महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा हिंदी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ सुमित्रानन्दन पन्त, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के साथ महादेवी जी की गिनती की जाती है। आधुनिक हिन्दी कविता में महादेवी वर्मा एक महत्वपूर्ण शक्ति के रुप में उभरीं। उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी को कोमलता और मधुरता से संसिक्त कर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला। महादेवी वर्मा हिंदी भाषा की प्रख्यात कवयित्री है। विरह को दीपशिखा का गौरव दिया। व्यष्टि मूलक मानवतावादी काव्य के चिंतन को प्रतिष्ठापित किया। उनके गीतों का नाद-सौंदर्य, पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है।<>http://www.srijangatha.com/Hastakshar_Mar2k7<>
जन्म
महादेवी वर्मा का जन्म होली के दिन 26 मार्च, 1907 को फ़र्रुख़ाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ। उनके पिता श्री गोविन्द प्रसाद वर्मा जो एक वकील थे और माता श्रीमती हेमरानी देवी दोनो ही शिक्षा के अनन्य प्रेमी थे।<>http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/09/blog-post_10.html<>उन्हें आधुनिक काल की मीराबाई कहा जाता है। महादेवी जी छायावाद रहस्यवाद के प्रमुख कवियों में से एक हैं। हिन्दुस्तानी स्त्री की उदारता, करुणा, सात्विकता, आधुनिक बौद्धिकता, गंभीरता और सरलता उनके व्यक्तित्व में समाविष्ट थी। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विलक्षणता से अभिभूत रचनाकारों ने उन्हें 'साहित्य साम्राज्ञी, हिन्दी के विशाल मंदिर की वीणापाणि', 'शारदा की प्रतिमा' आदि विशेषणों से अभिहित करके उनकी असाधारणता को लक्षित किया। महादेवी जी ने एक निश्चित दायित्व के साथ भाषा, साहित्य, समाज, शिक्षा और संस्कृति को संस्कारित किया। कविता में रहस्यवाद, छायावाद की भूमि ग्रहण करने के बावजूद सामयिक समस्याओं के निवारण में उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभाई।
शिक्षा
महादेवी वर्मा की शिक्षा-दीक्षा मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर में हुयी। इन्होंने बी-ए जबलपुर से की वो अपने घर मे सबसे बड़ी थी उनके दो भाई और एक बहन थी। 1919 में इलाहाबाद में क्रास्थवेट कालेज से शिक्षा का प्रारंभ करते हुए उन्होंने 1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। तब तक उनके दो काव्य संकलन 'नीहार' और 'रश्मि' प्रकाशित होकर चर्चा में आ चुके थे।<>http://www.abhivyakti- hindi.org/lekhak/m/mahadeviverma.htm<> महादेवी जी में काव्य प्रतिभा सात वर्ष की उम्र में ही मुखर हो उठी थी। विद्यार्थी जीवन में ही उनकी कविताएं देश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने लगीं थीं।
विवाह
उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनका विवाह छोटी उम्र में ही हो गया था परन्तु महादेवी जी को सांसारिकता से कोई लगाव नहीं था अपितु वे तो बौद्ध धर्म से बहुत प्रभवित थीं और स्वयं भी एक बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहतीं थीं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। इनकी शादी 1914 मे डॉ स्वरुप नरेन वर्मा के साथ इंदौर मे 9 साल की उम्र मे हुई, वो अपने माँ पिताजी के साथ रहती थी क्योंकि उनके पति लखनऊ मे पढ़ रहे थे।
विरासत
शिक्षा और साहित्य प्रेम महादेवी जी को एक तरह से विरासत में मिला था। महादेवी जी में काव्य रचना के बीज बचपन से ही विद्यमान थे। छ: सात वर्ष की अवस्था में भगवान की पूजा करती हुयी माँ पर उनकी तुक्बन्दी:
ठंडे पानी से नहलाती
ठंडा चन्दन उन्हे लगाती
उनका भोग हमें दे जाती
तब भी कभी न बोले हैं
मां के ठाकुर जी भोले हैं।
