वीर सुरेंद्र साई

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वीर सुरेंद्र साई (अंग्रेज़ी: Veer Surendra Sai, जन्म- 23 जनवरी, 1809; मृत्यु- 28 फ़रवरी, 1884) भारतीय क्रांतिकारी थे। वह 16वीं शताब्दी में चौहान वंश के संबलपुर के महाराजा मधुकर साई के वंशज थे। वीर सुरेंद्र साई ने 1857 के विद्रोह से पहले ही विदेशी शासन के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी थी और विद्रोह के थम जाने के बाद भी उन्होंने इसे जारी रखा। उन्होंने संबलपुर में लगभग 1500 आदमियों की एक लड़ाकू सेना तैयार की थी। उन्होंने 1857 से 1862 तक अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध जारी रखा। अंग्रेजों ने उन्‍हें पकड़ने के लिए हर हथकंडा अपनाया, किन्तु उन्‍हें रोक नहीं पाए।

परिचय

वीर सुरेंद्र साई का जन्म ग्राम खिण्डा (सम्बलपुर, उड़ीसा) के चौहान राजवंश में 23 जनवरी, 1809 को हुआ था। इनका गाँव सम्बलपुर से 30 कि.मी. की दूरी पर था। युवावस्था में उनका विवाह हटीबाड़ी के जमींदार की पुत्री से हुआ, जो उस समय गंगापुर राज्य के प्रमुख थे। आगे चलकर सुरेन्द्र साई के घर में एक पुत्र मित्रभानु और एक पुत्री ने जन्म लिया।[1]

अंग्रेज़ कूटनीति

सन 1827 में सम्बलपुर के राजा का निःसन्तान अवस्था में देहान्त हो गया। राजवंश का होने के कारण राजगद्दी पर अब वीर सुरेंद्र साई का हक था; पर अंग्रेज़ जानते थे कि सुरेन्द्र साई उनका हस्तक बन कर नहीं रहेगा। इसलिए उन्होंने राजा की पत्नी मोहन कुमारी को ही राज्य का प्रशासक बना दिया। मोहन कुमारी बहुत सरल महिला थीं। उन्हें राजकाज की कुछ जानकारी नहीं थी। अतः अंग्रेज़ उन्हें कठपुतली की तरह अपनी उँगलियों पर नचाने लगे। लेकिन अंग्रेजों की इस धूर्तता से उस राज्य के सब जमींदार नाराज हो गये। उन्होंने मिलकर इसका सशस्त्र विरोध करने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने वीर सुरेंद्र साई को नेता बनाया। धीरे-धीरे इनके संघर्ष एवं प्रतिरोध की गति बढ़ने लगी। इससे अंग्रेज अधिकारी परेशान हो गये।

गिरफ़्तारी

सन 1837 में वीर सुरेंद्र साई, उदन्त साय, बलराम सिंह तथा लखनपुर के जमींदार बलभद्र देव मिलकर डेब्रीगढ़ में कुछ विचार-विमर्श कर रहे थे कि अंग्रेजों ने वहाँ अचानक धावा बोल दिया। उन्होंने बलभद्र देव की वहीं निर्ममता से हत्या कर दी; पर शेष तीनों लोग बचने में सफल हो गये। इस हमले के बाद भी इनकी गतिविधियाँ चलती रहीं। अंग्रेज भी इनके पीछे लगे रहे। उन्होंने कुछ जासूस भी इनको पकड़ने के लिए लगा रखे थे। ऐसे ही देशद्रोहियों की सूचना पर 1840 में वीर सुरेंद्र साई, उदन्त साय तथा बलराम सिंह अंग्रेजों की गिरफ्त में आ गये। तीनों को आजन्म कारावास का दण्ड देकर हजारीबाग जेल में डाल दिया गया। ये तीनों परस्पर रिश्तेदार भी थे।[1]

क्रान्तिवीरों का जेल पर धावा

वीर सुरेंद्र साई के साथी शान्त नहीं बैठे। 30 जुलाई, 1857 को सैकड़ों क्रान्तिवीरों ने हजारीबाग जेल पर धावा बोला और वीर सुरेंद्र साई को 32 साथियों सहित छुड़ा कर ले गये। सुरेन्द्र साई ने सम्बलपुर पहुँचकर फिर से अपने राज्य को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र संग्राम शुरू कर दिया। अंग्रेज पुलिस और सुरेन्द्र साई के सैनिकों में परस्पर झड़प होती ही रहती थी। कभी एक का पलड़ा भारी रहता, तो कभी दूसरे का; पर सुरेन्द्र साई और उनके साथियों ने अंग्रेजों को चैन की नींद नहीं सोने दिया।

शहादत

23 जनवरी, 1864 को जब सुरेंद्र साई अपने परिवार के साथ सो रहे थे, तब अंग्रेज़ पुलिस ने छापा मारकर उन्हें पकड़ लिया। रात में ही उन्हें सपरिवार रायपुर ले जाया गया और फिर अगले दिन नागपुर की असीरगढ़ जेल में बन्द कर दिया। जेल में भरपूर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद भी सुरेंद्र साई ने विदेशी शासन के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। अपने जीवन के 37 साल जेल में बिताने वाले वीर सुरेंद्र साई ने 28 फरवरी, 1884 को असीरगढ़ किले की जेल में ही अन्तिम साँस ली।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 वीर सुरेंद्र साई (हिंदी) vskgujarat.com। अभिगमन तिथि: 23 जनवरी, 2022।

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