मुहम्मद

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क़ुरआन ने कहीं भी हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को ‘इस्लाम धर्म का प्रवर्तक’ नहीं कहा है। क़ुरआन में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का परिचय नबी (ईश्वरीय ज्ञान की ख़बर देने वाला), रसूल (मानवजाति की ओर भेजा गया), रहमतुल्-लिल-आलमीन (सारे संसारों के लिए रहमत व साक्षात् अनुकंपा, दया), हादी (सत्यपथ-प्रदर्शक) आदि शब्दों से कराया है। स्वयं पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) ने इस्लाम धर्म के ‘प्रवर्तक’ होने का न दावा किया, न इस रूप में अपना परिचय कराया। आप (सल्ल॰) के एक कथन के अनुसार ‘इस्लाम के भव्य भवन में एक ईंट की कमी रह गई थी, मेरे (ईशदूतत्व) द्वारा वह कमी पूरी हो गई और इस्लाम अपने अन्तिम रूप में सम्पूर्ण हो गया’ (आपके कथन का भावार्थ।) इससे सिद्ध हुआ कि आप (सल्ल॰) इस्लाम धर्म के प्रवर्तक नहीं हैं। (इसका प्रवर्तक स्वयं अल्लाह है, न कि कोई भी पैग़म्बर, रसूल, नबी आदि)। और आप (सल्ल॰) ने उसी इस्लाम का आह्वान किया जिसका, इतिहास के हर चरण में दूसरे रसूलों ने किया था। इस प्रकार इस्लाम का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मानवजाति और उसके बीच नियुक्त होने वाले असंख्य रसूलों के सिलसिले (श्रृंखला) का इतिहास।[1]

जीवन परिचय

जन्म के पूर्व ही पिता की और पाँच वर्ष की आयु में माता की मृत्यु हो जाने के फलस्वरूप उनका पालन-पोषण उनके दादा मुतल्लिब और चाचा अबू तालिब ने किया था। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने ख़दीजा नामक एक विधवा से विवाह किया। मोहम्मद साहब के जन्म के समय अरबवासी अत्यन्त पिछडी, क़बीलाई और चरवाहों की ज़िन्दगी बिता रहे थे। अतः मुहम्मद साहब ने उन क़बीलों को संगठित करके एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रयास किया। 15 वर्ष तक व्यापार में लगे रहने के पश्चात वे कारोबार छोड़कर चिन्तन-मनन में लीन हो गये। मक्का के समीप हिरा की चोटी पर कई दिन तक चिन्तनशील रहने के उपरान्त उन्हें देवदूत जिबरील का संदेश प्राप्त हुआ कि वे जाकर क़ुरान शरीफ़ के रूप में प्राप्त ईश्वरीय संदेश का प्रचार करें। तत्पश्चात उन्होंने इस्लाम धर्म का प्रचार शुरू किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया, जिससे मक्का का पुरोहित वर्ग भड़क उठा और अन्ततः मुहम्मद साहब ने 16 जुलाई 622 को मक्का छोड़कर वहाँ से 300 किमी. उत्तर की ओर यसरिब (मदीना) की ओर कूच कर दिया। उनकी यह यात्रा इस्लाम में 'हिजरत' कहलाती है। इसी दिन से 'हिजरी संवत' का प्रारम्भ माना जाता है। कालान्तर में 630 ई0 में अपने लगभग 10 हज़ार अनुयायियों के साथ मुहम्मद साहब ने मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और वहाँ इस्लाम को लोकप्रिय बनाया। दो वर्ष पश्चात 632 ई. को उनका निधन हो गया।

