के लिए तुम भी तो मेरे साथ हो!"

कुछ ठहरकर बोली, "खबर मिली है कि वह हतभागिनी मालती फिर लौट आई है और साथ लाई है अपने पति को। उसके लिए एक हार गढ़वा दूँगी।"

कहा, "ठीक है, गढ़ा देना किन्तु वहाँ जाकर फिर अगर सुनन्दा के पल्ले पड़ जाओ..."

राजलक्ष्मी जल्दी से बोल उठी, "नहीं जी नहीं, अब वह डर नहीं है, उसका मोह अब दूर हो गया है। बाप रे बाप, ऐसी धर्म-बुद्धि दी कि रात-दिन न तो ऑंखों के ऑंसू ही रोक सकी, न खाना ही खा सकी और न सो सकी। यही बहुत है कि पागल नहीं हुई।" फिर उसने हँसकर कहा, "तुम्हारी लक्ष्मी चाहे जैसी हो, लेकिन अस्थिर मन की नहीं है। उसने एक बार जिसे सत्य समझ लिया, फिर उसे उससे कोई डिगा नहीं सकता।" कुछ क्षण नीरव रहकर फिर बोली, "मेरा सारा मन मानो इस वक्त आनन्द में डूबा हुआ है। हर वक्त ऐसा लगता है कि इस जीवन का सब कुछ मिल गया है, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। यदि यह भगवान का निर्देश नहीं तो और क्या है, बताओ? प्रतिदिन पूजा कर देवता के चरणों में अपने लिए कुछ कामना नहीं करती, केवल यही प्रार्थना करती हूँ कि ऐसा आनन्द संसार में सबको मिले। इसलिए तो आनन्द देवर को बुला भेजा है कि उसके काम में अब से थोड़ी-बहुत सहायता करूँगी।"

"अच्छी बात है, करो।"

राजलक्ष्मी अपने मन में न जाने क्या सोचने लगी, फिर सहसा कह उठी- "देखो, इस सुनन्दा के जैसे अच्छी, निर्लोभ और सत्यवादी और कोई दूसरी औरत मैंने नहीं देखी, पर जब तक उसकी विद्या की गरमी न जायेगी तब तक वह विद्या किसी काम नहीं लगेगी।"

"पर सुनन्दा को विद्या का घमण्ड तो नहीं है?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "नहीं, दूसरों की तरह नहीं है-और यह बात मैंने कही भी नहीं। वह कितने श्लोक, कितनी शास्त्र-कथाएँ, कितने उपाख्यान जानती है। उसके मुँह से सुन-सुनकर ही तो मेरी यह धारणा हुई थी कि मैं तुम्हारी कोई नहीं हूँ, हमारा सम्बन्ध झूठा है- और विश्वास भी तो यही करना चाहा था- पर भगवान ने मेरी गर्दन पकड़कर समझा दिया कि इससे बढ़कर मिथ्या और कुछ नहीं है। इसी से समझ लो कि उसकी विद्या में कहीं जबरदस्त भूल है। इसीलिए देखती हूँ कि वह किसी को सुखी नहीं कर सकती, सिर्फ दु:ख ही दे सकती है। उसकी जेठानी उससे बहुत बड़ी है। सीधी-सादी है, पढ़ना-लिखना नहीं जानती, पर दिल में दया-माया भरी हुई है। कितने दु:खी और दरिद्र परिवारों का वह लुक-छिपकर प्रतिपालन करती है- किसी को पता भी नहीं चलता। जुलाहे-परिवार के साथ जो एक सुव्यवस्था हो गयी, वह क्या कभी सुनन्दा के जरिए हो सकती थी? तुम क्या यह सोचते हो कि वह तेज दिखलाकर मकान छोड़कर चले जाने के कारण हुई है? कभी नहीं। यह तो उसकी बड़ी देवरानी ने अपने पति के पैरों पड़ और रो-धोकर किया है। सुनन्दा ने सारी दुनिया के सामने अपने बड़े जेठ को चोर कहकर छोटा कर दिया- यही क्या शास्त्र-शिक्षा का सुफल है? उसकी पोथी की विद्या जब तक मनुष्यों के सुख-दु:ख, भलाई-बुराई, पाप-पुण्य, लोभ-मोह के साथ सामंजस्य नहीं कर पाती तब तक पुस्तकों के पढ़े हुए कर्तव्य-ज्ञान का फल मनुष्य को बिना कारण छेदेगा, अत्याचार करेगा और तुम्हें बताये देती हूँ, कि संसार में किसी का भी कल्याण नहीं करेगा।"

