मूर्ति कला मथुरा 4

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मूर्ति कला मथुरा 4 / संग्रहालय

कुषाण-गुप्त, गुप्त व गुप्तोत्तरकालीन मथुरा की कला

कुषाण-गुप्त काल

ईसवी सन् की द्वितीय शताब्दी के अन्तिम पाद में कुषाण वंश के आख़िरी शासक वासुदेव का शासक समाप्त हुआ और इसी के साथ मथुरा की कुषाण कला का उत्कर्ष भी समाप्त हो गया। इसके बाद गुप्तों के सृदृढ़ शासन की स्थापना तक इस भूप्रदेश में राजनीतिक उथल-पुथल हो रही थी। गुप्तों के समय कला को एक नया मोड़ मिला और साथ ही साथ अब भाव सौंदर्य की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। सौदर्य के मानदण्ड का यह परिवर्तन तत्कालीन जीवन के सभी क्षेत्रों में झलकता हुआ दिखलाई पड़ता है। मूर्तिकला, चित्रकला, साहित्य, वेशभूषा, वास्तुकला, इत्यादि अनेक क्षेत्रों में इस नवीन जागरण के दर्शन होते हैं, परन्तु स्पष्ट है कि यह जागरण आकाशं में कौंध उठने वाली बिजली के समान एकाएक समुद्भुत नहीं हुआ था। इसके पीछे लगभग एक शताब्दी की परम्परा है। कुषाण काल के अन्तिम दिनों से ही इन नवीन विचारों की सूचना मिलने लगती है। मथुरा कला में देखे जाने वाले इस परिवर्तन युग को यहाँ संक्रमण काल अथवा कुषाण-गुप्त काल कहा गया है। साधारण रूप से सन् 200 से लगभग सन् 325 तक का समय इसमें समाविष्ट हो सकता है।

इस युग में निर्मित प्रतिमाओं में कुषाण और गुप्त दोनों कलाओं के लक्षणों का अद्भुत मेल दिखलाई पड़ता है। यहाँ कलाकार अपनी परंपरागत पद्धति से मूर्ति तो गढ़ता है पर साथ ही साथ उसका ध्यान भावपक्ष की ओर भी लगा रहता है। उदाहरणार्थ सुखासीन कुबेर (सं. सं. सी.) के मुख पर दिखलाई पड़ने वाला सुख और सन्तोष का चित्रण। बुद्ध या तीर्थंकर की मूर्ति बनाते समय कलाकार शांत और स्मित युक्त मुख बनाने की चेष्टा करता है। प्रभा-मण्डल को हस्तिनखों से युक्त तो बनाता है पर बीच वाली ख़ाली जगह में कतिपय नवीन अभिप्रायों का सृजन करता है। चतुर्भुज शिवलिंग को गढ़ते समय चारों मुखों पर चार विशेष प्रकार के भाव प्रदर्शित करने का भी प्रयास करता है। केवल मथुरा कला की ही नहीं, अपितु अन्यत्र पाई गई कुछ मूर्तियाँ भी इस काल की कला का प्रातिनिध्य करती हैं। प्रो0 काड्रिंग्टन ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि कुषाण और गुप्तकाल के बीच वाली खाई को मिलाने वाली चार बुद्ध मूर्तियाँ [1] विशेष रूप से स्मरणीय हैं।[2]

कुषाण-गुप्त काल की मूर्तियों की साधारण रूप से अधोलिखित विशेषताएं मानी जा सकती हैं;

  • 1-भौंहों की वक्रता में वृद्धि होती है।[3]
  • 2-कानों की लम्बाई बढ़ने लगती है।
  • 3-हास्य को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए होंठो के दोनों छोरों पर हल्के गड्ढे दिखलाई पड़ते हैं। गुप्तकाल में इनकी गहराई और भी बढ़ जाती हे। इन्हें संस्कृत में सृक्वा, सृक्क, या सृक्किणी कहा जाता है।[4] गुप्तकालीन मिट्टी के खिलौनों में तो ये गड्ढे किसी नुकीली वस्तु को गड़ाकर बनाये जाते थे।
  • 4-सारे शरीर की बनावट में छरहरापन तो नहीं दिखलाई पड़ता पर पेट, कमर और जांघों की बनावट अधिक आकर्षक अवश्य हो जाती है।
  • 5-साधारणतया केशों की रचना, हाथों के अंगदादि अलंकार मेखला आदि की बनावट में प्राचीन कुषाण परंपरा के दर्शन होते हैं।
  • 6-प्रभावमण्डल में हस्तिनख की अन्तिम पंक्ति तो रहती है पर उसके और केन्द्र के बीच वाले रिक्त स्थान में शनै:-शनै: अलंकरणों का बनना प्रारम्भ होता है जो गुप्तकाल में पहुँचकर पूर्णता को पा लेता है।

गुप्तकाल

इस काल की कला का प्रमुख वैशिष्ठय मूर्तिकला ही है। कलाकार के कुशल हाथों में पड़कर इस काल की मिट्टी और पत्थर सौन्दर्य की जीती जागती प्रतिमाओं में बदल जाते थे। गुप्तकालीन कलाकारों ने कुषाण काल के शारीरिक सौंदर्य के उत्तान प्रदर्शन को नहीं अपनाया वरन् स्थूल सौंदर्य और भाव सौंदर्य का सुन्दर योग स्थापित किया। गुप्तकला में विवस्त्र या नग्न चित्रण को कोई स्थान नहीं है जब कि कुषाण कला की वह एक अपनी विशेषता थी। कुषाण कला का पारदर्शक केश विन्यास शरीर के सौष्ठव को, उसके मांसल अवयवों को चमकाने के लिए बनाया जाता था, परन्तु गुप्त काल का वस्त्र विलास उसे सुरूचिपूर्ण ढंग से आच्छादित करने के लिए ही बनता था । वेदिका स्तंभों पर अंकित क्रीड़ारत युवतियों का अंकन गुप्त युग में लोकप्रिय न रहा। अब इन बाहर की प्रतिमाओं की अपेक्षा गर्भगृह के अन्दर संस्थापित उपास्य मूर्ति के सौंदर्य को अधिक मूल्य दिया जाने लगा।

डा. कुमारस्वामी के शब्दों में गुप्तकाल की कला जो मथुरा की कुषाण कला से उद्भूत है, स्वत: एकरूप एवं स्वाभाविक है।[5] गुप्तकालीन मानव मूर्तियों की कुछ विशेषताएं, जो बहुधा सर्वसाधारण रूप से देखी जा सकती हैं, निम्नांकित हैं:

