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पूरा नाम लालबहादुर शास्त्री
अन्य नाम शास्त्री जी
जन्म 2 अक्टूबर 1904
जन्म भूमि मुगलसराय, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 11 जनवरी, 1966
मृत्यु स्थान ताशकंद, उज़बेकिस्तान
पति/पत्नी ललितादेवी
पार्टी काँग्रेस
पद भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री
कार्य काल 9 जून, 1964 से 11 जनवरी, 1966
शिक्षा स्नातकोत्तर
विद्यालय राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न सम्मान

श्राद्ध की महत्ता

सूत्रकाल (लगभग ई. पू. 600) से लेकर मध्यकाल के धर्मशास्त्रकारों तक सभी लोगों ने श्राद्ध की महत्ता एवं उससे उत्पन्न कल्याण की प्रशंसा के पुल बाँध दिये हैं। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[1] ने अधोलिखित सूचना दी है- 'पुराने काल में मनुष्य एवं देव इसी लोक में रहते थे। देव लोग यज्ञों के कारण (पुरस्कारस्वरूप) स्वर्ग चले गये, किन्तु मनुष्य यहीं पर रह गये। जो मनुष्य देवों के समान यज्ञ करते हैं वे परलोक (स्वर्ग) में देवों एवं ब्रह्मा के साथ निवास करते हैं। तब (मनुष्यों को पीछे रहते देखकर) मनु ने उस कृत्य को आरम्भ किया जिसे श्राद्ध की संज्ञा मिली है, जो मानव जाति को श्रेय (मुक्ति या आनन्द) की ओर ले जाता है। इस कृत्य में पितर लोग देवता (अधिष्ठाता) हैं, किन्तु ब्राह्मण लोग (जिन्हें भोजन दिया जाता है) आहवानीय अग्नि (जिसमें यज्ञों के समय आहुतियाँ दी जाती हैं) के स्थान पर माने जाते हैं।" इस अन्तिम सूत्र के कारण हरदत्त (आपस्तम्ब धर्मसूत्र के टीकाकार) एवं अन्य लोगों का कथन है कि श्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाना प्रमुख कृत्य है। ब्रह्माण्डपुराण[2] ने मनु को श्राद्ध के कृत्यों का प्रवर्तक एवं विष्णुपुराण[3], वायु पुराण[4] एवं भागवत पुराण[5] ने श्राद्धदेव कहा है। इसी प्रकार शान्तिपर्व[6] एवं विष्णुधर्मोत्तर॰[7] में आया है कि श्राद्धप्रथा का संस्थापन विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह और प्रपितामह को दिये गये तीन पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए। इससे और आपस्तम्ब धर्मसूत्र के वचन से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व श्राद्धप्रथा का प्रतिष्ठापन हो चुका था और यह मानवजाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है।[8] किन्तु यह ज्ञातव्य है कि 'श्राद्ध' शब्द किसी भी प्राचीन वैदिक वचन में नहीं पाया जाता, यद्यपि पिण्डपितृयज्ञ (जो अहिताग्नि द्वारा प्रत्येक मास की अमावस्या को सम्पादित होता था)[9], महापितृयज्ञ (चातुर्मास्य या साकमेघ में सम्पादित) उपं अष्टका आरम्भिक वैदिक साहित्य में ज्ञात थे। कठोपनिषद[10] में 'श्राद्ध' शब्द आया है; जो भी कोई इस अत्यन्त विशिष्ट सिद्धान्त को ब्राह्मणों की सभा में या श्राद्ध के समय उदघोषित करता है, वह अमरता प्राप्त करता है।' 'श्राद्ध' शब्द के अन्य आरम्भिक प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होते हैं। अत्यन्त तर्कशील एवं सम्भव अनुमान यही निकाला जा सकता है कि पितरों से सम्बन्धित बहुत ही कम कृत्य उन दिनों किये जाते थे, अत: किसी विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गयी। किन्तु पितरों के सम्मान में किये गये कृत्यों की संख्या में जब अधिकता हुई तो श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति हुई।

श्राद्ध की प्रशस्तियाँ

श्राद्ध की प्रशस्तियों के कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं। बौधायन धर्मसूत्र[11] का कथन है कि पितरों के कृत्यों से दीर्घ आयु, स्वर्ग, यश एवं पुष्टिकर्म (समृद्धि) की प्राप्ति होती है। हरिवंश पुराण[12] में आया है–श्राद्ध से यह लोक प्रतिष्ठित है और इससे योग (मोक्ष) का उदय होता है। सुमन्तु[13] का कथन है–श्राद्ध से बढ़कर श्रेयस्कर कुछ नहीं है।[14] वायुपुराण[15] का कथन है कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है तो वह ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र एवं अन्य देवों, ऋषियों, पक्षियों, मानवों, पशुओं, रेंगने वाले जीवों एवं पितरों के समुदाय तथा उन सभी को जो जीव कहे जाते हैं, एवं सम्पूर्ण विश्व को प्रसन्न करता है। यम ने कहा है कि पितृपूजन से आयु, पुत्र, यश, कीर्ति, पुष्टि (समृद्धि), बल, श्री, पशु, सौख्य, धन, धान्य की प्राप्ति होती है।[16] श्राद्धसार[17] एवं श्राद्धप्रकाश[18] द्वारा उदधृत विष्णुधर्मोत्तरपुराण में ऐसा कहा गया है कि प्रपितामह को दिया गया पिण्ड स्वयं वासुदेव घोषित है, पितामह को दिया गया पिण्ड संकर्षण तथा पिता को दिया गया पिण्ड प्रद्युम्न घोषित है और पिण्डकर्ता स्वयं अनिरुद्ध कहलाता है। शान्तिपर्व[19] में कहा गया है कि विष्णु को तीनों पिण्डों में अवस्थित समझना चाहिए। कूर्म पुराण में आया है कि "अमावस्या के दिन पितर लोग वायव्य रूप धारण कर अपने पुराने निवास के द्वार पर आते हैं और देखते हैं कि उनके कुल के लोगों के द्वारा श्राद्ध किया जाता है कि नहीं। ऐसा वे सूर्यास्त तक देखते हैं। जब सूर्यास्त हो जाता है, वे भूख एवं प्यास से व्याकुल हो निराश हो जाते हैं, चिन्तित हो जाते हैं, बहुत देर तक दीर्घ श्वास छोड़ते हैं और अन्त में अपने वंशजों को कोसते (उनकी भर्त्सना करते हुए) चले जाते हैं। जो लोग अमावस्या को जल या शाक-भाजी से भी श्राद्ध नहीं करते उनके पितर उन्हें अभिशापित कर चले जाते हैं।"

