मगहर

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नाम की उत्पत्ति

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग को बेहिचक सन्तों की कर्मभूमि कहा जा सकता है । इसी भाग के प्रमुख शहर गोरखपुर के पश्चिम में लगभग तीस किलोमीटर दूर संत कबीर नगर जिला (5 सितम्बर 1997 में बस्ती जिला को तोड़ कर बना) में स्थित है मगहर । मगहर नाम के पीछे किंवदन्ती भी रोचक है । कहा जाता है कि प्राचीन काल में बौध्द भिक्षु इसी मार्ग से कपिलवस्तु, लुम्बिनी जैसे प्रसिध्द बौध्द स्थलों के दर्शन हेतु जाते थे पर अक्सर लूट लिए जाते थे । इस असुरक्षित रहे क्षेत्र का नाम इसी वजह से 'मार्ग-हर' अर्थात 'मार्ग में लूटने वाले से' पङ ग़या जो बिगड़ते-बिगडते मगहर हो गया ।

मगहर और कबीर

जब हम राष्ट्रीय राजमार्ग पर बस्ती से गोरखपुर की तरफ चलते है तो राष्ट्रीय राजमार्ग से दाहिने जाती हुई सडक़ पर उतर कर दो-ढाई किलोमीटर अंदर स्थित है कबीर का निर्वाण स्थल । मगहर का पूरा इलाका मेहनतकश तबकों से आबाद है और पूरी जिदंगी पाखण्ड और पलायन पर आधारित धर्म के विपरीत कर्म और अन्तर्दृष्टि पर आधारित धर्म पर जोर देने वाले कबीर के शरीर छोडने के लिए शायद इससे बेहतर इलाका नहीं हो सकता था । वैसे भी कबीर का मरना कोई साधारण रूप से मरना तो था नहीं-

जा मरने सो जग डरे, मेरे मन आनन्द, कब मरिहों कब भेटिहों, पूरण परमानन्द

कबीर के समय में काशी विद्या और धर्म साधना का सबसे बड़ा केन्द्र तो था ही, वस्त्र व्यवसायियों, वस्त्र कर्मियों, जुलाहों का भी सबसे बड़ा कर्म क्षेत्र था। देश के चारों ओर से लोग वहां आते रहते थे और उनके अनुरोध पर कबीर को भी दूर-दूर तक जाना पड़ता था।
मगहर भी ऐसी ही जगह थी। पर उसके लिए एक अंध मान्यता थी कि यह जमीन अभिशप्त है। कुछ आड़ंबरी तथा पाखंड़ी लोगों ने प्रचार कर रखा था कि वहां मरने से मोक्ष नहीं मिलता है। इसे नर्क द्वार के नाम से जाना जाता था, तथा जिसके बारे में लोकमान्यता थी कि वहां मरने वाला गदहा होता है।
सारे भारत में मुक्तिदायिनी के रूप में मानी जाने वाली काशी को वहीं अपने जीवन का अधिकांश भाग बिता चुके कबीर ने मरने से करीब तीन वर्ष पूर्व छोड दिया और ऐसा करते हुए कहा भी-

लोका मति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कौन निहोरा रे

उन्हीं दिनों मगहर में भीषण अकाल पड़ा। ऊसर क्षेत्र, अकालग्रस्त सूखी धरती, पानी का नामोनिशान नहीं। सारी जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। तब खलीलाबाद के नवाब बिजली खां ने कबीर को मगहर चल कर दुखियों के कष्ट निवारण हेतु उपाय करने को कहा। वृद्ध तथा कमजोर होने के बावजूद कबीर वहां जाने के लिए तैयार हो गये। शिष्यों और भक्तों के जोर देकर मना करने पर भी वह ना माने। मित्र व्यास के यह कहने पर कि मगहर में मोक्ष नहीं मिलता है, लेकिन स्थान या तीर्थ विशेष के महत्व की अपेक्षा कर्म और आचरण पर बल देने वाले कबीर ने काशी से मगहर प्रस्थान को अपनी पूरी जिंदगी की सीख के एक प्रतीक के रूप में रखा और स्पष्ट किया -

क्या काशी, क्या ऊसर मगहर, जो पै राम बस मोरा। जो कबीर काशी मरे, रामहीं कौन निहोरा

सबकी प्रार्थनाओं को दरकिनार कर उन्होंने वहां जा कर लोगों की सहायता करने और मगहर के सिर पर लगे कलंक को मिटाने का निश्चय कर लिया। उनका तो जन्म ही हुआ था रूढियों और अंध विश्वासों को तोड़ने के लिए।

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