सचिन देव बर्मन

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सचिन देव बर्मन हिन्दी और बांग्ला फ़िल्मों के प्रसिद्ध संगीतकार और गायक थे। (जन्म- 1 अक्तूबर, 1906, त्रिपुरा, बांग्लादेश, मृत्यु- 31 अक्तूबर, 1975, मुंबई)। सचिन देव बर्मन को एस. डी. बर्मन के नाम से भी जाना जाता है।[1]

जीवन परिचय

एस. डी. बर्मन का जन्म 1 अक्तूबर, 1906 को त्रिपुरा में हुआ था, जो कि बांग्लादेश में है। एस. डी. बर्मन के पिता त्रिपुरा के राजा ईशानचन्द्र देव बर्मन के दूसरे पुत्र थे। एस. डी. बर्मन नौ भाई-बहन थे। 1933 से 1975 तक बर्मन दा बंगाली व हिंदी फिल्मों में सक्रिय रहे। 1938 में एस. डी. बर्मन ने गायिका मीरा से विवाह किया व एक वर्ष बाद राहुल देव बर्मन का जन्म हुआ। एस. डी. बर्मन ने हिंदी फिल्मों में बहुत से दिल को छूने वाले कर्णप्रिय यादगार गीत दिये हैं।

अन्य नाम

एस. डी. बर्मन कोलकाता के संगीत प्रेमियों में 'सचिन कारता', मुम्बई के संगीतकारों के लिये 'बर्मन दा', बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के रेडियो श्रोताओं में 'शोचिन देब बोर्मोन', सिने जगत में 'एस.डी. बर्मन' और 'जींस' फिल्मी फ़ैन वालों में 'एस.डी' के नाम से प्रसिद्ध थे। एस. डी. बर्मन के गीतों ने हर किसी के दिल में अमिट छाप छोड़ी है। एस. डी. बर्मन के गीतों में विविधता थी। उनके संगीत में लोक गीत की धुन झलकती थी, वहीं शास्त्रीय संगीत का स्पर्श भी था। उनका संगीत जीवंत अपरंपरागत लगता था।

संगीत की शिक्षा

संगीत में एस. डी. बर्मन की रुचि बचपन से ही थी और संगीत की एस. डी. बर्मन ने विधिवत शिक्षा भी ली थी। हालांकि एस. डी. बर्मन का मानना था कि फिल्म संगीत शास्त्रीय संगीत का कौशल दिखाने का माध्यम नहीं है। सचिन देव बर्मन चुने गए गीतों में ही बेहतरीन धुन देने में विश्वास रखते थे। वह धुनों के दोहराए जाने को भी पसंद नहीं करते थे।[2]

शास्त्रीय संगीत की शिक्षा

शास्त्रीय संगीत की शिक्षा एस. डी. बर्मन ने अपने पिता व सितार-वादक नबद्वीप चंद्र देव बर्मन से ली। उसके बाद एस. डी. बर्मन उस्ताद बादल खान और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय के यहाँ शिक्षित हुए और इसी शिक्षा से उनमें शास्त्रीय संगीत की जड़ें पक्की हुई यह शिक्षा उनके संगीत में बाद में दिखाई भी दी।[3]

लोक संगीत

एस. डी. बर्मन अपने पिता की मृत्यु के पश्चात घर से निकल गये और असम व त्रिपुरा के जंगलों में घूमें। जहाँ पर उनको बंगाल व आसपास के लोक संगीत के विषय में अपार जानकारी हुई।[3]

मुरली वादक

एस. डी. बर्मन ने उस्ताद आफ़्ताबुद्दीन ख़ान के शिष्य बनकर मुरली वादन की शिक्षा ली। एस. डी. बर्मन मुरली वादक बने।

पाश्चात्य संगीत

हिंदी और बांग्ला फिल्मों में सचिन देव बर्मन ऐसे संगीतकार थे जिनके गीतों में लोकधुनों, शास्त्रीय और रवीन्द्र संगीत का स्पर्श था, वहीं एस. डी. बर्मन पाश्चात्य संगीत का भी बेहतरीन मिश्रण करते थे।[2]

फ़िल्मी सफर

हम है राही प्यार के,

हम से कुछ ना बोलिए।

जो भी प्यार से मिला,

हम उसी के हो लिए॥

एस. डी. बर्मन सरल और सहज शब्दों से अपनी धुनों को कुछ इस तरह सजाते थे कि उनका गीत हर दिल में गहरे उतर जाता था। मृदुभाषी बर्मन दा ने अपनी इसी प्रवृति को अपने संगीत, गीत और गायिकी में भी ढाला था और यह अंदाज आज भी श्रोताओं के दिल में उनके प्रति प्यार को जिंदा रखे हुए है।