  • 1. सादी एवं प्रभावोत्पादक शैली जिसकी सहायता से अनेक भव्य आदर्श साकार हो उठे हैं। बुद्ध की कुछ मूर्तियों में (उदाहरणार्थ सं. सं.00ए5) तथा मथुरा की गुप्तकालीन विष्णु मूर्ति में जो इस समय राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में है, आध्यात्मिक शान्ति, प्रसन्नता, स्नेह व दयाशीलता के स्पष्ट दर्शन होते हैं।
  • 2. मूर्ति के अंकन में यथार्थ की अपेक्षा आदर्श की मात्रा बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए आंखे अब गोल नहीं होती अपितु वे धनुषाकार भौंहों के साथ कान तक (आकर्ण) फैल जाती हैं और आकार में लम्बी और कोनेदार दिखलाई पड़ती हैं।
  • 3. पाषाण प्रतिमाओं में आंखों की पुतलियाँ कम ही बनती रहीं और आंखें अधखुली दिखलाई जाती थीं।
  • 4. नाम सीधी, कपोल चिकने, होंठ कुछ मोटे तथा गड्ढेदार बनाये जाने लगे। कानों की बनावट में भी महत्त्वपूर्ण अन्तर हो गया।
  • 5. कुषाण काल में हास्य का प्रदर्शन करने के लिए कभी-कभी दन्तावलि दिखलाई जाती है, पर गुप्तकाल में विशेष प्रकार की मूर्तियों को छोड़कर सामान्यत: केवल मंदस्मित से ही काम लिया गया है।
  • 6. विष्णु कार्तिकेय, इन्द्र आदि मूर्तियों में भौंहों के बीच दिखलाई पड़ने वाला देवत्व का प्रदर्शक ऊर्णा चिह्न अब अदृश्य हो जाता है।
  • 7. केशों की बनावट में अनेक आकर्षक प्रकार दिखलाई पड़ने लगते हैं।
  • 8. वस्त्र साधारणतया झीने और शरीर से चिपके हुए दिखलाई पड़ते हैं।
  • 9. कुषाण काल की अपेक्षा अलंकारों की संख्या कम होने लगती है। कुछ चुने हुए आभूषण जैसे कंठ की एकावली, हाथों के अंगद और कंकण, मोतियों का जनेऊ, करधनी और नूपुर ही साधारणतया दिखलाई पड़ते हैं।

बुद्धमूर्ति

कुषाण काल के समान गुप्तों के समय भी मथुरा नगर कला का एक तीर्थ रहा, पर कला का मुख्य केन्द्र होने का सौभाग्य अब सारनाथ (वाराणसी) को मिला,[6] जहाँ चुनार पत्थर के माध्यम से इस काल की कई अमर कृतियाँ निर्मित हुईं। मथुरा की गुप्त कलाकृतियों में सर्वश्रेष्ठ वह बुद्ध प्रतिमा है जिसने अपने सौन्दर्याभिव्यक्ति के कारण देश की सभी गुप्त कृतियों में एक महत्वपूर्ण स्थान पाया है। इस प्रतिमा के मुखमण्डल पर विलास करने वाला मंदस्मित, शान्त मुद्रा एवं आध्यात्मिक प्रभुता का तेज देखते ही बनता है (सं. सं.00ए5) गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियों में अधोलिखित विशेषताएं अवलोकनीय हैं;

  • 1. आध्यात्मिक चिंतन, शान्ति और स्मित के मुख पर स्पष्ट दर्शन।
  • 2. शरीर के बनावट में मृदुता।
  • 3. वस्त्रों का झीना और पारदर्शक होना।
  • 4. वस्त्र की विशेष प्रकार की सिकुड़न। कुषाण काल की मूर्तियों में बहुधा वस्त्र की सिकुड़नें खोदकर बनाई जाती थीं, पर गुप्तकाल में ये धारियाँ उभरी हुई रहती हैं। साथ ही ये वस्त्र हलके और पारदर्शक भी हैं
  • 5. अलंकृत प्रभामण्डल। कुषाण काल में प्रभामण्डल के किनारे पर प्राय: अर्धचन्द्र या हस्तिनख की पंक्ति बनी रहती थी पर अब इस के साथ-साथ विकसित कमल, पत्रावली पुष्पलता आदि कई अभिप्राय बने रहते हैं
  • 6. घुँघरदार बालों से अलंकृत मस्तक। अब बुद्ध का मुण्डित मस्तक क्वाचित् ही दिखलाई पड़ता है, उस स्थान पर घुँघराले बालों की घुमावदार लटें दिखलाना साधारण प्रथा बन जाती है। [7]
  • 7. कुषाण काल में भौंहों के बीच दिखलाई पड़ने वाला ऊर्णा चिह्न अब इनी-गिनी मूर्तियों में दिखलाई पड़ता है (सं. सं. 18.1391,33.2337,2309.33इ.)। इन मूर्तियों को केवल परिपाटी के पालन का नमूना कहा जा सकता है। साधारणतया ऊर्णा चिह्न अब कुषाण काल के समान आवश्यक नहीं समझा जाता था।
  • 8. अभयमुद्रा दिखलाने वाले हाथ की स्थिति में भी अब परिवर्तन होता है। कुषाण मूर्तियों में यह हाथ लगभग कन्धे तक ऊंचा उठा रहता है, पर गुप्त-बुद्ध प्रतिमा में वह लगभग समकोण बनाते हुए अधिकाधिक कमर तक ही उठता है।[8]
  • 9. दोनों पैरों के बीच में दिखलाई पड़ने वाली वस्तुओं को लुप्त होना।
  • 10. कानों की लम्बाई व सारे चेहरे की बनावट तथा हाथों की बनावट में भी अन्तर है। गुप्ताकलीन चेहरे की विशेषताएं पहले बतलाई जा चुकी हैं। हाथ की मुख्य विशेषता उसकी उंगलियों में है। कुषाणकाल में जहाँ पांचों उंगलियाँ मिली हुई दिखलाई पड़ती हैं, वहाँ गुप्तकाल में वे सम्मुख भाग में एक दूसरे से पृथक् मालूम पड़ती हैं।
  • 11. हथेलियाँ पर बनने वाले चिह्न गुप्तकाल में कम हो जाते हैं। यहाँ सामुद्रिक रेखायें तो रहती हैं, पर धर्मचक्र और त्रिरत्न नहीं रहते।

जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ

इस काल की बनी हुई तीर्थंकर मूर्तियाँ भी अधिकतर भाव प्रधान हैं। बुद्ध प्रतिमाओं के समान उनके प्रभामण्डल विविध प्रकार से अलंकृत मिलते हैं। हथेलियाँ और पैरों के तलुओं पर धर्मचक्र चिह्न बना रहता है (सं. सं.00बी.1,00बी.11,00बी.28)। यह भी विशेष महत्व की बात है कि जहाँ गुप्तकालीन बुद्ध मूर्तियों में ऊर्णा चिह्न बहुधा नहीं मिलता वहाँ जैनियों ने इस पद्धति को पूरी तरह से नहीं छोड़ा। ऊर्णा और उष्णीश से युक्त जैन मूर्तियों के नमूने मथुरा शैली में विद्यमान हैं (सं. सं.00.बी. 45, 00.बी.51), पर ऐसे नमूने कम हैं।

तीर्थंकरों के लांछन दिखलाने की पद्धति अभी नहीं चली थी। कुषाणकाल के समान इनके नामों को जानने के लिए हम3 उन पर अंकित शिलालेखों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऋषभनाथ और पार्श्वनाथ तो क्रमश: कन्धों पर हलराते हुए बालों की लटों व मस्तक पर दिखलाई पड़ने वाली सर्प-फणों से पहिचाने जा सकते हैं। तीर्थंकरों की कुछ, ऐसी मूर्तियाँ हैं जो गुप्तकाल और मध्यकाल की संक्रमणावस्था को सूचित करती हैं। उदाहरणार्थ एक तीर्थंकर प्रतिमा (सं. सं. 18.1388) की चरण चौकी पर अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ का लांछन मीन-मिथुन बना है। एक दूसरी तीर्थंकर प्रतिमा (सं.सं.00.बी. 75) पर जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के अभिप्रायों का अद्भुत संमिश्रण है। मूर्ति तीर्थंकर की है, उनके आसन पर दो मृगों के बीच धर्म-चक्र वाला एक बौद्ध अभिप्राय है और पीछे की ओर कुबेर और नवग्रहों की मूर्तियाँ बनी हैं।

ब्राह्मण धर्म की मूर्तियाँ

इस काल का राजधर्म भागवत धर्म होने के कारण यह स्वाभाविक था कि वेदशास्त्रों से अनुमोदित ब्राह्मण धर्म की ओर प्रजा का झुकाव अधिक रहा हो और इससे सम्बन्धित मूर्तियों का प्रचलन भी अधिक रहा हो। इस सम्बन्ध में निम्नांकित बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं;

  • 1. मथुरा शैली में अन्य देवताओं की अपेक्षा ब्रह्मा की मूर्तियाँ कम बनती थीं।
  • 2. विष्णु की मूर्तियों की विपुलता है। प्रारम्भिक विष्णु मूर्तियों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस काल में विष्णु प्रतिमा को गढ़ने के लिए पुरानी कुषाण कालीन विष्णु मूर्ति को ही आधार माना गया था, पर साथ ही साथ नवीन तत्त्वों का भी समावेश तेजी से होने लगा था। उनका सीधा मुकुट अब शनै:-शनै: लुप्त होने लगा और उसका स्थान सिंह-मुख, मकर, मुक्ता, मुक्ता-जाल आदि अलंकरणों से युक्त मुकुट ने ले लिया। गले के आभरण तथा पहनने के वस्त्र में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। बनमाला तथा प्रभामण्डल का निर्माण अब प्रारम्भ हुआ। गुप्तकाल से ही प्रारम्भ होने वाली एक दूसरी महत्त्वूपर्ण विशेषता विष्णु के आयुधपुरुषों की निर्मिति है। मथुरा कला में गदा-देवी व चक्र-पुरुष के दर्शन होते हैं। चारों आयुधों को धारण किये हुए खड़े विष्णु के साथ ही इस काल में आसन पर बैठी हुई प्रतिमाएं भी बनी थीं (सं. सं. 15.512)। साधारण प्रतिमाओं के अतिरिक्त त्रिविक्रम रूप में बनी विष्णु मूर्तियाँ मथुरा से प्राप्त हुई हैं। गुप्तकाल की वैष्णव मूर्तियों में नृसिंह-वराह-विष्णु की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस प्रकार की प्रतिमा में तीन मुख होते हैं। इनमें बीच का पुरुष तथा अगल-बगल के मुख वराह और सिंह के होते हैं।
  • 3. इस काल में शिव मूर्तियाँ भी कम नहीं मिलतीं। मथुरा में तो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में शैवों का एक बड़ा केन्द्र रहा जिसका प्रमाण यहाँ से मिला हुआ एक स्तम्भ लेख है। इस काल में शिव की लिंग-रूप और मानव-रूप दोनों प्रकार की मूर्तियाँ मिलती हैं। इनकी प्रथम महत्वपूर्ण विशेषता शिव का तीसरा नेत्र है। कुषाणकाल में यह नेत्र आड़ा बनाया जाता था पर कुषाण-गुप्तकाल से ही यह खड़ा बनाया जाने लगा। शिवलिंगों में साधारण लिंगों के अतिरिक्त एक-मुखी (सं.सं. 14-15.427, 16.1238) व द्विमुखी लिंग (सं.सं. 14-15.462) मिलते हैं। अन्यत्र शिव के चतुर्मुख और पंचमुख लिंग भी मिलते हैं। शिव की मूर्तियों में अर्धनारीश्वर व आलिंगन मुद्रा में शिवपार्वती (सं.सं. 14.474) की प्रतिमाएं अधिक मिलती हैं। मथुरा की शिव प्रतिमाओं की यह एक विशेषता है कि यहाँ जब शिव अपनी शक्ति के साथ होने हैं तब उन्हें अवश्य ही उर्ध्वमेढ्र स्थिति में दिखलाया जाता है जो आदि-पुरुष की अमोघ शक्ति का परिचायक है। शिव-पार्वती की मूर्तियों में अलंकरण व भाव प्रदर्शन की दृष्टि से वह मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जो एक ही ओर नहीं अपितु दोनों ओर समान रूप से बनाई गई हैं (सं.सं. 30-2084)। गुप्तकाल की कुछ मूर्तियों में शिव के परिचायक चिह्नहों में व्याघ्राम्बर (सं.सं. 54.3764;) अर्धचन्द्र या बालेन्दु (सं. सं. 13.362) दिखाई देते हैं।
  • 4. भारतीय कलाकृतियों में प्राचीनकाल की गणेश मूर्तियाँ बहुत ही कम मिली हैं। जिनमें से एक मथुरा से प्राप्त हुई है (सं.सं. 15.758)।
  • 5. उपरोक्त मूर्तियों के अतिरिक्त इन्द्र (सं.सं. 46.3226), हरिहर (सं.सं.10.1333), कुबेर (सं.सं. 00.सी.5), यमुना (लखनऊ संग्रहालय जे. 563) आदि की सुन्दर मूर्तियाँ भी मिलती हैं।
  • 6. फुटकर मूर्तियों में सूर्य देवता के एक अनुचर पिंगल की मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि इस पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है (सं.सं. 36.2665)।