जन्म

इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब थे, जिनका जन्म 570 ई. को सउदी अरब के मक्का नामक स्थान में कुरैश क़बीले के अब्दुल्ला नामक व्यापारी के घर हुआ था। ऐसे अन्धकार के समय अरब के प्रधान नगर बक्का (मक्का) में अब्दुल्मतल्लब के पुत्र की भार्या ‘आमना’ के गर्भ से स्वनामधन्य महात्मा मुहम्मद 617 विक्रम संवत में उत्पन्न हुए। इनका वंश ‘हासिन’ वंश के नाम से प्रसिद्ध था। जब अभी यह गर्भ ही में थे कि इनके पिता स्वर्गवासी हुए। माता और पितामह का बालक पर असाधारण स्नेह था। एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने वाले बद्दू लोगों की स्त्रियों को पालने के लिए अपने बच्चों को दे देना मक्का के नागरिकों की प्रथा थी। एक समय ‘साद’ वंश की एक बद्दू स्त्री ‘हलीमा’ मक्का में आई। उनको कोई और बच्चा नहीं मिला था जिससे जब धनहीन ‘आमना’ ने अपने पुत्र को सौपने को कहा, तो उसने यह समझ कर स्वीकार कर लिया कि खाली हाथ जाने से जो ही कुछ पल्ले पड़ जाय, वही अच्छा। हलीमा ने एक मास के शिशु मुहम्मद को लेकर अपने डेरे को प्रस्थान किया। इस प्रकार बालक मुहम्मद 4 वर्ष तक बद्दू-गृह में पलता रहा। पीछे वह फिर अपनी स्नेहमयी माता की गोद में आया। एक समय सती ‘आमना’ ने कुटुम्बियों से भेंट करने के लिए बालक मुहम्मद के साथ अपने मायके ‘मदीना’ को प्रस्थान किया।

मौहतरमा आमना का स्वर्गारोहण

मदीना से लौटने पर मार्ग में ‘अव्बा’ नामक स्थान पर पितृछाया-विहीन बालक मुहम्मद को अमृततुल्य मातृ-करस्पर्श से भी वंचित कर देवी ‘आमना’ ने स्वर्गारोहण किया। बहू और पुत्र के वियोग से खिन्न पितामह ‘अब्दुल्मतल्लब’ ने वात्सल्यपूर्ण हृदय से पौत्र के पालन-पोषण का भार अपने ऊपर लिया, किन्तु भाग्य को यह भी स्वीकृत नहीं था और मुहम्मद को 8 वर्ष का छोड़कर वह भी काल के गाल में चले गये। मरते समय उन्होंने अपने पुत्र ‘अबूतालिब’ को बूला कर करुण स्वर में आदेश दिया कि मातृ-पितृ-विहीन वत्स मुहम्मस को पुत्र समान जानना।

महात्मा मुहम्मद ने ‘अबूतालिब’ को प्रेमपूर्ण अभिभावकता में कभी वन में ऊँट-बकरी चराते तथा कभी साथियों के साथ खेलते-कूदते अपने लड़कपन को सानन्द बिताया। जब वह 12 वर्ष के थे और उनके चाचा व्यापार के लिए बाहर जाने वाले थे, तब उन्होंने साथ चलने के लिए बहुत आग्रह किया। चाचा ने मार्ग के कष्ट का ख्याल कर इसे स्वीकार न किया। जब चाचा ऊँट लेकर घर से निकलने लगें, तो भतीजे ने ऊँट की नकेल पकड़ कर रोते हुए कहा- “चाचाजी, न मेरे पिता हैं, न माँ। मुझे अकेले छोड़ कर कहाँ जाते हो। मुझे भी साथ ले चलो।“ इस बात से अबूतालिब का चित्त इतना द्रवित हुआ कि वह अस्वीकार न कर सके और साथ ही मुहम्मस को भी लेकर ‘शाम’ की ओर प्रस्थित हुए। इसी यात्रा में बालक ने स्व्रीष्ठ-तपोधन ‘बहेरा’ का प्रथम दर्शन पाया।

विवाह

जन-प्रवाद है कि अशाधारण प्रतिभाशाली महात्मा मुहम्मद आजीवन अक्षर-ज्ञान से रहित रहे। व्यवहार-चतुरता, ईमानदारी आदि अनेक सद्गुणों के कारण कुरैश-वंश की एक समृद्धिशालिनी स्त्री ‘खदीजा’ ने अपना गुमाश्ता बनाकर 25 वर्ष की अवस्था में नवयुवक मुहम्मद से ‘शाम’ जाने के लिए कहा। उन्होंने इसे स्वीकार कर बड़ी योग्यतापूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह किया। इसके कुछ दिनों बाद ‘खदीजा’ ने उनके साथ ब्याह करने की इच्छा प्रकट की। यद्यपि ‘खदीजा’ की अवस्था 40 वर्ष की थी ; उसके दो पति पहले भी मर चुके थे ; किन्तु उसके अनेक सद्गुणों के कारण महात्मा मुहम्मद ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया।