वे हिन्दी के भक्त कवियों की रचनाओं और भगवान बौद्ध के चरित्र से अत्यन्त प्रभावित थी। उनके गीतों में प्रवाहित करुणा के अनन्त स्त्रोत को इसी कोण से समझा जा सकता है। वेदना और करुणा उनके गीतों की मुख्य प्रवत्ति है। असीम दु:ख के भाव में से ही उनके गीतों का उदय और अन्त दोनों होता है।
महिला विद्यापीठ की स्थापना
महादेवी वर्मा ने अपने प्रयत्नों से उन्होंने इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्र मुख पत्रिका 'चाँद' का कार्यभार सँभाला। प्रयाग में अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद हिन्दी के प्रति गहरा अनुराग रखने के कारण वे दिनों-दिन साहित्यिक क्रियाकलापों से जुड़ती चली गई। उन्होंने न केवल 'चांद' का सम्पादन किया वरन् हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयाग में 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की। उन्होंने ‘साहित्यकार’ मासिक का संपादन किया और 'रंगवाणी' नाट्य संस्था की भी स्थापना की।
काव्य संग्रह
1934 में नीरजा, तथा 1936 में सांध्यगीत नामक संग्रह प्रकाशित हुए। 1939 में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में 'यामा' शीर्षक से प्रकाशित किया गया। उन्होंने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किए। इसके अतिरिक्त उनके 18 काव्य और गद्य कृतियाँ हैं जिनमें 'मेरा परिवार', 'स्मृति की रेखाएँ', 'पथ के साथी', 'शृंखला की कड़ियाँ' और 'अतीत के चलचित्र' प्रमुख हैं।
कृतियाँ
महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ एक विशिष्ट गद्यकार थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं -
काव्य
- रश्मि (1932),
- नीहार (1933),
- नीरजा(1933),
- सांध्यगीत (1935),
- दीपशिखा (1942),
- यामा,
- सप्तपर्णा,
- सांधीनी।
गद्य
- रेखाचित्रः अतीत के चलचित्र,
- स्मृति की रेखाएं,
- पथ के साथी,
- मेरा परिवार।
====निबंध
- आलोचनाः श्रृंखला की कड़ियाँ,
- विवेचनात्मक गद्य,
- क्षणदा साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध,
- संकल्पिता ।
विविध संकलन
- स्मारिका,
- स्मृति चित्र,
- संभाषण,
- संचयन,
- दृष्टिबोध।
इसके अतिरिक्त उन्होंने बंगाल के अकाल के समय 'बंग दर्शन' तथा चीन के आक्रमण के समय 'हिमालय' का संपादन भी किया।
रेखाचित्रकार
महादेवी वर्मा एक सफल रेखाचित्रकार, कवयित्री, और विचारक है। उन्होंने कई रेखाचित्र लिखें हैं जिनमें नीलकंठ मोर, घीसा, सोना, गौरा आदि काफी प्रसिद्ध है। मानव एक श्रेष्ठ प्राणी होने पर भी पशुओं के प्रति उसका व्यवहार सराहनीय नहीं हैं। उनके द्वारा रचित सोना और गौरा नामक रेखाचित्र में मानव के निष्ठुर व्यवहार पर उन्होंने प्रकाश डाला हैं। पशु-पक्षी भी प्रेम के लिए ललायित रहते हैं और प्रेम दिखाने पर आनंदविभोर हो उठते हैं। बेजुबान होने पर भी स्नेह के कई मूक प्रर्दशन होते है। अपने असीम आनंद की अभिव्यक्ति सुंदर आँखों के भाव से प्रकट करते हैं। परन्तु मानव अपने स्वार्थ के कारण इन बेजुबान जानवरों पर इतना अत्याचार और निर्दय व्यवहार करता है और उनपर कितना जुल्म करता है इसका कोई अंत नहीं। मानव द्वारा इतनी यातना सह कर भी पशु मानव के स्वभाव से अब तक अनजाना है। मानव का यह स्वार्थ अंत में वेदना का कार्य और कारण बन जाता है, इसी बात पर प्रकाश डालना ही महादेवी वर्मी का मुख्य ध्येय है।<>http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/C/CRRajshree/mahadevi_rekhachitr_Alekh.htm<>
उपाधि
सन 1955 में महादेवी जी ने इलाहाबाद में 'साहित्यकार संसद' की स्थापना की और पं. इला चंद्र जोशी के सहयोग से 'साहित्यकार' का संपादन सँभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गईं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए 'पद्म भूषण' की उपाधि और 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि से अलंकृत किया। इससे पूर्व महादेवी वर्मा को 'नीरजा' के लिए 1934 में 'सक्सेरिया पुरस्कार', 1942 में 'स्मृति की रेखाओं' के लिए 'द्विवेदी पदक' प्राप्त हुए। 1943 में उन्हें 'मंगला प्रसाद पुरस्कार' एवं उत्तर प्रदेश सरकार के 'भारत भारती' पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 'यामा' नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ।