ये बातें सुनकर विस्मित हुआ। पूछा, "यह सब तुमने सीखा किससे?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "क्या मालूम किससे, शायद तुमसे ही। तुम कुछ करते नहीं, कुछ माँगते नहीं, किसी पर ज़ोर नहीं डालते। इसीलिए तुमसे सीखना सिर्फ सीखना नहीं है, वह तो सत्यरूप में पाना है। हठात् एक दिन आश्चर्य के साथ सोचना पड़ता है कि यह सब कहाँ से आया? पर इसे जाने दो, इस बार जाकर बड़ी कुशारी-गृहिणी से मित्रता करूँगी और उस दफा उनकी अवहेलना करके जो ग़लती की है, अबकी बार उसे सुधारूँगी। चलोगे न गंगामाटी?"

"किन्तु बर्मा? मेरी नौकरी?"

"फिर वही नौकरी? अभी तो कहा कि मैं तुम्हें नौकरी नहीं करने दूँगी।"

"लक्ष्मी, तुम्हारा स्वभाव खूब है। तुम कहती कुछ नहीं, चाहती कुछ नहीं, किसी पर ज़ोर भी नहीं करतीं-विशुद्ध वैष्णव- सहनशीलता का नमूना सिर्फ तुम्हारे ही निकट मिलता है।"

"इसीलिए क्या जिसकी जो इच्छा होगी, उसी का अनुमोदन करना पड़ेगा? संसार में क्या और किसी का दु:ख-सुख नहीं है? तुम्हीं सब कुछ हो?"

"ठीक कहती हो, किन्तु अभया? उसने प्लेग का भय नहीं किया। अगर उस दुर्दिन में आश्रय देकर वह न बचाती तो शायद आज तुम मुझे पातीं ही नहीं। आज उसका क्या हुआ, यह क्या बिल्‍कुल ही न सोचूँ?"

राजलक्ष्मी क्षण-भर में ही करुणा और कृतज्ञता से बिगलित होकर बोली, "तो तुम रहो, आनन्द देवर को लेकर मैं बर्मा जाती हूँ, पकड़कर उन लोगों को ले आऊँगी। यहाँ उनके लिए कोई प्रबन्ध हो ही जायेगा।"

"यह हो सकता है, किन्तु वे बहुत अभिमानिनी है। मैं न गया तो शायद वह न आयेगी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "आयेगी। यह समझेगी कि तुम्हीं उन लोगों को लेने आये हो। देखना, मेरा कहना ग़लत नहीं होगा।"

"पर मुझे छोड़कर जा तो सकोगी?"

राजलक्ष्मी पहले तो चुप रही, फिर अनिश्चित कण्ठ से धीरे से बोली, "इसी का तो मुझे डर है। शायद नहीं जा सकूँगी। पर इससे पहले चलो न थोड़े दिनों तक गंगामाटी में चलकर रहें।"

"वहाँ क्या तुम्हें कोई विशेष काम है?"

"थोड़ा-सा है। कुशारीजी को खबर मिली है कि पास का पोड़ामाटी गाँव बिकने वाला है। सोचती हूँ कि वह ख़रीद लूँ। और उस मकान को भी अच्छी तरह से तैयार कराऊँ जिससे तुम्हें रहने में कष्ट न हो। उस दफा देखा कमरे के अभाव में तुम्हें बड़ा कष्ट होता था।"

"कमरे के अभाव की वजह से कष्ट नहीं होता था, कष्ट तो दूसरे कारण से होता था!"