तत्कालीन मूर्तियाँ

‘हुब्ल’, ‘लात्’, ‘मनात्’ ‘उज्ज’ आदि भिन्न-भिन्न अनेक देव-प्रतिमाएँ उस समय अरब के प्रत्येक कबील में लोगों की इष्ट थीं। बहुत पुराने समय में वहाँ मूर्तिपूजा न थी। ‘अमरू’ नामक काबा के एक प्रधान पुजारी ने ‘शाम’ देश में सुना कि इसकी आराधना से दुष्काल से रक्षा और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है। उसी ने पहले-पहल ‘शाम’ से लाकर कुछ मूर्तियाँ काबा के मन्दिर में स्थापित कीं। देखादेखी इसका प्रचार इतना बढ़ा कि सारा देश मूर्तिपूजा में निमग्न हो गया। अकेले ‘काबा’ मन्दिर में 360 देवमूर्तियाँ थीं, जिनमें हुब्ल-जो छत पर स्थापित था - कुरेश - वंशियों का इष्ट था। ‘जय[2] हुब्ल’ उनका जातीय घोष था। लोग मानते थे कि ये मूर्तियाँ ईश्वर को प्राप्त कराती हैं, इसीलिए वे उन्हें पूजते थे। अरबी में ‘इलाह’ शब्द देवता और उनकी मूर्तियों के लिए प्रयुक्त होते है; किन्तु ‘अलाह’ शब्द ‘इस्लाम’ काल से पहले उस समय भी एक ही ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता था।

श्रीमती ‘खदीजा’ और उनके भाई ‘नौफ़ल’ मूर्तिपूजा - विरोधी यहूदी धर्म के अनुयायी थे। उनके और अपनी यात्राओं में अनेक शिष्ट महात्माओं के सत्संग एवं लोगों के पाखण्ड ने उन्हें मूर्तिपूजा से विमुख बना दिया। वह ईसाई भिक्षुओं की भाँति बहुधा ‘हिरा’ की गुफा में एकान्त-सेवन और ईश्वर - प्रणिधान के लिए जाया करते थे। ‘इका बि-इस्मि रब्बिक’ (पढ़ अपने प्रभु के नाम के साथ) यह प्रथम क़ुरान वाक्य पहले वहीं पर देवदूत ‘जिब्राइल’ द्वारा महात्मा मुहम्मद के हृदय में उतारा गया। उस समय देवदूत के भयंकर शरीर को देखकर क्षण भर के लिए वह मूर्च्छित हो गये थे। जब उन्होंने इस वृत्तान्त को श्रीमती ‘ख़दीजा’ और ‘नौफ़ल’ को सुनाया तो उन्होंने कहा- अवश्य वह देवदूत था जो इस भगवत्वाक्य को लेकर तुम्हारे पास आया था। इस समय महात्मा मुहम्मद की आयु 40 वर्ष की थी। यहीं से उनकी पैगम्बरी (भगवतता) का समय प्रास्म्भ होता है।

इस्लाम का प्रचार और कष्ट

ईश्वर के दिव्य आदेश को प्राप्त कर उन्होंने मक्का के दाम्भिक और समागत यात्रियों को क़ुरान का उपदेश सुनाना आरम्भ किया। मेला के ख़ास दिनों (‘इह्राम’ के महीनों) में दूर से आयें हुए तीर्थ-यात्रियों के समूह को छल-पाखण्डयुक्त लोकाचार और अनेक देवताओं की अपासना का खण्डन करके, वह एक ईश्वर (अल्लाह) की उपासना और शुद्ध तथा सरल धर्म के अनुष्ठान का उपदेश करते थे। ‘क़ुरैशी’ लोग अपने इष्ट, आचार और आमदनी की इस प्रकार निन्दा और उस पर इस प्रकार का कुठाराघात देखकर भी ‘हाशिम’- परिवार की चिरशत्रुता के भय से उन्हें मारने की हिम्मन न कर सकते थे। किन्तु इस नवीन धर्म-अनुयायी, दास-दासियों को तप्त बालू पर लिटाते, कोड़े मारते तथा बहुत कष्ट देते थे; तो भी धर्म के मतवाले प्राणपण से अपने धर्म को न छोड़ने के लिए तैयार थे। इस अमानुषिक असह्य अत्याचार को दिन पर दिन बढ़ते देख कर अन्त में महात्मा ने अनुयानियों को ‘अफ्रीका’ खण्ड के ‘हब्स’ नामक राज्य में- जहाँ का राजा बड़ा न्यायपरायण था- चले जाने की अनुमति दे दी। जैसे-जैसे मुसलमानों की संख्या बढ़ती जाती थी, ‘क़ुरैशी’ का द्वेष भी वैसे-वैसे बढ़ता जाता था; किन्तु ‘अबूतालिब’ के जीवन-पर्यन्त खुलकर उपद्रव करने की उनकी हिम्मत न होती थी। जब ‘अबूतालिब’ का देहान्त हो गया तो उन्होंने खुले तौर पर विरोध करने पर कमर बाँधी।