गुप्तोत्तरकालीन मूर्तियाँ

गुप्तोत्तरकाल में सभी सम्प्रदायों की मूर्तियाँ तो ख़ूब बनती रहीं पर कला और सौन्दर्य की दृष्टि से उनमें गुप्तकाल की सर्वांग सुन्दरता नहीं दिखलाई पड़ती है। बहुत सी मूर्तियों में मौलिकता का अभाव है। तथापि इन मूर्तियों का एक अपना सौन्दर्य है। मथुरा कला की मध्यकालीन प्रतिमाओं की मुख्य रूप से अधोलिखित विशेषताएं गिनाई जा सकती हैं;

  • (1) मथुरा की कलाकृतियों के लिए अब तक जहां चित्तेदार लाल पत्थर का प्रयोग होता था वहां अब मध्य काल में पहुँचते-पहुँचते भूरे रंग के बलुए पत्थर का प्रयोग होने लगा और कलाकारों ने लाल पत्थर की मूर्तियां गढ़ने के लिए आश्रय देना समाप्त-सा कर दिया।
  • (2) इस काल की प्रतिमाओं में मांसलता और छोटा क़द अधिक दिखलाई पड़ता है। साथ ही साथ कवि-संकेत-सिद्ध सौंदर्य के मानदण्डों को जैसे विशाल आकर्ण-नेत्र, शुक-चंचु के समान नासिका, निकली हुई कोनेदार ठोड़ी, स्त्रियों के अविरल स्तन-युग्म, इत्यादि को प्रमुख रूप से अपनाया गया ।
  • (3) इसके साथ-साथ अलंकारों के अंकन की मात्रा भी बढ़ गई। भारी कंठ-भूषण, अलंकारों से भरे हुए हाथ, भारी वज़न की मेखलायें या रशना-जाल, ऊंचे उठे हुए मुकुट, पुष्पों से शोभित धमिल्ल एवं नयनरम्य केशभार इस काल की मूर्तियों में बड़ी ही रूचि से बनाये जाते थे।
  • (4) मथुरा की मध्यकालीन मूर्तियाँ अधिकतर समूचे पत्थर की पटिया पर उकेर कर बनाई गई हैं, चारों ओर से देखी जाने वाली मूर्तियां कम हैं।
  • (5) इस समय की पुरुष मूर्तियों में मस्तक के केशों का अंकन भी ध्यान देने योग्य है। कुषाण काल में मुकुट के नीचे कानों के ऊपर थोड़े केश दिखलाये जाते थे। गुप्त काल में मुख पर इस प्रकार के बाल दिखलाना बंद हो गया, उन्हें कन्धों पर विपुलता से लहराते हुए दिखलाने लगे थे। गुप्तोत्तर काल में भाल के ठीक ऊपर काढ़े हुए बालों की एक छोटी-सी पंक्ति दिखलाई पड़ने लगती है।
  • (6) इस काल की मूर्तियों की दृष्टि में भी उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। अब इनकी दृष्टि अन्तर्मुखी नहीं है, अपितु दर्शक या भक्त की ओर पूरी तरह अवलोकन करने वाली है।

उस काल तक पहुँचते-पहुँचते बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म के मूर्तिशास्त्र बहुत अधिक विकसित हो चुके थे और विभिन्न देवी देवताओं के अनेक ध्यान लोकप्रिय हो रहे थे। इस बदलती हुई परिस्थिति के फलस्वरूप हमें यहाँ अनेक नवीन प्रकार की मूर्तियां मिलती हैं। इनमें कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रतिमाओं की यहाँ चर्चा की जा रही है।

(क)जैन धर्म की प्रतिमाएं

इस काल की बनी जैन मूर्तियों में भावपक्ष तो निर्बल है पर मूर्तिशास्त्र की दृष्टि से वे अधिक पूर्ण हैं। अब केवल तीर्थंकरों के लांछन ही नहीं अपितु कहीं-कहीं उनके साथ के यक्ष आदि भी बने रहते हैं। इससे तीर्थंकर की पहिचान करना सहज हो जाता है। इन प्रतिमाओं की दूसरी विशेष बात यह है कि अब बुद्ध और जैन प्रतिमा के मस्तकों में विशेष अन्तर नहीं दिखाई पड़ता। प्रभामण्डल, उष्णीश, छत्रावलि, विद्याधर आदि वस्तुएं दोनों में पायी जाती है। समय के साथ-साथ जैनों का देवता-संघ भी बढ़ता गया और उनकी मूर्तियां निर्माण होती गई। मथुरा के संग्रहालय में जैनों के एक देवता क्षेत्रपाल की एक प्रतिमा विद्यमान है। यह भैरव का ही एक स्वरूप है। इसी प्रकार जैनों की एक प्रसिद्ध देवी चक्रेश्वरी की मूर्ति यहाँ देखी जा सकती है जिसके सभी हाथों मे चक्र बने हैं। अन्य देवताओं में सिंहारूढ़ अम्बिका एवं कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हुए स्त्री-पुरुष या 'युगलिया'[9] प्रतिमा (सं.सं. 15.1111) दर्शनीय हैं।

(ख)बौद्ध मूर्तियाँ

इस काल की मथुरा में बनी बुद्ध मूर्तियों की संख्या अधिक नहीं है। कुछ के टूटे हुए सिर संग्रहालय में हैं जिन पर क्वचित उष्णीश और उर्णा विद्यमान है। बोधिसत्वों की स्वतन्त्र मूर्तियां बनना इस काल में मथुरा में बंद-सा हो गया थां इतिहास भी हमें बतलाता है कि आठवीं शताब्दी के बाद अर्थात शंकराचार्य के समय में बौद्ध धर्म भारत से लगभग उठ गया था। इसलिये इन मूर्तियों का न मिलना स्वाभाविक ही है।