संस्मरण
अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखायाई पाठ के साथी, मेरा परिवार, यहाँ महादेवी वर्मा के 'मेरे बचपन के दिन ' लेख के कुछ दृश्य साकार किये जा रहे है। बचपन की यादों में एक विचित्र सा आकर्षण होता है। महादेवी वर्मा अपने परिवार में कई पीड़ियों के बाद उत्पन हुई। उनके परिवार में दौ सो सालों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई थी यदि होती तो उसे मार दिया जाता था। दुर्गा पूजा के कारण आपका जन्म हुआ। आपके दादा फ़ारसी और उर्दू तथा पिताजी अंग्रेज़ी जानते थे। माताजी जबलपुर से हिंदी सीख कर आई थी, आपने पंचतंत्र और संस्कृत का अध्ययन किया। महादेवी वर्मा जी को काव्य प्रतियोगिता मे चांदी का कटोरा मिला था। जिसे इन्होंने गाँधीजी को दे दिया था। महादेवी वर्मा कवि सम्मेलन में भी जाने लगी थी, वो सत्याग्रह आंदोलन के दौरान कवि सम्मेलन में अपनी कवितायें सुनाती और आपको हमेशा प्रथम पुरस्कार मिला करता था। महादेवी वर्मा मराठी मिश्रित हिंदी बोलती थी।
पुनर्मुद्रित संकलन
- यामा (1940) ,
- दीपगीत (1983),
- नीलाम्बरा (1983),
- आत्मिका (1983)
कुछ प्रतिनिधि कविताएँ
- अधिकार,
- अलि! मैं कण-कण को जान चली,
- अलि अब सपने की बात,
- अश्रु यह पानी नहीं है उत्तर,
- कहाँ रहेगी चिड़िया ,
- किसी का दीप निष्ठुर हूँ,
- कौन तुम मेरे हृदय में,
- क्या जलने की रीत,
- क्या पूजन क्यों इन तारों को उलझाते?,
- जब यह दीप थके,
- जाग-जाग सुकेशिनी री!,
- जाग तुझको दूर जाना,
- जाने किस जीवन की सुधि ले,
- जीवन दीप,
- जीवन विरह का जलजात ,
- जो तुम आ जाते एक बार,
- जो मुखरित कर जाती थीं,
- तुम मुझमें प्रिय,
- तेरी सुधि बिन,
- दिया क्यों जीवन का वरदान,
- दीपक अब रजनी जाती रे,
- दीपक चितेरा,
- दीपक पर पतंग,
- धीरे-धीरे उतर क्षितिज से,
- धूप सा तन दीप सी मैं,
- नीर भरी दुख की बदली |
पुरस्कारों से सम्मानित किया गया
- 1934 :सक्सेरिया पुरस्कार
- 1942 :द्विवेदी पदक
- 1943 :मंगला प्रसाद पुरस्कार
- 1943 :भारत भारती पुरस्कार
- 1956 :पद्म भूषण
- 1979 :साहित्य अकादेमी फेल्लोव्शिप
- 1982 :ज्ञानपीठ पुरस्कार
- 1988 :पद्म विभूषण
अनुभूतियाँ
महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है। उसमें देश, समाज या युग का चित्रांकन नहीं है, बल्कि उसमें कवयित्री की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी अनुभूतियाँ प्रायः अज्ञात प्रिय के प्रति मौन समर्पण के रुप में हैं। उनका काव्य उनके जीवन काल में आने वाले विविध पड़ावों के समान है। उनमें प्रेम एक प्रमुख तत्व है जिस पर अलौकिकता का आवरण पड़ा हुआ है। इनमें प्रायः सहज मानवीय भावनाओं और आकर्षण के स्थूल संकेत नहीं दिए गए हैं, बल्कि प्रतीकों के द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं स्थूल संकेत दिए गए हैं-
मेरी आहें सोती है इन ओठों की ओटों में,
मेरा सर्वस्व छिपा है इन दीवानी चोटों में।
कवियत्री ने सर्वत्र अपनी प्रणय-भावना का उन्नयन और परिष्कार किया है। इनके प्रेम का आलंबन विराट् एवं विशाल है, जो अलौकिक है-
बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ ।
नींद भी मेरी अचल निस्पंद कण-कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में,
प्रलय में मेरा पता पद-चिन्ह जीवन में।
इन्होंने अन्य छायावादी कवियों की तरह प्रकृति पर सर्वत्र चेतना का आरोप किया है और उसके साथ विविध मधुर संबंधों की कल्पनाएं की हैं-
रजनी ओढ़े जाती थी !