मदीना-प्रवास

अब महात्मा मुहम्मद की अवस्था 53 वर्ष की थी। उनकी स्त्री श्रीमती ‘खदीजा’ का देहान्त हो चुका था। एक दिन ‘क़ुरैशियों’ ने हत्या के अभिप्राय से उनके घर को चारों ओर से घेर लिया, किन्तु महात्मा को इसका पता पहले से ही मिल चुका था। उन्होंने पूर्व ही वहाँ से ‘यस्रिब’ (मदीना) नगर को प्रस्थान कर दिया था। वहाँ के शिष्य-वर्ग ने अति श्रद्धा से गुरु सुश्रुषा करने की प्रार्थना की थी। पहुँचने पर उन्होंने महात्मा के भोजन, वासगृह आदि का प्रबन्ध कर दिया। जब से उनका निवास ‘यास्रिब’ में हुआ, तब से नगर का नाम ‘मदीतुन्नबी’ या नबी का नगर प्रख्यात हुआ। उसी को छोटा करके आजकल केवल ‘मदीना’ कहते है। ‘क़ुरान’ में तीस खण्ड हैं और वह 114 ‘सूरतों’ (अध्यायों) में भी विभक्त है।[3] निवास-क्रम से प्रत्येक सूरत ‘मक्की’ या ‘मद्नी’ नाम से पुकारी जाती है, अर्थात मक्का में उतरी ‘सूरतें’ ‘मक्की’ और मदीना में उतरी ‘मद्नी’ कही जाती है।

मुहम्मद अन्तिम पैग़म्बर

"जो कोई परमेश्वर और उसके प्रेरित की आज्ञा न माने, उसको सर्वदा के लिए नरक की अग्नि है।"[4] महात्मा मुहम्मद के आचरण को आदर्श मानकर उसे दूसरों के लिए अनुकरणीय कहा गया है। "तुम्हारे लिए प्रभु–प्रेरित का सुन्दर आचरण अनुकरणीय है।"[5] यह कह ही आए हैं कि अरब के लोग उस समय एकदम असभ्य थे। उन्हें छोटे–छोटे से लेकर बड़े–बड़े आचार और सभ्यता–सम्बन्धी व्यवहारों को भी बतलाना पड़ता था। उनको गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, बड़े-छोटे के सम्बन्ध का भी विशेष विचार नहीं था। महात्मा मुहम्मद को गुरु और प्रेरित स्वीकार करने पर उनका यही मुख्य सम्बन्ध मुसलमानों के साथ है, न कि भाईबन्दी, चचा-भतीजा वाला पहला सम्बन्ध; यथा- "मुहम्मद तुम पुरुषों में से किसी का बाप नहीं, वह प्रभु-प्रेरित और सब प्रेरितों पर मुहर (अन्तिम) है।"[6] 'मुसलमानों का उस (मुहम्मद) के साथ प्राण से भी अधिक सम्बन्ध है और उसकी स्त्रियाँ तुम्हारी (मुसलमानों) की माताएँ हैं।'

महात्मा मुहम्मद और उनके सम्बन्धी

क़ुरान में अनेक वाक्य महात्मा मुहम्मद के परिवार, इस्लाम धर्म में उनकी स्थिति आदि के सम्बन्ध में भी कहे गए हैं। अपने धर्म प्रवर्त्तकों को अल्लाह या उसका अवतार बना डालना धर्मानुयायियों का स्वभाव है। इसीलिए क़ुरान में "(मुहम्मद) प्रेरित के अतिरिक्त कुछ नहीं"[7] वाक्य बार–बार दुहराया गया है। महात्मा मुहम्मद के प्रभु–प्रेरित होने के विषय में निम्नलिखित क़ुरान के उदगार हैं— "जिसके पास 'तौरात'[8] और 'इंजील'[9] में से उद्धरण है, जिसका उपदेश पुण्य कर्म के लिए है और निषेध पाप कर्म के लिए। जो पवित्र (वस्तु) को भक्ष्य (हलाल) और अपवित्र को अभक्ष्य (हराम) करता है। जो उन (धर्मानुयायियों) से उनके ऊपर भार और फन्दों को अलग करता है, उस निरक्षर प्रेरित ऋषि के जो अनुयायी, विश्वासी तथा सहायक हैं, और उसके साथ उतरे प्रकाश (क़ुरान) का अनुसरण करते हैं, वही पुण्य के भागी हैं।" (7:19:6)