राजलक्ष्मी ने जान-बूझकर ही इस बात पर कोई ध्‍यान नहीं दिया। कहा, "मैंने देखा है कि वहाँ तुम्हारा स्वास्थ्य अच्छा रहता है। तुम्हें शहर में ज़्यादा दिनों तक रखने का साहस नहीं होता, इसीलिए तो जल्दी से हटा ले जाना चाहती हूँ।"

"पर इस भंगुर शरीर के लिए अगर तुम क्षण-क्षण इतनी उद्विग्न होती रहोगी तो मन को शान्ति नहीं मिलेगी, लक्ष्मी।"

राजलक्ष्मी ने कहा, "यह उपदेश बहुत काम का है, पर यह मुझे न देकर यदि खुद ही जरा सावधान रहो, तो शायद थोड़ी-सी शान्ति पा सकूँ।" सुनकर चुप रहा। क्योंकि, इस बारे में तर्क करना सिर्फ निष्फल ही नहीं, अप्रीतिकर भी होता है। स्वयं उसका अपना स्वास्थ्य अटूट है, पर जिसको यह सौभाग्य प्राप्त नहीं है बिना कारण भी वह बीमार हो सकता है, यह बात वह किसी तरह भी नहीं समझेगी। कहा, "शहर में मैं कभी नहीं रहना चाहता। उस समय गंगामाटी मुझे अच्छी ही लगी थी। यह बात तुम आज भूल गयी हो लक्ष्मी कि, मैं वहाँ से अपनी इच्छा से चला भी नहीं आया था।"

"नहीं जी नहीं, भूली नहीं हूँ, सारी ज़िन्दगी नहीं भूलूँगी" यह कहकर वह जरा हँसी। बोली, "उस बार तुम्हें ऐसा लगता था मानो किसी अनजान जगह में आ गये हो, पर इस बार जाकर देखोगे कि उसकी आकृति-प्रकृति ऐसी बदल गयी है कि उसे अपना समझने में तुम्हें जरा भी अड़चन न होगी। और सिर्फ घर-बार और रहने की जगह ही नहीं, इस बार जाकर मैं बदलूँगी, स्वयं अपने को और सबसे ज़्यादा तोड़-मोड़कर नये सिरे से गढ़ूँगी तुम्हें- अपने नये गुसाईंजी को, जिससे कमललता दीदी फिर पथ-विपथ में घूमने का साथी बनाने का दावा पेश न कर सकें।"

"शायद यही सब सोच-समझकर स्थिर किया है?"

राजलक्ष्मी ने हँसते हुए कहा, "हाँ! तुम्हें क्या बिना मूल्य यों ही ले लूँगी- उसका ऋण नहीं चुकाऊँगी? और जाने के पहले, मैं भी तुम्हार जीवन में सचमुच ही आई थी, इस आने के चिह्न को न छोड़ जाऊँगी? ऐसी ही निष्फल चली जाऊँगी? नहीं, यह किसी तरह न होने दूँगी।"

उसके मुँह की ओर देखकर श्रद्धा और स्नेह से हृदय परिपूर्ण हो गया। मन-ही-मन सोचा, हृदय का विनिमय नर-नारी की अत्यन्त साधारण घटना है-संसार में नित्य ही घटती रहती है- विराम नहीं, विशेषत्व नहीं। फिर भी यह दाना और प्रतिग्रह की व्यक्ति-विशेष के जीवन का अवलम्बन कर ऐसे विचित्र विस्मय और सौन्दर्य से उद्भासित हो उठता है कि उसकी महिमा युग-युगान्त तक मनुष्य के हृदय को अभिषिक्त करती रहकर भी समाप्त नहीं होना चाहती। यही वह अक्षय सम्पत्ति है जो मनुष्य को बृहत् करती है, शक्तिशाली बनाती है और अकल्पित कल्याण द्वारा नया बना देती है। पूछा, "तुम बंकू का क्या करोगी?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "वह अब मुझे नहीं चाहता। सोचता है कि यह आफत दूर हो जाय तो अच्छा है।"

"किन्तु वह तो तुम्हारा नजदीक का अपना है, उस तुमने बचपन से ही पाल-पोसकर आदमी जो बनाया है?"

"यह आदमी बनाने का सम्बन्ध ही रहेगा, और कुछ नहीं। वह मेरा नजदीक का अपना नहीं है।"

"क्यों नहीं है? अस्वीकार कैसे करोगी?"

'अस्वीकार करने की इच्छा मेरी भी न थी," फिर क्षण-भर तक चुप रहने के बाद बोली, "मेरी सब बातें तुम भी नहीं जानते। मेरे विवाह की कहानी सुनी थी?"