श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध

'श्राद्ध' शब्द की व्युत्पत्ति पर भी कुछ लिख देना आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि यह शब्द "श्रद्धा" से बना है। ब्रह्मपुराण (उपर्युक्त उद्धृत), मरीचि एवं बृहस्पति की परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ सम्बन्ध है। श्राद्ध में श्राद्धकर्ता का यह अटल विश्वास रहता है कि मृत या पितरों के कल्याण के लिए ब्राह्मणों को जो कुछ भी दिया जाता है वह उसे या उन्हें किसी प्रकार अवश्य ही मिलता है। स्कन्द पुराण[20] का कथन है कि 'श्राद्ध' नाम इसलिए पड़ा है कि उस कृत्य में श्रद्धा मूल (मूल स्रोत) है। इसका तात्पर्य यह है कि इसमें न केवल विश्वास है, प्रत्युत एक अटल धारणा है कि व्यक्ति को यह करना ही है। ॠग्वेद[21] में श्रद्धा को देवत्व दिया गया है और वह देवता के समान ही सम्बोधित हैं।[22] कुछ स्थलों पर श्रद्धा शब्द के दो भाग (श्रत् एवं धा) बिना किसी अर्थ परिवर्तन के पृथक्-पृथक् रखे गये हैं।[23] तैत्तिरीय संहिता[24] में आया है–"बृहस्पति ने इच्छा प्रकट की; देव मुझमें विश्वास (श्रद्धा) रखें, मैं उनके पुरोहित का पद प्राप्त करूँ।"[25] निरुक्त[26] में 'श्रत्' एवं 'श्रद्धा' का 'सत्य' के अर्थ में व्यक्त किया गया है। वाज. सं.[27] में कहा गया है कि प्रजापति ने 'श्रद्धा' को सत्य में और 'अश्रद्धा' को झूठ में रख दिया है, और वाज. सं.[28] में कहा गया है कि सत्य की प्राप्ति श्रद्धा से होती है।

  1. आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2|7|16|1-3)
  2. ब्रह्माण्डपुराण (उपोदघातपाद 9|15 एवं 10|99)
  3. विष्णुपुराण (3|1|30)
  4. वायु पुराण (44|38)
  5. भागवत पुराण (3|1|22)
  6. शान्तिपर्व (345|14-21)
  7. विष्णुधर्मोत्तर॰ (1|139|14-16)
  8. ऋग्वेद 8|63|1 एवं 8|30|3
  9. 'पिण्डपितृयज्ञ' श्राद्ध ही है, जैसा कि गोभिलगृह्यसूत्र (4|4|1-2) में आया है–'अन्वष्टक्यस्थालीपाकेन पिण्डपितृयज्ञ व्याख्यात:। अमावास्यां तच्छाद्धमितरदन्वहार्यम्।' और देखिए श्रा. प्र. (पृ. 4)। पिण्डपितृयज्ञ एवं महापितृयज्ञ के लिए देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड 2, अध्याय 30 एवं 31।
  10. कठोपनिषद् (1|3|17)
  11. बौधायन धर्मसूत्र (2|8|1)
  12. हरिवंश (1|21|1)
  13. (स्मृतिच., श्राद्ध, पृ. 333)
  14. पित्र्यमायुष्यं स्वर्ग्य यशस्यं पुष्टकिर्म च। बौधायन धर्मसूत्र (2|8|1) श्राद्धे प्रतिष्ठितो लोक: श्राद्धे योग: प्रवर्तते।। हरिवंश (1|21|11)। श्राद्धत्परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाह्रतम्। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षण:।। सुमन्तु (स्मृतिच., श्राद्ध, 333)।
  15. वायुपुराण (3|14|1-4)
  16. आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्ति पुष्टिं बलं श्रिय:। पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। यम (स्मृतिच., श्राद्ध, पृ. 333 एवं श्राद्धसार पृ. 5)। ऐसा ही श्लोक याज्ञ. (1|270, मार्कण्डपुराण 32|38) एवं शंख (14|33) में भी है। और देखिए याज्ञ. (1|270)।
  17. श्राद्धसार (पृ. 6)
  18. श्राद्धप्रकाश (पृ. 11-12)
  19. शान्तिपर्व (345|21)
  20. स्कन्दपुराण (6|218|3)
  21. ॠग्वेद (10|151|1-5)
  22. ॠग्वेद (2|26|3; 7|32|14; 8|1|31 एवं 9|113|4)।
  23. ॠग्वेद (2|12|5), अथर्ववेद (20|34|5) एवं ऋ. (10|147|1=श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे)।
  24. तैत्तिरीय संहिता (7|4|1|1)
  25. ॠग्वेद (1|103|5)।
  26. निरुक्त (3|10)
  27. वाज. सं. (19|77)
  28. वाज. सं. (19|30)