महात्मा का सम्मान

"मैं मुहम्मद तुम्हारे सब के पास उस अल्लाह का भेजा हुआ (प्रेरित) हूँ, जिसका शासन पृथ्वी और आकाश दोनों में है।"[10]

"कह, मैं नया प्रेरित नहीं हूँ...जो कुछ अल्लाह मेरे पास भेजता है, मैं उसी का अनुसरण करता हूँ। मंगल और अमंगल का सुनने वाला छोड़ मैं कुछ नहीं हूँ।"[11]

इस्लाम में यद्यपि महात्मा मुहम्मद अल्लाह के अवतार नहीं माने गए, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान कम है। कहा है—

"तेरे (मुहम्मद के) साथ–साथ हाथ मिलाने वाले अल्लाह के साथ हाथ मिलाते हैं। (मुहम्मद का हाथ नहीं) अल्लाह का हाथ उनके हाथों में हैं।"[12]

मृत्यु

मदीना में अभी वह अधिक दिन तक शान्तिपूर्वक विश्राम न कर सके थे कि वहाँ भी क़ुरैश उन्हें कष्ट पहुँचाने लगे। अन्त में आत्मरक्षा का कोई अन्य उपाय न देख क़ुरैश और उनकी कुमंत्रणा में पड़े हुए ‘मदीना’- निवासी यहूदियों के साथ उन्हें अनेक युद्ध करने पड़े, जिनकी समाप्ति ‘मक्का-विजय’ और ‘काबा’ को मूर्तिरहित करने के साथ हुई। जन्म –नगरी के विजय करने पर भी मदीना-निवासियों के स्नेहपाश में बद्ध हो महात्मा ने अपने शेष जीवन को मदीना में ही व्यतीत किया। उनके जीवन में ही सारा अरब एक राष्ट्र और एक धर्म के सूत्र में आबद्ध हो इस्लाम-धर्म में प्रविष्ट हो गया। 63 वर्ष की अवस्था में इस प्रकार महात्मा मुहम्मद अपने महान् जीवनोद्देश्य को पूर्ण कर शिष्य जनों को अपने वियोग से दुःखसागर में मग्न करते मृत्यु को प्राप्त हुए। ‘क़ुरान’ के भाव समझने में पद-पद पर उस समय की परिस्थिति और घटना अपेक्षित है। उसे स्पष्ट करने के लिए तत्कालीन और प्राचीन अरब की दशा के साथ महात्मा की संक्षिप्त जीवनी भी आवश्यक है, जैसा कि अगले पृष्ठों से पता लगेगा। इसलिए यहाँ इसके विषय से कुछ करना पड़ा। 40वें वर्ष में ‘इक्रा बि इस्मि रब्बिक’ से लेकर मरने के 17 दिन (किसी-किसी के मत से 12 दिन) पूर्व ‘रब्बिकल् अक्रम’ (प्रभु तू अति महान् है) दस वाक्य के उतरने तक, जो कुछ दिव्योपदेश महात्मा मुहम्मद द्वारा प्रचारित हुआ, उसी का संग्रह क़ुरान के नाम से प्रसिद्ध, मुसलमानी धर्म का स्वतः प्रमाण ग्रन्थ है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस्लाम का इतिहास (हिन्दी) इस्लाम धर्म। अभिगमन तिथि: 2 दिसंबर, 2010
  2. ‘अलल्-हुब्ल’
  3. प्रत्येक अध्याय में अनेक ‘रकूअ’ और प्रत्येक ‘रकूअ’ में अनेक ‘आयते’ होती हैं।
  4. (72:2:4)
  5. (33:3:1)
  6. (33:5:6)
  7. (3:15:1)
  8. मूसा को दिया गया ईश्वरीय ग्रन्थ, यहूदियों की धर्म पुस्तक।
  9. ईसा को दिया गया ईश्वरीय ग्रन्थ, ईसाईयों की धर्म पुस्तक।
  10. (7:20:1)
  11. (46:1:9)
  12. (48:1:10)