"लोगों की जुबानी सुनी थी। पर उस वक्त मैं देश में न था।"

"हाँ, नहीं थे। दु:ख का ऐसा इतिहास और नहीं है, ऐसी निष्ठुरता भी शायद कहीं नहीं हुई। पिता माँ को कभी नहीं ले गये, मैंने भी उन्हें कभी नहीं देखा। हम दोनों बहिनें मामा के यहाँ ही बड़ी हुई, बचपन में ज्वर की वजह से हमारा चेहरा कैसा हो गया था, याद है?"

"है।"

"तो सुनो। बिना अपराध उस दण्ड के परिणाम को सुनकर तुम्हारे जैसे निष्ठुर आदमी को भी दया आ जायेगी। बुखार आता था, पर मौत नहीं आती थी। मामा खुद भी नाना तकलीफों से शय्यागत हो रहे थे। हठात् खबर मिली कि दत्त का ब्राह्मण रसोइया हमारी ही जाति का है, मामा की तरह ही असल कुलीन है। उम्र साठ के क़रीब है। हम दोनों बहिनों को एक साथ ही उसके हाथों सौंपा जायेगा। सबने कहा कि इस सुयोग को खो देने पर इनका कुँवारापन नहीं उतर सकेगा। उसने सौ रुपये माँगे, मामा ने थोक दर लगाई पचास रुपये। एक ही आसन पर, एक साथ और फिर मेहनत कम। यह उतरा पचहत्तर रुपये पर बोला, "महाशय, दो-दो भानजियों को कुलीन के हाथ सौंपेंगे और एक जोड़ा बकरी के दाम भी न देंगे? भोर-रात्रि में लग्न थी, दीदी तो जागी थीं किन्तु मैं पोटली जैसी उठाकर लाई गयी और उत्सर्ग कर दी गयी! सुबह से ही बाकी पच्चीस रुपयों के लिए झगड़ा शुरू हो गया। मामा ने कहा, "बाकी पच्चीस रुपये उधार रहे, अग्नि-संस्कार-क्रिया होने दो।" वह बोला, "मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ, इन सब मामलों में उधार-सुधार का काम नहीं।" आखिर वह लापता हो गया। शायद उसने सोचा कि मामा कहीं न कहीं से रुपये लेकर देंगे और काम पूरा करेंगे। एक दिन हुआ, दो दिन हुए, माँ ने रोना-धोना शुरू किया, मुहल्ले के लोग हँसने लगे, मामा ने दत्त के यहाँ जाकर शिकायत की, किन्तु वह फिर नहीं आया। उसके गाँव में खोज की गयी, वहाँ भी वह नहीं मिला। हमें देखकर कोई कहता कलमुँही, कोई कहता करमफूटी-शर्म के मारे दीदी घर से बाहर नहीं होती थीं। उस घर से छह महीने बाद उन्हें बाहर किया गया श्मशान के लिए! और कोई छह महीने बाद कलकत्ते के किसी होटल से समाचार आया कि वहाँ खाना पकाते वर महोदय भी बुखार से मर गये। इस तरह ब्याह पूरा नहीं हुआ।"

कहा, 'पच्चीस रुपये में दूल्हा ख़रीदने से यही होता है!"

राजलक्ष्मी ने कहा, "उसे तो मेरे हिस्से के पच्चीस रुपये मिल भी गये, पर तुम्हें क्या मिला था- सिर्फ एक करौंदों की माला। वह भी ख़रीदनी नहीं पड़ी, बन से तोड़ लाई थी।"

कहा, "जिसके दाम न लगें उसे अमूल्य कहते हैं। और कोई दूसरा आदमी तो दिखाओ जिसे मेरी तरह अमूल्य धन मिला हो?"

"बताओ कि यह क्या तुम्हारे मन की सच्ची बात है?"

"पता नहीं चला?"

"नहीं जी नहीं, नहीं चला सचमुच ही नहीं चला।" पर कहते-कहते ही वह हँस पड़ी, बोली, "पता सिर्फ तब चलता है जब तुम सोते हो- तुम्हारे चेहरे की ओर देखकर। पर इस बात को जाने दो। हम दोनों बहिनों जैसा दण्ड इस देश की सैकड़ों लड़कियों को भोगना पड़ता है। और कहीं तो शायद कुत्ते-बिल्लियों की भी इतनी दुर्गति करने में मनुष्य का हृदय-काँपता है।" यह कह क्षण-भर तक देखते रहने के बाद बोली, "शायद तुम सोचते होगे कि मेरी शिकायत में अत्युक्ति है, ऐसे दृष्टान्त भला कितने मिलते हैं? उत्तर में यदि कहती कि एक हो तो भी सारे देश के लिए कलंक है, तो मेरा जवाब काफ़ी हो जाता, पर मैं यह न कहूँगी। मैं कहती हूँ कि बहुत होते हैं। चलोगे मेरे साथ उन विधवाओं के पास जिन्हें मैं थोड़ी-बहुत सहायता करती हूँ? वे सबकी सब गवाही देंगी कि उनके घर के लोगों के उनके भी हाथ-पैर बाँधकर ऐसे ही पानी में फेंक दिया था।"

