थोल्पावकुथु
थोल्पावकुथु (अंग्रेज़ी: Tholpavakoothu) कठपुतली का एक छाया रूप है जो भारत के केरल में प्रचलित है। इसमें चमड़े की कठपुतलियों का उपयोग भद्रकाली को समर्पित एक अनुष्ठान के रूप में किया जाता है। इसके लिए देवी मंदिरों में विशेष रूप से रंगमंच का निर्माण किया जाता है, जिन्हें 'कूथुमदम' कहा जाता है। थोल्पावकुथु तीन मलयालम शब्दों का एक संयुक्त शब्द है। थोल जिसका अर्थ है चमड़ा, पावा जिसका अर्थ गुड़िया, और कुथु जिसका अर्थ है नाटक।
इतिहास
ऐसा माना जाता है कि थोल्पावकुथु की उत्पत्ति नौवीं शताब्दी ईस्वी में हुई थी और इसके मूल पाठ के रूप में कंब रामायण को देखा जाता है। इसके प्रदर्शन की भाषा में तमिल, संस्कृत और मलयालम शब्दों का उपयोग किया जाता है। मुडीयेट और पढ़यनि की तरह थोल्पावकुथु भी भद्रकाली को समर्पित एक कला है। किंवदंती के अनुसार भद्रकाली के अनुरोध पर थोल्पावकुथु कला प्रथम प्रदर्शन किया गया था; क्योंकि वह रावण की हत्या को नहीं देख सकी थी। उस वक्त वह राक्षस दारिका से लड़ रही थी, इसलिए जब यह मंदिरों में प्रदर्शित किया जाता है तो देवी की मूर्ति को आमतौर पर उस अखाड़े के सामने एक आसन पर रखा जाता है जहाँ इसका मंचन होता है।
प्रदर्शन
थोल्पावकुथु का प्रदर्शन 42 फुट के लम्बे मंच पर किया जाता है, जिसे 'कूथुमदम' कहते हैं। मंच पर एक स्क्रीन होता है, सफेद कपड़े का एक टुकड़ा होता है। इसी कपड़े के पीछे कठपुतलियाँ रखी रहती हैं। पर्दे के पीछे 21 दीपक जलाकर रोशनी प्रदान की जाती है, जिससे कठपुतलियों की छाया स्क्रीन पर पड़ती है। प्रदर्शन के साथ श्लोकों का पाठ भी होता है। इसके प्रदर्शन के वक्त कई वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग होता है।
'कम्ब रामायण' के आधार पर इसकी कथा चलती है। हर दिन यह नौ घंटे प्रदर्शित की जाती है और 21 दिन में इसका पूरा मंचन खत्म होता है। इस दौरान 180 से 200 कठपुतलियों का प्रयोग किया जाता है। इस मंचन के लिए लगभग 40 कलाकार मेहनत करते हैं। इसका प्रदर्शन रात में शुरू होता है और सुबह समाप्त होता है। प्रदर्शन जनवरी से मई तक और पूरम के दौरान किए जाते हैं।
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