एस. डी. बर्मन ने अपने जीवन के शुरुआती दौर में रेडियो द्वारा प्रसारित पूर्वोत्तर लोक संगीत के कार्यक्रमों में संगीतकार और गायक दोनों के रूप मे काम किया। एस. डी. बर्मन 10 वर्ष तक लोक संगीत के गायक के रूप मे अपनी पहचान बना चुके थे। सन 1944 में फ़िल्मिस्तान के शशाधर मुखर्जी के आग्रह पर 'बर्मन दा' अपनी इच्छा के विरुद्ध दो फिल्म, 'शिकारी' व 'आठ दिन' करने के लिये मुम्बई चले गये। लेकिन मुम्बई में काम करना आसान नहीं था। 'शिकारी' और 'आठ दिन' व बाद में 'दो भाई', 'विद्या' और 'शबनम' की सफलता के बाद भी दादा को पहचान बनाने में वक्त लगा। बर्मन ने इससे हताश होकर वापस कोलकाता जाने का निश्चय किया लेकिन अशोक कुमार ने उन्हें जाने से रोक लिया। और उन्होंने कहा-

"मशाल का संगीत दो, और फिर तुम आजाद हो"।

इसके बाद दादा ने फिर मोर्चा संभाला। मशाल का संगीत सुपरहिट हुआ। उसी वक्त देव आनंद, जिनकी सिने जगत में अच्छी पहचान थी व रुत्बा था, उन्होंने 'नवकेतन बैनर' की शुरुआत की और एस.डी.बर्मन को 'बाज़ी' का संगीत देने को कहा। 1951 की 'बाज़ी' हिट फ़िल्म थी, और फिर 'जाल' (1952), 'बहार' और 'लड़की' के संगीत ने बर्मन दा की सफलता की नींव रखी। बर्मन दा ने उसके बाद तो 1974 तक लगातार संगीत दिया।[3]

दर्जनों हिंदी फिल्मों में कर्णप्रिय यादगार धुन देने वाले सचिन देव बर्मन के गीतों में जहाँ रूमानियत है वहीं विरह, आशावाद और दर्शन की भी झलक मिलती है।

प्रतिभाशाली

भारतीय सिनेमा जगत में सचिन देव बर्मन को सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं संगीतकारों में शुमार किया जाता है। 'प्यासा', 'गाइड', 'बंदिनी', 'टैक्सी ड्राइवर', 'बाजी' और 'अराधना' जैसी फिल्मों के मधुर संगीत के जरिए एसडी बर्मन आज भी लोगों के दिलों दिमाग पर छाए हुए हैं। अपने करीब तीन दशक के फिल्मी जीवन में सचिन देव बर्मन ने लगभग 90 फिल्मों के लिये संगीत दिया।

गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ

बर्मन ने अपने फिल्मी सफर में सबसे यादा फिल्में गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ की। सिने सफर मे बर्मन दा की जोड़ी प्रसिद्ध संगीतकार साहिर लुधियानवी के साथ खूब जमी और उनके लिखे गीत जबर्दस्त हिट हुए। इस जोड़ी ने सबसे पहले फिल्म 'नौजवान' के गीत ठंडी हवाएँ लहरा के आए... के जरिए लोगो का मन मोहा। इसके बाद ही गुरुदत्त की पहली निर्देशित फिल्म 'बाजी' के गीत तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना दे... में एसडी बर्मन और साहिर की जोड़ी ने संगीत प्रेमियों का दिल जीत लिया। इसके बाद साहिर लुधियानवी और एस. डी. बर्मन की जोड़ी ने ये रात ए चांदनी फिर कहाँ.., जाएँ तो जाएँ कहाँ.., तेरी दुनिया में जीने से बेहतर हो कि मर जाएँ.. और जीवन के सफर में राही.., जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला.. जैसे गानों के जरिए दर्शकों को भावविभोर कर दिया। लेकिन एस. डी. बर्मन और साहिर लुधियानवी की यह सुपरहिट जोड़ी फिल्म 'प्यासा' के बाद अलग हो गई।[3]

गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के साथ

एस. डी. बर्मन की जोड़ी गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी के साथ भी खूब जमी। एस. डी. बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी की जोड़ी वाले गीत में कुछ माना जनाब ने पुकारा नहीं.., छोड़ दो आंचल जमाना क्या कहेगा.., है अपना दिल तो आवारा..। साहिर लुधियानवी और मजरूह सुल्तानपुरी के अलावा एस. डी. बर्मन के पसंदीदा गीतकारों में आनंद बख्शी, नीरज, गुलजार आदि प्रमुख रहे हैं जबकि उनके गीतों को स्वर देने मे लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी, किशोर कुमार और आशा भोंसले प्रमुख गायक रहे हैं।[3]


एक समय था जब त्रिपुरा का शाही परिवार उनके राजसी ठाठ छोड़ संगीत चुनने के खिलाफ़ था। दादा इससे दुखी हुए और बाद में त्रिपुरा से नाता तोड़ लिया। आज त्रिपुरा का शाही परिवार एस. डी. बर्मन के लिये जाना जाता है। |}