(ग)वैष्णव मूर्तियां

मथुरा संग्रहालय की मध्यकालीन वैष्णव प्रतिमाओं में सबसे महत्वपूर्ण मूर्ति आसनस्थ चतुर्भुज-विष्णु की है। इस काल में खड़े या शेष पर लेटे हुये विष्णु की प्रतिमाएँ साधारण रूप से बनती थीं, पर बैठे हुये विष्णु जिन्हें बुद्ध अवतार का प्रतीक समझते हैं, कम दिखलाई पड़ते हैं। प्रस्तुत मूर्ति अपनी पूर्णता के कारण विशेष रूप से दर्शनीय है। अन्य प्रकार की विष्णु मूर्तियों में गुप्त काल की अपेक्षा अलंकरणों की विपुलता है। साथ ही साथ ब्रह्मा, शिव, आयुधपुरुष, श्रीदेवी व भूदेवी, नवग्रह, दश अवतार आदि अनेक छोटी मूर्तियां आस पास बनी दिखलाई पड़ती हैं। इस काल की एक अन्य विशेषता विष्णु के वक्षस्थल पर दिखलाई पड़ने वाला चतुर्दल कौस्तुभ है जो मथुरा की कुषाण और गुप्तकालीन कला में अदृश्य था। अन्य प्रकार की वैष्णव मूर्तियों में शेषशायी विष्णु (सं.सं. 12.256), वामन अवतार (सं.सं. 15.1025), वराह अवतार (सं.सं. 18.1114) व बलराम (सं. सं. 18.1515) की मूर्तियां मुख्य हैं।

(घ)शैव व अन्य मूर्तियाँ

इनमें आलिंगन मुद्रा में उमामहेश्वर (00.डी 14), आसनस्थ शिव (00.डी 43,44) हरगौरी (10.139) आदि मूर्तियां व कतिपय शिवलिंगों को गिनाया जा सकता है। अन्य देवी देवताओं की मूर्तियों में विशेष रूप से ध्यान देने योग्य निम्नांकित प्रतिमाएं हैं: नृत्य गणेश (सं. सं. 12.189), आलिंगन मुद्रा में सपत्नीक गणेश (सं.सं. 15.1112), देव सेनापति कार्तिकेय को ब्रह्मा व शिव द्वारा अभिषेक (सं.सं. 14.466), अग्नि जिसमें उसके वाहन मेष को पुरुष रूप में दिखलाया गया है (सं.सं. 00.डी.24), हनुमान (सं.सं.00डी 27), कुबेर और गणेश के साथ लक्ष्मी (सं.सं. 15.1119), शिव लिंग और गणेश से युक्त तपस्या में लीन पार्वती (सं.सं.15.1044), तीन पैरों वाले भृंगी ऋषि (सं.सं. 17.1289), महिषासुरमर्दिनी (सं.सं. 15.541), वीरभद्र और गणेश के बीच सप्तमातृकाएं, (सं.सं. 15.552), उषा व प्रत्यूषा के साथ रथ पर बैठे सूर्य (सं.सं.00.डी.45), दण्ड-पिंगल के साथ खड़े सूर्य (सं.सं. 16.1220) आदि।

मथुरी कलाकृतियों में अंकित कथा-दृश्य

यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि मथुरा की कला किसी धर्म विशेष से बंधी हुई नहीं है। इसके आचार्यों ने ब्राह्मण, बौद्ध व जैन धर्मों की समान रूप से सेवा की है। फलत: इसमें अनेक विषयों का अंकन हुआ है।[10]

साधारणतया इन विभिन्न कथा-दृश्यों को निम्नांकित रूप से बाँटा जा सकता है;

  • (क) बौद्ध कथाएं।
  • (ख) ब्राह्मण धर्म के कथा-दृश्य।
  • (ग) फुटकर कथाएं।

इनमें बौद्ध कथाओं की संख्या सर्वाधिक है। यह अवश्य ही आश्चर्य का विषय है कि जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र होते हुए भी माथुरी कला में जैन कथाओं का अंकन बहुत ही थोड़ा है। ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित कथाओं की भी बहुलता नहीं है। अतएव प्रथम बौद्ध कथाओं को लें।

बौद्ध कथा-दृश्य

इन्हें यहाँ दो रूपों में समझा जा सकता है- एक तो बुद्ध के अतीत जन्मों की कथाएं और दूसरे बुद्ध जीवन के दृश्य। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार बृद्धत्त्व की प्राप्ति के पूर्व बुद्ध ने कई जन्म लिये थे। इन जन्मों की कथाएं जातक कथाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन कथाओं को वेदिकास्तम्भों पर, सूचिकाओं पर अथवा दीवारों पर अंकित करना प्राचीनकाल की सामान्य परिपाटी थी जिसके नमूने भरहूत, सांची, अमरावती आदि स्थानों पर तथा गान्धार कला में भी प्रचुरता से मिलते हैं। मथुरा की कला भी इस नियम के लिए अपवाद नहीं है। यहाँ की कलाकृतियों में अब तक बारह जातकों की पहचान हो चुकी हैं। इनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है।

  • 1. दु:खोपादान जातक (सं.सं. 15.586)[11]

इसका अंकन एक वेदिका स्तम्भ पर किया गया है। जिसमें एक फुल्ले में पर्णशाला के सामने एक बैठा हुआ साधु दिखलाई पड़ता है। ठीक उसी के पास उसकी ओर मुँह किए एक सांप, हिरन, कौवा तथा कबूतर भी बने हैं।