झिलमिल तारों की जाली,
उसके बिखरे वैभव पर,
जब रोती थी उजियाली।
दुःख-पीड़ा और विषाद इनके काव्य का मूल स्वर है और इन्हें सुख की अपेक्षा दुःख अधिक प्रिय है । परन्तु इनमें विषाद का वह भाव नहीं है जो कर्म शक्ति को कुंठित कर देता हो । इनमें संयम और त्याग है तथा दूसरों का हित करने की प्रबल आकांक्षा है-
मैं नीर भरी दुःख की बदली !
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा कभी न अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी थी कल मिट आज चली।
रहस्य भावना छायावादी काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। इनकी कविता में भी यह भावना सर्वप्रमुख है। रहस्य भावना की अभिव्यक्ति में आत्मा और परमात्मा के
संबंधों का इन्होंने विवेचन किया है-
ओ चिर नीरव !
मैं सरित विकल,
तेरी समाधि की सिद्धि अकल।
महादेवी वर्मा का काव्य भव्य और उदात्त है। भावों का साकार चित्रण करने में ये सिद्धहस्त हैं। थोड़े से शब्दों से इन्होंने सुंदर चित्रों का अंकन किया है। इनका अप्रस्तुत विधान भी इनकी कला को उत्कृष्टता प्रदान करने में सहायक सिद्ध हुआ है। उनका काव्य गीत-काव्य है, जिसमें अनुभूति की प्रधानता है। इनकी भाषा साहित्यिक खड़ी बोली है, जिसमें संस्कृत के सरल और क्लिष्ट शब्दों के साथ-साथ तद्भव शब्दों का भी प्रचुर मात्रा में प्रयेग किया गया है। इनकी भाषा अत्यंत मधुर एवं कोमल है। लाक्षणिकता की दृष्टि से इनका काव्य भव्य है-
मोम सी साधें विछा दीं थी,
इसी अंगार पथ में।
छायावादी कवियों में महादेवी जी की कविता का अपना अलग रंग-ढंग है। उनकी कविता ने वेदना में जन्म लिया और करुणा में आवास पाया। 'नीहार' से लेकर ‘दीपशिखा’ तक वेदना की अनेक स्थितियाँ और अनुभूतियाँ अंकित हैं। मगर उन्होंने दुःख के उसी रूप को वांछित माना, जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार के एक अविछन्न बंधन में बाँध देता है। मानवीय रागात्मकता को काव्य करुणा में ढाला। लेकिन-कविता की अंतश्चेतना तक पहुँचे बिना उनकी कविता में निहित दुःखवाद पर तरह-तरह के आरोप लगे। उस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा गया 'इतनी सी मटकी उसमें मनों आंसू'। उन्हें मात्र ‘नीर भरी दुःख की बदरी’और ‘एकाकिनी बरसात’ समझकर घोर निराशावादी घोषित कर दिया गया। उनके काव्य में आत्मरतिवाद, प्रतीकवाद, आत्मपीड़नवाद और पलायनवाद को ही ढूंढकर उसे जीवन के अस्वीकार का काव्य मान लिया गया। लेकिन यह दृष्टिकोण एकांगी है। यह सही है कि उनकी कविता में सामयिकता का आग्रह और दबाव नहीं हि, यथार्थ की खंडित दृष्टि नहीं है और उसमें पीड़ा, निराशा और पलायन के तत्व भी मौजूद हैं। लेकिन यह भी सच है कि दुःख को कविता की अनुभव वस्तु में डालकर महादेवी जी ने सुखवाद से मुंह नहीं मोड़ा है। उनका काव्य जीवन, सौंदर्य और आनन्द का भी आकांक्षी है। अन्यथा पीड़ा और निराशा में डूबी महादेवी जी जीवन और आनंद के सपने वों न संजोती-
कंटकों की सेज जिसकी !
आंसुओं का ताज सुभग,
हंस उठ उस प्रफुल्ल गुलाब ही सा आज।
अतः पीड़ा और वेदना का यह संसार नकारात्मक नहीं है। महादेवी जी ने दुःख और करुणा के लौकिक और आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्यों को स्पष्ट कर उसे व्यापक अर्थ प्रदान किया। उनकी दार्शनिक विवृत्तियों में कल्पना के माध्यम से जो व्यापक समाहार परिलक्षित हुआ, उसमें मनुष्य और समूची सृष्टि के परिवेश का संबंध योग बना रहा। आत्मा और परमात्मा के संबंधों की अवतारणा मनुष्य और प्रकृति के विविध रूपों में हुई। वह सर्वात्मवादी है। महादेवी जी ने इन रूपों को मानवीय व्यवहार में रूपांतरित किया।<>http://www.srijangatha.com/Hastakshar_Mar2k7<>
निधन
महादेवी वर्मा का निधन 22 सितम्बर, 1987, को प्रयाग में हुआ था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