गायक

बर्मन दा ने संगीत निर्देशन के अलावा कई फिल्मों के लिए गाने भी गाए। इन फिल्मों में सुन मेरे बंधु रे सुन मेरे मितवा, मेरे साजन है उस पार, अल्लाह मेघ दे छाया दे, जैसे गीत आज भी दर्शकों को भाव विभोर करते है। एस. डी. बर्मन ने फिल्म अभिनेता निर्माता और निर्देशक देवानंद की फिल्मों के लिए सदाबहार संगीत देकर उनकी फिल्मो को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थीं।

प्रसिद्ध संगीत

बर्मन दादा ने अपने बेटे पंचम और नासिर हुसैन के साथ सबसे अधिक हिट गानों में संगीत दिया है। बर्मन दादा का स्वयं में अटूट विश्वास था और बर्मन दादा अपने गीत चुनने के लिये जाने जाते थे। वे हमेशा कहते- मैं केवल अच्छे गाने निर्देशित करता हूँ। बर्मन दा अधिक मात्रा में संगीत देने की बजाय खुद चुने हुए गीतों में संगीत देते थे और इसी बात के लिये वे जाने भी जाते थे। एक समय था जब संगीत गाने के बोल के आधार पर दिया जाता था। इस तरीके को दादा ने बदला। अब गीत के बोल संगीत की धुन पर लिखे जाने लगे। दादा तुरंत धुने तैयार करने में माहिर थे, और इन धुनों में लोक व शास्त्रीय दोनों प्रकार के संगीत का मिश्रण था। बर्मन दादा व्यवसायीकरण में हिचकते थे पर वे ये भी चाहते थे कि गाने की धुन ऐसी हो कि कोई भी इसे आसानी से गा सके। जहाँ जरूरत पड़ी उन्होंने सुंदर शास्त्रीय संगीत भी दिया। लेकिन वे कहते थे कि फिल्म संगीत वो माध्यम नहीं है जहाँ आप शास्त्रीय संगीत का कौशल दिखाये।

बतौर गायक तैयार

लता मंगेशकर ने बर्मन दादा के साथ रिकार्ड करने के लिये मना किया उसके बाद उन्होंने आशा भोंसले व गीता दत्त के साथ एक के बाद एक कईं हिट गाने दिये। बर्मन दादा ने आशा भोंसले, किशोर कुमार और हेमंत कुमार को भी बतौर गायक तैयार किया। उन्होंने रफी से सॉफ्ट गाने गवाये जब अन्य संगीतकार उनसे हाई पिच गीत गाने को कह रहे थे। बर्मन दा की हमेशा कोशिश रहती कि एक बार जो संगीत उन्होंने दिया उसको अगले किसी भी गाने में दोहराया न जाये। इसी वजह से उनके किसी भी गाने में ऐसा कभी नहीं लगा कि पहले भी किसी गाने में दिया गया हो।

संगीत विद्यालय की स्थापना

सन 1930 के दशक में उन्होंने कोलकाता में "सुर मंदिर" नाम से अपने संगीत विद्यालय की स्थापना करी। वहाँ बर्मन दादा गायक के तौर पर प्रसिद्ध हुए और के.सी. डे की सान्निध्य में काफ़ी कुछ सीखने को मिला। उन्होंने राज कुमार निर्शोने के लिये 1940 में एक बंगाली फिल्म में संगीत भी दिया।[3]

पुरस्कार

दादा को प्रतिष्ठित सम्गीत 'नाटक अकादमी अवार्ड' व 'पद्मश्री' से भी सम्मानित किया गया। उन्हें आराधना(1961) के गाने काहे को रोए के लिये 'नैशनल अवार्ड' भी दिया गया। इससे पहले 1934 में कोलकाता में उन्हें अखिल बंगाल शास्त्रीय संगीत समारोह में 'गोल्ड मैडल' दिया गया।

मृत्यु

दादा को 1974 में लकवे का आघात लगा जिसके बाद 31 अक्तूबर, 1975 को बर्मन दादा का निधन हो गया। एक समय था जब त्रिपुरा का शाही परिवार उनके राजसी ठाठ छोड़ संगीत चुनने के खिलाफ़ था। दादा इससे दुखी हुए और बाद में त्रिपुरा से नाता तोड़ लिया। आज त्रिपुरा का शाही परिवार एस. डी. बर्मन के लिये जाना जाता है।[3]

स्मारक

अगरतला में एक पुल एस. डी. बर्मन की याद में समर्पित किया गया है। एस.डी. बर्मन के नाम से अगरतला में हर साल उभरते हुए कलाकारों को अवार्ड दिये जाते हैं। और मुम्बई की सुर सिंगार अकादमी भी फिल्म संगीतकारों को एस. डी. बर्मन अवार्ड देती है।


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टीका टिप्पणी और संदंर्भ

  1. सचिन देव बर्मन (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 24 अक्तूबर, 2010
  2. 2.0 2.1 बर्मन दा (हिन्दी) आज तक। अभिगमन तिथि: 24 अक्तूबर, 2010
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 3.4 3.5 3.6 यादें एस. डी. बर्मन (हिन्दी) (एच टी एम एल) आवाज़। अभिगमन तिथि: 24 अक्तूबर, 2010सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; "आवाज़" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है