कथा इस प्रकार है कि एकबार चार भिक्षुओं में दु:ख के मूल कारण के विषय में बात चली। चारों के मत भिन्न थे अतएव वे शंका निवृत्ति के लिए बुद्ध के पास गये। बुद्ध ने पूर्व जन्म की एक घटना को बतलाते हुये उनका समाधान किया। उन्होंने बतलाया कि एक वन में रहने वाले हिरन, कौवा, सांप तथा कबूतर में पहले एक बार ऐसा ही वाद उठ पड़ा था। कबूतर का मत था कि प्रेम दु:ख का मूल उपादान है, कौवे के मतानुसार यह उपादान भूख थी, सांप घृणा को मूल उपादान बतलाता था और हिरन सोच रहा था कि भय के अतिरिक्त दूसरा कोई उपादान नहीं हो सकता। निकट ही रहने वाले एक साधु सवे यह प्रश्न पूछा गया। उसने बतलाया कि तुम सभी अंशत: सच बतला रहे हो पर दु:ख के मूलतम उपादान तक नहीं पहुँच रहे हो। देह धारण ही सभी दु:खों का मूल कारण है। समारोप करते हुए बुद्ध ने बतलाया कि उस जन्म में साधु वे स्वयं थे और विवाद करने वाले चार भिक्षु चार जानवर थे। यह जातक कथा आज के उपलब्ध पाली साहित्य में नहीं मिलती, अपितु बुद्ध जीवन से सम्बन्धित एक चीनी ग्रंथ में इसका विवरण मिलता है।

  • 2. सिसुमार अथवा वानरिन्द जातक (सं.सं. 00.जे 42; 12.195) [12]

यह कथा दो वेदिका स्तम्भों पर अंकित मिलती है। इसमें एक मगर और बन्दर को एक साथ दिखलाया गया है। कथा यह है कि एक समय बोधिसत्व बन्दर के रूप में एक नदी के तट पर निवास करते थे। उसी नदी में मगर का एक जोड़ा भी रहता था। एक बार मगर की पत्नी ने बन्दर का कलेजा खाने की इच्छा अपने पति के पास प्रगट की। प्रियतमा की इच्छा पूरी करने के लिए मगर ने बन्दर से दोस्ती की और एक दिन उसे सुझाया कि बन्दर को चाहिए कि वह नदी के दूसरे तट पर लगे हुये ताजे और मधुर फलों को खाया करे और इसके लिए वह स्वयं उसे पार ले जाया करेगा। बन्दर मगर की बातों में आ गया और उसकी पीठ पर बैठकर नदी में चल पड़ा। बीच धारा में पहुँचकर मगर ने उसे सही बात बतलाई और स्वयं पानी में डूबने लगा। चतुर बन्दर हँस पड़ा, उसने कहा आश्चर्य है कि तुम्हें यह पता ही नहीं है कि बन्दर लोग कभी अपना कलेजा अपने साथ नहीं रखते, अन्यथा कूदने फांटने में उसके टुकड़े-टुकड़े हो जायँ। वे तो उसे पेड़ों पर लटका के रखते हैं। मूर्ख मगर ने इस बात पर विश्वास कर लिया और बन्दर का कलेजा पाने के लालच से उसे पुन: किनारे पर ले आया। अब बन्दर कूद पड़ा और मगर की बुद्धिहीनता पर हँसने लगा। जातकों के अतिरिक्त थोड़े परिवर्तनों के साथ यह कथा पंचतंत्र में भी मिलती है।

  • 3. महासुतसोम जातक (सं.सं. 14.431,00 जे.23)[13] इसका सबसे अच्छा उदाहरण एक प्रस्तर खण्ड पर मिलता है। यहाँ एक पुरुष कन्धे पर बहेंगी लिये जा रहा है जिसके दोनों छोरों से एक-एक मानव आकृति लटक रही है।

इस जातक की कथा के अनुसार एक समय वाराणसी के किसी राजा को मानव का माँस खाने की रूचि उत्पन्न हो गई। अपनी दुष्ट इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने कितने ही निरीह मनुष्यों को मरवा डाला। जब इसका भेद खुला तब लोगों ने उसे राज्य से निकाल दिया। वह भी एक जंगल में रहकर वहाँ आने वाले पथिकों को मारकर खाने लगा। एक बार उसके पैर में चोट आई। अतएव उसने वृक्षदेवता की मनौती की कि उसका व्रण एक सप्ताह में ठीक होने पर वह एक सौ एक कुमारों की बलि चढ़ावेगा। संयोग से उसका पैर ठीक हो गया। अब अपनी मनौती की पूर्ति के लिए उसने एक सौ कुमारों को पकड़कर एक वृक्ष से लटका दिया। अन्तिम कुमार बोधिसत्त्व सुतसोम थे जिन्हें इस नरभक्षक ने पकड़ लिया, पर बोधिसत्त्व के अदम्य साहस, निर्भीकता आदि गुणों से वह बड़ा प्रभावित हुआ और अन्ततोगत्वा उसकी सम्पूर्ण जीवन-धारा को पलट देने में बोधिसत्त्व सुतसोम पूरी तरह सफल हो गये।

  • 4. रोमक अथवा परावत जातक (सं.सं. 00.आई 4)[14]

यह जातक अपने मूल स्थान पर कई भागों में अंकित थां इस समय अवशिष्ट शिलाखण्ड पर केवल दो भाग देखे जा सकते हैं। कथा-दृश्य के ऊपर मालाधारी यक्षों की पंक्ति बनी हुई थी। यहाँ हम कुछ साधू व एक कबूतर देखते हैं। इन साधुओं में एक दूसरे की अपेक्षा अवस्था में वृद्धि है। यह अनुमान उसकी दाढ़ी से किया जा सकता है। इस जातक की कथा का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है:

एक समय बोधिसत्त्व ने कबूतरों के राजा का जन्म लिया था। कबूतरों का यह झुण्ड जंगल में रहने वाले एक साधु के यहाँ नियमित रूप से जाता रहा। यह साधु एक गुफ़ा के पास रहा करता था। वृद्धावस्था के कारण आगे चलकर वह साधु उस स्थान को छोड़कर कहीं चला गया और उस स्थान पर एक दूसरा तरूण साधु आकर रहने लगा। कबूतरों का झुण्ड अब भी आता रहा। एक दिन इस नवीन साधु को कबूतरों का माँस खाने को मिला जो उसे बहुत ही अच्छा लगां इस विषय में उसका लोभ बढ़ा और उसने इन कबूतरों के झुण्ड में शिकार करने की सोची। दूसरे दिन वह अपने कपड़ों में डण्डा छिपाकर कबूतरों की राह देखने लगा। उसकी चेष्टाओं से बोधिसत्त्व को उसके कपट व्यवहार का पता लग गया और उन्होंने अपने अनुयायियों को वहाँ जाने से रोक दिया। अब इस तरूण साधु का कपट खुल गया और अन्ततोगत्वा पास-पड़ौस वालों के डर से उसने वह स्थान छोड़ दिया।