कहा, "शायद इसी कारण उनके लिए इतनी दया-माया है?"

राजलक्ष्मी ने कहा, "तुम्हें भी होती अगर ऑंखें खोलकर हमारा दु:ख देखते। अब से मैं ही एक-एक कर तुमको सब दिखाऊँगी।"

"मैं नहीं देखूँगा- ऑंखें बन्द किये रहूँगा।"

"नहीं रह सकोगे। मैं अपने काम का भार एक दिन तुम पर ही डाल जाऊँगी। सब भूल जाओगे, पर यह कभी न भूल सकोगे।" यह कह वह कुछ देर मौन रहकर अकस्मात् अपनी पहली कहानी के सिलसिले में कहने लगी, "ऐसा अत्याचार तो होता ही है। जिस देश में लड़की की शादी न होने पर धर्म जाता है, जाति जाती है, शर्म से समाज में मुँह नहीं दिखाया जा सकता- गँवार, गूँगी, अन्धी, रोगिणी-किसी की भी रिहाई नहीं- लोग वहाँ एक को छोड़कर दूसरे की ही रक्षा करते हैं। इसके अलावा उस देश में मनुष्यों के लिए दूसरा उपाय ही क्या है, बताओ? उस दिन सब मिलकर यदि हम दोनों बहिनों को बलि न दे देते, तो दीदी शायद मरती नहीं और मैं इस जन्म में इस तरह शायद तुम्हें नहीं भी पाती, पर मेरे मन में तुम हमेशा इसी तरह प्रभु बनकर रहते। और, यही क्यों? मुझे तुम टाल नहीं पाते। जहाँ भी होते- चाहे जितने दिन हो जाते, तुम्हें खुद आकर ले ही जाना पड़ता।"

कुछ जवाब देने की सोच रहा था, हठात् नीचे से एक किशोर कण्ठ की पुकार आयी, "मौसी?"

आश्चर्य से पूछा, "यह कौन है?"

"उस मकान की मँझली बहू का लड़का है," कहकर उसने इशारे से पास का मकान दिखा दिया और जवाब दिया, "क्षितीश, ऊपर आओ बेटा।" दूसरे ही क्षण एक सोलह-सत्रह वर्ष के सुश्री बलिष्ठ किशोर ने कमरे में प्रवेश किया। मुझे देखकर पहिले तो वह संकुचित हुआ, फिर नमस्कार करके अपनी मौसी से बोला, "आपके नाम मौसी, बारह रुपया चन्दा लिखा गया है।"

"लिख लो बेटा, पर होशियारी से तैरना, कोई दुर्घटना न हो।"

"नहीं, कोई डर नहीं मौसी।"

राजलक्ष्मी ने आलमारी खोलकर उसके हाथ में रुपये दिये, लड़का द्रुतवेग से सीढ़ी पर से उतरते-उतरते हठात् खड़ा होकर बोला, "माँ ने कहा है कि छोटे मामा परसों सुबह आकर सारा 'एस्टीमट' बना देंगे।" और तेज़ीके साथ चला गया।

प्रश्न किया, "किस बात का एस्टीमेट?"

"मकान की मरम्मत नहीं करनी होगी? तीसरी मंज़िल का जो कमरा उन्होंने आधा बनवाकर डाल रखा है, उसे पूरा नहीं करना होगा?"

"यह तो होगा, पर इतने आदमियों से तुमने पहिचान कैसे कर ली?"

"वाह, ये सब तो पास के मकान के ही आदमी हैं। पर अब नहीं, जाती हूँ- तुम्हारा खाना तैयार करने का वक्त हो गया।" यह कहकर वह उठी और नीचे चली गयी।

श्रीकांत उपन्यास
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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