  • 5. वेस्सन्तर जातक (सं.सं. 00.जे 4 पृष्ठ भाग)[15] इस जातक कथा का अंकन कलाकारों का प्रिय विषय रहा। भरहूत और सांची की कलाकृतियों में भी यह प्रचुर रूप से अंकित है। मथुरा में यह कई भागों भागों में दिखलाया गया था। संग्रहालय में प्रदर्शित वेदिका-स्तम्भ के पिछले भाग पर इसके कुछ दृश्य मुख्यत: कुमार वेस्सन्तर और याचक ब्राह्मण, कुमार द्वारा ब्राह्मण को अपने दोनों पुत्रों का दान तथा एकाकिनी स्त्रीमूर्ति कदाचित वेस्सन्तर की पत्नी अंकित हैं।

उस समय बोधिसत्व ने आदर्श दानी के रूप में कुमार वेस्सन्तर के नाम से जन्म लिया था। उन्होंने अपना श्वेत वर्ण का मंगल-गज, ब्राह्मणों को दान में दे दिया। फलस्वरूप उन्हें पत्नी और पुत्रों के साथ देशत्याग करना पड़ा। रास्ते में उन्होंने ब्राह्मण के मांगने पर अपना रथ और घोड़े भी दे दिये। अब यह कुटुम्ब एक पर्वत पर रहने लगा, पर यहाँ भी पूजक नाम का एक ब्राह्मण आ पहुँचा जिसने कुमार से उसके दोनों पुत्रों की याचना की। पत्नी की अनुपस्थिति में भी कुमार ने ब्राह्मण की प्रार्थना स्वीकार कीं वस्तुत: यह ब्राह्मण कुमार वेस्सन्तर की परीक्षा लेने आया था। बाद में शक देवता के प्रभाव से कुमार का सारा कुटुम्ब और उसका पुराना ऐश्वर्य सब कुछ उसे मिल गये।

  • .6 पाद-कुसल-माणव जातक (सं.सं. 12.191)[16] एक वेदिका स्तम्भ के मध्य में यह अंकित है। यहाँ हम एक अश्व-मुखी यक्षी को एक तरूण पुरुष के कन्धे को छूते हुये देखते हैं।

जातक कथा हमें बतलाती है कि किसी समय वाराणसी की एक रानी ने झूठी शपथ ली, जिस पाप के कारण वह घुड़मुँही यक्षी बनी। उसने तब तीन वर्षों तक वैश्रवण कुबेर की सेवा की और यह वर प्राप्त किया कि एक निश्चित परिसर के भीतर प्रवेश करने वालों को वह खा सकेगी। एक दिन एक सुन्दर और धनवान ब्राह्मण युवक उसके चंगुल में फंस गया। परन्तु यह यक्षी उसके सौंदर्य पर लुब्ध हो गई और उसने उसे अपना पति बना लिया। परन्तु वह कहीं भाग न जाय इस भय से वह उसे सदा एक गुफ़ा में कैद किये रहती थीं उससे इस यक्षी के एक बैटा उत्पन्न हुआ जो बोधिसत्त्व था। बोधिसत्व ने पैरों की चाप को सुनकर मनुष्य को पहचानने की कला में कुशलता प्राप्त की और इस विद्या की सहायता से अपने पिता को घुड़मुँही यक्षी की कैद से छुड़ा लिया।

  • .7 कच्छप जातक (सं.सं. 00.जे 36)[17]

ऊपर वाले जातक के समान यह भी एक वेदिका स्तंभ के पिछले भाग पर अंकित है। यहाँ एक कछुए को दो पुरुष लकड़ियों से पीटते हुए दिखलाई पड़ते हैं। बात यह थी कि एक बकवादी कछुए और दो हंसों में मित्रता हो गई। हंसों ने कछुओं को अपने देश में चलने के लिए निमन्त्रित किया। कछुए को बात जंच गई। हंसों ने एक छड़ी ली और कछुए को उसे बीचोबीच अपने मुँह में पकड़ने के लिए कहा। उसके ऐसा करने पर दोनों पक्षी अपनी चोंच में उस छड़ी को पकड़कर उड़ चले। गांव के बच्चों ने जब यह विचित्र दृश्य देखा तब उन्होंने कछुए की हंसी उड़ाना प्रारम्भ किया। बकवादी कछुआ उसे न सह सका। जैसे ही उत्तर देने के लिए उसने मुँह खोला, वह भूमि पर आ गिरा और मर गया। डा. फोगल ने इस कथा की चर्चा करते हुए ठीक ही कहा है कि मथुरा कलाकृति में इस कथा का अंकन जातक-ग्रन्थों के आधार पर नहीं, अपितु पंचतंत्र के आधार पर हुआ है, जिसमें कहा गया है कि कछुए की मृत्यु ऊपर से गिरकर नहीं, परन्तु ग्रामवासियों की मार के कारण हुई थी।

  • 8. उलूक जातक (सं.सं. 00.जे41)[18]

इसका अंकन भी एक वेदिका स्तंभ के पृष्ठभाग पर किया गया है। यहाँ हम एक उल्लू को आसन पर बैठे हुए देखते हैं। दो बन्दर अगल-बगल खड़े होकर उसका अभिषेक कर रहे हैं। कथा के अनुसार पक्षियों ने एक समय उल्लू को अपना राजा चुना। उसका अभिषेक होने ही जा रहा था कि कौवे ने इस बात का विरोध किया और वह स्वयं आकाश में उड़ गया। उल्लू भी उसका पीछा करने के लिए आकाश में उड़ चला। इधर पक्षियों ने एक सुनहले हंस को अपना राजा चुना।

  • 9. दीपंकर जातक (सं.सं. 0.एच 10. लखनऊ संग्रहालय संख्या बी 22)[19]

इस जातक का सम्पूर्ण अंकन अब तक माथुरीकला में नहीं मिला है, परन्तु महत्त्वपूर्ण बातों का अंकन अवश्य है जैसे दीपंकर को फूल चढ़ाना तथा उनके सम्मुख सुमति का भूमि पर अपने केश फैलाना। जातक की पाली तथा संस्कृत कथाओं में कुछ अन्तर है। कथा का साधारण रूप निम्नांकित है:

सुमति नामक एक वेदज्ञ ब्राह्मण को एक राजा से दान में कई वस्तुएं मिलीं। इनमें एक कन्या भी थीं सुमति ने कन्या को ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया क्योंकि वह आजन्म ब्रह्मचारी रहना चाहता था। कन्या सुमति पर मुग्ध हो चुकी थी, परन्तु उसके द्वारा अस्वीकार किये जाने पर वह दीपावती नामक नगरी में जाकर ईश्वर सेवा में समय बिताने लगी। इधर सुमति को कुछ विचित्र स्वप्न हुए जिनका अर्थ समझने के लिए उसे दीपावती नगरी में जाकर वहां पधारने वाले दीपंकर बुद्ध से मिलने का आदेश हुआ। सुमति को चाहने वाली वह कन्या भी दीपंकर का पूजन करना चाहती थी। इधर दीपावती के राजा ने अपने यहाँ आने वाले दीपंकर की पूजा के लिए नगर के सम्पूर्ण पुष्पों पर अधिकार कर लियां फलत: कन्या को पूजन के लिए फूल न मिल सके। अतएव उसने अपनी तपस्या के प्रभाव से सात कमलों को विकसित कराया। यही कठिनाई सुमति के सामने भी थीं एकाएक उसने इस कन्या को फूल ले जाते हुए देखा। उसने फूलों की याचना की। पहले तो कन्या ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी, पद बाद में एक शर्त पर उसे पांच पुष्प देना स्वीकार किया। शर्त यह थी कि दीपंकर को पुष्प समर्पण करते समय सुमति अपने मन में उस कन्या को अगले जन्म में पत्नी रूप में पाने की कामना रखे। सुमति ने इसे स्वीकार किया और दोनों दीपंकर का दर्शन करने के लिए चले। सुमति ने दीपंकर को जो पांच फूल चढ़ाये वे भूमि पर तो नहीं गिरे अपितु बुद्ध के मस्तक के ऊपर एक माला के रूप में स्थित हो गये। उसी प्रकार कन्या के द्वारा समर्पित पुष्प भी दीपंकर के कानों पर स्थित हो गये। वर्षा के कारण इस समय रास्ते में कीचड़ हो रहा था। दीपंकर को चलने में कठिनाई हो रही है यह देखकर सुमति ने अपना मस्तक पृथ्वी पर झुका दिया और अपने केश बिछाकर बुद्ध को चलने के लिए मार्ग बना दिया। बुद्ध ने उसके केशों पर पैर रखे और भविष्यवाणी की कि अगले जन्म में सुमति शाक्य मुनि के रूप में उत्पन्न होंगे।

  • 10. शिबि जातक[20]

मथुरा से प्राप्त एक वेदिका स्तंभ के पृष्ठभाग पर यह जातक कथा अंकित है। इसे शिबि जातक के नाम से पुकारा गया है पर यहाँ दिखलाई पड़ने वाला दृश्य पाली जातक कथा से मेल नहीं खाता। संभवत: यह ब्राह्मण संप्रदाय में प्रचलित राजा शिबि की कथा है जिसने एक कबूतर को बचाने के लिए अपने शरीर का मांस देना स्वीकार किया था।

  • 11. व्याघ्री जातक (सं. सं. 00 जे.5; 32.2280)[21]

दोनों कलाकृतियों में यह जातक-दृश्य बड़े ही घिसे हुए हैं।

उपरोक्त जातक कथाओं के अतिरिक्त मथुरा कला में अधोलिखित दो अन्य जातकों का अंकन भी मिलता है, पर ये कलाकृतियां मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में नहीं हैं।

(क)वलाहस्स जातक[22]

(ख)महिलामुख जातक [23]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ये चार मूर्तियाँ निम्नांकित हैं:
    (क) सांची की स्तूप 26 की बुद्धमूर्ति।
    (ख) अमरावती की खड़ी बुद्ध प्रतिमा।
    (ग) इलाहाबाद की खड़ी बुद्ध प्रतिमा।
    (घ) सांची के महास्तूप की आसनस्थ बुद्ध प्रतिमाएं।
  2. के. डी. बी. काड्रिंग्टन, Mathura of the Gods, मार्ग, खण्ड 9, संख्या 2, मार्च 1956, पृ0 46 ।
  3. सं. सं. 39-40.2831 ।
  4. सं. सं. 63-1, तुलना कीजिये, पंचतंत्र, भाग 1।
  5. आनन्द कुमारस्वामी, HIIA.,पृ0 72 ।
  6. स्टेला क्रेमरिच, Indian Sculpture, पृ0 63 ।
  7. मुण्डित मस्तक युक्त बुद्ध प्रतिमा का केवल एक ही नमूना अब तक ज्ञात है जो लखनऊ के राज्य संग्रहालय में सुरक्षित है और मानकुवर बुद्ध प्रतिमा के नाम से पहिचाना जाता है (लखनऊ संग्रहालय संख्या ओ. 70)।
  8. मिलाइये- सं. सं.00.ए.1, 39.2831, 00.ए.5 आदि।
  9. यह पहिचान डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ने की है।
  10. मुख्यत: उन्हीं कथा-दृश्यों की विस्तार से चर्चा की गई है जो पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा में विद्यमान हैं।
  11. वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS, खण्ड 24-25, पृ0 38-39 ।
  12. यह जातक कथा मथुरा से प्राप्त एक अन्य वेदिका स्तम्भ पर भी अंकित है, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय में विद्यमान है। देखिये- लोझेन, डी ले फयू जे.वी., Two Notes on Mathura Sculptures, India Antiqua फोगल-स्मृति ग्रंथ, लीडन 1947, पृ0 235-39 ।
  13. वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 15।
  14. वासुदेवशरण अग्रवाल, वही, खंड 23, पृ0 128।
  15. वासुदेवशरण अग्रवाल Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ05 ।
  16. वही, पृ0 34 पूरी कहानी के लिए देखिए आनन्द कौसल्यायन, जातक (हिन्दी), खण्ड 4, पृ0 163 ।
  17. इ.बी. कावेल, The Jatakas संख्या 215; जे. फोगल The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1906-7, पृ0 157 ।
  18. वही, संख्या 270, वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 19 ।
  19. दिव्यावदान, 18 धर्मरूच्यावदान, पृ0 152-55, जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1909-10, पृ0 72 ।
  20. वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 19; कावेल, ई.बी, The Jatak., संख्या 499।
  21. वासुदेवशरण अग्रवाल, वही, खण्ड 24-25, पृ0 50।
  22. जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1909-10, पृ0 72, फलक 26 सी.।
  23. यह कलाकृति इस समय कलकत्ते के संग्रहालय में है: जे. फोगल, La Sculpture de Mathura फलक 20 ए; कावेल, ई. बी0, The Jataka, भाग 2 संख्या 26,196